# मूलचन्द गौतम
कबीर का जनम बनारस में हुआ था ,जो आज भी हिन्दुओं का धार्मिक
सुप्रीमकोर्ट है और अयोध्या से ज्यादा महत्वपूर्ण है . रामानंद के औचक शिष्य कबीर
ने जहाँ के हर चौराहे पर अपनी लुकाठी गाड़
कर तमाम मुल्लों –कठमुल्लों और नकली
धर्मध्वजियों के पाखंडों पर वज्रप्रहार
किया था. एक जमाने में वहाँ से फतवे जारी किये जाते थे लेकिन दूसरी तरफ वहां का एक
मामूली सा अनपढ़ चांडाल आदि गुरू शंकराचार्य की ऐसी तैसी करने की हिम्मत रखता था .
यही इस अद्भुत शिवनगरी का टेढ़ा मेढ़ा
त्रिशूल था जिस पर यह टिकी हुई थी . अवधू जोगी जग थें न्यारा . चना ,चबेना ,गंगजल
और एक सोटा-लंगोटा मात्र से जिन्दगी बिता देने का बूता अब इब्ने बतूता के भी बस का
नहीं रहा .हो सकता है कोई इक्का दुक्का लंगड़ –भंगड सुरती ठोंकता हुआ मणिकर्णिका के
घाट पर मन की मौज में टहलता हुआ किसी यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर होने के जुगाड़ में
धुत हो .का हो गुरू .....काशी का अस्सी या काशीनाथ सिंह का अस्सी .हर क्षेत्र के
महारथियों को जिसने जनम दिया ,शरण दी .जहाँ रामकथा के अनन्य साधक महाकवि तुलसी ने
ताल ठोंक कर घोषित किया –मांगि के खाइबो मसीत के सोइबो ....लेबे को एक न देवे को
दोऊ .
ऐसे आचारी कबीर की तुलना में विश्व का कोई बड़े से बड़ा सत्ताधीश
,मठाधीश और महाकवि नहीं ठहरता .किसी को भी खरी खरी कहने –सुनाने में निर्भीक फिर
चाहे पंडित हो या मुल्ला . तमाम मठों और गढ़ों की सत्ता और सेना पर अकेला भारी .
एकला चलो .सारनाथ की टक्कर पर कबीर चौरा . आज के व्यापारी संत –महंत और शंकराचार्य
कबीर की तुलना में कहीं नहीं ठहरते .हिंदी में निराला ,नागार्जुन ,मुक्तिबोध ,धूमिल
और पाश के बाद यह परम्परा कवियों में भी मर गयी .कुछ को सरकारी पद और पुरस्कारों
ने मार डाला .कुछ को शराब और शबाब के नबाबी शौक निगल गये .
डॉ . पीताम्बर दत्त बडथ्वाल ने गाँधी और कबीर की तुलना की .उन्हें
नेहरू में यह गुण क्यों नहीं दिखाई दिया ?दरअसल गाँधी के विचार और कर्म के बीच की
फांक से ही आधुनिक भारतीय राजनीति के अंतर्विरोधों और सामासिकता को समझा जा सकता
है . गाँधी के राजनीतिक उत्तराधिकार के बावजूद नेहरू अपने ठाट बाट,कपड़े लत्तों तक
में राजकुमार लगते हैं .भारत की खोज में लगकर जो बौद्धिक नेतृत्व उन्होंने हासिल
किया वह कई बार गाँधी के कार्यों और विचारों के एकदम विपरीत है .इसीलिए नेहरू कबीरपंथी
निराला को फूटी आँख नहीं भाते –सुहाते .कुकुरमुत्ता का गुलाब कोई और नहीं यही
नेहरू हैं .रामवृक्ष बेनीपुरी गेहूं और
गुलाब की तुलना में जैसे इसी मत का विस्तार करते हैं .राजनीति में लोहिया ,जेपी और
कृपलानी इस अन्तर्विरोध से आमने सामने बाकायदा टक्कर लेते हैं .
कबीर किसी भी नकली, फर्जी आदमी और आचार को रत्ती भर झेलने को तैयार
नहीं . तुरंत खड्गहस्त .पंडित बाद बदन्ते झूठा .कबीर की उसी नगरी ने प्रयोग के तौर
पर अपना प्रतिनिधि सांसद और सांसदों ने प्रधानमन्त्री चुना है . औसत भारतीय देहाती
की तरह कबीर और गाँधी की तुड़ी मुड़ी लुचडी वेशभूषा की तुलना में वे देश के अमीरों
के परिधानमंत्री ज्यादा लगते हैं .कबीर होते तो
कई तरीकों से छेड़ते – मन न रंगाये रंगाये भोगी कपड़ा .आखिर जोगी और भोगी के
कपड़ा रंगाने में भी कोई फर्क होता है क्या ? कपड़ों के रंग रोगन और फैशन से आदमी की
बोली ,बानी और आचार पर कोई फर्क पड़ जाता है ?तब मन से किसी दूसरी तरह की बातें
निकलने लगती हैं क्या ? इसका मतलब यह नहीं कि हमारा प्रधानमन्त्री देश विदेश में
दारिद्र्य प्रदर्शित करे लेकिन इसी काशी की मिटटी में जन्मे लाल बहादुर शास्त्री
जैसी सादगी भी कोई चीज होती है साहब . गुजरात में
साबरमती के किनारे कुटिया बनाकर
देश में आजादी की अलख जगाने वाले संत और उसके किनारे विदेशी मेहमानों के साथ झूला
झूलने की व्यापारीनुमा शासकीय मानसिकता के बीच का फर्क साफ़ दीखता है . जाहिर है कि
मोदीछाप गुजरात गाँधी का गुजरात नहीं हो सकता .कई बार खयाल आता है कि अगर गाँधी
देश के पहले प्रधानमन्त्री हुए होते तो क्या देश की दशा और दिशा यही होती ? देश के
प्रधानमन्त्री को अपने मन के बजाय जन के
मन की बात करनी चाहिए और फिजूल की बातों के बजाय बिना किसी भेदभाव के कथनी को करनी
में बदलना चाहिए . आखिर शासक के रूप में जनक हमारे आदर्श हैं . भारत की गरीब जनता
आज भी जोगी की बातें सुनना पसंद करती है ,भोगी की नहीं .वैसे भी भोगी की कलई खुलते
यहाँ देर नहीं लगती और किसी तरह का अंधेर तो इसे कबीर की तरह कतई पसंद नहीं . वरना
तो कबीरपंथी सहजोबाई मय हथियारों के तैयार बैठी हैं –कहते सो करते
नहीं ,हैं तो बड़े लबार.....
अच्छा हुआ कि गाँधी के रहते देश का संविधान नहीं बना वरना पता नहीं
क्या होता ?कौन सी बात को लेकर बुड्ढा अकड जाता और आमरण अनशन शुरू कर देता और उसका
हश्र अन्ना के अनशन जैसा न होता . आज भी हमारे पवित्र संविधान की अनेकानेक
विसंगतियों ,विद्रूपों पर बहस जारी है .यह स्वस्थ लोकतंत्र का प्रमाण है लेकिन
उसमें व्यक्तिगत –दलगत स्वार्थों के लिए हुए संशोधनों के कारण कुछ नई विसंगतियां
पनप गयी हैं . देश की भाषा,शिक्षा और आरक्षण जैसे मुद्दे तक ठीक से तय नहीं हुए
हैं .लम्बी प्रक्रिया के कारण उन्हें तत्काल आमूल नहीं बदला जा सकता लेकिन उस दिशा
में कदम तो उठाये जा सकते हैं जिससे विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की अपेक्षा आम नागरिक को असुविधा न हो .देश की जनता कितने
ही मुद्दों पर विभाजित राय रख सकती है लेकिन उन्हें देशद्रोह की आड़ में नजरअंदाज
करना बड़े खतरों को आमंत्रित करना है . देश में बढती हिंसा ,असहिष्णुता ,
भ्रष्टाचार,आतंकवाद के कारणों पर खुले मन से विचार किये बिना उन्हें रोका नहीं जा
सकता . इन मामलों में कोई भी अतिवादी कदम अतिवादी प्रतिक्रियाओं को ही जन्म देगा
जो घातक होगा .
तत्काल न्याय और कठोर दंड के
बिना लचर लोकतंत्र के कोई मायने नहीं होते .किसी भावनात्मक मुद्दे के आधार पर हुए
चुनावों से हुआ सत्ता परिवर्तन लोकतंत्र नहीं लूटतन्त्र है जो भ्रष्टाचार में
पारस्परिक सहभागिता है जिससे शासन की सम्पूर्ण गुणवत्ता प्रभावित होती है .अपराध के दंड से बचने की बारहद्वारी का नाम
लोकतंत्र नहीं है .पाप से घृणा करो पापी से नहीं का आदर्श धार्मिक और नैतिक हो
सकता है लेकिन इसे शासन और व्यवस्था में लागू करना उचित नहीं . कबीर और गाँधी ने
सत्य को केवल शब्दों से नहीं आचरण से प्रमाणित किया था .उनका – साईं इतना दीजिये ...का अपरिग्रह दिखावे के
लिए नहीं था, होता तो उसका असर इतना लम्बा नहीं चल सकता था .जिस तरह छद्म
धर्मनिरपेक्षता का वोट बैंक लम्बा नहीं चल सकता उसी तरह छद्म राष्ट्रवाद भी
अल्पजीवी होगा .सबका साथ सबका विकास जब केवल अपनों का या कुछ का विकास होगा तो
उसमें से सबका साथ छीजता चला जायेगा .लोकतंत्र में जानबूझकर किसी समुदाय,वर्ग या
क्षेत्र को इस आधार पर मुख्यधारा से अलग नहीं किया जाना चाहिए कि उसने किसी अन्य
विचार या दल को वोट दिया .करना तो अलग किसी जिम्मेदार व्यक्ति द्वारा यह कहा जाना भी
लोकतंत्र की आत्मा को नष्ट करना है.
देश में
तमाम औद्योगिक,संचार क्रांति के बावजूद
अभी गाँधी के कतार के आखिरी आदमी कबीर के हाथ खाली हैं जिन्हें जुमलों और
टोने टोटकों से नहीं भरा जा सकता .नीति आयोग के नाम पर उसे नीचे धकेलने की
जनकल्याण विरोधी अनीतियाँ कम से कम लोकतंत्र के हित में नहीं होंगी .
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