Friday, February 16, 2024

रामराज्य: सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और भारतीय भाषाएं

रामराज्य:सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और भारतीय भाषाएं 

# मूलचंद्र गौतम 

सतयुग की तरह रामराज्य को एक मिथकीय परिकल्पना ही मान लें तो क्या उसकी वास्तविकता से बचा जा सकता है?फिर भी राम रावण के पक्ष तत्कालीन समाज में धर्म और नैतिकता की कुछ सर्वमान्य धारणाओं को तो सामने लाते ही हैं।इस मायने में प्रमुख रूप से वाल्मीकि और तुलसी के रामराज्य की तुलना से भी दोनों के बीच का अंतर यह साफ करने के लिए काफी है कि उनकी असमानताएं रामराज्य को मात्र परिकल्पना तक सीमित नहीं रहने देतीं । वहां विसंगतियां प्राय: मौजूद नहीं हैं। सबका साथ सबका विश्वास और सहकार , सह अस्तित्व विद्यमान है।तुलसी के रामचरित मानस के उत्तरकांड और कवितावली में कलिकाल के वर्णन में वर्तमान समाज और मुगल शासन व्यवस्था की विसंगतियां साफ साफ दिखाई देती हैं जिनका अस्तित्व केवल कल्पना तक सीमित नहीं है।तुलसी एक तरह से उनका समाधान रामराज्य की स्थापना में देखते हैं। गांधी तक आते आते रामराज्य का एक अलग परिवर्तित रूप सामने आता है जहां ईश्वर के साथ अल्लाह जुड़ कर सर्वधर्म समन्वय स्थापित करता है।हिंदी और उर्दू का विवाद उन्हें हिंदुस्तानी की ओर ले जाता है जो केवल भाषा तक सीमित न होकर संस्कृति से भी जुड़ता है।विभाजन की विभीषिका से इन विवादों का गहरा संबंध है जो आज तक कायम है और नासूर की तरह रह रह कर फूट पड़ता है। संविधान भी इन विसंगतियां को दूर करने में अक्षम है।तमाम तरह के संशोधनों के बावजूद अभी तक अन्य संशोधनों की जरूरत इसका प्रमाण है।

रामराज्य की इस बहुआयामी लोकतांत्रिक चुनावी मुख्य धारा के बीच जिस भाजपाई सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का जन्म होता है वह रामराज्य का संकुचित संस्करण है ।उससे हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र जैसी संकीर्ण धारणाएं पनपती हैं जहां अन्य धार्मिक पंथों का दर्जा दोयम है।कांग्रेस की तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की सत्ता की राजनीति में तुष्टिकरण के आरोप और आक्षेपों से आहत जनमानस में अतिवादी हिंदू राजनीति का वर्चस्व और उभार की स्थापना और स्वीकृति  जैसे गांधी  और उनके तथाकथित उत्तराधिकारियों के खोखले समन्वित रामराज्य और हिंद स्वराज की अप्रासंगिकता है जिनके लिए गांधी सिर्फ एक सुविधाजनक मुखौटे तक सीमित रह गए थे , सत्ता प्राप्ति के साधन मात्र। मूल में रामराज्य ज्यों का त्यों है लेकिन मंडल और कमंडल की राजनीति के द्वंद्व के बीच मस्जिद और चर्च को छोड़कर मध्यमार्ग से कमंडल की ओर अग्रसर । गांधी की  मध्यमार्गी कांग्रेस का मजबूत हिंदूवादी राजनीतिक विपक्ष और विकल्प। धारा 370 के संशोधन और राम मंदिर की स्थापना का प्रस्थान बिंदु कमंडल के वर्चस्व के प्रमाण हैं।यह यात्रा अनिवार्य रूप से मथुरा काशी तक जायेगी ही परिणाम चाहे जो हों।

इस पूरी यात्रा में भारतीय संस्कृति और उसके प्रमुख उपकरण भाषाओं की अनवरत उपेक्षा हुई है। दार्शनिक प्रतिपत्तियों के बीच जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई जदपि मृषा छूटत कठिनई की तरह विश्वभर की संस्कृति और भाषाओं के पड़ी असंख्य ग्रंथियों का हल किसी ने तलाशने की कोशिश नहीं की। उनके बीच की वर्चस्व की जंग के विश्वयुद्धों का कोई समाधान नहीं खोजा गया  जो यूक्रेन और गाजा में भयावह भीषणता के साथ जारी है।

इस समस्या को केवल भारतीय उपमहाद्वीप या विखंडित भारत तक ही सीमित रखें तो लगता है कि महापुरुषों का ध्यान इस ओर गंभीरता से गया ही नहीं।आर्य अनार्य और द्रविड़ सभ्यताओं के बीच युद्धों की जितनी ऐतिहासिक चर्चाएं हुईं उतनी उनके बीच समन्वय और संवाद की कोशिशें नहीं हुईं। इनकी भाषा और संस्कृतियों के अपरिचय और अज्ञान को दूर करने के कोई प्रयास नहीं हुए । किंवदंती है कि अगस्त्य ऋषि दक्षिण की यात्रा पर जाने पर उत्तर और दक्षिण के बीच संपर्क की मुख्य बाधा विंध्याचल को आदेश देकर गए थे कि उनके लौटने तक वह झुका ही रहे लेकिन लगता है कि वे शायद गए ही नहीं ,अन्यथा तो  दोनों के बीच भाषाओं का यह विंध्याचल आज भी ज्यों का त्यों खड़ा दिखाई नहीं देता ।दक्षिण के राज्यों में हिंदी विरोध की ज्वाला कुछ तो ठंडी पड़ी होती। या उत्तर के राज्यों ने ही दक्षिण की भाषाओं से अपरिचय को दूर करने का कोई ठोस व्यावहारिक प्रयास किया होता ।अंग्रेजी आज भी देश की राजमहिषी तो नहीं होती । चार धाम और अन्य मंदिरों की यात्राओं के बावजूद राज्यों  के इस संघ के सदस्यों  की राजनीति और जनता के बीच भाषा और संस्कृति के विद्वेष आज भी ज्यों के त्यों कायम क्यों हैं?

देश की तथाकथित विभक्त आजादी के वक्त ही राज्यों के भाषावार गठन और संविधान निर्माण में भारतीय भाषाओं के पारस्परिक सहकार और शिक्षण की कोई ऐसी वैज्ञानिक और व्यावहारिक व्यवस्था की जानी चाहिए थी जो संघीय भावना को सांस्कृतिक रूप से एकजुट और मजबूत बनाती ।भारत की खोज में तल्लीन तत्कालीन  प्रधानमंत्री जी ने गांधी जी की तमाम नीतियों की तरह उनके भाषा संबंधी विचारों तक की उपेक्षा ,अवज्ञा और अवहेलना की । हिंदी,हिंदू , हिंदुस्तान की राष्ट्र की मूल चेतना, अवधारणा को ध्वस्त कर दिया।हिंदी दिवस के बहाने उसकी दुर्गति की स्थाई नीति बना दी जो आज तक कायम है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के धुरंधर और सत्ता के अश्वमेध में चक्रवर्ती होने की कामना पाले लोगों ने भी नई शिक्षा नीति में इसका कोई ध्यान नहीं रखा है। शिक्षा को राज्यों का विषय बनाकर अराजकता को ही बढ़ावा दिया जाता रहा है।इसी के चलते हिंदी भाषी राज्यों के मूढ़ नेतृत्व ने त्रिभाषा फार्मूले की हवा निकाल दी । त्रिभाषा के नाम पर संस्कृत की पूंछ लटका दी ।अंग्रेजी से मुक्ति दिलाकर केंद्रीय सेवाओं से युवाओं को वंचित कर दिया।गोबर पट्टी की जनता वैसे भी गणित और भाषाओं को सीखने में नितांत काहिल और जाहिल है । हर जगह मुलायम चारे की तलाश ।दक्षिण में हिंदी विरोध की एक वजह केंद्रीय सेवाओं में वर्चस्व की जंग भी है जो अंग्रेजी से ही संभव है।

वर्तमान में जरूरी है कि अब पूरी तैयारी और विधि विधान के साथ संस्कृति और भारतीय भाषाओं के इस हिमालय को मजबूती से कंधों पर उठाया जाय । छिटपुट साहित्यिक अनुवादों और यात्राओं से बात बनने वाली नहीं जब तक शिक्षा और विशेष रूप से माध्यमिक शिक्षा को केंद्रीय विषय बनाकर ऐसी भाषा नीति को जामा न पहनाया जाय कि युवा देश और दुनिया को ज्यादा जिम्मेदारी से समझने में समर्थ हो सकें ।हिंदी भाषी राज्यों में अंग्रेजी सहित किन्हीं दो अहिंदी भाषाओं को सीखना और उनमें प्रवीणता को अनिवार्य किया जाय ,वहीं अहिंदी भाषी राज्यों में हिंदी को अनिवार्य किया जाय । नवोदय विद्यालयों में यह भाषा नीति जारी है।इसी नीति को उच्च शिक्षा में जारी रखा जाय ।इस प्रक्रिया से रोजगार में पर्याप्त वृद्धि हाेगी। जरूरत है कि अब प्रशासन और उच्चतम न्यायालय में हिंदी को प्रथम राजभाषा और राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाय। यह कार्य धारा 370 में संशोधन से किसी मायने में कम महत्वपूर्ण नहीं है।

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