Sunday, August 31, 2014

चीन -जापान और भारत

अब चीन और जापान की जनता बुद्ध की नहीं पूँजी की भक्त है

अतीत में समाज को सक्रिय करने में धर्म     की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी और अब भी है .एक विकासशील- संक्रमणशील समाज में न तो कुछ भी एकदम खत्म हो जाता है न शुरू होता है .एक मिलाजुला मानस लम्बे समय तक चलता रहता है .उसी तरह इनमें टकराव और सहकार भी .इतिहास,संस्कृति ,शिक्षा आदि सभी क्षेत्रों में यही स्थिति रहती है .इसीलिए आधुनिक प्रौद्योगिकी और संस्कृति के जटिल सम्बन्धों पर विचार करने वाले चिंतकों ,थिंक टैंकों और रणनीतिकारों कि निगाह में आर्थिक पक्षों के बजाय अन्य पक्षों का कम महत्व नही होता .

भारत का इतिहास उसके वर्तमान पर इसीलिए भारी पड़ता है क्योंकि उसके बिना कोई बात नहीं हो सकती .केवल व्यापार की सीमित समझ के चलते अन्य देशों के साथ हमारा रिश्ता स्थायी नहीं हो सकता .भारत और पाकिस्तान के सम्बन्ध चीन ,जापान और दक्षिण एशिया के देशों की तरह नहीं निभाए जा सकते .विभाजन और 1962 को एक ही पलड़े में नहीं रखा जा सकता .पश्चिम एशिया के देशों के साथ सम्बन्धों में भी यही जटिलता मौजूद है .इसराइल –फिलिस्तीन और ईरान –इराक को सीधी –सरल रेखा कि तरह नहीं लिया जा सकता .
तेजी से बदलती दुनिया में निर्णय भी विवेकपूर्ण  तेजी से किये जाने चाहिए ताकि आंतरिक –बाह्य संतुलन बना रहे .शीर्ष नेतृत्व और  उसके सलाहकारों के बीच सही तालमेल के बिना यह सम्भव नहीं है .यूपीए गठ्बन्धन में सदस्य दलों के भ्रष्टाचार को न रोक पाने के कारण ही मनमोहनसिंह जैसा अर्थशास्त्री फेल हो गया क्योंकि सख्त निर्णय वह कर नहीं सकते थे . अमेरिकी  परमाणु बिजली संयंत्रों की स्वीकृति को लेकर  वामपंथी दलों की समर्थन वापसी का यह दुखद परिणाम था .
उसी असफलता के कारण मध्यवर्गीय मोहभंग और जनाक्रोश ने सत्ता बदलकर दक्षिण पंथियों को अविश्वसनीय बहुमत दे दिया .अल्पसंख्यक वोट बैंक सत्ता संतुलन को नहीं साध सके .
सत्ता हासिल करने के बाद मोदी को दल से जैसे एकाधिकार मिल गया –जो चाहो सो करो वाला .इसकी झलक उनके मन्त्रिमण्डल में साफ तौर पर दिखती है .उनकी एकाधिकारवादी शैली ने मंत्रियों में भी भय पैदा कर दिया है .यह यकायक किसी भावी आपातकाल कि तैयारी तो नहीं .उनकी यात्राओं की रणनीति और भाव –भंगिमाओं के भी अर्थ और अनर्थ हो रहे हैं .कुर्तों ,जैकटों ,चश्मों के डिजायनों के चर्चे भी कम नहीं .नकलें भी शुरू हो चुकी हैं –ब्राण्डों की तरह.जैसे वह आदमी नहीं कोई दिव्य अवतार हों .अवतारप्रिय राजतन्त्र की आदी जनता को जैसे खोजा नसीरुद्दीन –तेनालीराम-हातिमताई टाइप सुपरमैन मिल गया हो .उसका हर काम जैसे दैवीय हो .मीडिया की प्रस्तुति उसे और भव्य बनाती हो .
 अहिंसा और धर्म प्रचार से विश्व को मानवीय बनाने का प्रयास करने वाले बुद्ध ने चीन ,जापान और दक्षिण एशिया के सभी देशों में जगह बनाई .नेहरूजी  ने इसी भ्रम में पंचशील को अपनाया कि उन्हें राजनीति में इसकी जरूरत है ,लेकिन सबसे पहले चीन ने धोखा दिया 1962 में युद्ध छेड़कर.इस झटके से नेहरूजी उबर नहीं पाये.यहीं से वह गांठ पड गयी जो आज तक टीसती है .चीन ने तिब्बत के साथ जो किया वह भी भारत पर बोझ है जो आज तक उतरने का नाम नहीं लेता .क्या मोदी इस गांठ को खोलकर सुलझा पाएंगे ?चीन में माओ कि सांस्कृतिक क्रांति ने जो माहौल खड़ा किया और चीन का चेयरमैन हमारा चैयरमैन का नक्सलवादी नारा भारत में गूंजा ,उसकी ध्वनि आज भी रेड कोरिडोर के रूप में मौजूद है .क्या सलवा जुडूम इसका हल है ?
जहाँ तक जापान से भारत का सम्बन्ध है ,वह सांस्कृतिक कम तकनीकी ज्यादा है . आम भारतीय के मन में चीनी उत्पादों की तुलना में जापानी उत्पादों की गुणवत्ता और विश्वसनीयता अधिक टिकाऊ है .वहां चीन की तरह की कोई सांस्कृतिक क्रांति भी नहीं हुई है .मारुति को कोई भारतीय  जापानी कार मानता ही नहीं ,सोनी ,निकोन की तरह  और मेट्रो ने तो जिन्दगी का नक्शा और नजरिया ही बदल दिया है .नेताजी का हादसा न हुआ होता तो शायद भारतीय राजनीति की पटकथा ही अलग होती . इस मामले में मोदी को कांग्रेस जैसी कोई दुविधा नहीं है .इसलिए जापान हमारे लिए रूस कि तरह विश्वसनीय मित्र देश है .