Wednesday, December 24, 2014

मदन मोहन मालवीयजी का हिंदुत्व संघी हिंदुत्व से अलग है


भारत रत्न के नाम पर मोदी सरकार ने जो वैचारिक-रणनीतिक घपला मालवीयजी के साथ किया है ,वह सरदार पटेल के साथ किये गये छल की अगली कड़ी है .यहाँ यह साफ करना जरूरी है कि इस घपले के पर्दाफाश से कांग्रेस की दलीय राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं है .
मोदी ने देश –विदेशों में  तथाकथित राष्ट्रपिता  गांधीजी के प्रति जो अकाल सम्मान प्रकट करना शुरू किया है ,उसके बीज अटलजी ने ही डाल दिए थे .गाँधीवादी समाजवाद के साथ दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद की जुगलबंदी की वह कोशिश इसी घालमेल की पृष्ठभूमि थी .गांधीजी की वैचारिक विरासत पर केवल योग्य कांग्रेसियों का एकाधिकार नहीं है लेकिन जिस  दल और विचारधारा से जुड़े जो लोग खुल्लमखुल्ला गांधीजी की  शारीरिक  और वैचारिक हत्या के पक्षधर रहे हों उन दोमुंहे लोगों से पूछा तो जा ही सकता है की यह यूं टर्न क्यों ?क्या सत्ता बिना गाँधी का नाम लिए नहीं मिल सकती या भारत की जनता केवल और केवल गाँधी के नाम पर ही ठगी जा सकती है .गाँधी भी खुद को हिन्दू कहते थे लेकिन उनका हिंदुत्व एकांगी ,संकीर्ण ,घृणा ,हिंसा पर आधारित न होकर अहिंसक ,सर्वसमावेशी और सहिष्णु था .यही वजह थी की भारतीय जनता को गोलवलकर का हिंदुत्व कभी रास नहीं आया .ईश्वर अल्ला और यीशु का मिलाजुला हिंदुत्व ही उन्हें देश का सर्वमान्य राष्ट्रपिता बना पाया .यही कारण था की वे मृत्युपर्यंत भारत का विभाजन मन से स्वीकार नहीं कर पाए भले इसी के चलते उनकी हत्या हो गयी .
गांधीजी ने इसी हर तरह की कट्टरताओं से बचने और उनका विरोध करने के लिए सोच समझकर हर वर्ग के ऐसे लोगों को साथ लिया था जो इस जटिल लड़ाई में मजबूती से उनके साथ आखिर तक डटे रहें न कि भाग जाएँ या अंग्रेजों से मिल जाएँ .कहने की जरूरत नहीं कि मुस्लिम लीग की कट्टरता के खिलाफ लड़ाई में मालवीयजी उनके उदारवादी दृष्टिकोण के हिंदुत्व के अडिग प्रतिनिधि थे .उन्हें किसी भारतरत्न की अपेक्षा किसी से नहीं थी . नेहरु की कांग्रेस से भी नहीं .
मालवीय जी को मोदी  सरकार द्वारा वाजपेयीजी के साथ भारतरत्न से सम्मानित करने के पीछे कोई उदारता नहीं ,हिंदुत्व की यही रणनीति है जो बिना किसी छिटपुट विरोध के कारगर  होती दिख रही है तो हौसला बढ़ता जा रहा है रणनीतिकारों का .लुंजपुंज कांग्रेस में आह और करह लेने तक का दम न बचा हो तो यह जिम्मा बौद्धिकों को उठाना चाहिए ,जो उनकी तरफ से रामचन्द्र गुहा ने कुछ –कुछ उठाया है लेकिन इस मुद्दे पर जनता के बीच व्यापक बहस गायब है .

मालवीय जी अपने  दृढ़ता से हिन्दू होने की अटल घोषणा के बावजूद देश में रहनेवाले मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति असम्मान और घृणा रखने के खिलाफ थे ,जबकि गोलवलकर से लेकर भागवत तक निरंतर जहर उगल रहे हैं .इस पृठभूमि में मालवीयजी को दिया जाने वाला भारत रत्न उनका सम्मान नहीं अपने दलीय स्वार्थों की पूर्ती में उनका बेशर्म इस्तेमाल भर है .यानी आप कहते कुछ रहें –करते कुछ रहें और दीखते कुछ रहें अपनी तमाम सरकारी प्रभुता ,दिव्यता और सत्ता के साथ .

Saturday, December 20, 2014

तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा

# मूलचन्द्र गौतम


सृष्टि के प्रारम्भ से ही  देव –दानवों की तरह संख्याओं को भी शुभ –अशुभ कोटि में डाला गया है .शुभ कार्यों में पांच-ग्यारह ,इक्यावन ,एक सौ एक से लेकर एक खरब –नील –पद्म एक तक दिए जाने का प्रावधान है तो घूस देने में ऐसी कोई पाबंदी नहीं है क्योंकि वहां तो मामला अनंत और असंख्य का है .इसलिए जब घोटाले में छिहत्तर करोड़ रूपये  तक की चर्चा होती है तो उसके आगे चेनलों को भी एक लगाने की याद नहीं आती .हिंदुत्व इसे बदलेगा और हर संख्या के आगे एक लगाना अनिवार्य बनाएगा  रोमन में ओनली की तरह .जैसे ओनली लगाने से आगे एक पैसा भी नहीं मिल सकता उसी तरह एक लगाने से भ्रष्ट कमाई पर रोक लगाई जा सकती है .हिन्दुओं के अलावा देश में सब भ्रष्ट हैं .अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के बवाल से भी छुटकारा मिलेगा .समान नागरिक संहिता तभी स्थापित होगी .दंगों में में भी मरनेवालों की गिनती सम्प्रदाय के आधार पर नहीं होगी .
भारतीय जनमानस भावनाओं में बह जाने के लिए बदनाम है .हम हर काम अतिवाद पर जाकर करना पसंद करते हैं –भले हमारे  समझदार पुरखे लाख बार समझाते रहें कि –अति का भला न बोलना ,अति की भली न चूप...अति सर्वत्र वर्जयेत के बावजूद हमें बीच में त्रिशंकु की तरह लटकना पसंद नहीं .सूपड़ा साफ नॉट हाफ .इसीलिए हमें तीसरा मोर्चा कभी पसंद नहीं आया .जब देखो तब तीन तिफरका.हम तो सम्विधान संशोधन तक करने को तैयार हैं कि तीन के अंक को संख्याओं से ही बाहर कर दिया जाय .न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी .
हाल ही में तीसरे मोर्चे के कर्णधारों ने समधी -समधी का खेल शुरू किया है ताकि दूसरी ताकत का खेल बिगड़ जाये .समधनें तक कमर कसकर मैदान में हैं –सत्ता संतुलन के लिए .दूसरी ताकत के दामाद का ही खड़ा बखेड़ा नहीं सिमट रहा तो बहू लाने की हिम्मत ही नहीं पड़ रही .इसलिए देश में आमूलचूल परिवर्तन का ठेका कोई लेने को तैयार नहीं .विपक्ष का कोई एक नेता नहीं .ऐसे में सत्ताधारियों की बल्ले –बल्ले होनी ही है .क्योंकि पिच बल्लेबाजों के हिसाब से बनी है .यह बात अलग है कि सत्ताधारियों में से ही कुछ बल्लेबाज बालर बन जाएँ और कैप्टन को ही क्लीन बोल्ड कर दें .
जब से सिद्धू ने कामेडी का मोर्चा सम्भाला है तब से तो देश में पार्टी की लोकप्रियता में भारी इजाफा हुआ है .इससे कपिल शर्मा भी कहीं से चुनाव लड़ने की जुगत में है .ट्रेजड़ी को पसंद ही कौन करता है .हर समय मनहूस –रोनी सूरत बनाये रहने वालों को मसखरी जनता वैसे भी पसंद नहीं करती .जब मसखरे देश के नेता बन जायेंगे तो अच्छे दिन बिन बुलाये मेहमान की तरह अपने आप आ जायेंगे ,बल्कि घर –घर जाकर दस्तक देंगे कि लो हम आ गये –अब हमें हंस - हंसकर झेलो .तो दोस्तों आने वाले दिन कोमेडी के होंगे .अच्छा है आप भी अपना किरदार तलाश लें .परिणाम के अनुसार आपका मंत्रालय पक्का .जो चाहोगे वही मिलेगा .जनता ही हमारी कामधेनु और कल्पवृक्ष है .उसे जितना बेवकूफ बनाओगे उतना बड़ा फल पाओगे .
# शक्तिनगर, चन्दौसी, संभल 244412
मोबाइल 8218636741


Thursday, November 13, 2014

सुधीश पचौरी

मोदी की बदलती छवि पर मुग्ध आलोचक सुधीश पचौरी
बलि जाऊं लला इन बोलन की
 बाबा नागार्जुन ने सुधीश पचौरी  के भविष्य को पालने में ही पढ़ लिया था . इस उत्तरआधुनिकता के पुरोधा ,मीडिया विशेषज्ञ को विमर्श से मनमाने निष्कर्ष निकालने में महारत हासिल है .दिल्ली विश्वविद्यालय के चार साला स्नातकीय कोर्स के अंधसमर्थक इस अरुण जेटली ने भाजपा के सत्ता में आते ही केतली खौलती देखकर जो पलटी मारी तो वह आज तक ठंडी नहीं हुई है .
उत्तर आधुनिकता की गहरी जड़ें अवसरवाद में धंसी हुई हैं .कहीं भी पाठ,विश्लेषण और विमर्श के नाम पर पलटी मारने की सुविधा –अनेकान्तवाद-स्यादवाद –बहुलता के नाम पर .

आज 13 नवम्बर के अमर उजाला में सुधीश पचौरी की  –मोदी की बदलती छवि और पस्त होते आलोचक –टिप्पणी पढकर इस धारणा की पुष्टि हुई .अशोक चक्रधारी का यह विलोम पूरी धज के साथ चक्रवर्ती मोदी के ध्वजारोहण का अग्रगामी अश्व बना दौड़ता हुआ दिखाई दिया .अपने चौकों –छक्कों से इसने पूरा मैदान छेक दिया .भारतरत्न को भी इस कला में इस महारथी ने पीछे छोड़ दिया .’मोदी के निंदकों को काठ –सा मार गया है .उनकी बोलती मोदी ने बंद नहीं की ,जनता ने की है ‘-जय हो ब्रह्मर्षि की  इस चरण वन्दना की . अब अश्वमेध का पौरोहित्य तो पक्का समझो .तुम्हारा यह पतन होना ही था –धुरंधर .

Wednesday, November 12, 2014

नये बीरबल की खोज

# मूलचन्द्र गौतम
अकबर के साथ किसी एक आदमी का नाम जुडा है तो वह बीरबल है .उन्हीं के किस्से- कहानी लोक में मशहूर हैं .बीरबल न होता तो अकबर का कोई नामलेवा न होता .लोग तो अकबर से ज्यादा  अक्लमंद बीरबल को मानते हैं .पता नहीं ये बीरबल उस जमाने चाय पीता था क्या ?जो हर समय उसे नई –नई तरकीबें सूझती रहती थीं .

भारत एक खोज की तर्ज पर आजकल बीरबल की खोज जारी है .जैसे चुनाव में जीत की गारंटी के लिए बाहुबली की तलाश हर दल के नेताओं को रहती है ,उसी तरह हर नेता अपने साथ एक बीरबल भी रखता है ,जिसका काम नेताजी की छवि को हर तरह से चमकाना होता है .एक तरह से यह बीरबल राजा और प्रजा के बीच सौहार्द और सम्बन्ध कायम करने का विश्वसनीय माध्यम होता है .राजतन्त्र में यह काम अक्सर अक्लमंद ,हंसोड़ विदूषकों के जिम्मे होता था .कई बार जब राजा उनके इशारों को समझ नहीं पाता था तो उन्हें आँखों में अंगुली डालकर समझाना पड़ता था .नबावी दौर में भी यह काम जारी रहा .
अंग्रेजों ने अपने इन वफादार बीरबलों को बड़ी –बड़ी जायदाद और इनाम –इकराम बख्शे थे .रायबहादुर –रायसाहब जैसे ख़िताब इन्हीं  जैसों के लिए थे .आजादी की लड़ाई में यह काम कवियों और शायरों ने किया था .इसीलिए गांधीजी इन्हें बड़ी इज्जत देते थे . गुरुदेव और राष्ट्रकवि जैसी उपाधि तक उन्हें हासिल थी .
चाचा नेहरू जरा नजाकत –नफासत पसंद थे .बीरबलों की उन्हें जरूरत नहीं थी लेकिन राष्ट्रवादी एक- दो कवि उन्होंने भी पाल रखे थे .चीन युद्ध में इनका वीररस किसी काम नहीं आया था और देश की गरीब ,साधनहीन सेना पिट गयी थी .तब बीरबल की जगह मेनन को बलि का बकरा बनना पडा था .
उसके बाद अनेक बीरबल हुए हैं जिनका नाम जनता जानती है ,इसलिए बताने की जरूरत नहीं .उनमें कई तो वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं .आजकल की भाषा में चुनाव में जमानत जब्त हो जाना ही वीरगति को प्राप्त होना है .इसीलिए हर झंगा –पतंगा शहीद कहलवाना पसंद करता है .कई तो  खुद ही अंगुली में आलपिन चुभाकर शहीद हो जाते हैं .
तो किस्सा –कोताह यह कि देश को नये बीरबल की जरूरत है . जो लोग खुद को इस पद के योग्य समझते हों आवेदन करें .वेतन ,बंगला ...वगैरह योग्यतानुसार।
# शक्तिनगर, चन्दौसी, संभल 244412
मोबाइल 8218636741

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Sunday, November 2, 2014

पीला धन



पीला धन 
# मूलचन्द्र गौतम

जब से देश में काले धन की चर्चा शुरू हुई है ,पीला धन शर्म के मारे जमीन में धंसा जा रहा है . काले धन के मालिकों से सवाल है कि आम ,सरसों पर फूल आने बंद हो जाएँ तो क्या उन्हें काले धन से पैदा किया जा सकता है ? इतिहास गवाह है कि रावण से ज्यादा काला धन तो आज तक किसी के पास नहीं हुआ ,न होगा फिर भी आज तक कोई दूसरी सोने की लंका नहीं बन पाई ?हनुमान ने इस  पीली सोने की लंका में आग लगाकर इसे काली करने की कोशिश की थी लेकिन यह आज तक काले धन की सुरक्षित जगह है .यह बात अलग है कि अब इसकी राजधानी श्रीलंका से हटकर स्विटजरलैंड हो गयी है ताकि कोई हनुमान उसमें  फिर से आग न लगा सके .
भारत में गोधन ,गजधन, बाजिधन ,रतनधन की टक्कर पर गरीब का संतोष धन भारी पड़ता था ।वर्तमान में विश्व में  भारतीय जनता से ज्यादा सोनाप्रेमी कोई जनता नहीं है . सोना खरीदने में असमर्थ होने पर गरीब आदमी चांदी और गिलट से भले संतुष्ट हो जाता था लेकिन सोना उसकी पहली पसंद थी .राजा –महाराजा हीरा ,मोती,माणिक रखते थे लेकिन भगवान का ऐश्वर्य सोने में ही रहता था .लक्ष्मी गणेश तो सोने में ही बसते थे ।स्वर्ण मन्दिर की कल्पना तिरुपति और शिरडी तक फ़ैल रही है .अब शंकराचार्य तक का धंधा पिट चुका है .उन्हें कहीं से भी पीला धन प्राप्त नहीं हो रहा .जबकि अल्लू पल्लू कथावाचकों की बल्ले बल्ले है ।मालामाल हैं।अम्बानी ,अडानी से टक्कर ले रहे हैं।
धंधे में कल के लौंडे झंडे गाड़ रहे हैं .बीवियों को करोड़ों -अरबों के मकान –जहाज गिफ्ट दे रहे हैं .शादी ब्याहों में धन की बौछारें हो रही हैं ।देसी गर्ल की नकल को विदेशी गर्ल ने पीट दिया है।वेडिंग डेस्टिनेशन में इटली पहली पसंद है।वैडिंग डिजायनर सब तय कर रहे हैं ।यह किसी मामूली आदमी के बस का काम नहीं।
लगता है देश में काले और पीले धन के बीच महाभारत छिड़ चुका है और सुप्रीमकोर्ट संजय की तरह तटस्थ होकर धृतराष्ट्र को युद्ध का ताजा हाल सुना रहा है . पीले धन को रखने का भारी झंझट है ।बैंक के लॉकरों पर कभी छापा पड़ सकता है।प्रतीक्षा है कि आखिर में वासुदेव निर्णय दे देंगे कि काले और पीले धन में कोई फर्क नहीं है .खोजना ही है तो सफेद धन की खोज की जाय ताकि देश को फिर से सतयुग में लाया जा सके .लक्ष्मी के वाहन उलूक राय की भी यही राय है कि देश में कालेधन की वापसी के सारे प्रयत्न छोडकर सफेद धन की खोज की जाय .
बस तभी से नेताओं के कपड़ों की सफेदी बढती जा रही है-पल –प्रतिपल।
बॉलीवुड और क्रिकेट ने सारे पुराने धंधों को पीट दिया है।हथियारों की दलाली में तो मुहावरे की तर्ज पर चांदी ही चांदी है।ड्रग्स का नया धंधा उफान पर है ।झंगे पतंगे के पास चार्टर्ड प्लेन हैं जिनसे जब जहां चाहे उड़कर जा सकते हैं।फिलहाल मॉरीशस पहली पसंद है।एक एक के पास अनेक नागरिकताएँ हैं ।गरीब आदमी एक भी निभाले तो बहुत है ।
#शक्तिनगर,चन्दौसी, संभल 244412
मोबाइल 8218636741

Saturday, November 1, 2014

चश्मा ,नंगी आँखों का सच और इतिहास



इतिहास सत्ता का प्रोपेगेंडा मात्र है –जर्मन नाटककार अर्नेस्ट टालर.
आखिर प्रोफेशनल इतिहासकारों के बाद साहित्यकारों को ही इतिहास और राजनीति के प्रेत क्यों परेशान करते हैं ?
 आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और जयशंकर प्रसाद को क्या जरूरत थी –इतिहास के घने जंगल में घुसने और भटकने की .आचार्य चतुरसेन और वृंदावनलाल वर्मा से लेकर भगवान सिंहतक भटक रहे हैं लेकिन अंतिम रूप से कुछ तय नहीं हो पा रहा कि इतिहास का सत्य और तथ्य क्या है ?फिर कैसे तय होगा इतिहास ?रोमिला थापर और पी एन ओक के बीच का झगड़ा है सारा .शास्त्र और शस्त्रों से भी तय नहीं हो पाया यह झगड़ा .विभाजन ,मुतबातिर दंगों  और बावरी मस्जिद विध्वंस से भी सुलझ नहीं  पाई यह गांठ .
बोतल में बंद यह जिन्न फिर सामने आकर खड़ा है –जबाव पाने को .संघी इतिहासकारों ने पुराने  अस्त्र –शस्त्र संभाल लिए हैं .सास भी कभी बहू थी की नायिका सुलझाएगी इस अबूझ पहेली को ?डर है कि अबकी बार कहीं ताजमहल को ढहाकर शिवमन्दिर निर्माण का संकल्प न ले लिया जाय ?अकबर और राणा प्रताप .औरंगजेब और शिवाजी फिल्मों और टीवी सीरियलों से बाहर न निकल पड़ें कहीं ?

Saturday, October 25, 2014

काला धन और छद्म राष्ट्रवाद


भ्रष्ट और छद्म धर्मनिरपेक्ष यूपीए सरकार के खिलाफ कालेधन को स्वदेश लाने,अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के विरुद्ध हिंदुत्व को जाग्रत करने के एजेंडे पर केंद्र की सत्ता में आई मोदी सरकार द्वारा सुप्रीमकोर्ट में विदेशों में कालाधन रखने वालों के नामों का खुलासा न करने के कमजोर  तर्कों ने सिद्ध कर दिया है कि बुनियादी तौर पर जनमत के साथ धोखा हुआ है .वित्तमंत्री अरुण जेटली के ब्लेकमैली कुतर्कों ने कांग्रेस को भले कठघरे में खड़ा किया हो ,जनता को निराश ही किया है .मोदी के विदेशी दौरों और हवाई वादों से सरकार की हवा बनाने की रणनीति ज्यादा समय तक कारगर नहीं होगी .रामजेठ्मलानी और सुब्रहमन्यणम स्वामी जैसे शुभचिंतकों की मानें तो  सरकार की ओर से सुप्रीमकोर्ट में उठाये गये  ये ‘बिना सोचे समझे ‘कदम केवल समस्या से बचने के बचकाने बहाने हैं .दोहरे कराधान से बचाव के समझौतों की आड़ में कौन से राष्ट्रवाद की रक्षा होगी यह छिपी हुई बात नहीं है .कांग्रेस ने इसी तरह के गोपनीयता के नियमों के तहत आजादी के समझौतों का खुलासा आज तक नहीं होने दिया है.

ऐसे में सवाल यह उठता है कि जनता किस पर विश्वास करे .जैसे सांपनाथ वैसे नागनाथ के जाल में फंसने के अलावा भी  उसके पास कोई मजबूत विकल्प बचता है क्या ?राष्ट्रीय और क्षेत्रीय झमेलों में सत्ता का ध्रुवीकरण उसे कैसे भटकाता है ,यह बतानेवाले मीडिया का भी व्यवसायीकरण इस विकल्पहीनता को बढ़ाता है . आज जनविरोधी प्रयत्नों को निष्फल करने की रणनीति पर विचार की बेहद जरूरत है .कांग्रेस मुक्त भारत की बात करने वालों के विरुद्ध भाजपा मुक्त भारत के ध्रुवीकरण के विकल्प मौजूद हैं . जल्द ही जरूरत उस तीसरे विकल्प की भी महसूस होने लगेगी जो दोनों से मुक्त करके देश को सही दिशा देगा .

Monday, October 20, 2014

नेताओं का भ्रष्टाचार और उत्तर -दक्षिण की जनता का फर्क



हाल ही में अन्नाद्रमुक प्रमुख और तमिलनाडू की मुख्यमंत्री सुश्री जयललिता के आय से अधिक सम्पत्ति और  भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल जाने से दुखी उनके  १९३ समर्थकों ने जान की बाजी लगा दी .इनमें से १३९ की मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई और बाकी ने ख़ुदकुशी कर ली .जयललिता ने  पार्टी की ओर से मृतकों के परिवारों से सहानुभूति जताते हुए सभी को बिना भेदभाव के तीन –तीन लाख रूपये की राहत राशि देने का ऐलान किया है जबकि ख़ुदकुशी की कोशिश करने वाले लोगों के उपचार के लिए पचास हजार की राशि दी जाएगी .आत्मघातियों को मुआवजे का यह ऐलान क्या इस नकारात्मक प्रवृत्ति को बढ़ावा नहीं देगा ?सुप्रीमकोर्ट को चाहिए कि वह इस घटना का स्वत;संज्ञान लेकर इस पर रोक लगाये भले उसे इस रूप में जमानत देने की एक नई शर्त जोडनी  पड़े .
 ये घटनाएँ सिद्ध करती हैं कि दक्षिण की जनता अपने नेताओं और अभिनेताओं को आत्मघाती भावुकता की हद तक प्यार करती है .इससे पहले भी ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं जब दक्षिण की जनता ने ऐसा ही आत्मघाती व्यवहार किया है. इंदिरा गाँधी  की हत्या के बाद का आक्रोश जहाँ सिखों के विरुद्ध हिसा और लूटपाट में उभरा था वहीं राजीव गाँधी की हत्या से भी इस अंध भावुकता का गहरा सम्बन्ध प्रमाणित हो चुका है .अमिताभ बच्चन की बीमारी से उपजी व्यापक सहानुभूति में भी यही भावना दिखी दी थी लेकिन वह आत्मघाती नहीं थी .उत्तर भारत की जनता वैसे भी नेताओं को लेकर इतनी भावुक नहीं जितनी दक्षिण की है . सुखराम ,लालूप्रसाद यादव या अन्य नेताओं की गिरफ्तारियों में कोई आत्मघाती कदम जनता में नहीं दिखा .क्या यह जनता की मानसिकता का फर्क है या परिपक्वता के स्तर का ?

Sunday, October 12, 2014

चाय के प्याले में हुदहुद

# मूलचन्द्र गौतम


  

जबसे तूफानों का नामकरण होना शुरू हुआ है तभी से चाय के प्यालों ने बगावत खड़ी कर दी है कि अब उनमें आने वाले तूफानों को भी सर्वनाम के बजाय नामों से पुकारा जाना चाहिए .आखिर उनकी भी कोई इज्जत है .इसीलिए उनके नाम ऐसे रोमांटिक रखे गये हैं कि लोग उनसे डरने के बजाय प्यार करने लगें।प्याज ,टमाटर और डीजल- पेट्रोल और तमाम तरह की गैस की कीमतों में उछाल आने पर विपक्षी नेता सरकार की लानतें मलामतें करके आसमान सिर पर उठा लेते हैं लेकिन चाय ,तम्बाकू और दारू कितने भी महँगे हो जायें किसी को कोई फर्क नहीं पडता।अजीबोगरीब है यह देश। इसलिये जब तक पेट्रोल का भाव दारू के बराबर न हो जाय तब तक तमाम विरोधी आन्दोलनों पर पाबंदी लगनी चाहिए  ।आजकल देश में चाय बेचने वालों को बार गर्लों से ज्यादा जो इज्जत  मिल रही है उससे उनका दिल गार्डन गार्डन हो गया है  .आखिर चाय के प्याले में ही तूफान आता है –कुल्हड़ में नहीं .
नशा शराब में होता तो नाचती बोतल .जो कभी नहीं नाची .काफी को भी देश में वह इज्जत नहीं मिल पाई जो चाय को मिली।काफी हाऊसों में गिने-चुने लोग ही बहसों में उलझते हैं जबकि चाय बहुसंख्यक पेय है।उसके बिना मजदूरों की भी  गुड मॉर्निंग  नहीं होती वैसे भी जब से मुर्गे चिकन हुए हैं उन्होंने बांग देना छोड दिया है .आखिर लोकतंत्र बहुसंख्या का खेला है –मेला है –रेलमपेला है और नहीं तो बिगड़ा हुआ ठेला है ,जिसे चाहे जिधर ठेलते रहो .बुद्धिमान लाख कहते रहें कि बहुसंख्यक मूर्ख होते हैं लेकिन उन्हें चुनाव में जिताने को अक्लमंद मिलते ही नहीं इसलिए ज्यादातर की जमानत जब्त हो जाती है और फिर हिम्मत इतनी टूट –फूट जाती है मरम्मत की गुंजाइश भी नहीं रहती .इसीलिए वे काफी हाउसों में बैठकर  बहुसंख्यक चाय प्रेमियों को कोसते रहते हैं .
काफी बुद्धिजीवियों का परम प्रिय पेय है .काफी हाउसों की एक जमाने में जितनी धूम मची रहती थी उतनी चाय की नहीं .चाय पीने वाले चतुर्थ श्रेणी के माने जाते थे इसीलिए उन्हें साहित्य और विचार की दुनिया में वह इज्जत जिन्दगी भर नहीं मिलती थी जो काफी पीने वालों को तुरंत मिल जाती थी –इंस्टेंट .लोहिया जी बुद्धिजीवियों से मिलने को दिल्ली ,लखनऊ,इलाहाबाद के काफी हाउसों की खाक छानते रहते थे ,बहस भी बेजोड़ करते थे लेकिन नेहरूजी के मुकाबले हमेशा हल्के पड़ जाते थे .यही हाल उनके चेलों का था और है .चाय को समाजवादी पेय मानने वाले कम नहीं हैं लेकिन उनका शेयर पूरी दुनिया में डाउन है। अब सब धान बाईस पसेरी नहीं चलने वाला।

पीने वालों को क्या कहिये फेंकू की चाय के अलावा कोई चाय उन्हें  नहीं जंचती .बजाते रहें जाकिर हुसैन तबला –वाह ताज कहते हुए .बनारस के पप्पू की चाय के प्रेमी किसी भी चाय को पसंद नहीं करते .ग्रीन टी,लेमन टी....और जाने कितनी –कितनी टी हैं .ट्रम्प  को कोई नहीं मिली तो गरम पानी ही सही .इसमें भी उनकी बेइज्जती ही हुई .कम से कम संजीवनी ही मंगा लेते।

.खैर चाय वालों ने एक राष्ट्रीय स्तर की बैठक में सर्वसम्मति से यह तय कर लिया है कि आइन्दा से चाय के प्यालों में उठने वाले तूफानों को भी वही नाम दिया जायेगा जो नये तूफान का होगा .यही उनका ब्रांड होगा और बाकी कोई ब्रांड नहीं चलेगा .जो भी इस निर्णय का विरोध करेगा उसे जाति से बाहर कर दिया जायेगा .देश निकाला भी हो सकता है .ऊपर से राष्ट्र्द्रोह का मुकदमा चलेगा अलग से ।
# शक्तिनगर ,चन्दौसी, संभल 244412
मोबाइल 8218636741

Tuesday, September 30, 2014

लफ्फाजी के पुए




जबसे रामलाल ने सुना है कलिकाल में केवल गाल बजाने वाले ही पंडित कहलायेंगे तभी से उनकी पौ बारह हो रही है .अब हर जगह वे मौका देखते ही यह काम शुरू कर देते हैं . राम लाल के पिताजी उन्हें कथावाचन के धंधे में डालना चाहते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि उनके बाद कहीं जजमानी के बारह गाँव उनके चंगुल से निकल न जाएँ .वे उन गांवों के खेरापत,पुरोहित वगैरह सब कुछ थे .
रामलाल गपोड़ी नम्बर वन थे .चलते –चलते किस्से गढने में उन्हें महारत हासिल थी .कोई चतुर सुजान उनकी तथ्यात्मक गलती पकड़ भी लेता था तो वे अपनी हाजिरजबावी से उसे लाजबाव कर देते थे .अगर वो फिर भी न माना तो खीसें निपोर कर फी... ही... ही.. की ऐसी हंसी हँसते थे कि सामने वाले की बोलती बंद हो जाती थी .
पिताजी ने उन्हें समझा दिया था कि केवल रामायण और गीता –दो ही किताबें उन्हें जिन्दगी में सब कुछ उपलब्ध करवा देंगी –धनधान्यसुतान्वित .यही नहीं कोई यजमान कायदे का मिल गया तो पौ बारह .तब से वे इसी पौ बारह के पीछे पगलाए घुमते हैं .उनका एक पैर लखनऊ तो दूसरा दिल्ली .तीसरा पैर होता तो उसे वे मुंबई में रोपते अंगद की तरह .
तो यही थी रामलाल की रामलीला .उनकी पत्नी का नाम भी लीला ही था जिसे वे प्यार से सत्यनारायन कथा की लीलावती कहते थे .अनुप्रास उनका प्रिय अलंकार था .थ्री डी,फॉर पी ,कभी थ्री आर , कभी थ्री एस ...थ्री उनका प्रिय नम्बर .सट्टेबाजी के शौकीनों के लिए फिक्स .कहीं यजमान की पौ बारह पड़ गयी तो वे हनुमान जी के रोट के नाम पर सवा मनी ,ढाई मनी ..और पांच मनी तक करा देते थे .
रामलाल को खाने में पुए पहली पसंद थे ,खीर के साथ  मिल जाएँ तो मानो उन्हें  अमरपद मिल गया .इसलिए वे हर समय सपनों में भी पुए ही देखते थे- खाते थे .मालपुए  जैसे उनके गालों में भरे रहते थे ,इसलिए उनकी आवाज भी खास तरह की हो गयी थी .
रामलाल परसों दिवंगत हो गये .उनकी आखिरी इच्छा विदेश जाने की थी जो अधूरी रह गयी है .उनके पुत्र –पौत्रों ने कसम खायी है कि वे विदेश तक अपनी जजमानी फैलाकर उन्हें सच्ची श्रृद्धांजलि देंगे .उनकी तेरहवीं में खीर और मालपुए बनेंगे .उनकी पहली पसंद .

Sunday, August 31, 2014

चीन -जापान और भारत

अब चीन और जापान की जनता बुद्ध की नहीं पूँजी की भक्त है

अतीत में समाज को सक्रिय करने में धर्म     की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी और अब भी है .एक विकासशील- संक्रमणशील समाज में न तो कुछ भी एकदम खत्म हो जाता है न शुरू होता है .एक मिलाजुला मानस लम्बे समय तक चलता रहता है .उसी तरह इनमें टकराव और सहकार भी .इतिहास,संस्कृति ,शिक्षा आदि सभी क्षेत्रों में यही स्थिति रहती है .इसीलिए आधुनिक प्रौद्योगिकी और संस्कृति के जटिल सम्बन्धों पर विचार करने वाले चिंतकों ,थिंक टैंकों और रणनीतिकारों कि निगाह में आर्थिक पक्षों के बजाय अन्य पक्षों का कम महत्व नही होता .

भारत का इतिहास उसके वर्तमान पर इसीलिए भारी पड़ता है क्योंकि उसके बिना कोई बात नहीं हो सकती .केवल व्यापार की सीमित समझ के चलते अन्य देशों के साथ हमारा रिश्ता स्थायी नहीं हो सकता .भारत और पाकिस्तान के सम्बन्ध चीन ,जापान और दक्षिण एशिया के देशों की तरह नहीं निभाए जा सकते .विभाजन और 1962 को एक ही पलड़े में नहीं रखा जा सकता .पश्चिम एशिया के देशों के साथ सम्बन्धों में भी यही जटिलता मौजूद है .इसराइल –फिलिस्तीन और ईरान –इराक को सीधी –सरल रेखा कि तरह नहीं लिया जा सकता .
तेजी से बदलती दुनिया में निर्णय भी विवेकपूर्ण  तेजी से किये जाने चाहिए ताकि आंतरिक –बाह्य संतुलन बना रहे .शीर्ष नेतृत्व और  उसके सलाहकारों के बीच सही तालमेल के बिना यह सम्भव नहीं है .यूपीए गठ्बन्धन में सदस्य दलों के भ्रष्टाचार को न रोक पाने के कारण ही मनमोहनसिंह जैसा अर्थशास्त्री फेल हो गया क्योंकि सख्त निर्णय वह कर नहीं सकते थे . अमेरिकी  परमाणु बिजली संयंत्रों की स्वीकृति को लेकर  वामपंथी दलों की समर्थन वापसी का यह दुखद परिणाम था .
उसी असफलता के कारण मध्यवर्गीय मोहभंग और जनाक्रोश ने सत्ता बदलकर दक्षिण पंथियों को अविश्वसनीय बहुमत दे दिया .अल्पसंख्यक वोट बैंक सत्ता संतुलन को नहीं साध सके .
सत्ता हासिल करने के बाद मोदी को दल से जैसे एकाधिकार मिल गया –जो चाहो सो करो वाला .इसकी झलक उनके मन्त्रिमण्डल में साफ तौर पर दिखती है .उनकी एकाधिकारवादी शैली ने मंत्रियों में भी भय पैदा कर दिया है .यह यकायक किसी भावी आपातकाल कि तैयारी तो नहीं .उनकी यात्राओं की रणनीति और भाव –भंगिमाओं के भी अर्थ और अनर्थ हो रहे हैं .कुर्तों ,जैकटों ,चश्मों के डिजायनों के चर्चे भी कम नहीं .नकलें भी शुरू हो चुकी हैं –ब्राण्डों की तरह.जैसे वह आदमी नहीं कोई दिव्य अवतार हों .अवतारप्रिय राजतन्त्र की आदी जनता को जैसे खोजा नसीरुद्दीन –तेनालीराम-हातिमताई टाइप सुपरमैन मिल गया हो .उसका हर काम जैसे दैवीय हो .मीडिया की प्रस्तुति उसे और भव्य बनाती हो .
 अहिंसा और धर्म प्रचार से विश्व को मानवीय बनाने का प्रयास करने वाले बुद्ध ने चीन ,जापान और दक्षिण एशिया के सभी देशों में जगह बनाई .नेहरूजी  ने इसी भ्रम में पंचशील को अपनाया कि उन्हें राजनीति में इसकी जरूरत है ,लेकिन सबसे पहले चीन ने धोखा दिया 1962 में युद्ध छेड़कर.इस झटके से नेहरूजी उबर नहीं पाये.यहीं से वह गांठ पड गयी जो आज तक टीसती है .चीन ने तिब्बत के साथ जो किया वह भी भारत पर बोझ है जो आज तक उतरने का नाम नहीं लेता .क्या मोदी इस गांठ को खोलकर सुलझा पाएंगे ?चीन में माओ कि सांस्कृतिक क्रांति ने जो माहौल खड़ा किया और चीन का चेयरमैन हमारा चैयरमैन का नक्सलवादी नारा भारत में गूंजा ,उसकी ध्वनि आज भी रेड कोरिडोर के रूप में मौजूद है .क्या सलवा जुडूम इसका हल है ?
जहाँ तक जापान से भारत का सम्बन्ध है ,वह सांस्कृतिक कम तकनीकी ज्यादा है . आम भारतीय के मन में चीनी उत्पादों की तुलना में जापानी उत्पादों की गुणवत्ता और विश्वसनीयता अधिक टिकाऊ है .वहां चीन की तरह की कोई सांस्कृतिक क्रांति भी नहीं हुई है .मारुति को कोई भारतीय  जापानी कार मानता ही नहीं ,सोनी ,निकोन की तरह  और मेट्रो ने तो जिन्दगी का नक्शा और नजरिया ही बदल दिया है .नेताजी का हादसा न हुआ होता तो शायद भारतीय राजनीति की पटकथा ही अलग होती . इस मामले में मोदी को कांग्रेस जैसी कोई दुविधा नहीं है .इसलिए जापान हमारे लिए रूस कि तरह विश्वसनीय मित्र देश है .


Wednesday, July 16, 2014

बहस: गांधीजी


विक्रेताओं और हत्यारों के बीच और बाहर गाँधीजी

#मूलचन्द्र गौतम

आज तक ग़ालिब ,गाँधी और नेहरु को हंसराज रहबर से ज्यादा आलोचनात्मक गालियाँ किसी ने नहीं दी होंगी .तीनों को उन्होंने बेनकाब किया .यह सब उनकी सत्ताधारियों के प्रति दबी –खुली निष्ठा के प्रति घृणा का परिणाम था .रहबर ने लेखक होने के नाते  कभी सत्ताधारियों से अपने लिए  कुछ इनाम –इकराम और विशेषाधिकार  नहीं माँगा ,इसलिए उनकी इस घृणा की जो नैतिक आभा थी वह धूमिल नहीं हुई .
भारत की आजादी के संघर्ष में गांधीजी के योगदान और शैली से असहमत लोगों के लिए भी वे इतने घृणित नहीं थे कि कोई उनकी हत्या कर देता .यह काम अंग्रेजों के लिए तो और भी मामूली था .वे चाहते तो उन्हें कभी और कहीं भी ठिकाने लगा दिया जाता .इसी कारण रहबर उन्हें अंग्रेजी सत्ता का सेफ्टी बाल्व कहते थे .यह आम भारतीय जनता को हिंसा और खून खराबे से बचाने की उनकी रणनीति थी जिसे अति क्रांतिकारियों द्वारा  उनकी कमजोरी और समझौतावादी नीति समझा गया .इसी कारण वैचारिक तौर कभी गांधीवाद की शवपरीक्षा की गयी और कभी हत्या .
 गाँधी जी भारत की आजादी मिलने के तौर –तरीकों से कतई सहमत नहीं थे .उन्हें विभाजित भारत बिलकुल स्वीकार नहीं था लेकिन उत्तराधिकारियों की सत्ता लोलुपता ने उन्हें मजबूर कर दिया था कि बेबस हो जाएँ .आखिरी साँस तक वे इस रक्त पिपासु आजादी के दुष्परिणामों से देश और देशवासियों को बचाने की भरसक कोशिश करते रहे और अंत में  तथाकथित राष्ट्रवादी घृणा की पराकाष्ठा –हत्या के शिकार हो गये .शहीद –बलिदान जैसे शब्द इस मामले में भावुक और निरर्थक हैं .
हत्या के बाद गाँधी और उनके अहिंसावादी दर्शन का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खूब प्रचार –प्रसार हुआ और उनकी विरासत और वसीयत भी चतुर लोगों ने  चतुराई से अपने नाम करा ली लेकिन भारतीय जनता का उनके प्रति लगाव बना रहा .चीन युद्ध से जैसे पूरे देश और नेताओं का  खोखले आदर्शों से मोहभंग हुआ फिर भी वंश और परिवार के प्रति मोह बना रहा और हत्यारों-आंतरिक कुचक्रियों को सत्ता हासिल करने का मौका नहीं मिल पाया .सुजात और कुजात गाँधीवादी आपस में लड़ते रहे ,एक दूसरे को कोसते –काटते रहे .
आपातकाल के बाद कुजात गांधीवादियों और हत्यारों को सत्ता हासिल करने का  मौका मिला जो इन्हीं अंतर्विरोधों के कारण जल्दी ही बिखर भी गया .अब फिर गाँधी के विक्रेताओं के अकूत भ्रष्टाचार से उकताई जनता ने सिर्फ हत्यारों को मौका दिया है कि शायद यही उनके सच्चे वारिस साबित हों और उनकी सही नीतियों को लागू करें .गाँधी को खुल्लमखुल्ला बापू और राष्ट्रपिता न मानने वाले व्यापारियों से उनकी नीति और नैतिकता के पालन की उम्मीद करना फिजूल है लेकिन जोखिम तो उठाना ही होगा .शास्त्र से बात न बने तो शस्त्र तो है ही .भारतीय जनता इन्हें भी हिन्द महासागर में डुबाने की सामर्थ्य रखती है .
#शक्तिनगर, चन्दौसी, संभल 244412
मोबाइल8218636741

Wednesday, July 9, 2014

रंडी ,भडुआ एंड फैमिली


ललित निबन्ध

भाषाओँ का व्यवहार और सम्बन्ध आदमी के सम्मान , अपमान और हैसियत से जुडा हुआ है .मालदारी के तीन नाम –परसी,परसा,परसराम की तरह गरीबी के तीन नाम लुच्चा,गुंडा ,बेईमान इसी व्यवहार की हकीकत है . अक्सर हम जिनका सम्मान करना चाहते हैं उनके लिए जान बूझकर बड़े आदरसूचक शब्दों का चुनाव करते हैं .मान्यवर ,माननीय और फिर महामहिम .और जिनके लिए अपमानजनक शब्द चुनते  हैं तो भी जान बूझकर –काना ,ऐंचा ताना ,टकलू ,कोत गर्दना,कंजा ,मरियल ....यानी भाषा के पीछे है भाव .और भाव के भूखे हैं भगवान .इसीलिए तुलसी बाबा वहां जाने को मना करते हैं जहाँ देखत ही हरषे नहीं ....कई बार मन में घृणा होती है और भाषा में चापलूसी .इसी का नाम है रणनीति-कूटनीति .ऐसे में भाषा का छद्म छुप नहीं सकता .या तो आपका होंठ कट जायेगा या जीभ और नहीं तो बांयीं आँख ही फड़क कर चुगली कर देगी .आप समझ जायेंगे कि कोई पीठ पीछे आपको गाली दे रहा है .सामने आकर देता तो आप उसकी आँख निकाल लेते या कम से कम ऐसी –तैसी तो कर ही देते .
भिक्षा वृत्ति दुनिया का सबसे पुराना पेशा है ,पेशावर से भी ज्यादा .कोई भी आत्मसम्मानी भिखारी बनने से परहेज करता है .इसका बेशर्मी और बेहयाई से गहरा रिश्ता है –चोली –दामन की तरह का .यह धीरे –धीरे मांगकर बीडी पीने की आदत की तरह शुरू होता है और ब्लड केंसर में तब्दील हो जाता है  .अब भीख चाहे एक पैसे की हो या अरबों की ..इसी तरह देह व्यापार है .धर्म और परिवार की व्यवस्थाओं से मुक्ति या गरीबी की मजबूरी से शुरू होकर यह वृति कब कला के पवित्र मन्दिरों से उठकर कोठे पर जा बैठी –पता ही नहीं चला .दोनों में फर्क करने वाली निगाह ही धुंधली हो गयी .देह व्यापार की संकीर्ण और व्यापक –व्यापारिक धारणाओं में मान –अपमान का भाव क्या केवल सामाजिक दृष्टि का फर्क है ?.रात –दिन देह भाषा की खोज में रत शोधार्थियों को क्यों माडलिंग या विज्ञापनों में देह –व्यापार नजर नहीं आता और फिर यह केवल महिलाओं तक ही क्यों सिमट जाता है ?पुरुष वेश्या की धारणा क्या केवल नई है ? जरूरी है कि इन सब बातों पर विचार के लिए हमें पारम्परिक नैतिकता के मापदंडों को बदलना होगा ?वर्ना तो हम मौके के मुताबिक मनमानी व्याख्याएं करते रहेंगे .
अब अपने शहर में मशहूर है एक रंडी का बाग और एक कोठी मुनीर मंजिल .कोई उसे मुफ्त में भी लेने को तैयार नहीं ,खरीदना तो दूर की बात है .अब व्यापार बुद्धि का कमाल कहिये या जादू कि रियल एस्टेट वालों द्वारा बाग का नाम प्रशांत विहार और कोठी का नाम रामायतन रखते ही उनके दाम आसमान छूने लगे हैं .कौडियों का माल करोड़ों में .यही है आज का मैनेजमेंट.जिसे सीखने लोग बाग मोटी फीस देकर हार्वर्ड जा रहे हैं .दलाल जबसे दल्ले और भडुए से ब्रोकर ,कमीशन एजेंट ,लाइजन अफसर ...और जाने क्या –क्या बने हैं ,उनकी बल्ले –बल्ले है .मैं तो सारे मजदूर –किसानों को यही बनने की कोचिंग चलाने वाला हूँ .स्ट्रेस मैनेजमेंट के बिजनैस में ही अरबों का खेल है .हिंदी के एक टटपूँजिया लेखक के अपने होनहार को हथियारों के बिजनैस में डाल दिया .फिर वह भले  नटवरलाल की तरह  जेल में रहे इज्जत तो उसकी इंटरनेशनल हो गयी .अब बड़े –बड़े तीसमारखां जेल में ही उससे बड़ी –बड़ी डीलें करने को मारे –मारे फिर रहे हैं .कविता करके जिन्दगी भर एड़ियाँ रगड़ता रहता बेचारा और इकतारे पर गाता फिरता संतन कहा सीकरी सों काम....
 चाल,चेहरे और राष्ट्रीय चरित्र को लेकर परेशान हमारे मोहल्ले के एक सज्जन दिन में ही खुलेआम कटिया डालकर बिजली चोरी करते हैं तो मैं उनसे कुछ नहीं कहता .उनका फलसफा है कि कलिकाल में सिर्फ शब्दों की महिमा होगी आचरण कोई नहीं देखेगा .बाबा खुद कह गये हैं –भाय-कुभाय, अनख ,आलस हू ...  राम  ते अधिक राम कर नामा .फिर कबीर भी तो उल्टा नाम जप कर तीनों लोकों में छा गये थे .अपने इकलौते  पूत कमाल को हथियारों की  कोई छोटी –मोटी एजेंसी दिला जाते बुढऊ तो ...अन्ना से ही कुछ सीख लेते ये नंगे –भूखे गन्ना पेरना. इसीलिए मुझे इन संतों में कोई आस्था नहीं .आसा की जगह निरासा कौन  मूरख चाहेगा ? जेल में भी मालिश और कुश्ते –कस्तूरी का इंतजाम न हुआ तो नम्बरदार काहे के ?बिस्मिल्लाह खान को भी भारत रत्न से ज्यादा जरूरी लगता था एक ठो पेट्रोल पम्प .इसी आस को लिए बुढऊ ऊपर चले गये . अब कम से कम यह छन्नू बाबा को तो मिल ही जाना चाहिए .
दरअसल अपने देश की यह प्राचीन परम्परा रही है –एक ईमानदार आदमी को मुखौटे की तरह इस्तेमाल करके उसे कंडोम बना देने की .यूज एंड थ्रो कल्चर के बजाय शाश्वत –सनातन के खोजी जिन्दगी भर परेशान रहने को अभिशप्त हैं .इसीलिए क्षणवादी मौज में रहते हैं .उन्हें न अतीत के भूत –प्रेत सताते हैं न अंधकारमय भविष्य .ईट –ड्रिंक... का फलसफा अपने चार्वाक की देन है .इसलिए देश के कर्णधारों को उधार के विकास से कोई परहेज नहीं .खरबों कर्ज लो और दिवालिया हो जाओ कोई कानून ऐसे कुव्रतों का क्या बिगाड़ लेगा .दुनिया उनके ठेंगे  से .
एक संत थे जो ठग ,ठगिनियों और ठगी को जानकर भी  खुद ठगे जाकर खुश होते थे .उनके जमाने में क्या लाबिस्ट थे नहीं ? पर उन्हें मालूम था कि जब ये भूत –प्रेत लाबिस्ट परेशान करें तो नंगे हो जाओ और जलता हुआ लुकाठा लेकर चौराहे पर खड़े हो जाओ .ये अपने आप भाग जायेंगे .कबीर  और तुलसी को आपस में भिड़ाकर अपना धंधा खड़ा करने वाले इन तथ्यों का जान बूझकर जिक्र नहीं करते .को बाम्हन को शूद्रा कहने वाले को ब्राह्मणवाद के खिलाफ इस्तेमाल करना ही इनकी राजनीति है .ये अंग्रेज के नाती खुद उनकी नीतियों को लागू करने में पीछे नहीं हैं .वंश और परिवारवाद के विरोधियों को यह फैमिली ड्रामा पसंद है जो बुद्धू बक्से के सीरियलों को गुलजार किये हुए हैं .
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Monday, July 7, 2014

बिहार की दुल्हनें



लिंगानुपात के गडबडझाले में बिहार की दुल्हनें चर्चा और चुनाव के केंद्र में हैं . लोगों के मन में काफी कुछ रूढ धारणाओं के रूप में जमा रहता है .पुराने जमाने में ही सुना करते थे कि बंगाल और असम की औरतें  ऐसा जादू जानतीं थी जिनसे आदमी को वश में कर लिया जाता था और फिर वह कभी पीछे मुड़कर नहीं देखता था .इनमें कभी आदमी को मक्खी ,कभी तोता बना लेने के किस्से भी शामिल रहते थे .छुक –छुक पैसा चल कलकत्ता में मजदूरी के लिए निकले वाले गरीबों की बीवियों  माओं का सबसे बड़ा भय अपने पतियों-पुत्रों  को इन्हीं जादूगरनियों से बचाने के लिए किये जाने वाले जप –तपों-व्रतों  में व्यक्त होता था .
अब मजबूरी में यही काम धंधे के तौर पर  पश्चिम के धनवान और पुरुष प्रधान समाज में शुरू हो चूका है .सामाजिक –आर्थिक कारणों पर गम्भीर  विचार और सर्वेक्षणों में यह साफ हो सकता है कि क्यों किसी भी कारण से विवाह वंचित समुदाय की आर्थिक क्षमता बिहार और बंगाल से युवतियों को खरीद कर घर बसाने की प्रवृत्ति में बदल रही है कि हरियाणा में एक चुनावी प्रलोभन बन रही है .बंगाल का नाम लिया जाता तो शेरनी दीदी की प्रतिक्रिया लालू से भी ज्यादा भयंकर होती ,भले वे उसे रोक नहीं पातीं .
आखिर क्यों कोई माता –पिता उड़ीसा ,बिहार ,बंगाल या और भी कहीं अपनी संतानों को बेचने पर मजबूर होते हैं ?गरीबी के अलावा यह किसी शौक के तहत तो नहीं ही होता .एन सी आर में घरों और बिल्डिगों में काम करने वाले समूह भी यही क्यों  हैं ?इन बिहारिनों –बन्गालिनों को कोई रानी –महारानी नहीं बना देता .यहाँ भी वे  तन तोड़ मजदूरी करती हैं और बदले में पिटती-कुटती हैं .अलबत्ता अपवादस्वरूप कोई भला आदमी मिल गया तो बात अलग है कि कभी कभार उन्हें मनपसंद मछली –भात मिल जाय .
जरूरत इस मामले को राजनीतिक शोशेबाजी के बजाय समाजशास्त्रीय दृष्टि से गम्भीरता से लेने की है कि ऐसा क्यों हो रहा है और इसका निदान क्या है ? सामन्ती नजरिये से औरत आज भी पैर की जूती से ज्यादा अहमियत नहीं रखती और पूंजीवादी नजरिये से इस जूती को सिर्फ सजा कर लीप-पोतकर ड्राइंग रूम में रखा जा सकता है .स्त्रीवादी विमर्शकार और अधिकार समूहों की चिंता में यह सब क्यों नहीं है .यह सोचने की बात है .

Thursday, July 3, 2014

परिवेश सम्मान


मूलचन्द गौतम                                   शक्तिनगर,चन्दौसी,संभल,उ.प्र.244412
सम्पादक: परिवेश                                 ईमेल-parivesh.patrika@gmail.com
                                               मोबाइल-9412322067

    

परिवेश सम्मान :2013-2014 :तनु शर्मा को

साहित्यिक पत्रिका परिवेश द्वारा प्रतिवर्ष दिया जाने वाला बीसवां परिवेश सम्मान वर्ष 2013 -14 के लिए संघर्षशील मीडियाकर्मी तनु शर्मा को दिए जाने का निर्णय लिया गया है . इससे पहले यह सम्मान श्री हरीचरन प्रकाश ,ओमप्रकाश वाल्मीकि ,सुल्तान अहमद ,सुधीर विद्यार्थी ,अष्टभुजा शुक्ल ,दामोदर दत्त दीक्षित,कमलेश भट्ट ‘कमल ‘,दिनेश पाठक ,हसन जमाल ,योगेन्द्र आहूजा ,शिव कुमार पराग ,राजीव पाण्डेय ,अल्पना मिश्र ,शैलेन्द्र चौहान ,सुभाषचंद्र कुशवाहा,,शैलेय,,महेंद्र प्रताप सिंह ,श्याम किशोर और रविशंकर पाण्डेय को दिया जा चुका है .
परिवेश सम्मान की घोषणा करते हुए पत्रिका के सम्पादक मूलचन्द गौतम और महेश राही ने कहा कि हिंदी क्षेत्र में तमाम तरह के पुरस्कारों और सम्मानों के बीच इस सम्मान का अपना वैशिष्ट्य है .परिवेश के 66 वें अंक में तनु शर्मा के मीडिया जगत में योगदान और अन्याय के विरुद्ध किये गये संघर्ष पर विशेष सामग्री केन्द्रित की जाएगी .
7 सितम्बर 1980 को चन्दौसी में  जन्मी तनु शर्मा का जीवन प्रारम्भ से ही संघर्षशील रहा है .पिता श्री नविन्द्र कुमार शर्मा के निधन के बाद उन्होंने  विज्ञान में स्नातक किया है .तत्पश्चात मीडिया के क्षेत्र में कार्य प्रारम्भ किया है .इण्डिया टीवी चेनल के प्रबंधन से जुड़े लोगों के शोषण और दमन का कड़ा प्रतिकार करते हुए उन्होंने युवा मीडियाकर्मी महिलाओं को प्रेरित किया है और दिखाया है उन पर कितने और किस तरह के दबाव आ सकते हैं .दुखद है कि समाज और व्यवस्था का यह जागरूक चौथा खम्भा भी अनेक विकृतियों का शिकार हो चुका है और इसके आत्मघाती,  सड़ांध  भरे और दमघोंटू माहौल में महिलाओं का काम करना बेहद मुश्किल होता जा रहा है .हर कहीं बैठे तरुण और कामी तेजपाल जैसे गिद्ध विराजमान हैं .
मीडिया के इस सम्वेदना हीन अमानवीय माहौल के खिलाफ आवाज उठाने और लड़ने की इस कोशिश को  नैतिक ताकत देने की योजना के तहत ही तनु शर्मा को 2013 -14 का परिवेश सम्मान दिया जा रहा है .



Wednesday, July 2, 2014

अंग्रेजी का सीमेंट और हिंदी की बालू



शुरू से ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थकों के हाथों में हिंदी, हिन्दू और हिंदुस्तान का मजबूत नारा रहा है .तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की तमाम दुहाईयों के बावजूद यह कभी मुकाबले में  हिंदी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा से नहीं पिटा .अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में दिया गया भाषण बेहद क्रन्तिकारी कदम माना गया गोया कि जैसे इस एक भाषण से ही हिंदी विश्वभाषा हो गयी हो .
राजनीति के अपने टोटके हैं जो गाहे बगाहे सफल –असफल होते रहते हैं .हाल ही में गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग द्वारा  हिंदी को वरीयता देने के निर्देश से तमिलनाडु में जो तूफान आया है यह कोई नई बात नहीं है .अलबत्ता हिंदी भाषी प्रदेशों के नौजवानों  में उत्साह जरुर दौड़ गया है कि काश अब उनके अच्छे दिन आ ही गये मानो और वे सब जैसे अखिल भारतीय सेवाओं में प्रविष्ट हो गये.लेकिन अहिन्दीभाषी राज्यों में उनके विरुद्ध होने वाली हिंसा और घृणा इस अतिउत्साह पर पानी फेरने के लिए काफी है .यह केवल व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा का परिणाम नहीं हो सकती .असम और महाराष्ट्र की घटनाएँ भाषायी साम्प्रदायिकता और नफरत के ताजा उदाहरण हैं जो गांधीजी के समय नहीं थे .
गाँधी और नेहरु को एक साथ बेनकाब करने वाले यह भूल जाते हैं कि जहाँ गाँधी जी ने खुलेआम घोषणा की थी कि-दुनिया से कह दो गाँधी अंग्रेजी भूल गया वहीं उनके घोषित राजनीतिक उत्तराधिकारी नेहरूजी संविधान सभा की भाषा सम्बन्धी बहसों में जोर देकर कह रहे थे कि-आप इस बात को प्रस्ताव में लिखें चाहे न लिखें ,अंग्रेजी लाजिमी तौर से बहुत महत्वपूर्ण भाषा बनकर रहेगी ,जिसे बहुत लोग सीखेंगे और शायद उन्हें उसे जबरन सीखना होगा .यह मैकाले की सफलता और गाँधी की हार और अप्रासंगिकता नहीं भारत का भविष्य था जिसे उन्होंने जानबूझकर एक खासे अंग्रेजीदां के हाथों में सौंप दिया था .शायद यही उनकी हिमालय जैसी भूल थी जिसे सुधरने का कोई मौका उनके पास नहीं रह गया था .
आज मी नाथूराम गोडसे बोलतोय की चर्चा की इसीलिए जरूरत है क्योंकि हत्या एक आधा –अधूरा समाधान था .हो सकता है कि गांधीजी थोड़े और दिन जिन्दा रहते तो शायद आत्महत्या का चुनाव तो नहीं ही करते .उन्हें अपने उत्तराधिकारियों के साथ एक नये संघर्ष में उतरना पड़ता और यह शायद सबसे पहले हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा घोषित करने को लेकर होता .हा –हा हिंदी दुर्दशा न देखि जाई को लेकर तब शायद दक्षिण में खासकर तमिलनाडु में राजनेताओं को हिंदी साम्राज्यवाद का भय इस कदर न सताता .
हिन्द स्वराज को ही प्रमाण मानें तो गांधीजी अंग्रेजी  शिक्षा के ही पक्षधर नहीं थे .उन्हें परायी भाषा में स्वराज की बात करने वाले जनता के दुश्मन नजर आते थे .उन्होंने साफ कहा था कि-अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में ,उसे परेशान करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है .इसका यह कतई यह मतलब न लिया जाये कि गांधीजी प्रांतीय भाषाओँ पर जबरिया हिंदी लादने के समर्थक थे .१९४७ में हरिजन में उन्होंने आजादी को लेकर लिखा था कि सूबों की जनता को हर तरह से अब यह अनुभव होना चाहिए कि अब उनका जमाना है लेकिन किसी भी क्षेत्र में वह कुछ न हो सका जो गांधीजी चाहते थे .जनता तथाकथित आजादी के नाम पर साम्प्रदायिक बंटवारे में ठगी गयी .विभाजन की वह गांठ नासूर की तरह सब कहीं फूट पड़ती है और हम उसे निरीह ,निरुपाय बने देखते रहने के अलावा कुछ नहीं कर सकते ?यहाँ पांच साल में भावुक और मूर्ख जनता सिर्फ और सिर्फ वोट देती है –राजकाज में हिस्सा नहीं लेती .
डॉ,रामविलास शर्मा जिन्दगी भर हिंदी जाति को लेकर जूझते रहे लेकिन उन्हें कोई चन्द्रगुप्त नहीं मिल पाया .वामपंथियों के अंग्रेजी प्रेम को यह अंग्रेजी का अध्यापक पानी पी-पीकर कोसता रहा लेकिन उनके कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी ?और अब जनविमुखता का यह फल मिला है कि बस दो चार नामलेवा भर बचे हैं .रामचन्द्र गुहा ने पता नहीं कौन सी पाटी पढ़ी है कि अंग्रेजी के  अंधसमर्थक होकर भी गांधीवाद की बातें कर सकते हैं .फिर से हिन्द स्वराज में हिंदी के बारे में  गाँधीजी की इस लगभग अंतिम घोषणा को याद करने का लोभ संवरण नहीं होता कि-यदि स्वराज अंग्रेजी पढ़े भारत वासियों का है और केवल उनके लिए है तो संपर्क भाषा अवश्य अंग्रेजी होगी .यदि वह करोड़ों भूखे लोगों ,करोड़ों निरक्षर लोगों ,निरक्षर स्त्रियों ,सताए हुए अछूतों के लिए है तो संपर्क भाषा केवल हिंदी हो सकती है ..यहाँ उनका आशय राष्ट्रभाषा से ही है .
हिंदी को बोलियों से अलगाव को लेकर भी राजनीति करने वाले अंग्रेजी के समर्थकों से कम घातक नहीं हैं लेकिन यदि भाषावार राज्यों को ही राज्य निर्माण का मानक मानें तो भी हिंदी को बांटो और राज करो की अनीति को ही झेलना पडा है .काश इसी अन्याय में न्याय के कुछ सूत्र मिल जाएँ और यह बालू की दीवारअंग्रेजी के बजाय प्रांतीय भाषाओँ के देसी सीमेंट से मजबूत बन जाये .
हिंदी पट्टी को गोबर पट्टी कहने वाले इसीलिए अंग्रेजी को देश को जोड़े रखने वाला एकमात्र  सीमेंट और हिंदी को बालू की दीवार बताते रहते हैं ताकि उनके धंधे पर आंच न आये और वे आजीवन स्याह को सफेद करते –बताते रहें .और  ताउम्र उन्हें जाति धर्म के नाम पर बरगलाते रहें .

Thursday, June 19, 2014

दूल्हा ,घोडा और साईस


मेरी समझ में आज तक यह बात नहीं घुस पाई है कि अश्वमेध यज्ञ के लिए घोडा ही क्यों छोड़ा जाता है और दूल्हे को घोड़ी पर ही क्यों बैठाया जाता है .हमारे गाँव में एक दूल्हे को उपलब्ध न होने के कारण घोड़े पर बैठा दिया गया था तो पता नहीं किस डाह से घोड़े ने उस बेचारे का पटक –पटक कर बुरा हाल कर दिया था .लिंग विमर्श में स्त्री और पुरुष पाठ के समर्थक  इस घटना को लेकर अपने –अपने तर्क दे सकते हैं और बहस को किसी भी तरफ झुका सकते हैं लेकिन वे भी जानते हैं कि लंगोट खींचते ही सुपरमैन क्यों एक मच्छर में बदल जाता है और क्यों एक किन्नर के आखिरी हथियार के तौर पर कपड़े हटाने भर से बड़े से बड़े तीसमारखां को पसीने छूटने लगते हैं ?
हमारे पिताजी इशारों में कहते थे कि हाथ का सच्चा और लंगोटी का पक्का कहीं मार-मात नहीं खा सकता . वे राजा दशरथ की बुढ़ापे में दुर्गति का एकमात्र कारण युवा रानी को मानते थे .तबसे जितने राजा लंगोटी के ढीले हुए किसी न किसी रूप में उसी दुर्गति को प्राप्त हुए ,हो रहे हैं और होंगे .यही हाल हाथ के कच्चों का है .रिश्वतखोरों का यह आलम है कि महीने  में अठन्नी कम होते ही उनके हाथ में खुजली मचने लगती है और वे  शहर में आये नये कोतवाल की तरह खोमचे वालों पर टूट पड़ते हैं फिर तो मंहगाई के अनुपात में उनका महीना तनख्वाह की वेतनवृद्धि की  तरह अपने आप बढ़ जाता है .
पिछले दिनों एक दूल्हे के बाप बूढ़े बेटे को घोड़े पर बिठाकर देश –प्रदेशों में दिखाते फिर रहे थे कि कहीं शादीशुदा की पुनःशादी का डौल बन जाये तो अच्छा हो .सौभाग्य से  यह डौल बन भी गया लेकिन लडकी वालों ने अजीब शर्त रख दी कि शादी के बाद बाप को  बेटे के घोड़े का साईस बनना पड़ेगा .दूल्हे ने बाप को मिन्नतों से राजी कर लिया .बस  तबसे ही बाप रो –रोकर सिसक –सिसककर अपनी करुण कहानी सुनाता फिर रहा है कि कैसे –कैसे उसे घोड़े के दाने-पानी से लेकर , लीद उठाने –मक्खियों के उडाने तक की जिम्मेदारी सम्भालनी पड़ रही है .खरहरा अलग दोनों जून खरहरा अलग से   .
पुराने जमाने में या तो थानेदार घोडा –घोड़ी रखते थे या डकैत .पुलिस से उनकी यारी –दुश्मनी की यह एक मुख्य वजह  होती थी .एक –दूसरे से मिलने पर वे अपने जानवरों की खैर –ख़ुशी बाँटा करते थे फिर जमाना आया रॉयल इन फील्ड का .कोई मच्छर छाप दरोगा इस गाड़ी पर बैठकर जनता की हंसी का पात्र नहीं बनना चाहता था क्योंकि कोई भी दबंग बदमाश उसे मय रिवाल्वर के छीन सकता था .जान तो आखिर पुलिस वाले को भी प्यारी है और आखिर में काम तो जाति ही आएगी तो उससे खाहमखाह दुश्मनी क्यों मोल ले ?कोई आनंद नारायण मुल्ला क्या उसे मौत से बचाने आएगा ?
प्रिय पाठको ,क्या आप पंचतंत्र की तरह इस कथा के  आसपास के पात्रों को पहचानते है?

Saturday, June 14, 2014

पचौरी

सुधीश पचौरी के पंचमकार


मोदी के तीन ‘सकार’-स्केल ,स्किल और स्पीड की चर्चा करके सुधीश पचौरी ने जो शीर्षासनी करतब दिखाया है वह किसी पंचमकारी के ही बस का था .हिंदी साहित्य जगत उनकी इस प्रतिभा पर बम –बम है .बाबा नागार्जुन को इन अपने वृहदारणयकों के इस भविष्य का आभास था .अशोक चक्रधर जिस तरह  अपनी मुक्तिबोधीय क्रांति को कपिल सिब्बल के चरणों में समर्पित कर चुके थे उसी राह के अन्वेषी सुधीश पचौरी हैं ,जिन्हें मथुरा की जलेबी –कचौरी बेहद पसंद है .उत्तर आधुनिकता को उन्होंने रमेश कुंतल मेघ की तर्ज पर इतने जटिल जाल में ढाल दिया है कि इस मीडिया विशेषज्ञ के मन में पंकज पचौरी का स्थान हासिल करने की ललक स्वाभाविक है .राज्यपालों की नियुक्ति से पहले कई केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की दरकार है सो यह उसी का पंचगव्य है .सत्यनारायण की कथा का यह अंतिम अध्याय नहीं है .अभी तो लीलावती –कलावती की कथा बाकी है .मोदी भगवान उनकी इच्छा पूरी करें यही लकडहारे की  अनतिम अरदास है.

Thursday, June 12, 2014

गये पूत दक्खिन


क्रोनी कैपिटलिज्म ने रामलाल की नींद हराम कर रखी है .वे अम्मा की सलाह पर कभी दक्षिण दिशा में पैर करके भी नहीं सोये .अगस्त्य मुनि ने इसीलिए  उत्तर -दक्षिण के बीच विन्ध्याचल खड़ा किया था कि दोनों तरफ आवाजाही बंद रहे .बुरा हो इस आईटी - सोफ्ट्वेयर इंडस्ट्री का कि उन्हें न चाहते हुए भी दक्षिण की ओर जाना ही पड़ा.भारत की सिलिकोन वैली में रहते हुए भी वे कभी दक्षिण की  भाषा –संस्कृति में रम नहीं पाए .अलबत्ता मजबूरी में  इडली –डोसा जरुर भकोसते रहे .चायनीज और मेक्डोनाल्ड के मुकाबले उन्होंने सिर्फ स्वाद बदलने के लिए ही इन्हें यूज किया .
रामलाल अंग्रेजी के सीमेंट में ही भारत की मजबूती देखते रहे हैं उन्हें लगता है कि यही सीमेंट और फेविकोल देश को एकजुट रख सकता है .देसी भाषा –बोलियों का गारा तो एक बरसात नहीं झेल पायेगा .हिंदी साम्राज्यवाद का डर दक्षिण में अंग्रेजी को मजबूत करता रहा है और हिंदी क्षेत्र बिना अंग्रेजी के गोबर पट्टी होने को मजबूर है .राष्ट्रीय एकता का यह भाषायी वैविध्य तमाम भारतियों को एक दूसरे से अपरिचित और अनजान बनाये रखने की  औपनिवेशिक साजिश है क्या ?
रामलाल आजकल परेशान हैं कि उन्हें खुलेआम दक्षिणपंथी कहा जा रहा है ,जबकि वे पुराणपंथी और पोंगापंथी हैं .युवावस्था में वे आर्यसमाजी थे जो हिंदुत्व का कम्युनिज्म था जो अब संघी और पुरोगामी है .दक्षिणपंथी कहलाना  किसी गाली से कम नहीं है .वाममार्गी होना तो और भी निकृष्ट धारणा रही है –पंचमकार सेवी .वो तो भला हो वामपंथ का कि कुछ इज्जत मिल गयी वरना देश में कम्युनिस्ट होना भी किसी गाली से कम नहीं रहा . मजदूर संघों के अनुभवी और किसी संघ को नहीं जानते .संघे शक्ति कलौयुगे –का मतलब कौन सा संघ था यह उन्हें अब समझ में आया है .इसीलिए अब वे संघ शरणम् हो गये हैं .संघी लेखकों ने उन्हें अब अपना लिया है .अब उन्हें आगे के संघ के बजाय पीछे के संघ में शुभ –लाभ दिखने लगा है .मार्क्स –लेनिन की जगह लक्ष्मी –गणेश ने ले ली है .
रामलाल की अम्मा उन्हें कभी दक्षिण दिशा में पैर करके सोने नहीं देती थी क्योंकि यह मृत्यु की दिशा है .जब वे नौकरी करने दक्षिण दिशा में गये तो उन्होंने लम्बी साँस लेकर उनके आगामी दुखद भविष्य को देख लिया था .अब वे दक्षिणपंथी हो गये हैं तब तो विनाश अवश्यम्भावी है ,जिसे दैव भी नहीं टाल 

Friday, May 30, 2014

काठ की हांड़ी और चौहान साब की चूक


राजनीति की तरह भाषा भी बेहद कुत्ती चीज है .कमान से निकला तीर और जुबान से निकला बयान लौट कर नहीं आता फिर आप लाख सफाई देते फिरें कि मेरा यह मतलब नहीं था या मीडिया अर्थ का अनर्थ कर रहा है .मुहावरे और लोकोक्तियों की भी दुर्गति हो रही है .अचूक अवसरवादियों ने हर अवसर को भुनाने की कला में महारत हासिल कर ली है लेकिन फिर भी कुछ चौहान अब की बार चूक गये हैं जिसका उन्हें बेहद पछतावा है .पता नहीं कैसे वे अब की बार हवा का रुख पहचान नहीं पाए ?
ऐसे ही कई चौहान इस बार चुनाव के धंधे में दिवालिया हो गये हैं .उनका घर बार सब कुछ लुट चुका है .यहाँ तक कि कोई नामलेवा भी नहीं बचा है .बुरा हो मोदी का कि उनकी आखिरी हसरतें चौराहे पर दम तोड़ चुकी हैं और कफन -काँटी तक का इंतजाम चंदे से कराने की नौबत आ चुकी है .देश की नामुराद –नमकहराम जनता को इत्मीनान से कोसने के लिए वे स्विट्जरलैंड की ठंडी वादियों में चले गये हैं ताकि दिमागी दिवालिया होने से बचे रहें और उनकी काली कमाई बची रहे .
दरअसल उन्हें इस देश के भावुक मूर्खों से पहले से ही नफरत रही है ,इसीलिए उन्हें देश में धुले हुए कपड़े तक पसंद नहीं आते थे . उनके फोड़े –फुंसी तक का इलाज अमरीका में होता है .इन्हीं जाहिल –गंवारों ने उनका भट्टा बैठा दिया है .यहाँ तक कि  उनके देवता श्मशानवासी शिव तक उनके खिलाफ हो गये .ये जटाजूटधारी बदबूदार गंजेड़ी –भंगेड़ी उन्हें पहले ही पसंद नहीं था और अब तो वह खुलकर नंगे भूत -प्रेतों के साथ है .क्षीरसागर में लेटे कमलनाथ तक को पसंद नहीं आई है उनकी यह फूहड़ पसंद .लक्ष्मी जी के ड्राइवर उल्लूनाथ को तो यह  परिणाम पहले से पता था .शेषनाग ने भी अबकी बार सर हिलाकर मना कर दिया था कि चुप रहो –जमानत बचाने तक के लाले पड़ जायेंगे .कृष्ण के वंशज तक बचाने नहीं आयेंगे .अब वे उतने अंधक –बंधक नहीं रहे कि कोई अललटप्पू उन्हें हांक ले जाये.
मैंने पहले ही उन्हें समझाया कि काठ की हांड़ी एक बार भी बहुत मुश्किल से काम कर पाती है और आप हैं कि इसे बार –बार आजमाने पर आमादा हैं .चूहे तक डूबते जहाज से सबसे पहले भागते हैं .लेकिन  आप अपनी अकड में डूबते जहाज में ही बैठे रहे ताकि आपको कोई चूहान न कहे.मैंने कहा कि इस बार   हांड़ी बदल लो लेकिन उन्होंने मेरी एक न सुनी .चमचों की भी कोई इज्जत –औकात होती है .दुनिया उन्हें यों ही मोटी –मोटी पगार देकर सलाहकार नहीं बनाती अब झेलो .नूरे चश्म और चश्मे चिरागों तक ने समझाया कि बुढौती की शादी जगहंसाई के अलावा कुछ नहीं होती लेकिन इश्क के डेंगू का डंक जिसे लग जाये वह एनडी हो जाता है .तो अब हो जाओ एनडी-फेंडी ...या जो चाहो हमारी बला स

Tuesday, May 6, 2014

कबन्धों का महाभारत


रामलीला और रासलीला तो देश में बारह महीनों चलती है लेकिन महाभारत सिर्फ चुनाव के मौसम में दिखाई देता है .इसे तटस्थ होकर सिर्फ दो लोग ही देख सकते हैं –एक संजय और दूसरे कृष्ण .कुछ लोगों ने संजय को द्वापर का दूरदर्शी पत्रकार माना था .यह नारदजी से  चाल ,चरित्र और चिन्तन में कुछ अलग था .एक तो इसने दोनों पक्षों में लगाई-बुझाई करके आग को ज्यादा भडकाया नहीं ,दूसरे निजी स्वार्थ को खबरों से अलग रखा .कल्पना कीजिये कि उस जमाने में पेड मीडिया होता तो क्या होता ?हिरोशिमा –नागासाकी का जनसंहार काबिले जिक्र तक न होता .

कुछ अति धार्मिक लोग जो आज भी राम वन गमन और लक्ष्मण को शक्ति लगने पर दहाड़ मारकर-बुक्का फाड़कर रोते हैं ,उनकी हालत तो बेहद खराब हो जाती .रामचरित मानस में जिन्होंने भी राम –रावण के महामायावी युद्ध का सजीव वर्णन पढ़ा है ,उनके  आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं .कलिकाल में यही दृश्य चुनाव लीला में दिखाई देते हैं .हजारों वीरों को अपनी शमशीर से प्रकम्पित करता हुआ वीर ,जरा से शिखंडी के सामने आते ही धराशायी हो जाता है .पहले जमाने में तो पितामह को उत्तरायण आते ही मुक्ति मिल गयी थी लेकिन आज के पितामहों को तो शरशैया ही नहीं छोड़ रही –कम्बल की तरह .पता नहीं उनका प्राण कहाँ अटका है . कलिकाल में इसीलिए जनता को यह सख्त ताकीद कर दी गयी कि घर में महाभारत की प्रति न रखें वर्ना घर में ही बावेला मच जायेगा .व्यासजी को भी इसी कारण श्रीमदभागवत की रचना करनी पड़ी ताकि लोग लीला में लगे रहें ,युद्ध से बचे रहें .रामलीला में भी विभीषण की तरह रावण की नाभि का भेद बताने वाला तक कोई नहीं है .ये विकीलीक्स,कोबरापोस्ट...सब फेल हो चुके हैं .
बाबा तुलसीदास भी कितने पागल थे कि उन्होंने बनारस के गली मुहल्लों के नाम तक रामलीला से जोड़ दिए .अब रामनगर को कोई नहीं पूछता . रामावतार काशीनरेश के कहने से कोई वोट नहीं देता .काशीनाथ तक खिसियाये हुए घूम रहे हैं –खीसें निपोरते हुए .जैसे त्रिनेत्र अपना त्रिशूल इन्हीं को थमा गये थे .
यानी कुल मिलाकर लुब्बोलुबाव यह है कि जान आफत में है .वानरदल खोंखियाया हुआ घूम रहा है ,संकटमोचन को कोई हल नहीं दिख रहा –समस्या का .बुरा हो अयोध्या का अपना बवाल काशी के मत्थे मढ दिया .वोटर माया से भ्रमित है .उसे मार्ग नहीं दिख रहा .बुद्ध की तपस्थली से भी कोई मध्यमार्ग दिखाई नहीं दे रहा .दर्शन, पर्सन सब फेल हैं .नेटवर्क गायब हैं .क्या लीला है ?
ऐसे ही माहौल में कबन्धों का महाभारत चालू है .सम्बन्धों को तिलांजलि देकर ही कबंध बना जा सकता है –जहाँ अपना पराया कोई नहीं .कालातीत कला और साहित्य –संगीत के सब रसिया इसमें कबंध बन चुके हैं  त्रेता –द्वापर का भेद मिट चुका है .कोई संजय और कृष्ण मौजूद नहीं कि सही –सही बताये कि क्या चल रहा है या इस युद्ध का क्या अंजाम होगा .खुदा हाफि

Thursday, May 1, 2014

नेता -नीति और सेक्स नैतिकता


भारत किसी भी मामले में अमेरिका नहीं हो सकता लेकिन हमारे नेता हैं कि उसे हर मामले में अमेरिका बनाने पर तुले हैं और विडम्बना यह है कि पश्चिम भारतीय पारिवारिक पवित्र मूल्यों की तरफ लौट रहा है .अमेरिका में क्लिंटन –मोनिका और इटली के बर्लुस्कोनी का मामला एक मिसाल हो सकता है कि वहाँ की जनता ने इनके कदाचार को मूल्यों के रूप में खुलेआम स्वीकार करने से इंकार कर दिया .
राजतन्त्र में राजाओं द्वारा असंख्य रानियों को पत्नी के तौर पर रखने की स्वतंत्रता थी लेकिन पटरानी की संतान ही उत्तराधिकार रखती थी .इस्लाम में भी चार पत्नियों की स्वीकृति मजबूरी के कारण  थी –शौक नहीं .रामायण और महाभारत इस बहुविवाह के कारण उत्पन्न सम्पत्ति के असमान बंटवारे की विवाद कथाएं ही तो हैं .उनमें हम अध्यात्म तलाश कर लें –यह अलग बात है .
हिन्दू समाज की संरचना में तलाक अभी उस तरह सहज रूप से स्वीकृत नहीं हुआ है जैसे इसाई और मुस्लिम समाज में स्वीकृत है . पुरुष और स्त्रियों के विवाह और विवाहेतर सम्बन्धों की दबी –ढकी चर्चा अफवाहों के रूप में ही सही होती है .समाज इनका हिसाब जिन्दगी भर आपसे मांगता रहता है .बड़े आदमियों का हिसाब बड़े पैमाने पर माँगा जाता है तो छोटों का छोटे पैमाने पर .गांधीजी और नेहरु के साथ –साथ अनेक नेताओं के हिसाब दस्तावेजों की तरह दर्ज हैं .जयप्रकाश नारायण और प्रभावती जिसमें उन्हें हार कर झख मारकर रोहित को अपना जैविक पुत्र स्वीकार करना पड़ा.सोनिया को विदेशी बहू होने का कष्ट आज तक झेलना पड़ रहा है वरना तो उन्हें  बहुमत के बावजूद देश का प्रधानमन्त्री स्वीकार करने में क्या हिचक है ?मोदी का वैवाहिक जीवन क्यों चर्चा में है ?आप लाख कहते रहें यह उनका निजी मामला है इसमें कोई दखल नहीं दे सकता लेकिन एक नेता का  मर्यादा के अलावा कुछ भी निजी नहीं हो सकता .आप हर बात के लिए जबावदेह हैं .जनता सब देखती है कि आप क्या खाते हैं –कहाँ जाते हैं .
इस मायने में लोकतंत्र जनता का ही नहीं नेताओं की भी आत्म मर्यादा और आत्म नियंत्रण का नाम है .वरना क्यों घोटालों की चर्चा होती है ?आप देश को लूटकर मजे से विदेश भाग 
सकते हैं .
दिग्गी के ताजे मामले ने इस निजी नैतिकता को फिर चौराहे पर खड़ा कर दिया है .जनता जनार्दन का फैसला सर माथे ...