Wednesday, July 9, 2014

रंडी ,भडुआ एंड फैमिली


ललित निबन्ध

भाषाओँ का व्यवहार और सम्बन्ध आदमी के सम्मान , अपमान और हैसियत से जुडा हुआ है .मालदारी के तीन नाम –परसी,परसा,परसराम की तरह गरीबी के तीन नाम लुच्चा,गुंडा ,बेईमान इसी व्यवहार की हकीकत है . अक्सर हम जिनका सम्मान करना चाहते हैं उनके लिए जान बूझकर बड़े आदरसूचक शब्दों का चुनाव करते हैं .मान्यवर ,माननीय और फिर महामहिम .और जिनके लिए अपमानजनक शब्द चुनते  हैं तो भी जान बूझकर –काना ,ऐंचा ताना ,टकलू ,कोत गर्दना,कंजा ,मरियल ....यानी भाषा के पीछे है भाव .और भाव के भूखे हैं भगवान .इसीलिए तुलसी बाबा वहां जाने को मना करते हैं जहाँ देखत ही हरषे नहीं ....कई बार मन में घृणा होती है और भाषा में चापलूसी .इसी का नाम है रणनीति-कूटनीति .ऐसे में भाषा का छद्म छुप नहीं सकता .या तो आपका होंठ कट जायेगा या जीभ और नहीं तो बांयीं आँख ही फड़क कर चुगली कर देगी .आप समझ जायेंगे कि कोई पीठ पीछे आपको गाली दे रहा है .सामने आकर देता तो आप उसकी आँख निकाल लेते या कम से कम ऐसी –तैसी तो कर ही देते .
भिक्षा वृत्ति दुनिया का सबसे पुराना पेशा है ,पेशावर से भी ज्यादा .कोई भी आत्मसम्मानी भिखारी बनने से परहेज करता है .इसका बेशर्मी और बेहयाई से गहरा रिश्ता है –चोली –दामन की तरह का .यह धीरे –धीरे मांगकर बीडी पीने की आदत की तरह शुरू होता है और ब्लड केंसर में तब्दील हो जाता है  .अब भीख चाहे एक पैसे की हो या अरबों की ..इसी तरह देह व्यापार है .धर्म और परिवार की व्यवस्थाओं से मुक्ति या गरीबी की मजबूरी से शुरू होकर यह वृति कब कला के पवित्र मन्दिरों से उठकर कोठे पर जा बैठी –पता ही नहीं चला .दोनों में फर्क करने वाली निगाह ही धुंधली हो गयी .देह व्यापार की संकीर्ण और व्यापक –व्यापारिक धारणाओं में मान –अपमान का भाव क्या केवल सामाजिक दृष्टि का फर्क है ?.रात –दिन देह भाषा की खोज में रत शोधार्थियों को क्यों माडलिंग या विज्ञापनों में देह –व्यापार नजर नहीं आता और फिर यह केवल महिलाओं तक ही क्यों सिमट जाता है ?पुरुष वेश्या की धारणा क्या केवल नई है ? जरूरी है कि इन सब बातों पर विचार के लिए हमें पारम्परिक नैतिकता के मापदंडों को बदलना होगा ?वर्ना तो हम मौके के मुताबिक मनमानी व्याख्याएं करते रहेंगे .
अब अपने शहर में मशहूर है एक रंडी का बाग और एक कोठी मुनीर मंजिल .कोई उसे मुफ्त में भी लेने को तैयार नहीं ,खरीदना तो दूर की बात है .अब व्यापार बुद्धि का कमाल कहिये या जादू कि रियल एस्टेट वालों द्वारा बाग का नाम प्रशांत विहार और कोठी का नाम रामायतन रखते ही उनके दाम आसमान छूने लगे हैं .कौडियों का माल करोड़ों में .यही है आज का मैनेजमेंट.जिसे सीखने लोग बाग मोटी फीस देकर हार्वर्ड जा रहे हैं .दलाल जबसे दल्ले और भडुए से ब्रोकर ,कमीशन एजेंट ,लाइजन अफसर ...और जाने क्या –क्या बने हैं ,उनकी बल्ले –बल्ले है .मैं तो सारे मजदूर –किसानों को यही बनने की कोचिंग चलाने वाला हूँ .स्ट्रेस मैनेजमेंट के बिजनैस में ही अरबों का खेल है .हिंदी के एक टटपूँजिया लेखक के अपने होनहार को हथियारों के बिजनैस में डाल दिया .फिर वह भले  नटवरलाल की तरह  जेल में रहे इज्जत तो उसकी इंटरनेशनल हो गयी .अब बड़े –बड़े तीसमारखां जेल में ही उससे बड़ी –बड़ी डीलें करने को मारे –मारे फिर रहे हैं .कविता करके जिन्दगी भर एड़ियाँ रगड़ता रहता बेचारा और इकतारे पर गाता फिरता संतन कहा सीकरी सों काम....
 चाल,चेहरे और राष्ट्रीय चरित्र को लेकर परेशान हमारे मोहल्ले के एक सज्जन दिन में ही खुलेआम कटिया डालकर बिजली चोरी करते हैं तो मैं उनसे कुछ नहीं कहता .उनका फलसफा है कि कलिकाल में सिर्फ शब्दों की महिमा होगी आचरण कोई नहीं देखेगा .बाबा खुद कह गये हैं –भाय-कुभाय, अनख ,आलस हू ...  राम  ते अधिक राम कर नामा .फिर कबीर भी तो उल्टा नाम जप कर तीनों लोकों में छा गये थे .अपने इकलौते  पूत कमाल को हथियारों की  कोई छोटी –मोटी एजेंसी दिला जाते बुढऊ तो ...अन्ना से ही कुछ सीख लेते ये नंगे –भूखे गन्ना पेरना. इसीलिए मुझे इन संतों में कोई आस्था नहीं .आसा की जगह निरासा कौन  मूरख चाहेगा ? जेल में भी मालिश और कुश्ते –कस्तूरी का इंतजाम न हुआ तो नम्बरदार काहे के ?बिस्मिल्लाह खान को भी भारत रत्न से ज्यादा जरूरी लगता था एक ठो पेट्रोल पम्प .इसी आस को लिए बुढऊ ऊपर चले गये . अब कम से कम यह छन्नू बाबा को तो मिल ही जाना चाहिए .
दरअसल अपने देश की यह प्राचीन परम्परा रही है –एक ईमानदार आदमी को मुखौटे की तरह इस्तेमाल करके उसे कंडोम बना देने की .यूज एंड थ्रो कल्चर के बजाय शाश्वत –सनातन के खोजी जिन्दगी भर परेशान रहने को अभिशप्त हैं .इसीलिए क्षणवादी मौज में रहते हैं .उन्हें न अतीत के भूत –प्रेत सताते हैं न अंधकारमय भविष्य .ईट –ड्रिंक... का फलसफा अपने चार्वाक की देन है .इसलिए देश के कर्णधारों को उधार के विकास से कोई परहेज नहीं .खरबों कर्ज लो और दिवालिया हो जाओ कोई कानून ऐसे कुव्रतों का क्या बिगाड़ लेगा .दुनिया उनके ठेंगे  से .
एक संत थे जो ठग ,ठगिनियों और ठगी को जानकर भी  खुद ठगे जाकर खुश होते थे .उनके जमाने में क्या लाबिस्ट थे नहीं ? पर उन्हें मालूम था कि जब ये भूत –प्रेत लाबिस्ट परेशान करें तो नंगे हो जाओ और जलता हुआ लुकाठा लेकर चौराहे पर खड़े हो जाओ .ये अपने आप भाग जायेंगे .कबीर  और तुलसी को आपस में भिड़ाकर अपना धंधा खड़ा करने वाले इन तथ्यों का जान बूझकर जिक्र नहीं करते .को बाम्हन को शूद्रा कहने वाले को ब्राह्मणवाद के खिलाफ इस्तेमाल करना ही इनकी राजनीति है .ये अंग्रेज के नाती खुद उनकी नीतियों को लागू करने में पीछे नहीं हैं .वंश और परिवारवाद के विरोधियों को यह फैमिली ड्रामा पसंद है जो बुद्धू बक्से के सीरियलों को गुलजार किये हुए हैं .
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