Thursday, December 24, 2015

खेलत में को काको गुसैयाँ


सूरदास को मालूम था कि भविष्य में  भारत में एक दिन खेलों को लेकर बवाल होगा .मामला केवल कृष्ण और श्रीदामा तक सीमित न रहकर पूरे देश में रायते की तरह फ़ैल जाएगा .मार्गदर्शक मंडल के रैफरी भी इसके लपेटे में आ जायेंगे .
 आजकल जो लोग हर बात में खेल भावना की बातें करते हैं उन्होंने ही खेलों को खूनी –खूंरेंजी में बदल दिया है .इसी प्रतिद्वन्द्विता में गाँव गाँव शहर शहर यह बीमारी फ़ैल गयी है कि बिना कत्लो गारत के कोई खेल होता ही नहीं .यहाँ तक कि सभ्य लोगों का खेल कहलाने वाला क्रिकेट भी राक्षसी हो गया है .सट्टेबाजी और फिक्सिंग ने इसकी ऐसी तैसी करके रख दी है .
ओलम्पिक खेलों का इतिहास जानने वालों को मालूम है कि उस जमाने में कोई डोप टेस्ट नहीं होता था ,न कोई स्टीरोइड इस्तेमाल करना जानता था .माया महाठगिनी ने बड़ी बड़ी मर्यादाओं और परम्पराओं को ध्वस्त कर दिया है तो खेल भी उससे कैसे बच सकते हैं .भारत तो वैसे भी हर खेल में निचले पायदान पर है .जिन खेलों में उसका ऊंचा स्थान है उन्हें विश्व में कोई स्थान प्राप्त नहीं है .इसीलिए हमारे महान नेताओं ने वर्तमान में  राजनीति में ही अनेक खेलों को ईजाद कर लिया है .अब हर वक्त उनमें शतरंज ,सांप सीढ़ी,लूडो और गालियों की अन्त्याक्षरी चलती रहती है . पुराने नेता तुलसी , ग़ालिब और मीर फिर दुष्यंत की शायरी से बहसों में विरोधियों को परास्त करने की तैयारी के साथ मैदान में उतरते थे .अब तो उनके पास सडक छाप मिसाइलनुमा जुमले हैं जिनका जबाव भी बड़ी मुश्किल से किताबों में मिलता है .
जिन्हें पाला चीर कबड्डी खेलने की आदत है वे किसी खेल में नियम कायदों को नहीं मानते .उनके लिए सम्विधान और सुप्रीमकोर्ट के कोई मायने नहीं .इसीलिए हर नेता ने ऊपरी आमदनी के लिए किसी न किसी खेल में अपनी टांग घुसा रखी है .वह खिलाडियों का राशन पानी तक डकार जाता है .खेल के बहाने घर वालों को विदेशों की मुफ्त सैर कराता है .यही सरकारी सम्पत्ति की तरह उसका कामनवेल्थ है-कलमाड़ी से लेकर पनवाड़ी तक .
यही धंधेबाज अगला ओलम्पिक देश में आयोजित कराने की फ़िराक में हैं .एक पंहुचे हुए बाबा से कांट्रेक्ट भी हो गया है.  

Friday, December 18, 2015

धर्म ,राजनीति और बेरोजगारी

# मूलचन्द्र गौतम
भारत में रात दिन निरक्षरता और बेरोजगारी के आंकड़ों को खंगालते देखकर मुझे उनकी मूढ़ता पर बड़ा क्रोध आता है .जहाँ कंकर कंकर में शंकर का वास हो और गली गली नेता हों वहाँ ये शनीचरी बुराइयाँ टिक नहीं सकतीं क्योंकि नंगे से सूर्यपुत्र शनीचर भी घबराता है और नंगी औरतों से तो उसकी रूह फना हो जाती है .इसीलिए पिछले दिनों शनी शिंगनापुर में एक गरीबनी ने शनी पर तेल चढ़ा दिया तो शनी ने तो कुछ नहीं कहा लेकिन उसके भक्तों ने बबाल खड़ा कर दिया .
दरअसल सारे बबाल ये भक्त ही खड़े करते हैं ,खुदा ,ईश्वर गॉड कुछ नहीं करते क्योंकि सवाल भी भक्तों के धंधे का है और जहाँ शनी वहाँ मनी .आजकल शनी का शेयर लक्ष्मीजी से ऊपर चल रहा है .आप घर आई लक्ष्मीजी को इग्नोर कर सकते हैं शनी को नहीं .मुहल्ले में जरा सी आवाज आते ही बच्चे चिल्लाने लगते हैं –मम्मी शनी भैया आ गये .शनी न हुए उनका ढाई और साढ़े सात किलो का हथौड़े वाला हाथ हो गया जो आपके सिर पर पड़ा और आप ढेर .
शनी के इस प्रताप ने देश के तमाम धार्मिक और अधर्मी –विधर्मी बेरोजगारों की समस्या एकबारगी हल कर दी है . शनिवार के दिन मुंह अँधेरे एक लोहे के कटोरे या तसले में सरसों का काला तेल या जला हुआ डीजल मोबिल भरकर केवल लोहे की एक पत्ती किसी भीड़ भाड़ वाले इलाके में रख दीजिये .शाम के झुटपुटे में आराम से एक मोटी रकम अपनी जेब के हवाले करिये .शनी के इसी प्रताप से अब हर दिन शनिवार होने लगा है .बैंकों तक ने शनी की इस महिमा को देखते हुए अब दूसरे और चौथे शनिवार को कर्मचारियों की छुट्टी कर दी है .केंद्र सरकार के दफ्तर तो किसी भी शनिवार को नहीं खुलते .सिर्फ आयकर कार्यालय  मार्च के  आखिरी शनिवार आयकरदाताओं की वजह से खोलना पड़ता है .
यही महिमा देश में तैतीस करोड़ देवताओं की है कि आप जंगल में भी मंगल मना सकते हैं और भूखे तो मर ही नहीं सकते .कंद मूल फल जिंदाबाद .कभी भी मूंड मुड़ाकर सन्यासी होने से आपको कोई रोक नहीं सकता .फिर पुलिसवालों की तरह  हर ट्रेन और सरकारी सेवा का आप मुफ्त सेवन कर सकते हैं .चाहे जिसे डरा धमका सकते हैं . आते जातों से राजी कुराजी पैसा टका छीन सकते हैं .
कमोबेश यही हाल राजनीति का है .बस आपमें  सत्ताधारी दल का कार्यकर्ता या स्वयंसेवक बनने की योग्यता होनी चाहिए .देश में हर समय कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं ,रैली होती रहती हैं .इनमें रोजगार के अपार अवसर हैं .इतने पर भी आप बेरोजगार हैं तो आपकी किस्मत ही फूटी है .
# शक्तिनगर, चन्दौसी, संभल 244412
मोबाइल 8218636741



सोने की मुर्गी

# मूलचन्द्र गौतम
सोने का अंडा देने वाली मुर्गी का कोई मूर्ख भी पेट इसलिए नहीं फाड़ता क्योंकि उसके सारे अंडे एक साथ नहीं निकल सकते ,लेकिन जो ऐसा कर बैठे उसे वज्रमूर्ख कहते हैं .मूर्खों की श्रेणियां होती हैं क्या ?मैंने आँखें फाड़कर प्यारेलालजी को देखा तो वे बालसुलभ चापल्य से मुझे देखने लगे –आपको नहीं मालूम .ये कैसे हो सकता है ?और वे आदतानुसार विषय की गहराई में गोते लगाने लगे .
उर्दू में मूर्ख तीन तरह के होते हैं –चुगद ,चवल और झुर्ल .यह झुर्ल ही हिंदी में वज्रमूर्ख कहलाता है और इसी कोटि का प्राणी  रोजाना सोने का अंडा देने वाली मुर्गी का पेट इसलिए फाड़ डालता है ताकि उसके सारे अंडे एक साथ मिल जाएँ तो वह एकबारगी धन्नासेठ हो जाए .रोज रोज की छुट्टी .कौन रोज कुआं खोदे और पानी पिए ?
प्यारेलाल इसी मुद्दे पर अटक गये .अमा मियां अगर यह रोज कुआं खोदने वाली बात हकीकत में हो जाती तब तो किसी को पानी मिलता ही नहीं और लोग बेमौत प्यासे ही मर जाते .
मैंने उनके सुर में सुर मिलाते हुए पूछा कि भाईसाब अगर दुनिया भर की कहावतों को हकीकत में बदलना होता तो ये बनती ही क्यों ?इन्हें तो बस लोगों को समझाने बुझाने के वास्ते उदाहरण के तौर पर दिया जाता है .
प्यारेलालजी के माथे पर सिलवटें पड़ गयीं .वे बोले हमारे पुरखे इतने मूर्ख नहीं थे जो केवल समझाने बुझाने वास्ते अपनी खोपड़ियाँ खराब करते ?कोई न कोई गहरी बात जरुर होगी इनके पीछे .
मैंने उन्हें फिर कुरेदा कि नौ मन तेल का राधा के नाच से क्या रिश्ता है ?फिर ये राधा कृष्ण वाली थी या कोई और थी ?आप क्या समझते हैं ?वे चक्कर  क्या भँवर में पड़ गये .
बात घूम फिर कर फिर मुर्गी पर आ गयी .मैंने कहा आजकल के चतुरसुजान घूस में  न सोने का अंडा लेते हैं न उसका पेट फाड़ते हैं .वे सीधे सीधे सोने की मुर्गी लेते हैं और उसे लाकर में डाल देते हैं .वह मुर्गी वहीं पड़ी पड़ी अंडे देती रहती है और वही अंडे फैलते फैलते एक दिन ब्रह्मांड हो जाते हैं और वे हो जाते हैं उसके निर्विवाद लीडर .स्विसबैंक के झंझट से मुक्ति .यह धन भी काले के बजाय पीला.अब कर ले कोई क्या करेगा ?
# शक्तिनगर ,चन्दौसी, संभल 244412
मोबाइल 8218636741

Thursday, December 17, 2015

ट्रेड ,ट्रेडमार्क और ट्रेंड

# मूलचन्द्र गौतम
 समय के साथ विश्व व्यापार और राजनीति के बदलते ट्रेंड को न समझने वाले जल्द  दुनियादारी में मार और मात खाकर बाहर हो जाते हैं .इस क्षेत्र में भी खुदरा और  थोक के भाव की तरह अलग अलग नियम चलते हैं .ये नियम साहूकारी की तरह साहूकारों की सुविधा से चलते हैं .मामला चाहे आलू –प्याज का हो या हथियारों का कुछ नियम सार्वभौम और सनातन हैं .इन्हीं नियमों से चुनाव होते हैं ,सरकारें बनती और गिरती हैं .
वसुधैव कुटुम्बकम के आदर्शों को व्यापार और राजनीति में नहीं चलाया जा सकता .यहाँ चेहरों और जुमलों का हकीकत से कोई वास्ता नहीं होता .इसलिए जनता अक्सर छली जाती है . चुने जाने के बाद जनता के पास सत्ता को बदलने का कोई विकल्प नहीं होता .इसी तरह कर्ज लेने के बाद कर्जदार की मर्जी का कोई अर्थ –मतलब नहीं होता .कर्जदार की जमा पूँजी हर हाल में साहूकार की हो जाती है .नेता ,अफसर और दलालों की तिकड़ी के आगे जनता बेबस होती है .तुम्हारा शहर ,तुम्हीं मुद्दई,तुम्हीं मुंसिफ ,मुझे यकीन था मेरा कुसूर निकलेगा .
ट्रेड को आम आदमी से दूर रखने के लिए ही सरकार ने लाइसेंस और इंस्पेक्टर राज कायम किया था .यहीं से देश में घूस की गंगोत्री से भ्रष्टाचार की गंगा बही .उसके बाद बनाया ट्रेडमार्क ताकि हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा धन्नासेठ न बन सके .टाटा ,बाटा और बिरला की तिकड़ी ने पूरा देश अपने जाल में फांस लिया था जो अब ग्लोबल कम्पनियों के गठजोड़ से विश्व भर में छा गया है . अब इस धारा  में अम्बानी वगैरह भी घुस गये हैं .गूगल और मर्सिडीज भारत के भिखमंगों के दरवाजों पर दस्तक दे रहे हैं .यही ट्रेडमार्क की ताकत है जिसे हासिल किये बिना कोई आदमी और कम्पनी ऊपर नहीं उठ सकती .
अब जूते से लेकर नाखूनों की पालिश तक का ट्रेड और ट्रेंड बदल गया है .घर की कामवालियां भी अब घंटों ब्यूटी पार्लरों में सज संवर कर काम पर आती हैं .मोदी कुरते और जैकेट ने जवाहर कट को पीछे छोड़ दिया है . अहमदाबाद दिल्ली- बम्बई से ज्यादा मजबूत हो गया है .ट्रेंड से बाहर हुई गाड़ियाँ ,कपड़े ,जूते ,फ़िल्में और लोग .....सडक पर कचरे के ढेरों पर पड़े हैं .बीपीएल इन्हें मुफ्त में भी नहीं ले रहे क्योंकि उन्हें मालूम है कि आज हाथी खरीदना जितना आसान है उसे पालना उतना ही मुश्किल काम है .जब घोड़े करोड़ों में बिक रहे हों तो गधों का रेट भी लाखों में तो है ही .भिखमंगे रोते रहें महंगाई का रोना .इनके मुकद्दर में ही दलिद्दर लिखा है तो कोई कहाँ से ले आएगा  इनके लिए अच्छे दिन ?
# शक्तिनगर, चन्दौसी, संभल 244412
मोबाइल 8218636741


Wednesday, December 16, 2015

प्रधान पति की दुर्गति


जब से पत्नी जसोदाजी गाँव की प्रधान हुई है तब से  रिटायर्ड प्यारेलाल का जीना हराम और दुश्वार हो गया है .हर कोई उन्हें घर जमाई की तरह ट्रीट करता है .धोबी के गधे की तरह उन पर हर कोई सवारी गांठता है ,कान उमेठता है ,कमियां निकालता है .जैसे वे प्रधान पति न हुए पूरे गाँव के सामूहिक नौकर हो गये ?ऊपर से जसोदाजी के नखरे बढ़ गये हैं .पतिव्रता पत्नी को बाहर की हवा लग गयी है .
चुनाव से पहले से ही प्यारेलाल को पता था कि पत्नी के चुने जाते ही उनका डिमोशन हो जायेगा और वे अंगूठाछाप बीबी के मुंशी होकर रह जायेंगे .हर कोई दरख्वास्त लेकर चला आएगा और उनका काम मात्र इतना होगा कि वे पत्नी का निशानी अंगूठा लगवाकर उसके नीचे कायदे से मोहर ठोंक देंगे .मध्यप्रदेश के मंत्री जी की सेल्फी  तरह उन्हें कोई दस रूपये भी नहीं थमाएगा .उल्टे उन्हें गाहे बगाहे अपनी मोटर सायकिल से मुफ्त की सवारियां और ढोनी पड़ेंगी .
चुनाव से पहले ही  गाँव में अपनी इज्जत की रक्षा के लिए उन्होंने हर वोटर की जायज –नाजायज इच्छाओं को पूरा करने में मेहनत की गाढ़ी कमाई खपा दी ,उतने में तो वे दस बीघा जमीन बढ़ा लेते .ठेके से दारू की बोतलें और हलवाई से मिठाई लाते-लाते उनकी कमर अकड गयी .
दरअसल प्यारेलाल राजनीति का फर्स्टहैण्ड अनुभव प्राप्त करने के चक्कर में फंस गये .आत्मानुभूति और सहानुभूति के चक्कर में वे भूल गये कि गाँव अब प्रेमचन्द का गाँव नहीं रह गया है .अब पंचों में परमेश्वर का नहीं पैसे का वास है .उन्हें एक तांत्रिक ने बताया था कि प्रधानी के रास्ते ही प्रधानमंत्री तक पहुंचा जा सकता है सो वे इस पर आँख बंद करके चल पड़े .महिला सीट होने के कारण पत्नी को चुनाव लडवाकर ही प्यारेलाल यह परमपद प्राप्त कर सकते थे सो उन्हें मजबूरी में यह धनुष उठाना पड़ा.
प्यारेलाल ठहरे पुराने जमाने के आदमी सो हारकर झख मारकर जसोदा जी ने उनकी जगह एक मैनेजर रख लिया है जो न केवल अपनी हर महीने की तनख्वाह निकालेगा बल्कि चुनाव के खर्च सहित एक मोटी रकम का बन्दोबस्त करेगा .इसमें जसोदा जी सिर्फ अंगूठा लगाएगी .इसकी पहली क़िस्त उन्हें मिल भी गयी है कहाँ से यह बताने की बात नहीं ?कहीं बिल्ली की तरह सीबीआई पीछे लग गयी तो लेने के देने पड़ जायेंगे .

Sunday, December 13, 2015

चार्वाक की संतानों से करबद्ध निवेदन


भारत में कर्मठ लोगों ने  हमेशा चार्वाक और दास मलूका की विचारधारा और दर्शन के साथ बड़ा अन्याय किया है .देश में असहिष्णुता की दुंदभी बजाने वालों ने भी भारी नगाड़ों के शोर में  इस पिपहरी की आवाज पर कोई ध्यान नहीं दिया है .हर चुनाव में विकास –विकास चिल्लाने वाले भी इस रहस्य पर पर्दा डाले रहते हैं ताकि उनके इस जिताऊ मुद्दे के ढोल की पोल न खुल जाए .
गांधीजी देश के निकम्मों के दुश्मन थे ,इसीलिए आजाद होते ही उन्हें ठिकाने लगा दिया गया .चीन युद्ध तक चाचा नेहरू के प्रभामंडल ने भी कांग्रेस को कोई चुनाव हारने नहीं दिया .पैसे वालों के इस धंधे में उतरते ही हर पार्टी हमाम में नंगी हो गयी .  चुनाव जीतने के लिए भारी पार्टी फंड जुटाने  का फंडा ही नायक और खलनायक की एकमात्र योग्यता हो गया .इसी प्रबंध कौशल ने बड़े बूढों के छक्के छुड़ा दिए जो अब तक नौजवानों की खून पसीने की कमाई पर निर्बाध ऐश करते चले आ रहे थे .इसी असफलता के कारण महाभारत में भीष्म पितामह को भी छह महीने तक शर शैया पर पड़े रहना पडा था .उस बीमारी में उनकी खिदमत में लगी नर्सों का हिसाब आज तक किसी को भी  सूचना के अधिकार तक से नहीं मिल पाया है .
इस देश के कर्मठ लोग हमेशा से कर्ज लेकर घी पीने के विरोधी रहे हैं, इसीलिए हर चुनाव में उनकी जमानतें तक नहीं बच पाई हैं . आज के जमाने में  हल्दी की एक गाँठ लेकर पंसारी बनने वाले कुछ नहीं कर पाएंगे .अब माडर्न मैनेजमेंट  सबसे पहले बैंकों से कर्ज लेने को ही प्राथमिकता देता है क्योंकि उसे डुबाना आसान होता है .चार्वाक की संतानें बैंकों से मोटा कर्जा लेकर दिवालिया होने में ही भलाई देखती थीं .आज यही कार्पोरेट कल्चर कहलाता है . पूरे विश्व में सरकारें तक इनके इशारों पर बनती बिगडती हैं .हथियारों की बिक्री में दलाली हलाली से बड़ी होती है .
निकम्मे लोग हर विकास के विरोधी होते हैं .इन्होंने ही अंग्रेजों को देश में नहीं रहने दिया .वरना  तो जो बुलेट ट्रेन अब आ रही है वह देश में  साठ साल पहले आ गयी होती .इन्हें आज भी न्यूयार्क जाने के लिए बैलगाड़ी चाहिए .बीस रूपये की पानी की बोतल खरीदते इनकी नानी मरती है .इन्हें हर समय बीस रूपये टोला सोना  एक रूपये सेर का घी और बीस सेर गेहूं याद आते हैं .कर्ज लेने के नाम से ही इनकी रूह कांपने लगती है जैसे कर्जा इनका बाप चुकाएगा .ये हर जन्म लेने वाले बच्चे के सिर पर रखी कर्ज की पोटली का बोझ बढ़ाते जाते हैं .धिक्कार है इनके जीने पर .ये डरपुक्के  न चैन से  खुद जीयेंगे न दूसरे हिम्मत वालों को जीने देंगे .
इसलिए अंत में महान चार्वाक की संतानों से करबद्ध निवेदन है कि इन निकम्मों को कतई गम्भीरता से न लें और मोटे मोटे कर्ज लेकर निरंतर देश में विकास की गंगा बहाते रहें .



Wednesday, December 9, 2015

स्मरण :वीरेन डंगवाल



किरिचों पर सजा इन्द्रधनुष
# मूलचन्द गौतम
वीरेन से शुरूआती मुलाकात बरेली कालिज के हिंदी विभाग के शिक्षक और अमर उजाला के साहित्यिक परिशिष्ट के सम्पादक और कवि के रूप में हुई थी फिर धीरे धीरे गाहे बगाहे मिलते जुलते यह घनिष्ठता में बदलती चली गयी .घुच्ची आंखों पर मोटा चश्मा ,मझोला कद एकदम पहाड़ी कट।मुझे ध्यान नहीं आता जब वीरेन ने कवियोचित बीमारी की तरह कभी जबरिया अपनी कविताएँ सुनाई हों .हाँ कभी मूड हो और कुछ खास लिखा हो तो बात अलग है ।तब उसकी अदा और इतराहट समोसे बनाते हलवाई से कम नहीं होती थी ।
परिवेश के सम्पादन के दौर में भी कभी उसने बार बार आग्रह ,मनुहार ,निवेदन करने पर भी अपनी कविताओं के प्रकाशन के प्रति लोभ लालच नहीं दिखाया .यह बेपरवाही –हडबडी-फक्कड़ी अराजकता दिखावे के बजाय उसका व्यक्तित्व थी ,आत्मा थी-मौजी . तमाम बन्धनों से मुक्त फिर वे चाहे कविता के हों या जीवन के .विश्वविद्यालय ने जब परीक्षकों को मुख्यालय पर बरेली बुलाकर उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन की प्रणाली शुरू की तो वीरेन को और ज्यादा नजदीक से देखने का मौका मिला .मधुरेश को तेजी से कापी जांचते देखकर उसकी मजेदार टिप्पणियाँ बेहद याद आती हैं –भाईसाब आप ऐसे ही  बिना पढ़े समीक्षाएं कर लेते हैं –फिर हंसी ,मुस्कुराहटें .और वीरेन कभी आधा घंटा  भी टिकने में असमर्थ .कभी सिगरेट ,कभी कुछ तफरीह और दोपहर के बाद तो भाई लोकल होते हुए भी कभी लौटा ही नहीं . संयोजक जेटली ने एक बार कहा भी कि उनके लिए अलग से बैठने की व्यवस्था करा देंगे पर फिर उसने कभी इस बोझिल काम में हाथ नहीं डाला .
पढ़ाने के मामले में भी वीरेन समय का पाबन्द मुंशी नहीं था .भूले , हकबकाए  ,दौड़ते –भागते हुए जब तक क्लास में पहुंचे तब तक सब साफ़ या हाफ .निराला उसके प्रिय कवि कहे कि मौका मिले तो वह राम की शक्ति पूजा के बिम्बों को क्लास में साक्षात कर दे . शमशेर उसके आदर्श कवि .पता नहीं कालिज की स्वर्णजयंती पर निकलने वाली पत्रिका के विशेषांक को उसने कैसे ऐतिहासिक बना डाला . दरअसल सम्पादन में उसकी जान बसती थी .इसीलिए बरेली में अमर उजाला को उसने लोकप्रिय बनाने में बहुत मेहनत की .इसके कानपुर संस्करण की मजबूत नींव रखी . कॉलिज प्रशासन ने उसकी पूरी मदद की ।पीलीभीत से वरुण गाँधी के चुनाव के दौरान अख़बार के थोड़े से वैचारिक विचलन के दिनों के अलावा अंत तक वह इसके निदेशकों में बना रहा .
वीरेन के पिता श्री आर पी डंगवाल बरेली से एडिशनल कमिश्नर पद से रिटायर हुए थे .उनकी नौकरी के दौरान ही वीरेन बरेली कालिज में नियुक्त हो चुके थे .पिताजी को कचहरी के पास सिविल लाइंस में एक बड़ा बंगला एलाट हो चुका था . पिता खाली वक्त में कचहरी में प्रेक्टिस भी करने लगे थे .वीरेन उनके साथ ही रहते थे .यह बंगला स्टेशन के पास ही था –बस पांच मिनट के पैदल रास्ते पर .इसलिए कभी भी आते जाते उनसे मुलाकात हो जाती .हमेशा ललककर मिलने को तैयार . आने वाला हर आदमी खुद को घर का सदस्य समझता .उनके निधन के बाद वीरेन ने वहीं पास में ही जे बी मोटर्स के पास एक भव्य दो मंजिला मकान खरीद लिया था .उसकी कुतिया और उसका पुत्र घर के सम्मानित सदस्य . हर आने वाले का स्वागत पहले भौंक कर करते फिर वीरेन के समझाने पर सबके दोस्त हो जाते और साथ में नाश्ता उड़ाते . वीरेन  दोनों बेटों और पत्नी  को सबसे जरूर मिलाते .वीरेन रीताजी को सबका परिचय देने को उत्सुक जैसे कहता हो दुनिया की नजरों में वह भी काम का आदमी है .मौज में होता तो सबके सामने रीताजी को मम्मा कहने से भी नहीं हिचकता .उस समय रीताजी की मुखमुद्रा देखने लायक होती जैसे आँखों आँखों में पति की शरारतों को माफ़ कर रही हों .
यूजीसी की योजना के तहत वीरेन  ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से  राम स्वरूप चतुर्वेदी जी के निर्देशन में डीफिल कर ली थी वरना यह कवि  बिना किसी अफ़सोस के जिन्दगी भर कम्पाउंडर ही रहता .इलाहाबाद और नैनीताल में उसकी आत्मा बसती थी .इन दोनों जगहों पर उसकी जवानी और जिन्दगी रहती थी .जब मौका मिलता उड़कर पहुँच जाता .बरेली उसका मगहर था .
कभी घर पर रीताजी न होतीं तो वीरेन की मेहमाननवाजी का जोश चरम पर होता .खुद अपने हाथों बिना चीनी की चाय और ब्रेड आमलेट बनाता .खाता और खिलाता .पान मसाला या सुरती लगातार चलती .कभी कभार शाम रंगीन भी होती दोस्तों के साथ .एक दिन मुझे बरेली रुकना था-गर्मियों के दिन  .वीरेन ने चुपचाप फ्रिज से पानी की बोतल निकाल कर अंटी में लगाई और स्कूटर लेकर निकल पड़ा .दुकान पर जाकर एक क्वार्टर लिया और झील के किनारे बैठ गये . ऐसे में गोरख पांडे के जनगीत उसकी जुबान से उमड़ उमड़ पड़ते .समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई ......ऐसे में ही उसने मेरी मंटो की किताब मम्मी उड़ा दी थी जो  मुझे कभी नहीं  मिली और मैंने उससे रमेश कुंतल मेघ की किताब अथातो सौन्दर्य जिज्ञासा पढने को मांगी तो  न देने के तमाम बहाने तैयार .
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वीरेन रामपुर आकाशवाणी में एक बार कविताएँ रिकार्ड कराने आया तो कुमार सम्भव ने मौके का लाभ उठाया . बतरस के लिए ट्रेन से साथ ही बरेली चल पड़ा और फिर लौटकर अकेला आया . रामपुर में राजकुमार सचान होरी एडीएम होकर आये थे कुमार सम्भव ने उनके साथ काव्यपाठ का एक बड़ा आयोजन किया .उसमें होरीजी के कुछ मंचीय कवि शामिल हुए थे और हमारी ओर से वीरेन और बल्ली सिंह चीमा ,जहूर आलम आदि .बाद में पता चला यह होरीजी के जन्मदिन का आयोजन था .वीरेन ने तरन्नुम में ...मोटे मोटे चूहे वाली कविता का पाठ किया था .इस कार्यक्रम में हास्यकवि भोंपू भी थे .तमाम लोगों ने पता नहीं क्यों उन्हीं को मोटा चूहा  समझकर ठहाका लगाया ,माहौल गम्भीर हो गया .बाद में रस रंजन हुआ और गिफ्ट में रामपुरी रम की बोतलों के साथ सब विदा हुए .कुमार सम्भव के आत्मघात से वीरेन को बहुत आघात पहुंचा था जो कविता के रूप में फूट पडा था .उसकी बरसी पर रामपुर में आयोजित कार्यक्रम में वीरेन ने अमर उजाला की ओर से आर्थिक सहयोग भी दिलवाया था ।यह जैसे अमर उजाला में मेरे हृदयेश के साथ प्रकाशित साक्षात्कार का मेहनताना था जो मुझे नहीं वीरेन के सौजन्य से हृदयेश को भेज दिया गया था ।
# नीलाभ ने मित्रता के नाते वीरेन का पहला संग्रह प्रकाशित किया था .यह एक असम्भव कार्य था .मैंने परिवेश -12 में इसकी एक अत्यंत अनौपचारिक समीक्षा की .वीरेन की प्रतिक्रिया थी कि यह  किसी लंगोटिया यार की ही  हो सकती थी .पता नहीं क्यों फिर मैंने उसके दूसरे संग्रह पर कुछ नहीं लिखा क्योंकि अकादमी पुरस्कार को लेकर इतना बवाल पहले ही हो चुका था जो बेवजह था और उसे अनावश्यक घेरने का कुचक्र था . गिरिराज किशोर और उसके परम मित्र मंगलेश डबराल के नैतिक समर्थन के बिना वह भावुकता में क्या कर बैठता कहना मुश्किल है .मैंने कभी इस मुद्दे पर वीरेन से जान बूझकर बात नहीं की .पता नहीं उसे क्या बुरा लग जाए ?
वीरेन का कोई प्रिय पाठक और युवा कवि जब उसकी कविताएँ जुबानी उसके सामने ही सुनाने लगता तो कवि का सीना फूल जाता और मुद्रा ...इतने भले नहीं बन जाना साथी ....वीरेन की प्रतिबद्धता सरल कविता से थी जो जनता तक सीधे पहुंचे .इसीलिए उसकी कविता बेहद मामूली देहातियों ,कामगारों के स्वाभिमान की कविता थी जिन्हें घुटनों घुटनों भात और कमर कमर तक दाल से ज्यादा की चाहत नहीं थी . उसकी ये छोटी छोटी कविताएँ पाठकों –श्रोताओं की जुबान पर तुरंत चढ़ ही नहीं  जाती थीं  बल्कि सिर चढकर बोलने लगती थीं .बहुत दिनों में दीखे भाई ......एक मामूली रेल के इंजन से बातचीत सिर्फ वीरेन के बस का काम था .वीरेन नाजिम हिकमत पर जी जान से फिदा था ।उनकी कविताओं के अनुवाद भी उसने किये थे .वैदिक मंत्रों पर उसकी एक अलग सीरीज थी .
# बरेली में जन संस्कृति मंच के राज्य सम्मेलन का आयोजन करके वीरेन ने जैसे अपनी इसी संगठन क्षमता और प्रतिबद्धता का खुला इजहार किया था .वीरेन की यह दुनिया पूरे देश में फैली हुई थी .यार दोस्तों को पुकारने के उसके अलग अलग नाम थे प्यार से वह मुझे मूली बुलाता तो प्रियदर्शन मालवीय को पिद्दू ।यह उसका विशेष प्यार था जिसका इज़हार वह खुलकर करता था ।यदि आपको यह स्वीकार नहीं तो आप अपात्र कुपात्र विपात्र हैं ।
  वीरेन के इस इन्द्रधनुष के अनेक रंग हैं जो किरिच किरिच पर फैले हुए हैं .यह तस्वीरे यार यारों की अपनी फितरत पर है कि वे इसमें क्या देखते हैं ?एक कवि अपनी कविताओं में अमर होता है लेकिन वह अपने चाहने वालों की यादों में भी अमर रहता है . यह विचित्र है की वीरेन की कविताओं पर बात करने वाले तो बहुत मिल जायेंगे लेकिन उसके अद्भुत व्यक्तित्व की जानकारी सिर्फ निकट मित्रों को ही होगी .वीरेन को परम पवित्र देवता बनाने वालों की भी कमी नहीं जो उसे हाड़ मांस का जिंदा मानुस मानने को तैयार नहीं ।

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अरविन्द त्रिपाठी आकाशवाणी में निदेशक होकर आये तो अज्ञेय ,शमशेर और नागार्जुन  की जन्मशताब्दी पर कार्यक्रमों की अद्भुत श्रृंखला शुरू की .शमशेर जी वाले कार्यक्रम में मैं भी था .मेरे बोलने के बाद बोला अब मेरे लिये क्या बचा है .वहीं जिस भाव से वीरेन ने डूबकर शमशेर जी वाली अपनी कविता सुनाई वह अद्भुत दृश्य था परकाय प्रवेश वाला .
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बरेली में जब भी  हमारे किसी शोध छात्र की पीएचडी की कोई मौखिक परीक्षा होती तो हम तहेदिल से  मिलते ।हमारे कॉमन विद्यार्थी श्योराज सिंह बेचैन को वीरेन ने डॉ आंबेडकर की पत्रकारिता पर शोध कराया और अमर उजाला में लगातार छापकर उसकी लेखनी को खूब माँजा, सँवारा और चमकाया जो आज दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग का अध्यक्ष है ।वीरेन के निर्देशन में अशोककुमार शर्मा की मौखिक परीक्षा होने वाली थी जो उस समय बरेली के जनसंपर्क अधिकारी थे और परीक्षक काशीनाथ सिंह  .गेस्टहाउस में रुकने की व्यवस्था थी .संयोग से काशीनाथ सिंह के साले साहब मानवेन्द्र सिंह यहीं एडीएम के पद पर तैनात थे .काशीनाथ जी ने मुझे भी बुलवा लिया था .पूरी मौज रही .मानवेन्द्र जी के घर से लौटते में काशीनाथ जी अतिरिक्त माल मसाला ले आये थे तो बैठक फिर जमी ।
इसी तरह एक बार काशीनाथ सिंह बरेली एक मौखिक परीक्षा लेने आये हुए थे .गाँधी जयंती होने के कारण मुश्किल से रस रंजन की व्यवस्था हो पायी .वीरेन को कुछ ओवर हो गया .ऐसे समय में उसे साधना मुश्किल हो जाता था . वह सांड की तरह बिफर उठता .सामने वाला उसके लिए गाजर मूली हो जाता ,जिसे वह सलाद समझकर निर्ममता से काट डालता और फिर खा जाता . उस समय वीरेन की ऋतम्भरा प्रज्ञा उर्फ़ कुंडलिनी जाग्रत हो जाती जो मौलिक –कौलिक गालियों  में बदल जाती .उसकी जैसी गालियां विश्वभर में नहीं मिलेंगी।
 ये ऋषि मन्त्र अक्सर नहीं झड़ते थे .वैसे लोगों और चीजों को पहचानने का उसका मौलिक तरीका था –अलग शब्दकोश था .बेबाक होने की हद तक मुँहफट होना कई बार सम्बन्धों को खराब करता है।होटल वीरेन के घर के पास ही था .काशीनाथ जी से वीरेन ने कुछ ऊटपटांग कर दिया .उन्हें तरन्नुम में झाँसीनाथ तक बना डाला ,पता नहीं यह उसकी कौन सी ग्रन्थि थी जो एकदम खुल जाती थी ।तब मैं उसे घर छोड़कर आया .सुबह जाने के समय वीरेन ने स्टेशन पहुंचकर काशीनाथजी से खेद प्रकट किया .उस समय तक कविता की गाडी बरेली से  होकर नहीं गुजरती थी .
इसी क्रम में कमलाप्रसाद जी और गोपेश्वर सिंह भी बरेली  आये थे .कमलाप्रसाद जी के सम्मान में विश्वविद्यालय में एक विचार गोष्ठी भी हुई थी  जिसमें आस पास के अनेक लेखक आये थे और जिसकी अध्यक्षता वीरेन ने की थी .रात में प्रियदर्शन  मालवीय और त्रिपाठी जी के सान्निध्य में गम्भीर साहित्य चर्चाएँ हुई थीं . बरेली में गोपेश्वर जी का फेवरिट मिलिट्री होटल भी गुलजार हुआ था  .अब वीरेन की अस्वस्थता खुल चुकी थी .परहेज  में बियर की अनुमति थी .उस रात विश्व मोहन बडोला जी का सान्निध्य एक उपलब्धि थी .वीरेन ठेठ इलाहाबादी रंग में था .दादा बडोला जी  के किस्से अश्क जी से लेकर विष्णु खरे तक फैले हुए थे .काश वीरेन ने आत्मकथा लिखी होती ?
# विश्वविद्यालय की हिंदी की पाठ्यक्रम समिति ने पूरा पाठ्यक्रम बदल दिया था ।संयोजक बरेली कॉलिज की मंजरी त्रिपाठी थीं ,उनके पति विद्याधर त्रिपाठी भी कॉलिज में ही विभाग में थे , तो जाहिर है कि संयोजक पति होने  का लाभ वे लेते ही थे ।राजकमल प्रकाशन को पूरा कार्य दे दिया गया था जिससे चिढ़कर स्थानीय प्रकाशक पाठ्यक्रम को लेकर हाईकोर्ट चले गये थे ।वीरेन मंजरी जी को भाभीजी कहता था और मसखरी में मजे लेता था हालांकि पाठ्यक्रम में उसकी कविताएं भी रखी गयी थीं ।मैं भी समिति का सदस्य था तो आना जाना लगा रहता था ।वीरेन मुझे भी खूब छेड़ता था ।
#हरिचरन प्रकाश जिन दिनों राज्यपाल के ऑफिस में शिक्षा सचिव थे तो एक दिन उनका फोन आया कि विश्वविद्यालय में राज्यपाल के प्रतिनिधि के रूप में मधुरेश और वीरेन में कौन उपयुक्त रहेगा ।मैंने वरिष्ठता के नाते मधुरेश का नाम लिया जो फाइनल हो गया ।बाद में मुझे गलती का अहसास हुआ क्योंकि मधुरेश ने विश्वविद्यालय में कोई अकादमिक योगदान नहीं किया उल्टे जगह जगह लिफाफे लूटने की खबरों से शर्मिंदा किया।शायद वीरेन कुछ बेहतर साबित होता ?
# एक बार कैंसर के अजगर और दोबारा  मगरमच्छ से जूझते इस हीरो को देखना बेहद दुखद था लेकिन  इनसे दो दो हाथ करने की उसकी जिन्दादिली  मृत्यु के दुश्चक्र में फंसे सृष्टा से कम नहीं थी .उसे बचाने कोई भगवान आने वाला नहीं था .इसीलिए वह आखिरी वक्त में अपने मगहर बरेली में लौट आया था –जो काशी तन तजे कबीर रामहिं कौन निहोरा ....और बदले में यह मगहर अपने इस महबूब कवि को आजीवन दिल दिमाग में  याद रखेगा ।सुधीर विद्यार्थी के सहयोग से वीरेन के घर के पास पार्क में उसकी एक प्रतिमा शहर से कवि की निरंतर बातचीत और याद को बनाये रखेगी यह अच्छी बात है ।

मुझे तो आज तक रीता भाभी का सामना करने का साहस नहीं हुआ है हालांकि दो बार घर जाकर लौट आया हूँ।अभी तक विश्वास नहीं होता कि वीरेन अब इस दुनिया में नहीं है ।अपनी कविताओं के साथ वह हमेशा हमारे साथ है और रहेगा ।
# शक्तिनगर ,चन्दौसी ,संभल 244412 
9412322067

Wednesday, December 2, 2015

बलमा सिपहिया

# मूलचन्द्र गौतम


जब से भैया ने घोषणा की है की प्रदेश में सिपाहियों की भर्ती में लिखित परीक्षा नहीं होगी तब से  गाँवों में रोज दीवाली हो रही है .पिछली बार कुछ जलोटन और महिला विरोधियों ने पुलिस भर्ती में फर्जीवाड़े की जांच करा दी थी तो अनेक बहनों के सुहाग उजड़ गये थे और लाखों की जमीनें कौड़ियों में बिक गयी थीं .
दरअसल भैया को मालूम है कि प्रदेश में खुशहाली सिर्फ मास्टरों और सिपाहियों के नसीब में है .इसमें भी सिपाहियों की तनखा  मास्टरों से जरूर कम है लेकिन ऊपर की आमदनी ज्यादा है लेकिन शादी के मार्केट में मास्टरी का भाव ज्यादा है .इसमें संतुलन बनाने के लिए सिपहियों के अभिभावक शादी के लिए मास्टरनियों को पहला प्रिफरेंस देते हैं .कोई कोई चतुर सिपहिये बाहुबल और बुद्धिबल से दो दो मास्टरनियों को घेर लेते हैं और जिन्दगी भर ऐश करते हैं .एसी में सफर से लेकर फ्री  बिजली ,रिक्शा ,टेम्पो  और शाम को फड वालों से  डेली सब्जी फलों की उगाही और ह्फ्तावारी अलग से  .जब कोतवाली नीलामी और ठेके पर चल रही हैं तो उन्होंने ही सत्य हरिश्चंद्र बनने का ठेका थोड़े ही ले लिया है .
इस मौके का फायदा निराश हताश शिक्षामित्र भी उठा सकेंगे जो बिना लिखित परीक्षा के सरकारी मजे ले रहे थे लेकिन कोर्ट ने उसमें बाधा डाल दी . अगले झटके में कोर्टों की भी ऐसी तैसी हो जायेगी .भैया ने इसीलिए प्रदेश में  सरकारी स्कूलों में ठेके पर खुल्लमखुल्ला सामूहिक नकल की व्यवस्था करा दी है ताकि मेरिट की कोई दिक्कत किसी को न हो . अब कोई बिल्कुल ही करम का हेठा है तो भैया के बस का नहीं ? बहती गंगा में हाथ न धो मिले तो कोई क्या मदद करेगा .चलनी में छाने और करम टटोले ?अब कोई क्या खाके भैया को सत्ता में आने से रोकेगा ?ये सिपहिये और मास्टर ही भैया के सुदर्शन चक्र का काम करेंगे और चुपचाप बूथ लुटवायेंगे.
महाभारत में भी कृष्ण ने भीष्म पितामह को इसी ट्रिक से हरा दिया था .भीष्म पितामह घूस और  नकल  के विरोधी थे जबकि दुर्योधन इस कला में पारंगत था .ऊपर से शकुनि मामा के जीत के  बेमिसाल हथकंडे थे .पांडवों  के बाप के बस का नहीं था महाभारत जीतना अगर सोलह कलाओं के अवतार उनके साथ न होते .साम ,दाम ,दंड ,भेद एक साथ होने पर ही जीत की गारंटी पक्की होती है .इनमें से कोई एक अकेला चुनाव नहीं जितवा सकता ?
# शक्तिनगर, चन्दौसी, संभल 244412
मोबाइल 8218636741

Wednesday, November 25, 2015

प्रोफेसर अनुप्रास




प्रोफ़ेसर ,प्रोपराइटर,प्रोफेशनल ,प्रो अमेरिका और अब हर एक के लिए प्रो .मनोहर श्याम जोशी के  ट टा प्रोफ़ेसर षष्टीबल्लभ पन्त .भाषा से खिलवाड़ हर एक के बस की बात नहीं .बाणभट्ट के बाद केवल  प्रो अनुप्रास के पास हैं वृत्यनुप्रास की लम्बी लम्बी लड़ियाँ .घर वालों को पूत के पाँव पालने में ही दिखने लगे थे इसीलिए उन्होंने होनहार का नाम ही अनुप्रास रख दिया था .विश्वविद्यालय में उनके गुरुवर को यह कला इतनी भाई कि उन्होंने कन्यादान के साथ ही उन्हें प्रो बनवा दिया .बस तभी से उन्होंने यह कला विकसित कर ली है कि उन्हें सपने में भी कभी गिलास आधा खाली नहीं दिखा ।अलबत्ता उनका प्रो हर दुकान पर छा गया ।तभी से प्रोफेसर और प्रोपराइटर के बीच की खाई समाप्त हो गयी अब दोनों के मायने एक हो गये हैं।
इसी कला से प्रो अनुप्रास लोकल सिद्धि से ग्लोबल प्रसिद्धि तक पंहुचे हैं .हर समय हर भाषा का शब्दकोश अपने पास रखते हैं .जिस देश में जाते हैं वहां के चार –छह शब्द बोलकर ही महफिल लूट लेते हैं .  शशि थरूर ने अंग्रेजी के मामले में शेक्सपियर को पीछे छोड़ दिया है।हिंदी से ज्यादा उन्हें अंग्रेजी की आनुप्रसिकता पसंद है .पुराने तमाम नौकरशाह इसी एब्रिशियेशन शैली से देशवासियों को बेवकूफ बनाते थे .  उन्हें मालूम है कि मोटी से मोटी अक्ल वाले से लेकर बारीक़ से बारीक अक्ल वाले को अनुप्रास की जादूगरी से लुभाया जा सकता है .ऊपर से सोने में सुहागा उनका वस्त्रबोध.कोई उन्हें अपने बीच पराया समझता ही नहीं . इस मामले में मारीच को वे अपना परमगुरु मानते हैं .जादूगर की तरह जब वे अपनी जुबान से अनुप्रास की लड़ियाँ छोड़ते हैं तो बेला ,चम्पा ,गुलाब ,हरसिंगार महकने लगते हैं और माहौल में नशा छाने लगता है .बस उन्हें इसी मौके की तलाश रहती है जब वे विनिवेश का मुद्दा छेड़ देते हैं .उनके गिरोह के बटमार तत्काल उडती चिड़ियों को अपने जाल में फांस लेते हैं . उन्होंने जहरखुरानियों से सीखा है यह हुनर .चतुर लोग यही काम क्लबों ,केसिनो और पार्टियों में अंजाम देते हैं – खुद बाहोश और दूसरों को मदहोश करके .
पुराने जमाने में यही काम जमींदार और साहूकार करते थे .पब्लिक उनकी भाषा ही नहीं समझ पाती थी .जब तक वे उनकी भाषा समझने वाले वकीलों के पास पंहुचते थे तब तक उनके हाथों के तोते उड़ जाते थे और वे  लुटे पिटे खाली हाथ मलते हुए घर लौट आते थे .
प्रो अनुप्रास ने उसी पुरानी कला को माडर्न बनाया है .हर बुड्ढे की जन्मकुंडली उनके पास है . जवानों पर उनका जादू है .मजाल है कोई मुंह खोल जाए ?घर का तो क्या घाट का भी नहीं रहने देंगे उन्हें .इसलिए खुदा के बन्दों को नेक सलाह है कि चुप रहें और झेलें .
# शक्तिनगर, चन्दौसी, संभल 244412
मोबाइल 8218636741


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Monday, November 23, 2015

श्रृद्धांजलि: महेश राही


महेश राही

वीरेन डंगवाल के तुरंत बाद महेश राही का महाप्रस्थान .मित्र कितने भी करीब हों लेकिन उनकी रचनाओं की तरह उनके व्यक्तित्व को  तटस्थ और निर्मम होकर आलोचकीय तरीके से देखना –पढना बेहद कठिन और कई बार दुखदायी होता है ,यातनादायक भी .क्योंकि हम सोच ही नहीं पाते कि वे कभी हमारे लिए इस कदर अदृश्य हो जायेंगे ?उनके मृत –निर्जीव शरीर के अंतिम क्रियाकर्म में जाने की सोचते ही रूह कांपती है कि  चाहे –अनचाहे यह मानना ही पड़ेगा कि अब वे इस दुनिया में नहीं हैं ,जबकि उन्हें खुद से अलग करना बेहद मुश्किल होता है .
वीरेन तो लम्बे समय से कैंसर के अजगर और फिर मगरमच्छ के शिकंजे में था .फोन करते भी डर लगता था कि अचानक दुश्चक्र के सृष्टा की तरफ से  कोई दुखद सूचना न मिल जाए .लेकिन उसे इस टोटके से लम्बे समय तक  टाला भी नहीं जा सकता था .आखिर मृत्यु को एक दिन सच होना ही था .
लेकिन महेश राही से तो दीपावली के अगले दिन अच्छी-खासी बातचीत हुई थी .उन्होंने बेटे के पास अहमदाबाद जाने की योजना का जिक्र किया था तो अचानक क्या हुआ कि ठीक दो दिन बाद ही बाल दिवस पर उन्होंने प्राण त्याग दिए .
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 अक्तूबर 1977 में मैं एस एम् कालिज चंदौसी के हिंदी विभाग में आ गया था .उसी साल रामपुर से एक विद्यार्थी चन्द्रशेखर त्यागी ने एम ए  हिंदी में प्रवेश लिया था .उसके बहनोई शिव चन्द्र त्यागी वहां के राजकीय महाविद्यालय में हिंदी विभाग में थे ,जिनकी नियुक्ति बैंक में हिंदी अधिकारी के रूप में हो गयी थी और वे वहां से बाहर चले गये थे .चन्द्रशेखर की रूचि साहित्यिक थी और उसे रामपुर के माहौल की अच्छी जानकारी थी .कंवल भारती ने शायद उन दिनों वहां एक प्रेस खोला था और सहकारी युग अख़बार में भी कुछ सहयोग किया था .ये सब चर्चाएँ चन्द्रशेखर अक्सर करता रहता था .
तभी 1978 में एक दिन दिनमान के अक्तूबर के प्रथम साप्ताहिक अंक से पता चला कि  किसी पत्रिका में प्रकाशित एक कहानी में अश्लीलता के आरोपों में कथाकार की गिरफ्तारी और यातना की कार्रवाई हो चुकी है सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के नियमित स्तम्भ .चरचे और चरखे में जगह , कथाकार और कहानी का कोई स्पष्ट उल्लेख न होने के कारण मामला अमूर्त ही था लेकिन बाद में पाठकीय प्रतिक्रियाओं में मामला खुला .बात आयी -गयी हो गयी .
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दिन –तारीख का पता नहीं क्योंकि कालक्रम और इतिहास का हिसाब मुश्किल है .तो किस्सा कोताह उन दिनों  स्वप्निल श्रीवास्तव चंदौसी में मनोरंजन कर अधिकारी के रूप में नियुक्त थे और सारिका में उनकी एक कहानी छपी थी . कथाकार कुमार सम्भव को स्वप्निल की सम्भावनाओं को प्रोत्साहित करने की चाहत यहाँ खींच लाई.बन्दा मुरादाबाद से मोटर सायकिल से शाम को आ धमका .स्वप्निल का कुछ अता पता नहीं मिला तो मेरी तलाश हुई .भाई मेरे परिचित के यहाँ मोटर सायकिल छोडकर पता नहीं कहाँ  रात भर गायब रहा ?स्टेशन पर सुबह की गाडी आने पर रिक्शे वालों ने सवारियों के लिए मोहल्लों की आवाज लगाई तो उसे ध्यान आया कि मेरा घर कहाँ था .इस तरह शाम का भूला सुबह घर आया तो मैं उसे लेकर स्वप्निल के यहाँ गया .बातचीत हुई और फिर किसी न किसी बहाने मुरादाबाद ,रामपुर ,बरेली मिलने जुलने का सिलसिला चलने लगा .उस किस्सागो के किस्से और कहकहे मिलते ही चालू हो जाते अपनी भंगिमा में .
परिवेश के भाग्य में लिखी थीं दुर्घटनाएं .पहले बीएचयू से इसे काशीनाथ सिंह ने निकाला तो यह सात अंक निकलकर विवादास्पद स्थितियों में  बंद हो गया .फिर कुमार सम्भव ने निकाला तो नवें अंक में महेश राही की कहानी-आखिरी जबाव –पर विवाद के चलते इसका दसवां हो गया .निलम्बन ,जेल और कोर्ट –कचहरी के कारण हौसले पस्त .
बस कथा –कहानियों पर गोष्ठी –चर्चा ,आकाशवाणी पर कहानी पाठ तक सिमट गया कारोबार .इसी क्रम में  मेरा रामपुर जाना हुआ तो  कुमार सम्भव के साथ महेश राही जी से मुलाकात हुई .फिर तो कार्यक्रमों की रूपरेखा बनने लगी और महेश जी का महल सराय वाला घर किताब घर हो गया .उनके कथा संग्रह –धुंध और धूल- पर स्थानीय रचनाकारों की भारी सहभागिता के साथ एक गोष्ठी सम्पन्न हुई .यह जैसे उनके नये उत्साह की शुरुआत थी .कुमार सम्भव अक्सर बड़ी कथा पत्रिकाओं में छपता रहता था लेकिन महेश राही केवल आकाशवाणी और सहकारी युग तक सीमित रचनाकार थे .इस नाते उनका परिवेश कुछ कुछ तात्कालिक खानापूरी भर का था .वे तमाम उकसावे के बावजूद रचनाओं पर मेहनत नहीं करना चाहते थे .अक्सर काशीनाथ सिंह उन्हें कहानी की दुनिया में नबाव रामपुर और मजाक में बुढऊ कहकर चिढाते रहते थे .इसलिए लिक्खाड़ मुन्शीनुमा आलोचकों ने उन्हें कभी गम्भीरता से नहीं लिया लेकिन हम लोगों के हौसले के बल पर वे कवि यश :प्रार्थी बनकर  लगातार सक्रिय रहे . उनकी कोई तमन्ना प्रेमचंद और नागार्जुन बनने की नहीं थी .प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यकर्ता की तरह लिखना और काम करना ही उनकी प्राथमिकता थी .उन्होंने कभी गलत की तरफदारी नहीं की और न पीत साहित्य की रचना की .लेखकों से मिलना –जुलना ,उनकी निश्छल आवभगत करना उनका स्वभाव था जिसका कुछ गलत लोग नाजायज लोग लाभ भी उठाते थे . हमने तमाम विपरीत परिस्थितियों और दुश्मनों के बीच उनके भीतर के लेखक को आखिर तक  मरने नहीं दिया . बल्कि वे नबाब रामपुर के हरम की हकीकतों पर एक ऐतिहासिक उपन्यास की तैयारी कर रहे थे जो शायद उनकी एक बड़ी उपलब्धि होती .
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कथाकार शैलेन्द्र सागर के पिता आनंद सागर महेश राही के मित्र थे .सहकारी युग में बैठकर तमाम लोगों को लेखन की प्रेरणा मिलती थी .वह जैसे रामपुर का बौद्धिक अड्डा था . उसके सम्पादक महेन्द्र गुप्त हर आगंतुक के स्वागत को तत्पर रहते .उनका नैतिक और बौद्धिक साहस बहस मुबाहिसों में निर्णायक हस्तक्षेप होता .लेकिन महेश राही की कहानी पर कानूनी विवाद से वे भी दुखी थे .
इसी आवाजाही के बीच हम तीनों ने परिवेश को पुनर्जीवित करने की योजना बनाई ,जिसमें आर्थिक जिम्मेदारी कुमार सम्भव की  ,सम्पादकीय और प्रकाशन व्यवस्था और डिस्पैच का दायित्व मेरा और महेश राही का सम्पूर्ण सहयोग था .इस कार्यक्रम के तहत 1991 में परिवेश का 11 वां अंक प्रकाशित हुआ .1992 में कलकत्ता में लघु पत्रिकाओ का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन होना था जिसमें हम तीनों परिवेश -12 के साथ सम्मिलित हुए थे .इस यात्रा से हमारे बीच एक नई समझदारी और सहकार विकसित हो चुका था . उम्र में बड़े होने के नाते हम महेशजी का बराबर ध्यान रखते थे कि उन्हें कोई दिक्कत न हो .काशीनाथ सिंह इस मैत्री के बीच सीमेंट का काम करते थे .इसलिए कलकत्ते से लौटते हुए हम बनारस रुकते हुए लौटे थे -एक नई ऊर्जा से लबालब .
अब तय हुआ की आखिरी जबाव को कहानी संग्रह के रूप में प्रकाशित किया जाय जिसमें मुकदमे का पूरा विवरण मय लेखकों के पत्रों के दिया जाय .तैयार होने पर दिल्ली से भारत भारद्वाज ,श्याम कश्यप ,केवल गोस्वामी और प्रताप सिंह आदि मित्रों की उपस्थिति में उसका लोकार्पण और चर्चा महेशजी के महल सराय वाले घर पर हुई थी . उसकी पहली प्रति उनकी अर्धांगिनी अन्नपूर्णा स्वरूपा सरलाजी को समर्पित की गयी थी ,जिनके भंडार में  हम जैसे भुक्खड़ों को खिलाने के लिए हमेशा कुछ न कुछ रहता था .कुमार सम्भव को तो अक्सर खिचड़ी का तत्काल भोग मिलता था . इस आयोजन से महेश राही को जैसे नवजीवन मिल गया और वे दुगने उत्साह से साहित्यिक कार्यों में संलग्न हो गये .
इसी क्रम में परिवेश -13 भी प्रकाशित हुआ .हिंदी जगत में तीनों अंकों की चर्चा बरकरार थी .6 दिसम्बर 1992 की बाबरी ध्वंस की घटना से पूरा देश उद्वेलित और उत्तेजित था .परिवेश की ओर से इस सुनियोजित साम्प्रदायिकता के विरुद्ध कारगर  प्रतिरोध दर्ज कराये जाने की तैयारी के तौर पर परिवेश 14-15 के  एक विशेषांक की योजना बनाई गयी जिसमें कवि सत्येन्द्र रघुवंशी को अतिथि सम्पादक तय किया गया .सामग्री का सामूहिक चयन करके जिस अंक को झाँसी में छपवाकर प्रकाशित किया गया उसकी धूम देश –विदेश तक फैली .श्रीलाल शुक्ल जी ने नवभारत टाइम्स के अपने स्तम्भ में अंक  की विशेष चर्चा की .पूरे देश से उसके पाठकों के पत्र और फ़ोनों ने हमारा उत्साह आसमान पर पंहुचा दिया .विभूति नारायण राय उन दिनों राजस्थान में थे .उन्होंने खुद उस अंक की कुछ प्रतियाँ पाकिस्तान के लेखकों के लिए मंगवाईं .
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लेकिन परिवेश के भाग्य में फिर एक दुर्भाग्य का उदय हुआ . नबम्वर 1993 में कुमार सम्भव ने आत्मदाह कर लिया . उस प्रकरण पर परिवेश का एक विशेषांक फिर छपा इसलिए उस पर यहाँ चर्चा करने का कोई औचित्य नहीं .सब कुछ निबटने के बाद मैंने और महेश राही ने तय किया कि उस भगोड़े की स्मृति में एक बड़ा वैचारिक आयोजन किया जाय ताकि लेखकों में कोई नकारात्मक संदेश न जाए .इस बीच परिवेश को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से 1992 का सरस्वती सम्मान प्राप्त हुआ .हमने काशीनाथ सिंह के निर्देशन और संरक्षण में –सत्ता ,संस्कृति और भूमंडलीकरण पर एक राष्ट्रीय स्तर का परिसंवाद आयोजित किया जिसमें परिवेश के  देश भर के तमाम मित्र और हितैषी जुड़े.इसी योजना में कुमार सम्भव की स्मृति में परिवेश सम्मान की शुरुआत की गयी जो सबसे पहले कथाकार हरी चरन प्रकाश को दिया गया .  बाद में सत्ता ,संस्कृति और भूमंडलीकरण  पर पूरा विशेषांक प्रकाशित किया ,जिसकी चर्चा 6 दिसम्बर 1992 के विशेषांक से कम नहीं हुई  पाठकों को याद दिलाना शायद जरूरी नहीं की यही दौर है जब देश में आर्थिक सुधारों के नाम पर भूमंडलीकरण का प्रारंभ हुआ
.इन तमाम योजनाओं में अगर  सेवानिवृत्त महेश राही ने साथ न दिया होता तो परिवेश भी अकालमृत्यु को प्राप्त हो गया होता .अंक 64-65 के बाद मैंने स्वयं ही उन्हें इस भार से मुक्त कर दिया था और इसके साथ ही वे खुद संसार से  मुक्त हो गये .


Saturday, October 31, 2015

चुनावकाले मर्यादा नास्ति

# मूलचन्द्र गौतम
अब तक सिर्फ युद्ध और प्रेम में सब कुछ जायज था ,इस सूची में चुनाव को भी जोड़ने के लिए संसद ने सांसदों की पेंशन ,भत्तों की तर्ज पर सर्वसम्मति से एक संशोधन पास कर लिया है .जब से चुनाव मंहगा हुआ है तब से उसके खर्च की सीमा बढ़ाने की कवायद चल रही थी जो संशोधन से असीम कर दी गयी है .साकार से निराकार की तरह .अब इस वैतरणी में धोती चप्पल मार्का  गरीबों को सिर्फ वोट देने का अधिकार होगा ,चुनाव लड़ने  में उनका प्रवेश अंग्रेजों के जमाने के क्लबों की तर्ज पर वर्जित है .
खेल के अजीबोगरीब नियमों और तकनीकों  के कारण भारतीय खिलाडी मामूली से मामूली प्रतियोगिताओं में फिसड्डी रह जाते हैं .अबकी बार ओलम्पिक में भी कोई नियम लागू नहीं होगा –पाला चीर कबड्डी की तरह . कोई रेफरी नहीं होगा .मुक्केबाजी में भी जो खिलाडी विरोधी की हड्डी –पसली एक करके उसे चकनाचूर कर देगा ,उसी को गोल्ड मैडल दिया जायेगा .पहलवानों को सोने की गदा मिलेगी और दूध पीने के लिए दो जर्सी गायें .खेल में जुए –सट्टे को शामिल किया जाएगा .नारा होगा –मेरी मर्जी .सब नियम दबंगों की मर्जी से तय होंगे .इस में जो बीच में बोलेगा बे भाव पिटेगा .बूढा ,बच्चा ,महिला कोई नहीं बचेगा .लेखक ,कलाकार ,वैज्ञानिकों को तड़ीपार कर दिया जाएगा .
जो गंवार क्रिकेट को भद्र लोगों का खेल कहते  थकते नहीं थे  ,उन्हें पता होना चाहिए कि अब ऐसा नहीं रहा .मैदान पर खूब लातें और घूंसे चलते हैं .अम्पायर भी मास्टरों की तरह  पिटते हैं .सारे प्रहार चौके और छक्के माने जायेंगे .एक और दो रन खत्म .भारत और पाकिस्तान के मैचों के नियम अलग होंगे .उसमें बल्ले और बाल की जगह तोप ,टैंक और तमंचे चलेंगे .आखिरी हार जीत एटम बम से तय होगी .
चुनाव में भी  अब चुनाव आयोग और आयुक्तों  की भूमिका सिर्फ क्लर्कों की तरह होगी .इसमें सकुशल  बड़े बड़े घोटाले  संपन्न कराने वालों को प्राथमिकता दी जायेगी .नौकरशाह सिर्फ सीटी बजायेंगे –पांडे जी की तरह .सब कुछ फ़िल्मी और हाई फाई होगा।साम दाम वाली पुरानी तकनीक से काम नहीं चलेगा .टोटल चुनाव व्यक्तिगत प्रतिष्ठा के लिए लड़ा जायेगा ,जिसमें न कोई विचार होगा ,न आचार.किसी की भी माँ-बहन-बेटी को नहीं छोड़ा जाएगा .सबकी इज्जत तार –तार बेतार कर दी जाएगी ,इसके बाद जो थोड़ी बहुत बच जाएगी उसे चौराहे पर या बीच बाजार में नीलाम कर –करा दिया जाएगा .नहीं तो उसकी हिंदी कर दी जायेगी।
# शक्तिनगर, चन्दौसी, संभल 244412
मोबाइल 8218636741

Friday, October 30, 2015

नंगों का नहान


# मूलचन्द्र गौतम
 विकास के तमाम दावों और वादों के बीच हिंदुस्तान में आज भी भूखे नंगों का बहुमत है , अल्पसंख्यक सिर्फ अमीर हैं जिनका जमीर बेहद गडबड है .फिल्मों में भी इन्हीं अमीरों की चमाचम दुनिया है जो इन भूखे नंगों को लुभाती है और वे इसके हीरो –हीरोइनों के सपनों में खोये रहते हैं .चतुर सौदागर हर पांच साल बाद पुराने सपनों को नई पालिश से चमकाकर उन्हें बार –बार चपेक देते हैं .चौकीदार रात दिन सिर्फ चिल्लाते रहते हैं –तेरी गठरी में लागा चोर मुसाफिर जाग जरा .कथावाचक इस धोखे  की इस कडवी गोली को माया महाठगिनी के विराट रूपक की चाशनी में लपेटकर धर्मभीरु जनता के गले उतारते रहते हैं .
लेकिन नंगा क्या तो नहायेगा और क्या निचोडेगा ?उसके पास है क्या एक चोटी और लंगोटी के सिवा ?गांधीजी नंगों की ऐसी हालत देखकर खुद लंगोटी में आ गये थे और उसी को पहनकर लन्दन तक जाते थे .यही लंगोटी वाला उनका आखिरी आदमी था जो आज तक उसी पोज में खड़ा है फोटो खिंचवाने के लिए .चोटी उनके पास नहीं थी क्योंकि उसके होने से बाकी चोगे ,पगड़ी ,दाढ़ी वालों के भडकने का अंदेशा था .चाणक्य की तरह चोटी खोलकर उन्होंने अंग्रेजों को बर्बाद करने की कसम भी नहीं खाई थी .दरअसल यह उनकी व्यक्तिगत मूंछ और पूंछ की इज्जत की लड़ाई थी भी नहीं .वर्ना तो आजादी के तुरंत बाद उन्हें देश का राष्ट्रपति या प्रधानमन्त्री बनने से कौन रोक सकता था ?
 देश में आजकल पुरस्कारों के लौटाने की झड़ी लगी है ,जैसे ये  अनार ,पटाखे और फुलझड़ी हों . सुप्रीमकोर्ट भी इसमें दखल देने को तैयार नहीं .सरकार परेशान है इस खुजली की बीमारी से जो दिन प्रतिदिन बढती ही जा रही है .जैसे भारी बहुमत और जनादेश पर खुजली भारी हो ?आपातकाल में भी यही खुजली इन तथाकथित बौद्धिकों के दिमाग में घुस गयी थी जिसका इलाज बड़ी मुश्किल से हो पाया था .इस बीमारी को जल्दी जड़ से खत्म नहीं किया गया तो अंदेशा है कि यह महामारी बनकर आम जनता के तन –मन को ग्रसित कर देगी और फिर लाइलाज हो जायेगी . इसलिए इन्हें सायबेरिया जैसी जगह ले जाकर बौद्धिक डोज दी जाएगी ताकि इनका दिवालियापन दूर हो  . देश का आलाकमान परेशान है कि भूखी नंगी जनता के पास लौटाने  को भले भारी तमगे न हों लेकिन उसने देश की नागरिकता लौटना या उतारकर फेंकना शुरू कर दिया तो क्या होगा ?भूखे नंगों के पास लौटाने को कुछ न हो लेकिन उनकी हाय और बददुआओं से तो बड़ी –बड़ी सल्तनतें हिल जाती हैं .फ़िलहाल तो सत्ता ने फौरी कार्यवाही के तौर पर  भेड़ों को बाड़ों में बाँट दिया है .
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शक्तिनगर, चन्दौसी, संभल 244412
मोबाइल 8218636741


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Friday, October 23, 2015

पल्ला झाड़ो-तमाशा देखो

# मूलचन्द्र गौतम
सृष्टि के प्रारम्भ से ही मनुष्य को यह सवाल परेशान करता रहा है कि खुदा ने किसी भी जीव की जीभ में हड्डी क्यों नहीं लगाई ? कम से कम नेताओं की में तो लगा ही देता ताकि वह जनता से  कभी झूठे वादे नहीं कर पाता. अगर लगाईं होती तो अच्छा रहता क्योंकि फिर वह अपने कहे पर कायम रहता और बार –बार यू टर्न नहीं ले पाता .बिना हड्डी के उसे सुविधा रहती है कि अपनी कही बात का जिम्मा औरों पर डाल सके की उसका यह मतलब नहीं था कि मीडिया तोड़ मरोड़कर  उनका गलत अर्थ निकाल रहा है . जीभ का यही लचीलापन उसे धडल्ले से झूठ बोलने की आजादी देता है .कहते तो यह भी हैं की हमेशा सच बोलने वालों की जीभ में हड्डी होती है . आदिवासी आज भी झूठ नहीं बोल पाता . कत्ल करके थाने पंहुच जाता है .
रहिमन जिह्वा बावरी कहि गयी सरग पताल,आपुन तो भीतर गयी जूती खात कपाल . ऐसी ही बदजुबानी पर जुबान खींच लेने की धमकी दी जाती है .घोड़े की जुबान पर भी इसीलिए लगाम लगाई जाती ताकि वह नेताओं की तरह फिसल न जाए .स्लिप ऑफ़ टंग.जीभ में हड्डी होती तो यह नौबत ही नहीं आती .
स्वाद और वाद दो ही बड़ी कमजोरी हैं जीभ की .इन्हीं में जीव माया में फंसता है फिर सीबीआई में उसकी दुर्गति होती है .सतयुग में ऐसा कुछ नहीं होता था .कलिकाल की यह अनिवार्य बीमारी और बुराई है .सतयुग में गलती से भी किसी से गौ हत्या का पाप हो जाता था तो कलंकी मरी हुई गाय की पूंछ बांधकर गाँव –गाँव अपने पाप का प्रायश्चित्त करता हुआ तब तक घूमता रहता था जब तक कि इलाके की जनता उसे माफ़ नहीं कर देती थी .अब कुछ नहीं होता .सामूहिक जनसंहार की कोई सजा है न सुनवाई .किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं .सब अपना पल्ला झाड़कर पाप दूसरे के पल्ले बाँध देते हैं और फिर उसे ये पल्लेदार जिन्दगी भर अपने सिर और पीठ पर ढोते रहते हैं .
जिम्मेदारी से पल्ला झड़ने की कला ही मॉडर्न मैनेजमेंट का अहम हिस्सा है जो सिर्फ हार्वर्ड में उपलब्ध है .पुराने जमाने के नेता कुछ भी गलत होते ही पहला काम पद से इस्तीफा देने का करते थे अब लाख लोग चीखते –चिल्लाते रहें उनके कान पर जूँ नहीं रेंगती .यह बेशर्मी बड़ी अविचल  साधना की मांग करती है जिसे साधकर कोई भी सिद्ध पुरुष हो जाता है –परम योगी –परमहंस .शुद्ध-बुद्ध और निरंजन .
# शक्तिनगर, चन्दौसी, संभल 244412
मोबाइल 8218636741

Thursday, September 17, 2015

विश्व शांति में श्री श्री रविशंकर जी का योगदान

विश्व शांति दिवस



आज  विश्वविख्यात आर्ट ऑफ़ लिविंग संस्था और श्री श्री रविशंकर जी  एक-दूसरे के पर्याय हो चुके हैं .श्री श्री इस संस्था के सेनानायक हैं तो विश्वभर में दूर –दूर तक फैले हुए स्वयंसेवक इसकी विराट सेना है .योग के साथ ,शिक्षा समाजसेवा और मानवीय मूल्यों के लिए समर्पित यह संस्था विश्व में अनूठी है .यह श्री श्री की प्रतिभा और क्षमता का ही कमाल है कि देश –विदेश की तमाम  सरकारों और संस्थाओं  द्वारा  विषम से विषम परिस्थितियों को सम्भालने के लिए उन्हें सादर आमंत्रित किया जाता है और वे अपनी निश्छल ,भोली मुस्कुराहट से चुटकियों में जटिल और गम्भीर समस्यायों का हल निकाल देते हैं .
इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए श्री श्री के सामने भारत और विश्व के तमाम श्रेष्ठ ऋषियों ,मनीषियों की परम्परा है जहाँ से वे हिंसा और आतंक से शांति से निपटने की ऊर्जा प्राप्त करते हैं . इस मामले में महात्मा गाँधी उनके माडल हैं .उन्हीं से मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला ने शांतिपूर्ण अहिंसक संघर्ष का पाठ पढ़ा .श्री श्री उसी परम्परा को आगे बढ़ाने वाली  मजबूत कड़ी हैं .यह सत्य और तथ्य उनके द्वारा  अब तक किये गये अनेक कार्यों से प्रमाणित होता है .
 शक्तिशाली ब्रिटिश सत्ता से संघर्ष में सत्य और अहिंसा गांधीजी के प्रबल और प्रमुख हथियार थे .इन्हीं के बल पर उन्होंने पूरे देश में उनके खिलाफ बड़े –बड़े आन्दोलन चलाये यहाँ तक कि आत्मकथा में भी वे सत्य के इन प्रयोगों से नहीं चूके और अपने बारे में भी साहस के साथ कडवे से कडवे  सच का खुलकर बयाँ किया .फिर भी उनसे असहमत लोगों ने उन पर अनेक प्रहार किये यहाँ तक कि शालीन भाषा में  उन्हें अंग्रेजों का पिट्ठू और सेफ्टी बाल्व तक कहा लेकिन वे अपने मार्ग से अंत तक नहीं डिगे .इस संघर्ष में हिंसा के समर्थकों के साथ आम जनता नहीं गयी क्योंकि उसमें जान का जोखिम था और यह लम्बे संघर्ष का मार्ग नहीं था .साथ ही हिंसा से विरोधी सत्ता को नैतिक रूप से कमजोर नहीं किया जा सकता था .
श्री श्री भी देश –विदेश में नक्सल और हिंसक संघर्षों में बिना हिचक अहिंसा के साथ उतर जाते हैं .पूर्वोत्तर भारत में मणिपुर ,असम ,बिहार ,झारखंड और आंध्र के अलगाववादी ,आतंकवादी हिंसक आंदोलनों में श्री श्री ने जिस व्यावहारिक तरीके से उन्हें समझा बुझाकर हिंसा से विरत करके विकास की मानवीय धारा से जोडकर ,उनका पुनर्वास कराया है ,यह बेहद सकारात्मक मार्ग है .सत्ता की प्रतिरोधी हिंसा से यह आग नहीं बुझ सकती बल्कि और भड़केगी .श्री श्री ने योजनाबद्ध तरीके से स्वयंसेवकों के साथ इन क्षेत्रों में हिंसक गुटों से हथियारों सहित आत्मसमर्पण कराया है  उनके अनुभव यह बताते हैं कि बातचीत और सम्वाद के बिना भी समस्याएं हल नहीं होतीं बल्कि विकराल रूप धारण कर लेती हैं . बिहार की  और तिहाड़  जेल में श्री श्री के कार्यक्रमों ने दुर्दांत अपराधियों को भी बदलने पर विवश कर दिया है . सत्ता को चाहिए कि इस तरह के प्रयत्नों को आर्थिक और नैतिक सहयोग और प्रोत्साहन प्रदान करे बिनोवा और जयप्रकाशजी ने भी यही गाँधीवादी तरीका अपनाकर डाकुओं से आत्मसमर्पण कराया था लेकिन यह केवल एक तात्कालिक घटनाक्रम बनकर रह गया और उनका सम्मानजनक पुनर्वास नहीं हुआ .
संयुक्तराष्ट्र संघ और अन्य विदेशी सत्ताओं ने श्री श्री के इन सफल प्रयोगों को देखकर उन्हें अपनी समस्याओं के समाधान हेतु सादर आमंत्रित करके अनेक कार्यभार सौंपे हैं .श्री लंका ,इराक ,आयवरी कोस्ट और हाल ही में कोलम्बिया के हिंसक संघर्षों में श्री श्री ने निर्णायक भूमिका अदा की है .इराक में तो  सितम्बर 2003 से ही युद्धपीड़ित जनता ने राहत की साँस ली है इराक के प्रधानमंत्री नूरी –अल –मलिकी और धार्मिक नेता सैयद अब्दुल्ला –अल –मसावी के साथ श्री श्री ने वहन की महिलाओं-अनाथ बच्चों  के सशक्तीकरण हेतु अनेक सामाजिक कार्यक्रम सफलतापूर्वक चलाये हैं .इस सफलता से बौखलाए आतंकवादी गुटों ने उन्हें जान से मरने की धमकी भी दी है .आयवरी कोस्ट की जनजातियों के बीच हिंसक संघर्षों को भी श्री श्री ने इसी समझ बूझ के साथ हल किया है .
 यों तो दलाई लामा भी विश्व के आध्यात्मिक नेता हैं लेकिन उनके साथ राजनीतिक विवाद साए की तरह चिपके रहते हैं जबकि श्री श्री के साथ ऐसा कोई विवाद नहीं है .विश्व भर में उनकी निर्विवाद छवि और अधिक निखर रही है . हाल ही में श्री श्री के नेतृत्व में 1964 से कोलम्बिया में सशस्त्र संघर्ष में लगे पीपुल्स आर्मी के क्रन्तिकारी गुरिल्ला  FARC  गुट के आन्दोलन को अहिंसा के मार्ग पर आने को तैयार किया गया है .28 जून 2015 को क्यूबा की तीन दिनों श्री श्री की यात्रा में सभी पक्षों के बीच हुई सकारात्मक बातचीत से उनके बीच सार्थक सहमतियाँ बनी हैं जिनके आगे बढने की पूरी सम्भावनाएं हैं .इवान मार्केज का शांति प्रक्रिया में भाग लेना और कोलम्बिया के गरीब और वंचितों के लिए राजनीतिक पार्टी बनाकर काम करने का वादा विनाश और हिंसा की पराजय है . विश्व के अधिकांश देशों ने योग दिवस मनाकर इन प्रयत्नों को बड़ी ताकत दी है जो और बढ़ेगी ,कम नहीं होगी .
इन विराट कार्यों के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि कैलाश सत्यार्थी और मलाला युसूफ जई की परम्परा में अगला नाम श्री श्री का ही होगा ?
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