Thursday, September 17, 2015

विश्व शांति में श्री श्री रविशंकर जी का योगदान

विश्व शांति दिवस



आज  विश्वविख्यात आर्ट ऑफ़ लिविंग संस्था और श्री श्री रविशंकर जी  एक-दूसरे के पर्याय हो चुके हैं .श्री श्री इस संस्था के सेनानायक हैं तो विश्वभर में दूर –दूर तक फैले हुए स्वयंसेवक इसकी विराट सेना है .योग के साथ ,शिक्षा समाजसेवा और मानवीय मूल्यों के लिए समर्पित यह संस्था विश्व में अनूठी है .यह श्री श्री की प्रतिभा और क्षमता का ही कमाल है कि देश –विदेश की तमाम  सरकारों और संस्थाओं  द्वारा  विषम से विषम परिस्थितियों को सम्भालने के लिए उन्हें सादर आमंत्रित किया जाता है और वे अपनी निश्छल ,भोली मुस्कुराहट से चुटकियों में जटिल और गम्भीर समस्यायों का हल निकाल देते हैं .
इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए श्री श्री के सामने भारत और विश्व के तमाम श्रेष्ठ ऋषियों ,मनीषियों की परम्परा है जहाँ से वे हिंसा और आतंक से शांति से निपटने की ऊर्जा प्राप्त करते हैं . इस मामले में महात्मा गाँधी उनके माडल हैं .उन्हीं से मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला ने शांतिपूर्ण अहिंसक संघर्ष का पाठ पढ़ा .श्री श्री उसी परम्परा को आगे बढ़ाने वाली  मजबूत कड़ी हैं .यह सत्य और तथ्य उनके द्वारा  अब तक किये गये अनेक कार्यों से प्रमाणित होता है .
 शक्तिशाली ब्रिटिश सत्ता से संघर्ष में सत्य और अहिंसा गांधीजी के प्रबल और प्रमुख हथियार थे .इन्हीं के बल पर उन्होंने पूरे देश में उनके खिलाफ बड़े –बड़े आन्दोलन चलाये यहाँ तक कि आत्मकथा में भी वे सत्य के इन प्रयोगों से नहीं चूके और अपने बारे में भी साहस के साथ कडवे से कडवे  सच का खुलकर बयाँ किया .फिर भी उनसे असहमत लोगों ने उन पर अनेक प्रहार किये यहाँ तक कि शालीन भाषा में  उन्हें अंग्रेजों का पिट्ठू और सेफ्टी बाल्व तक कहा लेकिन वे अपने मार्ग से अंत तक नहीं डिगे .इस संघर्ष में हिंसा के समर्थकों के साथ आम जनता नहीं गयी क्योंकि उसमें जान का जोखिम था और यह लम्बे संघर्ष का मार्ग नहीं था .साथ ही हिंसा से विरोधी सत्ता को नैतिक रूप से कमजोर नहीं किया जा सकता था .
श्री श्री भी देश –विदेश में नक्सल और हिंसक संघर्षों में बिना हिचक अहिंसा के साथ उतर जाते हैं .पूर्वोत्तर भारत में मणिपुर ,असम ,बिहार ,झारखंड और आंध्र के अलगाववादी ,आतंकवादी हिंसक आंदोलनों में श्री श्री ने जिस व्यावहारिक तरीके से उन्हें समझा बुझाकर हिंसा से विरत करके विकास की मानवीय धारा से जोडकर ,उनका पुनर्वास कराया है ,यह बेहद सकारात्मक मार्ग है .सत्ता की प्रतिरोधी हिंसा से यह आग नहीं बुझ सकती बल्कि और भड़केगी .श्री श्री ने योजनाबद्ध तरीके से स्वयंसेवकों के साथ इन क्षेत्रों में हिंसक गुटों से हथियारों सहित आत्मसमर्पण कराया है  उनके अनुभव यह बताते हैं कि बातचीत और सम्वाद के बिना भी समस्याएं हल नहीं होतीं बल्कि विकराल रूप धारण कर लेती हैं . बिहार की  और तिहाड़  जेल में श्री श्री के कार्यक्रमों ने दुर्दांत अपराधियों को भी बदलने पर विवश कर दिया है . सत्ता को चाहिए कि इस तरह के प्रयत्नों को आर्थिक और नैतिक सहयोग और प्रोत्साहन प्रदान करे बिनोवा और जयप्रकाशजी ने भी यही गाँधीवादी तरीका अपनाकर डाकुओं से आत्मसमर्पण कराया था लेकिन यह केवल एक तात्कालिक घटनाक्रम बनकर रह गया और उनका सम्मानजनक पुनर्वास नहीं हुआ .
संयुक्तराष्ट्र संघ और अन्य विदेशी सत्ताओं ने श्री श्री के इन सफल प्रयोगों को देखकर उन्हें अपनी समस्याओं के समाधान हेतु सादर आमंत्रित करके अनेक कार्यभार सौंपे हैं .श्री लंका ,इराक ,आयवरी कोस्ट और हाल ही में कोलम्बिया के हिंसक संघर्षों में श्री श्री ने निर्णायक भूमिका अदा की है .इराक में तो  सितम्बर 2003 से ही युद्धपीड़ित जनता ने राहत की साँस ली है इराक के प्रधानमंत्री नूरी –अल –मलिकी और धार्मिक नेता सैयद अब्दुल्ला –अल –मसावी के साथ श्री श्री ने वहन की महिलाओं-अनाथ बच्चों  के सशक्तीकरण हेतु अनेक सामाजिक कार्यक्रम सफलतापूर्वक चलाये हैं .इस सफलता से बौखलाए आतंकवादी गुटों ने उन्हें जान से मरने की धमकी भी दी है .आयवरी कोस्ट की जनजातियों के बीच हिंसक संघर्षों को भी श्री श्री ने इसी समझ बूझ के साथ हल किया है .
 यों तो दलाई लामा भी विश्व के आध्यात्मिक नेता हैं लेकिन उनके साथ राजनीतिक विवाद साए की तरह चिपके रहते हैं जबकि श्री श्री के साथ ऐसा कोई विवाद नहीं है .विश्व भर में उनकी निर्विवाद छवि और अधिक निखर रही है . हाल ही में श्री श्री के नेतृत्व में 1964 से कोलम्बिया में सशस्त्र संघर्ष में लगे पीपुल्स आर्मी के क्रन्तिकारी गुरिल्ला  FARC  गुट के आन्दोलन को अहिंसा के मार्ग पर आने को तैयार किया गया है .28 जून 2015 को क्यूबा की तीन दिनों श्री श्री की यात्रा में सभी पक्षों के बीच हुई सकारात्मक बातचीत से उनके बीच सार्थक सहमतियाँ बनी हैं जिनके आगे बढने की पूरी सम्भावनाएं हैं .इवान मार्केज का शांति प्रक्रिया में भाग लेना और कोलम्बिया के गरीब और वंचितों के लिए राजनीतिक पार्टी बनाकर काम करने का वादा विनाश और हिंसा की पराजय है . विश्व के अधिकांश देशों ने योग दिवस मनाकर इन प्रयत्नों को बड़ी ताकत दी है जो और बढ़ेगी ,कम नहीं होगी .
इन विराट कार्यों के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि कैलाश सत्यार्थी और मलाला युसूफ जई की परम्परा में अगला नाम श्री श्री का ही होगा ?
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Wednesday, September 16, 2015

विश्व शान्ति में भारत की भूमिका

विश्व शांति दिवस



भारत का सम्पूर्ण इतिहास वसुधैव कुटुम्बकम का साक्षी है .धर्म का कोई संकीर्ण और साम्प्रदायिक अर्थ हमारी परम्परा और संस्कृति में स्वीकार्य नहीं हो पाया .आत्मन: प्रतिकूलानि परेषाम न समाचरेत हमारा परमप्रिय सिद्धांत सूत्र है .इसी को विस्तार देते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने धर्म को परिभाषित करते हुए  अत्यंत सरल  शब्दों में  प्रतिपादित किया –परहित सरिस धर्म नहिं भाई ,परपीड़ा सम नहिं अधमाई .
भारतीय धर्म ,अध्यात्म ,शिक्षा और दर्शन में शास्त्रार्थ और व्याक्ख्याओं की लम्बी परम्परा इस तथ्य का साक्ष्य है कि अनेकान्तवाद ने इन क्षेत्रों में किसी भी तरह की कट्टरता और संकीर्णता को पनपने ही नहीं दिया .ईश्वर के निर्गुण और सगुण रूपों,ज्ञान और भक्ति तथा तमाम मत –मतान्तरों को लेकर कोई दंगा नहीं हुआ .नास्तिकों को आस्तिकों से ज्यादा अभिव्यक्ति की  वैचारिक आजादी प्राप्त थी .हाँ , समाज और धर्म पर आक्रमण होने की स्थिति में उसकी सुरक्षा की व्यवस्था जरुर थी ,जिसका भार क्षत्रियों पर था और आपातस्थिति में सब पर . इस तरह अहिंसा हमारा आदि धर्म है .अष्टांगयोग यम और नियम के बिना सध ही नहीं सकता .आर्य और अनार्यों  ,देव और दानवों के बीच के युद्ध शस्त्र के साथ शास्त्र से भी जुड़े हुए थे .ये दो भिन्न  जीवन शैलियों ,मान्यताओं को लेकर चलते थे ,जिनमें पराजित वर्ग विजेता के धर्म को सहर्ष या मजबूरी में स्वीकार करता था .विद्वान् तो इन युद्धों में पराजित वर्गों को शूद्र होने तक से जोड़ते हैं जिनके हिस्से समाज के शारीरिक और तमाम घृणित कार्य आते थे .
 भारत में वैष्णव ,शैव और शाक्तों के बाद  ब्राह्मण और बौद्धों के बीच इतिहास का सबसे बड़ा वैचारिक संघर्ष चला . जब यज्ञ में पशुबलि  ,कर्मकांड में ब्राह्मण पुरोहितों को चुनौती देना बेहद मुश्किल होता जा रहा था तो क्षत्रिय बुद्ध ने उन्हें उन्हीं के हथियारों –अहिंसा ,सत्य ,प्रतीत्यसमुत्पाद से चुनौती दी ,भले पुनर्जन्म और मांसाहार को लेकर कुछ लचीला रास्ता अपनाना पडा .धीरे –धीरे यह विश्वव्यापक धर्म जो भारत का विदेशों में पहला प्रचारित धर्म था –शून्यवाद के लपेटे में आता चला गया . इस धर्म के परम विरोधी शंकराचार्य छद्म बौद्ध मान लिए गये और बुद्ध को विष्णु के दस अवतारों में बाकायदा शामिल कर लिया गया .
भारत के बाद चीन बौद्ध धर्म का सबसे बड़ा केंद्र था –खासकर तिब्बत प्रदेश .चीन ने जबसे धर्म को अफीम मानने वाली विचारधारा को अपनाया तो उसने सबसे पहले बौद्धों के धर्मगुरु  दलाई लामा को देश से बहिष्कृत किया जो आज तक भारत में निर्वासित हैं और चीनी राजनय की सबसे कमजोर कड़ी हैं . 1962 के भारत –चीन युद्ध ने पुराने धार्मिक –सांस्कृतिक सम्बन्धों के रेशों को उधेड़ कर रख दिया था .नेहरूजी के पंचशील और हिंदी –चीनी भाई भाई की हवा निकल चुकी थी जो आज तक पटरी पर नहीं आ पा रही .अमेरिकी मानवाधिकारवादी इस आड़ में चीन के साम्राज्यवाद को चुनौती देते हैं .थ्येनमन चौक चीन के लिए एक अलग तरह की चुनौती थी जिससे वह बच गया वरना उसका हाल भी सोवियत रूस जैसा हो गया होता .इन्हीं अर्थों में  आज चीन अमेरिका के सामने सबसे बड़ी चुनौती है .भारत –पाकिस्तान इस अंतर्राष्ट्रीय खेल में मोहरे भर हैं .लेकिन यह मामला अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विश्लेषकों के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए .
इस पृष्ठभूमि में भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की विश्वशांति में भूमिका के इतिहास पर गौर किया जाए तो  चीन –पाकिस्तान के साथ अनावश्यक तौर पर  थोपे गये युद्धों के अलावा  निराशा का कोई कारण नजर नहीं आता .संयुक्तराष्ट्र संघ के  तमाम विश्वव्यापी शांति अभियानों में भारतीय सेना की सराहनीय भूमिका रही है .श्रीलंका में अनावश्यक सैन्य हस्तक्षेप की बहुत  बड़ी कीमत देश ने  राजीव गाँधी की हत्या के रूप में चुका दी है .जहाँ तक विश्वशांति में देश के धार्मिक –सांस्कृतिक दायित्व निभाने का प्रश्न है तो श्री श्री रविशंकर के विश्वव्यापी अभियान ,योग दिवस के कार्यक्रम ,तमाम आतंकवादी गुटों से बातचीत और समन्वय के कार्यक्रमों ने जो माहौल तैयार किया है ,वह काबिले तारीफ है .भले इसके लिए उन्हें जान से मारने की धमकियां मिल रही हों .
मोदीजी के नेतृत्व में  विश्वव्यापी सम्पर्कों ने देश में हर क्षेत्र में उत्साह और नवाचार का माहौल तैयार किया है उसकी चुनौतियाँ बहुत बड़ी हैं .सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का मामला हो या हिंदी को अंतर्राष्ट्रीय फलक पर स्थापित करने के प्रयत्न –एक बडी सुनियोजित कार्यप्रणाली  की अपेक्षा रखते हैं . यह देश से तमाम क्षेत्रों में एक बड़े और क्रान्तिकारी बदलाव की अपेक्षा के अलावा कुछ नहीं है .  देश के सामने आंतरिक अंतर्विरोधों ने जो चौड़ी खाई खोद दी है उसे पाटना बेहद मुश्किल है ,खासकर तब जब इस काम में सरकार के अपने –पराये सब जी जान से जुटे हों . आज देश के तमाम छोटे –छोटे  तबकों में जितनी होड़ अपना हिस्सा पाने की लगी हुई है ,उतनी ही होड़ जिम्मेदारी उठाने की लगे तो बात बने और देश विश्व फलक पर एक बड़ी भूमिका के साथ जिम्मेदारी निभा पाए .
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