Wednesday, July 16, 2014

बहस: गांधीजी


विक्रेताओं और हत्यारों के बीच और बाहर गाँधीजी

#मूलचन्द्र गौतम

आज तक ग़ालिब ,गाँधी और नेहरु को हंसराज रहबर से ज्यादा आलोचनात्मक गालियाँ किसी ने नहीं दी होंगी .तीनों को उन्होंने बेनकाब किया .यह सब उनकी सत्ताधारियों के प्रति दबी –खुली निष्ठा के प्रति घृणा का परिणाम था .रहबर ने लेखक होने के नाते  कभी सत्ताधारियों से अपने लिए  कुछ इनाम –इकराम और विशेषाधिकार  नहीं माँगा ,इसलिए उनकी इस घृणा की जो नैतिक आभा थी वह धूमिल नहीं हुई .
भारत की आजादी के संघर्ष में गांधीजी के योगदान और शैली से असहमत लोगों के लिए भी वे इतने घृणित नहीं थे कि कोई उनकी हत्या कर देता .यह काम अंग्रेजों के लिए तो और भी मामूली था .वे चाहते तो उन्हें कभी और कहीं भी ठिकाने लगा दिया जाता .इसी कारण रहबर उन्हें अंग्रेजी सत्ता का सेफ्टी बाल्व कहते थे .यह आम भारतीय जनता को हिंसा और खून खराबे से बचाने की उनकी रणनीति थी जिसे अति क्रांतिकारियों द्वारा  उनकी कमजोरी और समझौतावादी नीति समझा गया .इसी कारण वैचारिक तौर कभी गांधीवाद की शवपरीक्षा की गयी और कभी हत्या .
 गाँधी जी भारत की आजादी मिलने के तौर –तरीकों से कतई सहमत नहीं थे .उन्हें विभाजित भारत बिलकुल स्वीकार नहीं था लेकिन उत्तराधिकारियों की सत्ता लोलुपता ने उन्हें मजबूर कर दिया था कि बेबस हो जाएँ .आखिरी साँस तक वे इस रक्त पिपासु आजादी के दुष्परिणामों से देश और देशवासियों को बचाने की भरसक कोशिश करते रहे और अंत में  तथाकथित राष्ट्रवादी घृणा की पराकाष्ठा –हत्या के शिकार हो गये .शहीद –बलिदान जैसे शब्द इस मामले में भावुक और निरर्थक हैं .
हत्या के बाद गाँधी और उनके अहिंसावादी दर्शन का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खूब प्रचार –प्रसार हुआ और उनकी विरासत और वसीयत भी चतुर लोगों ने  चतुराई से अपने नाम करा ली लेकिन भारतीय जनता का उनके प्रति लगाव बना रहा .चीन युद्ध से जैसे पूरे देश और नेताओं का  खोखले आदर्शों से मोहभंग हुआ फिर भी वंश और परिवार के प्रति मोह बना रहा और हत्यारों-आंतरिक कुचक्रियों को सत्ता हासिल करने का मौका नहीं मिल पाया .सुजात और कुजात गाँधीवादी आपस में लड़ते रहे ,एक दूसरे को कोसते –काटते रहे .
आपातकाल के बाद कुजात गांधीवादियों और हत्यारों को सत्ता हासिल करने का  मौका मिला जो इन्हीं अंतर्विरोधों के कारण जल्दी ही बिखर भी गया .अब फिर गाँधी के विक्रेताओं के अकूत भ्रष्टाचार से उकताई जनता ने सिर्फ हत्यारों को मौका दिया है कि शायद यही उनके सच्चे वारिस साबित हों और उनकी सही नीतियों को लागू करें .गाँधी को खुल्लमखुल्ला बापू और राष्ट्रपिता न मानने वाले व्यापारियों से उनकी नीति और नैतिकता के पालन की उम्मीद करना फिजूल है लेकिन जोखिम तो उठाना ही होगा .शास्त्र से बात न बने तो शस्त्र तो है ही .भारतीय जनता इन्हें भी हिन्द महासागर में डुबाने की सामर्थ्य रखती है .
#शक्तिनगर, चन्दौसी, संभल 244412
मोबाइल8218636741

Wednesday, July 9, 2014

रंडी ,भडुआ एंड फैमिली


ललित निबन्ध

भाषाओँ का व्यवहार और सम्बन्ध आदमी के सम्मान , अपमान और हैसियत से जुडा हुआ है .मालदारी के तीन नाम –परसी,परसा,परसराम की तरह गरीबी के तीन नाम लुच्चा,गुंडा ,बेईमान इसी व्यवहार की हकीकत है . अक्सर हम जिनका सम्मान करना चाहते हैं उनके लिए जान बूझकर बड़े आदरसूचक शब्दों का चुनाव करते हैं .मान्यवर ,माननीय और फिर महामहिम .और जिनके लिए अपमानजनक शब्द चुनते  हैं तो भी जान बूझकर –काना ,ऐंचा ताना ,टकलू ,कोत गर्दना,कंजा ,मरियल ....यानी भाषा के पीछे है भाव .और भाव के भूखे हैं भगवान .इसीलिए तुलसी बाबा वहां जाने को मना करते हैं जहाँ देखत ही हरषे नहीं ....कई बार मन में घृणा होती है और भाषा में चापलूसी .इसी का नाम है रणनीति-कूटनीति .ऐसे में भाषा का छद्म छुप नहीं सकता .या तो आपका होंठ कट जायेगा या जीभ और नहीं तो बांयीं आँख ही फड़क कर चुगली कर देगी .आप समझ जायेंगे कि कोई पीठ पीछे आपको गाली दे रहा है .सामने आकर देता तो आप उसकी आँख निकाल लेते या कम से कम ऐसी –तैसी तो कर ही देते .
भिक्षा वृत्ति दुनिया का सबसे पुराना पेशा है ,पेशावर से भी ज्यादा .कोई भी आत्मसम्मानी भिखारी बनने से परहेज करता है .इसका बेशर्मी और बेहयाई से गहरा रिश्ता है –चोली –दामन की तरह का .यह धीरे –धीरे मांगकर बीडी पीने की आदत की तरह शुरू होता है और ब्लड केंसर में तब्दील हो जाता है  .अब भीख चाहे एक पैसे की हो या अरबों की ..इसी तरह देह व्यापार है .धर्म और परिवार की व्यवस्थाओं से मुक्ति या गरीबी की मजबूरी से शुरू होकर यह वृति कब कला के पवित्र मन्दिरों से उठकर कोठे पर जा बैठी –पता ही नहीं चला .दोनों में फर्क करने वाली निगाह ही धुंधली हो गयी .देह व्यापार की संकीर्ण और व्यापक –व्यापारिक धारणाओं में मान –अपमान का भाव क्या केवल सामाजिक दृष्टि का फर्क है ?.रात –दिन देह भाषा की खोज में रत शोधार्थियों को क्यों माडलिंग या विज्ञापनों में देह –व्यापार नजर नहीं आता और फिर यह केवल महिलाओं तक ही क्यों सिमट जाता है ?पुरुष वेश्या की धारणा क्या केवल नई है ? जरूरी है कि इन सब बातों पर विचार के लिए हमें पारम्परिक नैतिकता के मापदंडों को बदलना होगा ?वर्ना तो हम मौके के मुताबिक मनमानी व्याख्याएं करते रहेंगे .
अब अपने शहर में मशहूर है एक रंडी का बाग और एक कोठी मुनीर मंजिल .कोई उसे मुफ्त में भी लेने को तैयार नहीं ,खरीदना तो दूर की बात है .अब व्यापार बुद्धि का कमाल कहिये या जादू कि रियल एस्टेट वालों द्वारा बाग का नाम प्रशांत विहार और कोठी का नाम रामायतन रखते ही उनके दाम आसमान छूने लगे हैं .कौडियों का माल करोड़ों में .यही है आज का मैनेजमेंट.जिसे सीखने लोग बाग मोटी फीस देकर हार्वर्ड जा रहे हैं .दलाल जबसे दल्ले और भडुए से ब्रोकर ,कमीशन एजेंट ,लाइजन अफसर ...और जाने क्या –क्या बने हैं ,उनकी बल्ले –बल्ले है .मैं तो सारे मजदूर –किसानों को यही बनने की कोचिंग चलाने वाला हूँ .स्ट्रेस मैनेजमेंट के बिजनैस में ही अरबों का खेल है .हिंदी के एक टटपूँजिया लेखक के अपने होनहार को हथियारों के बिजनैस में डाल दिया .फिर वह भले  नटवरलाल की तरह  जेल में रहे इज्जत तो उसकी इंटरनेशनल हो गयी .अब बड़े –बड़े तीसमारखां जेल में ही उससे बड़ी –बड़ी डीलें करने को मारे –मारे फिर रहे हैं .कविता करके जिन्दगी भर एड़ियाँ रगड़ता रहता बेचारा और इकतारे पर गाता फिरता संतन कहा सीकरी सों काम....
 चाल,चेहरे और राष्ट्रीय चरित्र को लेकर परेशान हमारे मोहल्ले के एक सज्जन दिन में ही खुलेआम कटिया डालकर बिजली चोरी करते हैं तो मैं उनसे कुछ नहीं कहता .उनका फलसफा है कि कलिकाल में सिर्फ शब्दों की महिमा होगी आचरण कोई नहीं देखेगा .बाबा खुद कह गये हैं –भाय-कुभाय, अनख ,आलस हू ...  राम  ते अधिक राम कर नामा .फिर कबीर भी तो उल्टा नाम जप कर तीनों लोकों में छा गये थे .अपने इकलौते  पूत कमाल को हथियारों की  कोई छोटी –मोटी एजेंसी दिला जाते बुढऊ तो ...अन्ना से ही कुछ सीख लेते ये नंगे –भूखे गन्ना पेरना. इसीलिए मुझे इन संतों में कोई आस्था नहीं .आसा की जगह निरासा कौन  मूरख चाहेगा ? जेल में भी मालिश और कुश्ते –कस्तूरी का इंतजाम न हुआ तो नम्बरदार काहे के ?बिस्मिल्लाह खान को भी भारत रत्न से ज्यादा जरूरी लगता था एक ठो पेट्रोल पम्प .इसी आस को लिए बुढऊ ऊपर चले गये . अब कम से कम यह छन्नू बाबा को तो मिल ही जाना चाहिए .
दरअसल अपने देश की यह प्राचीन परम्परा रही है –एक ईमानदार आदमी को मुखौटे की तरह इस्तेमाल करके उसे कंडोम बना देने की .यूज एंड थ्रो कल्चर के बजाय शाश्वत –सनातन के खोजी जिन्दगी भर परेशान रहने को अभिशप्त हैं .इसीलिए क्षणवादी मौज में रहते हैं .उन्हें न अतीत के भूत –प्रेत सताते हैं न अंधकारमय भविष्य .ईट –ड्रिंक... का फलसफा अपने चार्वाक की देन है .इसलिए देश के कर्णधारों को उधार के विकास से कोई परहेज नहीं .खरबों कर्ज लो और दिवालिया हो जाओ कोई कानून ऐसे कुव्रतों का क्या बिगाड़ लेगा .दुनिया उनके ठेंगे  से .
एक संत थे जो ठग ,ठगिनियों और ठगी को जानकर भी  खुद ठगे जाकर खुश होते थे .उनके जमाने में क्या लाबिस्ट थे नहीं ? पर उन्हें मालूम था कि जब ये भूत –प्रेत लाबिस्ट परेशान करें तो नंगे हो जाओ और जलता हुआ लुकाठा लेकर चौराहे पर खड़े हो जाओ .ये अपने आप भाग जायेंगे .कबीर  और तुलसी को आपस में भिड़ाकर अपना धंधा खड़ा करने वाले इन तथ्यों का जान बूझकर जिक्र नहीं करते .को बाम्हन को शूद्रा कहने वाले को ब्राह्मणवाद के खिलाफ इस्तेमाल करना ही इनकी राजनीति है .ये अंग्रेज के नाती खुद उनकी नीतियों को लागू करने में पीछे नहीं हैं .वंश और परिवारवाद के विरोधियों को यह फैमिली ड्रामा पसंद है जो बुद्धू बक्से के सीरियलों को गुलजार किये हुए हैं .
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Monday, July 7, 2014

बिहार की दुल्हनें



लिंगानुपात के गडबडझाले में बिहार की दुल्हनें चर्चा और चुनाव के केंद्र में हैं . लोगों के मन में काफी कुछ रूढ धारणाओं के रूप में जमा रहता है .पुराने जमाने में ही सुना करते थे कि बंगाल और असम की औरतें  ऐसा जादू जानतीं थी जिनसे आदमी को वश में कर लिया जाता था और फिर वह कभी पीछे मुड़कर नहीं देखता था .इनमें कभी आदमी को मक्खी ,कभी तोता बना लेने के किस्से भी शामिल रहते थे .छुक –छुक पैसा चल कलकत्ता में मजदूरी के लिए निकले वाले गरीबों की बीवियों  माओं का सबसे बड़ा भय अपने पतियों-पुत्रों  को इन्हीं जादूगरनियों से बचाने के लिए किये जाने वाले जप –तपों-व्रतों  में व्यक्त होता था .
अब मजबूरी में यही काम धंधे के तौर पर  पश्चिम के धनवान और पुरुष प्रधान समाज में शुरू हो चूका है .सामाजिक –आर्थिक कारणों पर गम्भीर  विचार और सर्वेक्षणों में यह साफ हो सकता है कि क्यों किसी भी कारण से विवाह वंचित समुदाय की आर्थिक क्षमता बिहार और बंगाल से युवतियों को खरीद कर घर बसाने की प्रवृत्ति में बदल रही है कि हरियाणा में एक चुनावी प्रलोभन बन रही है .बंगाल का नाम लिया जाता तो शेरनी दीदी की प्रतिक्रिया लालू से भी ज्यादा भयंकर होती ,भले वे उसे रोक नहीं पातीं .
आखिर क्यों कोई माता –पिता उड़ीसा ,बिहार ,बंगाल या और भी कहीं अपनी संतानों को बेचने पर मजबूर होते हैं ?गरीबी के अलावा यह किसी शौक के तहत तो नहीं ही होता .एन सी आर में घरों और बिल्डिगों में काम करने वाले समूह भी यही क्यों  हैं ?इन बिहारिनों –बन्गालिनों को कोई रानी –महारानी नहीं बना देता .यहाँ भी वे  तन तोड़ मजदूरी करती हैं और बदले में पिटती-कुटती हैं .अलबत्ता अपवादस्वरूप कोई भला आदमी मिल गया तो बात अलग है कि कभी कभार उन्हें मनपसंद मछली –भात मिल जाय .
जरूरत इस मामले को राजनीतिक शोशेबाजी के बजाय समाजशास्त्रीय दृष्टि से गम्भीरता से लेने की है कि ऐसा क्यों हो रहा है और इसका निदान क्या है ? सामन्ती नजरिये से औरत आज भी पैर की जूती से ज्यादा अहमियत नहीं रखती और पूंजीवादी नजरिये से इस जूती को सिर्फ सजा कर लीप-पोतकर ड्राइंग रूम में रखा जा सकता है .स्त्रीवादी विमर्शकार और अधिकार समूहों की चिंता में यह सब क्यों नहीं है .यह सोचने की बात है .

Thursday, July 3, 2014

परिवेश सम्मान


मूलचन्द गौतम                                   शक्तिनगर,चन्दौसी,संभल,उ.प्र.244412
सम्पादक: परिवेश                                 ईमेल-parivesh.patrika@gmail.com
                                               मोबाइल-9412322067

    

परिवेश सम्मान :2013-2014 :तनु शर्मा को

साहित्यिक पत्रिका परिवेश द्वारा प्रतिवर्ष दिया जाने वाला बीसवां परिवेश सम्मान वर्ष 2013 -14 के लिए संघर्षशील मीडियाकर्मी तनु शर्मा को दिए जाने का निर्णय लिया गया है . इससे पहले यह सम्मान श्री हरीचरन प्रकाश ,ओमप्रकाश वाल्मीकि ,सुल्तान अहमद ,सुधीर विद्यार्थी ,अष्टभुजा शुक्ल ,दामोदर दत्त दीक्षित,कमलेश भट्ट ‘कमल ‘,दिनेश पाठक ,हसन जमाल ,योगेन्द्र आहूजा ,शिव कुमार पराग ,राजीव पाण्डेय ,अल्पना मिश्र ,शैलेन्द्र चौहान ,सुभाषचंद्र कुशवाहा,,शैलेय,,महेंद्र प्रताप सिंह ,श्याम किशोर और रविशंकर पाण्डेय को दिया जा चुका है .
परिवेश सम्मान की घोषणा करते हुए पत्रिका के सम्पादक मूलचन्द गौतम और महेश राही ने कहा कि हिंदी क्षेत्र में तमाम तरह के पुरस्कारों और सम्मानों के बीच इस सम्मान का अपना वैशिष्ट्य है .परिवेश के 66 वें अंक में तनु शर्मा के मीडिया जगत में योगदान और अन्याय के विरुद्ध किये गये संघर्ष पर विशेष सामग्री केन्द्रित की जाएगी .
7 सितम्बर 1980 को चन्दौसी में  जन्मी तनु शर्मा का जीवन प्रारम्भ से ही संघर्षशील रहा है .पिता श्री नविन्द्र कुमार शर्मा के निधन के बाद उन्होंने  विज्ञान में स्नातक किया है .तत्पश्चात मीडिया के क्षेत्र में कार्य प्रारम्भ किया है .इण्डिया टीवी चेनल के प्रबंधन से जुड़े लोगों के शोषण और दमन का कड़ा प्रतिकार करते हुए उन्होंने युवा मीडियाकर्मी महिलाओं को प्रेरित किया है और दिखाया है उन पर कितने और किस तरह के दबाव आ सकते हैं .दुखद है कि समाज और व्यवस्था का यह जागरूक चौथा खम्भा भी अनेक विकृतियों का शिकार हो चुका है और इसके आत्मघाती,  सड़ांध  भरे और दमघोंटू माहौल में महिलाओं का काम करना बेहद मुश्किल होता जा रहा है .हर कहीं बैठे तरुण और कामी तेजपाल जैसे गिद्ध विराजमान हैं .
मीडिया के इस सम्वेदना हीन अमानवीय माहौल के खिलाफ आवाज उठाने और लड़ने की इस कोशिश को  नैतिक ताकत देने की योजना के तहत ही तनु शर्मा को 2013 -14 का परिवेश सम्मान दिया जा रहा है .



Wednesday, July 2, 2014

अंग्रेजी का सीमेंट और हिंदी की बालू



शुरू से ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थकों के हाथों में हिंदी, हिन्दू और हिंदुस्तान का मजबूत नारा रहा है .तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की तमाम दुहाईयों के बावजूद यह कभी मुकाबले में  हिंदी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा से नहीं पिटा .अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में दिया गया भाषण बेहद क्रन्तिकारी कदम माना गया गोया कि जैसे इस एक भाषण से ही हिंदी विश्वभाषा हो गयी हो .
राजनीति के अपने टोटके हैं जो गाहे बगाहे सफल –असफल होते रहते हैं .हाल ही में गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग द्वारा  हिंदी को वरीयता देने के निर्देश से तमिलनाडु में जो तूफान आया है यह कोई नई बात नहीं है .अलबत्ता हिंदी भाषी प्रदेशों के नौजवानों  में उत्साह जरुर दौड़ गया है कि काश अब उनके अच्छे दिन आ ही गये मानो और वे सब जैसे अखिल भारतीय सेवाओं में प्रविष्ट हो गये.लेकिन अहिन्दीभाषी राज्यों में उनके विरुद्ध होने वाली हिंसा और घृणा इस अतिउत्साह पर पानी फेरने के लिए काफी है .यह केवल व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा का परिणाम नहीं हो सकती .असम और महाराष्ट्र की घटनाएँ भाषायी साम्प्रदायिकता और नफरत के ताजा उदाहरण हैं जो गांधीजी के समय नहीं थे .
गाँधी और नेहरु को एक साथ बेनकाब करने वाले यह भूल जाते हैं कि जहाँ गाँधी जी ने खुलेआम घोषणा की थी कि-दुनिया से कह दो गाँधी अंग्रेजी भूल गया वहीं उनके घोषित राजनीतिक उत्तराधिकारी नेहरूजी संविधान सभा की भाषा सम्बन्धी बहसों में जोर देकर कह रहे थे कि-आप इस बात को प्रस्ताव में लिखें चाहे न लिखें ,अंग्रेजी लाजिमी तौर से बहुत महत्वपूर्ण भाषा बनकर रहेगी ,जिसे बहुत लोग सीखेंगे और शायद उन्हें उसे जबरन सीखना होगा .यह मैकाले की सफलता और गाँधी की हार और अप्रासंगिकता नहीं भारत का भविष्य था जिसे उन्होंने जानबूझकर एक खासे अंग्रेजीदां के हाथों में सौंप दिया था .शायद यही उनकी हिमालय जैसी भूल थी जिसे सुधरने का कोई मौका उनके पास नहीं रह गया था .
आज मी नाथूराम गोडसे बोलतोय की चर्चा की इसीलिए जरूरत है क्योंकि हत्या एक आधा –अधूरा समाधान था .हो सकता है कि गांधीजी थोड़े और दिन जिन्दा रहते तो शायद आत्महत्या का चुनाव तो नहीं ही करते .उन्हें अपने उत्तराधिकारियों के साथ एक नये संघर्ष में उतरना पड़ता और यह शायद सबसे पहले हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा घोषित करने को लेकर होता .हा –हा हिंदी दुर्दशा न देखि जाई को लेकर तब शायद दक्षिण में खासकर तमिलनाडु में राजनेताओं को हिंदी साम्राज्यवाद का भय इस कदर न सताता .
हिन्द स्वराज को ही प्रमाण मानें तो गांधीजी अंग्रेजी  शिक्षा के ही पक्षधर नहीं थे .उन्हें परायी भाषा में स्वराज की बात करने वाले जनता के दुश्मन नजर आते थे .उन्होंने साफ कहा था कि-अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में ,उसे परेशान करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है .इसका यह कतई यह मतलब न लिया जाये कि गांधीजी प्रांतीय भाषाओँ पर जबरिया हिंदी लादने के समर्थक थे .१९४७ में हरिजन में उन्होंने आजादी को लेकर लिखा था कि सूबों की जनता को हर तरह से अब यह अनुभव होना चाहिए कि अब उनका जमाना है लेकिन किसी भी क्षेत्र में वह कुछ न हो सका जो गांधीजी चाहते थे .जनता तथाकथित आजादी के नाम पर साम्प्रदायिक बंटवारे में ठगी गयी .विभाजन की वह गांठ नासूर की तरह सब कहीं फूट पड़ती है और हम उसे निरीह ,निरुपाय बने देखते रहने के अलावा कुछ नहीं कर सकते ?यहाँ पांच साल में भावुक और मूर्ख जनता सिर्फ और सिर्फ वोट देती है –राजकाज में हिस्सा नहीं लेती .
डॉ,रामविलास शर्मा जिन्दगी भर हिंदी जाति को लेकर जूझते रहे लेकिन उन्हें कोई चन्द्रगुप्त नहीं मिल पाया .वामपंथियों के अंग्रेजी प्रेम को यह अंग्रेजी का अध्यापक पानी पी-पीकर कोसता रहा लेकिन उनके कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी ?और अब जनविमुखता का यह फल मिला है कि बस दो चार नामलेवा भर बचे हैं .रामचन्द्र गुहा ने पता नहीं कौन सी पाटी पढ़ी है कि अंग्रेजी के  अंधसमर्थक होकर भी गांधीवाद की बातें कर सकते हैं .फिर से हिन्द स्वराज में हिंदी के बारे में  गाँधीजी की इस लगभग अंतिम घोषणा को याद करने का लोभ संवरण नहीं होता कि-यदि स्वराज अंग्रेजी पढ़े भारत वासियों का है और केवल उनके लिए है तो संपर्क भाषा अवश्य अंग्रेजी होगी .यदि वह करोड़ों भूखे लोगों ,करोड़ों निरक्षर लोगों ,निरक्षर स्त्रियों ,सताए हुए अछूतों के लिए है तो संपर्क भाषा केवल हिंदी हो सकती है ..यहाँ उनका आशय राष्ट्रभाषा से ही है .
हिंदी को बोलियों से अलगाव को लेकर भी राजनीति करने वाले अंग्रेजी के समर्थकों से कम घातक नहीं हैं लेकिन यदि भाषावार राज्यों को ही राज्य निर्माण का मानक मानें तो भी हिंदी को बांटो और राज करो की अनीति को ही झेलना पडा है .काश इसी अन्याय में न्याय के कुछ सूत्र मिल जाएँ और यह बालू की दीवारअंग्रेजी के बजाय प्रांतीय भाषाओँ के देसी सीमेंट से मजबूत बन जाये .
हिंदी पट्टी को गोबर पट्टी कहने वाले इसीलिए अंग्रेजी को देश को जोड़े रखने वाला एकमात्र  सीमेंट और हिंदी को बालू की दीवार बताते रहते हैं ताकि उनके धंधे पर आंच न आये और वे आजीवन स्याह को सफेद करते –बताते रहें .और  ताउम्र उन्हें जाति धर्म के नाम पर बरगलाते रहें .