Monday, March 27, 2017

पालिटिक्स और प्रोफेशनलिज्म


# मूलचन्द गौतम
भारत में 1991 से भूमंडलीकरण का दौर शुरू हुआ है .यह भारतीय राजनीति का भी सर्वाधिक उठापटक का दौर भी है क्योंकि यह अनायास नहीं कि सबसे ज्यादा  सामाजिक –सांस्कृतिक संक्रमण, विघटन ,ध्रुवीकरण और घोटाले इसी समय में घटित हुए .मंडल –कमंडल ,बाबरी मस्जिद का ध्वंस ,राष्ट्र्मंडल खेल घोटाला ,टू जी इत्यादि के घटनाक्रम ने  देश में एक ऐसी पटकथा लिख दी जिसमें कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी का  राष्ट्रव्यापी पराभव अवश्यम्भावी था .दरअसल यह एक ढुलमुल लोकतंत्र की ही दुर्गति थी जिसे बहुराष्ट्रीय कार्पोरेटी आक्सीजन की जरूरत थी . यूपीए की गठबंधन वाली कांग्रेस के पास उस चमत्कारी नेतृत्व का अभाव हो गया जिसकी आड़ में उसका भ्रष्टाचार और अन्य दुर्गुण दबे ढके रहते थे . जगजीवनराम के बाद उसके पास कोई प्रभावी दलित नेता ही नहीं था .यही हाल उसका बहुमत बढ़ाने वाले सवर्ण और मुस्लिम नेतृत्व का था .जयप्रकाश नारायण ,लोहिया  और कांशीराम के चेलों ने यूपी बिहार जैसे बड़े हिन्दीभाषी राज्यों में दलित और पिछड़ों के राजनीतिक वर्चस्व को स्थापित करके भी उसका आधार छिन्न भिन्न कर दिया .
इस मायने में 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की कांग्रेस मुक्त भारत की मुहिम ने जो राजनीतिक परिदृश्य पेश किया उसमें मोदी के अनथक हाईटेक प्रचार के बाद मिली जीत ने देश की परम्परागत राजनीति का मिजाज और माहौल बदल दिया .खुद बीजेपी में पुराने ढंग के रथयात्री अप्रासंगिक हो गये .दरअसल मोदी तीव्रगति के भूमण्डलीकृत विकास की एक अनिवार्य जरूरत की उपज हैं जिसमें बहुमत को खींचने का गुरुत्वाकर्षण है . इसी आधार से वे आर्थिक सुधारों को वांछित दिशा में तीव्रता से ले जा सकते हैं .जिसकी जरूरत देश से ज्यादा कारपोरेट को है .उन्हें आडवाणी तक ने सर्वश्रेष्ठ इवेंट मैनेजर यों ही नहीं कह दिया था .वरना तो बीजेपी में  वाजपेयी जी के बाद देश के प्रधानमन्त्री बनने की काबिलियत उनके अलावा किस के पास थी .पार्टी के एक दौर के अर्जुन को मार्गदर्शक मंडल में जगह मिले इससे बड़ी भाग्य की विडम्बना और क्या हो सकती है .भिल्लन लूटी गोपिका वही अर्जुन वही बान.बीजेपी के पास तमाम तरह के साधन और उपकरण पहले भी थे ,समर्पित स्वयंसेवकों की फ़ौज हर समय अपने आकाओं का फरमान बजाने को तैयार रहती है .उदार हिन्दू जो उसके साथ नहीं जाना चाहते थे अबकी बार वे भी उस पर विश्वास के लिए तैयार हो गये . अन्य दलों की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियों का जबाब उन्हें इस विकल्पहीनता में  एकमात्र विकल्प के रूप में दिखा .बार बार की छद्म धर्मनिरपेक्षता के बजाय उन्होंने छद्म राष्ट्रवाद को चुना .वैसे भी पूरे विश्व में राजनीति वामपंथ से हटकर दक्षिणपन्थ की ओर झुक रही है तो भारत ही अपवाद क्यों रहे ?
विदेशों में बदलती राजनीति और तकनीक को लेकर थिंक टैंक बड़ी बड़ी सैद्धांतिकी तैयार करने में उलझे रहते हैं जबकि भारत  की जनता उनसे अलग व्यावहारिक राजनीतिक प्रयोगों को अंजाम देती  रहती है जो किसी सिद्धांत की पकड़ में नहीं आ पाते .भारतीय राजनीति में प्रशांत किशोर का प्रवेश और आगमन जनमत को बनाने –बिगाड़ने की तकनीकों के प्रोफेशनलिज्म के प्रवेश की परिघटना है .  अभी उसकी सफलता –असफलता का कोई सीधा फार्मूला भले न हो लेकिन भविष्य की राजनीति के सूत्र उसमें निहित हैं .अमेरिकी चुनाव की तर्ज पर अब भारतीय चुनावों में भी मीडिया और कारपोरेट घरानों का दखल बढ़ेगा . मोटे गणित के हिसाब से  जिस तरह  बड़ी विशालकाय कम्पनियों से मुकाबले में छोटी कम्पनियां नहीं टिक पाएंगी उसी तरह विशालकाय ताम झाम वाले दलों के आगे छोटे राजनीतिक दल नहीं टिक पायेंगे .  राहुल और अखिलेश की बिखरी हुई  जुगलबंदी भी उसका मुकाबला नहीं कर पाएगी . आखिर विपक्ष बिहार को यूपी में क्यों नहीं दोहरा पाया यह भी  विशेषज्ञों के लिए अध्ययन का विषय है. नोटबंदी,जियो और पेटीएम के उदाहरण हमारे सामने हैं .यूपी में बीजेपी की बम्पर जीत में इनका योगदान कम नहीं है .आखिर भारत सबसे ज्यादा युवा आबादी या कहें वोटरों वाला देश है जो  खुद प्रोफेशनल है और लफ्फाजी के बजाय ठोस परिणामों में विश्वास करता है .जाहिर है कि अब  भारत की पोलिटिक्स ढुलमुल परम्परावादी नेतृत्व के बजाय प्रोफेशनल तरीकों से संचालित होगी .
प्रोफेशनल की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि वह केवल काम से काम रखते हैं और  हर क्षेत्र में परिणाम देना उसकी फितरत होती है .इस मायने में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी माडल माने जा सकते हैं –नॉन पॉलिटिकल.इनमें भी जो किसी खास दल या नेता से गहरे जुड़ जाते हैं उन्हें इसका नुकसान उठाना पड़ता है और दूसरों की विश्वसनीयता हासिल नहीं होती .मल्टीनेशनल कम्पनियों का वर्क कल्चर केवल प्रोफेशनल्स पर यकीन करता है . इसीलिए वे किसी खास दल से नहीं जुड़ते हालाँकि चुनावी चंदा सबको देते हैं ताकि जो भी सत्ता में आये उन्हें पूरा संरक्षण और सुविधा  उनकी अपनी शर्तों पर उपलब्ध कराए . विरोधी को भी खरीदना उनके बांये हाथ का खेल है .धीरे धीरे यही प्रोफेशनलिज्म  भारतीय राजनीति में प्रवेश कर रहा है .इसमें पिछड़ने वालों को कोई नहीं पूछेगा .
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