Tuesday, November 29, 2016

मन न रंगाये रंगाये जोगी कपड़ा उर्फ़ मन की बात -दो


   

# मूलचन्द गौतम


कबीर का जनम बनारस में हुआ था ,जो आज भी हिन्दुओं का धार्मिक सुप्रीमकोर्ट है और अयोध्या से ज्यादा महत्वपूर्ण है . रामानंद के औचक शिष्य कबीर ने जहाँ के  हर चौराहे पर अपनी लुकाठी गाड़ कर  तमाम मुल्लों –कठमुल्लों और नकली धर्मध्वजियों के  पाखंडों पर वज्रप्रहार किया था. एक जमाने में वहाँ से फतवे जारी किये जाते थे लेकिन दूसरी तरफ वहां का एक मामूली सा अनपढ़ चांडाल आदि गुरू शंकराचार्य की ऐसी तैसी करने की हिम्मत रखता था . यही इस अद्भुत  शिवनगरी का टेढ़ा मेढ़ा त्रिशूल था जिस पर यह टिकी हुई थी . अवधू जोगी जग थें न्यारा . चना ,चबेना ,गंगजल और एक सोटा-लंगोटा मात्र से जिन्दगी बिता देने का बूता अब इब्ने बतूता के भी बस का नहीं रहा .हो सकता है कोई इक्का दुक्का लंगड़ –भंगड सुरती ठोंकता हुआ मणिकर्णिका के घाट पर मन की मौज में टहलता हुआ किसी यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर होने के जुगाड़ में धुत हो .का हो गुरू .....काशी का अस्सी या काशीनाथ सिंह का अस्सी .हर क्षेत्र के महारथियों को जिसने जनम दिया ,शरण दी .जहाँ रामकथा के अनन्य साधक महाकवि तुलसी ने ताल ठोंक कर घोषित किया –मांगि के खाइबो मसीत के सोइबो ....लेबे को एक न देवे को दोऊ .
ऐसे आचारी कबीर की तुलना में विश्व का कोई बड़े से बड़ा सत्ताधीश ,मठाधीश और महाकवि नहीं ठहरता .किसी को भी खरी खरी कहने –सुनाने में निर्भीक फिर चाहे पंडित हो या मुल्ला . तमाम मठों और गढ़ों की सत्ता और सेना पर अकेला भारी . एकला चलो .सारनाथ की टक्कर पर कबीर चौरा . आज के व्यापारी संत –महंत और शंकराचार्य कबीर की तुलना में कहीं नहीं ठहरते .हिंदी में निराला ,नागार्जुन ,मुक्तिबोध ,धूमिल और पाश के बाद यह परम्परा कवियों में भी मर गयी .कुछ को सरकारी पद और पुरस्कारों ने मार डाला .कुछ को शराब और शबाब के नबाबी शौक निगल गये .
डॉ . पीताम्बर दत्त बडथ्वाल ने गाँधी और कबीर की तुलना की .उन्हें नेहरू में यह गुण क्यों नहीं दिखाई दिया ?दरअसल गाँधी के विचार और कर्म के बीच की फांक से ही आधुनिक भारतीय राजनीति के अंतर्विरोधों और सामासिकता को समझा जा सकता है . गाँधी के राजनीतिक उत्तराधिकार के बावजूद नेहरू अपने ठाट बाट,कपड़े लत्तों तक में राजकुमार लगते हैं .भारत की खोज में लगकर जो बौद्धिक नेतृत्व उन्होंने हासिल किया वह कई बार गाँधी के कार्यों और विचारों के एकदम विपरीत है .इसीलिए नेहरू कबीरपंथी निराला को फूटी आँख नहीं भाते –सुहाते .कुकुरमुत्ता का गुलाब कोई और नहीं यही नेहरू हैं .रामवृक्ष बेनीपुरी  गेहूं और गुलाब की तुलना में जैसे इसी मत का विस्तार करते हैं .राजनीति में लोहिया ,जेपी और कृपलानी इस अन्तर्विरोध से आमने सामने बाकायदा टक्कर लेते हैं .
कबीर किसी भी नकली, फर्जी आदमी और आचार को रत्ती भर झेलने को तैयार नहीं . तुरंत खड्गहस्त .पंडित बाद बदन्ते झूठा .कबीर की उसी नगरी ने प्रयोग के तौर पर अपना प्रतिनिधि सांसद और सांसदों ने प्रधानमन्त्री चुना है . औसत भारतीय देहाती की तरह कबीर और गाँधी की तुड़ी मुड़ी लुचडी वेशभूषा की तुलना में वे देश के अमीरों के परिधानमंत्री ज्यादा लगते हैं .कबीर होते तो  कई तरीकों से छेड़ते – मन न रंगाये रंगाये भोगी कपड़ा .आखिर जोगी और भोगी के कपड़ा रंगाने में भी कोई फर्क होता है क्या ? कपड़ों के रंग रोगन और फैशन से आदमी की बोली ,बानी और आचार पर कोई फर्क पड़ जाता है ?तब मन से किसी दूसरी तरह की बातें निकलने लगती हैं क्या ? इसका मतलब यह नहीं कि हमारा प्रधानमन्त्री देश विदेश में दारिद्र्य प्रदर्शित करे लेकिन इसी काशी की मिटटी में जन्मे लाल बहादुर शास्त्री जैसी सादगी भी कोई चीज होती है साहब . गुजरात में  साबरमती के  किनारे कुटिया बनाकर देश में आजादी की अलख जगाने वाले संत और उसके किनारे विदेशी मेहमानों के साथ झूला झूलने की व्यापारीनुमा शासकीय मानसिकता के बीच का फर्क साफ़ दीखता है . जाहिर है कि मोदीछाप गुजरात गाँधी का गुजरात नहीं हो सकता .कई बार खयाल आता है कि अगर गाँधी देश के पहले प्रधानमन्त्री हुए होते तो क्या देश की दशा और दिशा यही होती ? देश के प्रधानमन्त्री को अपने मन के बजाय  जन के मन की बात करनी चाहिए और फिजूल की बातों के बजाय बिना किसी भेदभाव के कथनी को करनी में बदलना चाहिए . आखिर शासक के रूप में जनक हमारे आदर्श हैं . भारत की गरीब जनता आज भी जोगी की बातें सुनना पसंद करती है ,भोगी की नहीं .वैसे भी भोगी की कलई खुलते यहाँ देर नहीं लगती और किसी तरह का अंधेर तो इसे कबीर की तरह कतई पसंद नहीं . वरना तो  कबीरपंथी सहजोबाई  मय हथियारों के तैयार बैठी हैं –कहते सो करते नहीं ,हैं तो बड़े लबार.....
अच्छा हुआ कि गाँधी के रहते देश का संविधान नहीं बना वरना पता नहीं क्या होता ?कौन सी बात को लेकर बुड्ढा अकड जाता और आमरण अनशन शुरू कर देता और उसका हश्र अन्ना के अनशन जैसा न होता . आज भी हमारे पवित्र संविधान की अनेकानेक विसंगतियों ,विद्रूपों पर बहस जारी है .यह स्वस्थ लोकतंत्र का प्रमाण है लेकिन उसमें व्यक्तिगत –दलगत स्वार्थों के लिए हुए संशोधनों के कारण कुछ नई विसंगतियां पनप गयी हैं . देश की भाषा,शिक्षा और आरक्षण जैसे मुद्दे तक ठीक से तय नहीं हुए हैं .लम्बी प्रक्रिया के कारण उन्हें तत्काल आमूल नहीं बदला जा सकता लेकिन उस दिशा में कदम तो उठाये जा सकते हैं जिससे विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की अपेक्षा  आम नागरिक को असुविधा न हो .देश की जनता कितने ही मुद्दों पर विभाजित राय रख सकती है लेकिन उन्हें देशद्रोह की आड़ में नजरअंदाज करना बड़े खतरों को आमंत्रित करना है . देश में बढती हिंसा ,असहिष्णुता , भ्रष्टाचार,आतंकवाद के कारणों पर खुले मन से विचार किये बिना उन्हें रोका नहीं जा सकता . इन मामलों में कोई भी अतिवादी कदम अतिवादी प्रतिक्रियाओं को ही जन्म देगा जो घातक होगा .
 तत्काल न्याय और कठोर दंड के बिना लचर लोकतंत्र के कोई मायने नहीं होते .किसी भावनात्मक मुद्दे के आधार पर हुए चुनावों से हुआ सत्ता परिवर्तन लोकतंत्र नहीं लूटतन्त्र है जो भ्रष्टाचार में पारस्परिक सहभागिता है जिससे शासन की सम्पूर्ण गुणवत्ता प्रभावित होती है  .अपराध के दंड से बचने की बारहद्वारी का नाम लोकतंत्र नहीं है .पाप से घृणा करो पापी से नहीं का आदर्श धार्मिक और नैतिक हो सकता है लेकिन इसे शासन और व्यवस्था में लागू करना उचित नहीं . कबीर और गाँधी ने सत्य को केवल शब्दों से नहीं आचरण से प्रमाणित किया था .उनका  – साईं इतना दीजिये ...का अपरिग्रह दिखावे के लिए नहीं था, होता तो उसका असर इतना लम्बा नहीं चल सकता था .जिस तरह छद्म धर्मनिरपेक्षता का वोट बैंक लम्बा नहीं चल सकता उसी तरह छद्म राष्ट्रवाद भी अल्पजीवी होगा .सबका साथ सबका विकास जब केवल अपनों का या कुछ का विकास होगा तो उसमें से सबका साथ छीजता चला जायेगा .लोकतंत्र में जानबूझकर किसी समुदाय,वर्ग या क्षेत्र को इस आधार पर मुख्यधारा से अलग नहीं किया जाना चाहिए कि उसने किसी अन्य विचार या दल को वोट दिया .करना तो अलग  किसी जिम्मेदार व्यक्ति द्वारा यह कहा जाना भी लोकतंत्र की आत्मा को नष्ट करना है.
 देश में तमाम औद्योगिक,संचार क्रांति के बावजूद  अभी गाँधी के कतार के आखिरी आदमी कबीर के हाथ खाली हैं जिन्हें जुमलों और टोने टोटकों से नहीं भरा जा सकता .नीति आयोग के नाम पर उसे नीचे धकेलने की जनकल्याण विरोधी अनीतियाँ कम से कम लोकतंत्र के हित में नहीं होंगी .  
# शक्तिनगर ,चन्दौसी ,संभल उ प्र 244412  मोबाइल-9412322067

Monday, November 28, 2016

डूबा वंश कबीर का



# मूलचन्द गौतम  

  लोदी से लेकर मोदी तक के शासनकाल में  काशी के नंगे –भिखमंगे कबीर को खरीदने –बेचने की कोशिशें जारी हैं क्योंकि इसे किसी कीमत पर कुचला तो जा ही नहीं सकता .इस मामले में यह पूरा रक्तबीज है ,जो कभी धूमिल बन जाता है कभी पाश .माया मोह से दूर कबीर के घर में फूट डालने की कोशिशें क्या कम हुई थीं .राम नाम को छोडकर माल घर ले आने वाले कमाल से ही कबीर को अंदाजा हो गया था कि एक दिन यह कपूत उनका वंश गारत कर देगा .वही हुआ जब हाल ही में काशी के सांसद और प्रधानमन्त्री ने नोटबंदी की घोषणा की तो रातों रात किसी महेंद्रा नाम के पूंजीपति ने कमाल के  जनधन खाते में विजय माल्या के घोटाले के बराबर की रकम ट्रान्सफर कर दी . जबकि कबीर ने  इसी डर से अपना पहचान पत्र का पता तक मगहर का करवा लिया था ताकि उन पर किसी तरह का कोई इल्जाम न लगे .जो काशी तन तजे कबीरा रामहिं कौन निहोरा .कबीरपंथी गाँधी ने भी आम आदमी की लड़ाई लड़ने के लिए सिर्फ एक लाठी और लंगोटी को धारण किया था .अगर वे सूट बूट धारण किये रहते तो शायद राष्ट्रपिता न हो पाते .फैशन की शौकीनी सिर्फ चाचा और मामा के हिस्से आती है .
गांधीजी ने  देश की तथाकथित आजादी के बाद इसीलिए कांग्रेस को भंग करने के लिए कहा था क्योंकि उन्हें मालूम था कि उनके नाम और फोटो का दुरूपयोग होगा .वे तो नोटों तक पर अपना फोटो नहीं देना चाहते थे .अपरिग्रही गाँधी का इससे बड़ा दुरूपयोग क्या हो सकता था कि उनके फोटो छपे नोट घूस और तमाम तरह के  अपराधों में इस्तेमाल किये जाएँ .उनकी आत्मा अब और ज्यादा दुखी है जब  नये नोटों पर दोबारा उनकी फोटो छप गयी है .इस शर्मिंदगी में वे अपने कमालों-नक्कालों-हत्यारों को गाली भी नहीं दे सकते .दरअसल आदमी अपनी औलादों से ही हारा है .बड़े से बड़े नेता की औलादें ही उसकी ऐसी तैसी करके रख देती हैं और जीते जी उसे वंशवाद ,परिवारवाद के आरोप  अलग झेलने पड़ते हैं . हत्या तक हो जाती है .दामाद के मामले में तो दुर्गति और भी ज्यादा होती है .बहू विदेशी हो तो और ज्यादा मरण .बाबा तुलसीदास इसी डर से घर बार छोडकर भागे .धूत कहौ रजपूत कहौ ...जुलहा कहौ कोऊ . आखिर तक उन्हें पीड़ा यही रही कि उन्होंने भी कबीर से कम अपमान नहीं झेला लेकिन क्रांति का श्रेय कबीर को ही क्यों मिला ?
कुदरत का उसूल है कि जो आदमी जिस चीज से सबसे ज्यादा घृणा करता है ,उसे वही सबसे ज्यादा झेलनी पडती है .तो कबीर को  आज भी कमाल की करनी की जिल्लत झेलनी पड़ रही है तो इसमें आश्चर्य क्या है ?वंश डूबा है तो डूबे .
# शक्तिनगर ,चन्दौसी ,संभल 244412  मोबाइल-9412322067

Sunday, November 20, 2016

मन बनिया बनिज न छोड़े उर्फ़ मन की बात


विमर्श


# मूलचन्द गौतम

वेद ,उपनिषद और भक्तिकाल के कवियों के सकारात्मक मनोचिन्तन की तुलना में फ्रायड ,एडलर और जुंग का नकारात्मक मनोविश्लेषण दो कौड़ी का है .पश्चिम में सिर्फ विकृत मनोवृत्तियों का विश्लेषण किया गया है ,उनके सुधार और संस्कार की कोई चर्चा वहाँ नहीं मिलती .जबकि भारत में तन्मेमन:शिवसंकल्पमस्तु की प्रतिज्ञा के साथ योग द्वारा चित्तवृत्तियों के निरोध की वैज्ञानिक प्रक्रिया और भक्तकवियों के मन को दिए गये बार बार लगातार के ताने- तिश्ने, उलाहने उसे गलत मार्ग पर जाने से रोकते टोकते रहते हैं .इस तरह के सुभाषितों का एक पूरा महाकाव्य तैयार हो सकता है .मन का यह आत्मशोधन और परिष्कार ही मन की बात है –मनमानी और मनमर्जी नहीं .
भारतीय चिंतन में मन को लेकर जितना गहन विमर्श हुआ है ,उतना विश्व की किसी भी भाषा , सभ्यता ,संस्कृति और साहित्य में नहीं हुआ .मनोग्रन्थियों को खोलने की इतनी सूक्ष्म कोशिशें कहीं नहीं हुईं .रामायण ,महाभारत की परम्परा में रचित काव्यों –कवियों ने समाज और व्यक्ति के मन का शायद ही कोई कोना छोड़ा हो जहाँ तक उनकी पहुँच न हो .इस दृष्टि से कबीर ,तुलसी और सूर की मेधा अचूक है .समूचा भूगोल –खगोल इसकी जद में आता है .मन की कल्पना और ऋतम्भरा प्रज्ञा सृष्टि के मूलस्रोत के प्रारम्भ और प्रलय तक के ओर छोर नाप लेती है .मन का यही ऋषित्व इलहाम है अनलहक तक .
इस पृष्ठभूमि में देश के प्रधानमन्त्री के मन की बातों की श्रृंखला पर गौर से नजर डालें तो विचारणीय है क्या उनकी चिंताएं सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक विडम्बनाओं के प्रति जितनी सहानुभूतिपूर्ण हैं ,उतनी ही समाधानपरक और निर्णयात्मक भी हैं ? प्रश्न उठता है कि देश की आजादी के साथ भारतीय समाज को जो संविधान और विसंगतियों भरी समस्याएं मिलीं क्या उनका कोई समाधान भी है ?जिन संक्रमणों की प्रक्रिया से हमारे  समाज ,शासन और प्रशासन की पूरी संरचना गुजरी है क्या अब उसमें किसी बुनियादी बदलाव की जरूरत है ?इस बदलाव में बिना किसी जल्दबाजी के केंद्र और राज्यों के सम्बन्ध और उनकी जटिल  स्वायत्ततापूर्ण सक्रियता को गम्भीरता से समझने की जरूरत है .यह मामला केवल कुछ राजनीतिक दलों के बीच सत्ता के बंटवारे और बारी बारी से बदलाव भर का नहीं है .
आजादी के सम्पूर्ण आन्दोलन की विभिन्न धाराओं के इतिहास को इस विमर्श के केंद्र में रखना इसलिए भी जरूरी है कि कहीं यह भटक न जाये .गांधीजी के सामने ही उनकी अनिच्छा के बावजूद हुए इस आधे अधूरे साम्प्रदायिक विभाजन के नासूर को देश आज भी लगातार किसी न किसी रूप में भुगत रहा है . हाशिये पर फेंके –छेंके गये लोगों को आज तक सामाजिक –आर्थिक न्याय और समानता उपलब्ध नहीं हो पाई है . कांग्रेस और गैर कांग्रेसवाद की सत्ता की राजनीति ज्यादातर कुजात और सुजात गांधीवादियों के बीच ही झूलती रही है .नेहरूजी का समाजवाद अब अप्रासंगिक हो चुका है .चुनाव में जीत के जातिगत समीकरणों ने राजनीति की गुणवत्ता को रसातल में पंहुचा दिया है कि जल्दी उससे मुक्ति के आसार नजर नहीं आते .उसका नया अवतार  भ्रष्टाचार और आतंकवाद के रूप में सामने है ,जिसका हल सिर्फ बेमतलब का खून खराबा है ,जो लगातार हो रहा है .अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक समीकरणों के हिसाब से दोनों देश स्वसुविधानुसार पाले बदलते रहते हैं .समस्या जस की तस रहती है बल्कि और ज्यादा उलझती जाती है .
चीन के आक्रमण के बाद नेहरूजी की मृत्यु ,इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की हत्याओं के दौर भारतीय राजनीति के असफलताओं की कहानियाँ हैं .इन अंतरालों में प्रयोग के तौर पर उभरा नेतृत्व प्राय: विफल और बिखराव का शिकार रहा है .दूसरी आजादी का यह खिचड़ी विप्लव इस मुख्यधारा में कुछ खास जोड़ नहीं पाया है .1991 के आर्थिक उदारीकरण का जो विस्तार संचार ,कम्प्यूटर क्रांति के रूप में सामने आया उसके पच्चीस साल का इतिहास उथल पुथल का रहा है .सोवियत संघ के विघटन ने विश्व की गुट निरपेक्ष को एक बड़ा झटका दिया है .अमेरिका की एकध्रुवीय व्यवस्था के अपने अंतर्विरोध हैं .इनके बीच संतुलन बिठाना कठिन काम है .2014 के चुनाव के बाद मजबूत दक्षिणपंथी सरकार ने जैसे देश को कुछ बड़ी चुनौतियों के सामने खड़ा कर दिया है .तथाकथित  पारम्परिक धर्मनिरपेक्षता की मध्यमार्गी नीतियों को पिछड़े ,दलित ,अल्पसंख्यक और आदिवासी धड़े की राजनीति के सामने टकराव के कुछ नये मोर्चे खुले हैं .समान नागरिक संहिता ,तीन तलाक जैसे मुद्दे जिस ध्रुवीकरण की ओर मुड़ रहे हैं ,वहां से राजनीति का एक नया प्रस्थान बिंदु साफ़ दिखाई देता है .राज्यों के सत्ता समीकरण इसे एक नया आयाम दे रहे हैं .
विश्व राजनीति में भारत के बढ़ते दायित्वों के साथ प्रधानमन्त्री के रूप में मोदीजी देश के आंतरिक और बाह्य अंतर्विरोधों के साथ जिस दिशा में देश को ले जाना चाहते हैं ,वह बहुत कठिन और अनेक मोर्चों पर एक साथ लड़ाई को खोलना है ,जिसके विकट और विराट खतरे हैं . व्यक्तिगत तौर पर मन की बातों से इन्हें आसानी से बहलाया-फुसलाया  नहीं जा सकता . देश के विराट जन मन की बातों को शामिल किये बगैर लिए गये निर्णय  देश के समग्र विकास का मजबूत आधार नहीं बना सकते . एक चुनाव से कांग्रेस मुक्त भारत से उन्हें हमेशा के लिए मुक्ति नहीं मिल गयी है .कांग्रेस की समस्त नीतियों को एक साथ उल्टा खड़ा कराना मुश्किल है .उपनिषदों के ब्रह्मवाक्यों की तर्ज पर स्टार्ट अप ,स्मार्ट अप ....आदि आदि की थोथी शब्दावली की लफ्फाजी कार्य रूप में परिणत किये बिना कोई अर्थ नहीं रखती .मन ,वचन और कर्म की एकता का सतयुग केवल संकीर्ण हिंदुत्व से नहीं लाया जा सकता .किसी दल ,धर्म और वर्ग के प्रति खुल्लमखुल्ला घृणा और वैर से यह राह नहीं मिल सकती .कहने को सबका साथ ,सबका विकास और हक़ीकत में कुछ का साथ और कुछ का विकास लम्बे समय तक जनता की सतर्क निगाहों से बचाया –छिपाया नहीं जा सकता .आमूलचूल परिवर्तन के लिए जिस निष्पक्षता ,इच्छाशक्ति और साहस की जरूरत है ,उसके लिए कई बार चुनाव के जातिगत ,साम्प्रदायिक समीकरणों को तिलांजलि देनी होगी .यह मधुमक्खियों के छत्ते को छेड़ने से कम नहीं .मसलन आरक्षण .
ऐसे में घर फूंक तमाशा देखने के शौक़ीन कबीर की याद आना स्वाभाविक है क्योंकि यह सुविधा भक्तिकाल के मर्यादित राम और कृष्ण कथा के महाकाव्यों के कवियों को सुलभ नहीं थी .हालाँकि उन्होंने भी संकल्प विकल्पों के बीच डांवाडोल मन की कम ऐसी तैसी नहीं की .उधौ मन माने की बात ....मो सम कौन कुटिल खल कामी कहने वालों से अलग कबीर ने मन को बनिया बताकर उसकी मूल मन:स्थिति के शाश्वत स्वभाव के भूमण्डलीकृत व्यापारी रूप को खोल दिया था ,जिसके लिए हर हाल में सिर्फ शुभ लाभ होता है ,हानि  झेलने के लिए वह कतई तैयार नहीं .अब चूंकि राजनीति भी जनकल्याणकारी मिशन न होकर व्यापार हो गयी है ,इसलिए मन की बात में कोई परमहंस ऋषि नहीं व्यापारी ही बोलता है .बाबा ने तो पहले ही भाख दिया था कि कलिकाल में तपसी धनवंत दरिद्र गृही .अब इसमें किसी एक का नाम लेने की जरूरत नहीं है .मल्टीनेशनल  जनम जनम का मारा बनिया अजहूँ पूर न तोले .उसके लेने देने के बाँट बटखरे अलग अलग हैं .यही व्यापार का मूलमंत्र है .फिर कुनबा इसका सकल हरामी तो  फिर उम्मीद भी क्या और कितनी करें ?कारपोरेट के रूप में यही बनिया विश्व की सकल सत्ताओं को नचाता है .इसलिए इसके प्रतिनिधियों की कोई भी बात पता नहीं क्यों कबीर को विश्वसनीय नहीं लगती .नहीं लगती तो नहीं लगती अब इसमें हम और आप क्या कर सकते हैं ? कबीर का बनिया मन तो दूसरों को ठगने के बजाय खुद ठगे जाने से ज्यादा खुश होता है ,यही उसके सुखी होने का रहस्य है और जब सारा संसार सुखिया है तब दुखिया दास कबीर है जागे और रोवै  ----------------------------------------------------------------------------------------------------
 # शक्तिनगर ,चन्दौसी ,संभल उ .प्र. 244412 मोबाइल-9412322067

Saturday, November 12, 2016

माया महाठगिनी हम जानी



मोदीजी ने देश भर में बड़े नोटों का चलन बंद करके जनता को  विवेकानन्द की तरह वेदान्त की ऊंचाइयों पर पंहुचा दिया है .कुछ अज्ञानी ब्रह्म के बजाय जगत को ही सत्य मानने लगे थे ,उन्हें ही इससे सदमा पंहुचा है .उनमें से कुछ को हार्टअटैक ,ब्रेन स्ट्रोक हो चुका है और कुछ कोमा में पंहुच चुके हैं .कुछ इमरजेंसी में तो कुछ आईसीयू में भर्ती हैं .उनके पैरों के नीचे की जमीन रातोंरात गायब हो गयी है . विश्व के आध्यात्मिक गुरू का यह हाल है तो चेलों का क्या होगा ?मौज में  केवल कबीरनुमा फकीर फुकरे हैं जिन्होंने तत्काल झोंपड़ों को फूंक दिया है .तेरा तुझ को सौंपता क्या लागे है मोर ?
 देश में अब चारों तरफ वेदांता और मेदांता का बोलबाला है .प्राचीन ऋषि मुनियों को मालूम नहीं था कि उनकी गहन तपस्या की ऐसी दुर्गति होगी .उनके पवित्र निस्वार्थ आविष्कारों को शीर्षासन करा दिया जायेगा .पतंजलि को तिलांजलि दे दी जायेगी .देश विदेशों में रामकथा और भागवत का व्यापार अरबों में पंहुच जायेगा . केवल बाबा तुलसीदास को यह सत्य मालूम था कि कलिकाल में तपसी धनवंत दरिद्र गृही होंगे,झूठ और मसखरी की कला सिरमौर होगी ,परधन और परस्त्रीहारी सबसे बड़े गुनवंत कहलायेंगे  .उनके लिए वेदांत का मतलब होगा –वे दांती जो माल को चबाने की तकलीफ करने के बजाय अजगर की तरह सीधे निगल जायेंगे  ,कभी उगलने की नौबत ही नहीं आएगी .लेकिन अब वे  इसे न निगल पा रहे हैं  ,न उगलने की हालत में हैं  .इन्हीं क्षणों में उनका प्राणांत हो जायेगा .
बचपन में अलीगढ़ से गोंडा जाने वाली  बसों में कुछ सुभाषित दर्ज रहते थे जो यात्रियों को  निरंतर जगत की गति का बोध कराते रहते थे .जैसे –कर कमाई नेक बंदे मुफ्त खाना छोड़ दे ,झूठा है संसार सारा दिल लगाना छोड़ दे .अब उसी मार्ग पर मुफ्तखोरों के चलते बस सेवा ही बंद हो चुकी है .पैसा हाथ का मैल है .अब उस मैल को  झक्क सफेदी में बदलने वाले इतने साबुन ,सर्फ ,डिटर्जेंट आ चुके हैं कि पलक झपकते काले को सफेद और सफेद को काला किया जा सकता है .वकीलों की दलीलों से सब कुछ सम्भव है .जहाँ झूठी कसम खाना हराम था वहाँ सफेद झूठ बोलना लोगों का सम्मानजनक पेशा बन चुका है .कामांध  कबके अनुजा तनुजा का भेद भूल चुके हैं .बलात्कार रोजमर्रा की हेडलाइन हो चुका है .
 जब से कबीर को महेंद्रा ने खरीदा है तब से उनकी खंजड़ी और इकतारे की आवाज गायब है और उनके तमाम अवधूत, संत राजनीति के सौदागर बन गये हैं , पता ही नहीं चल रहा कि असली नकली में फर्क क्या है ? चीजों से देसी स्वाद गायब है .सब गड्डमड्ड है –हाइब्रिड .बस बुढ़ऊ एक ही रट लगाये जा रहे हैं –माया महाठगिनी हम जानी .
# मूलचन्द गौतम ,शक्तिनगर ,चन्दौसी ,संभल 244412 मोबाइल-9412322067

Tuesday, November 1, 2016

छोटे शहर का बड़ा लेखक :हृदयेश



# मूलचन्द गौतम  

 बम्बई ,दिल्ली ,बनारस , इलाहाबाद ,लखनऊ की तुलना में शाहजहांपुर छोटा शहर है ,लेकिन उसका क्रान्तिकारी इतिहास छोटा नहीं तो उसका लेखक ही क्यों छोटा होने लगा .भुवनेश्वर उसके आदि लेखक थे ,जिनकी ऐतिहासिक टक्कर महाकवि निराला से हो गयी थी .दुर्भाग्य और दुर्घटना का वह संयोग  प्रखर प्रतिभा के धनी भुवनेश्वर पर भारी पड़ गया और उनका जो दुखद अंत हुआ उसके मूल में कहीं न कहीं इस टक्कर का भी हाथ था .
छोटे शहर और गाँव के आदमी के मामले में एक चुटकुला बड़ा मशहूर है कि जब वह बम्बई या दिल्ली जैसे बड़े शहर में पंहुचा और वहां भौंचक्का होकर ऊँची –ऊँची इमारतों को सिर उठाकर देखने लगा तो अचानक एक चतुर सुजान सयाना उसके पास पंहुचकर  पुलिसिया स्टाइल में धमकाने लगा कि क्या कर रहे हो ?तो घबराते –घिघियाते हुए उसने बताया कि उसने अपने देस में इतनी ऊँची बिल्डिंग नहीं देखी ,सो उसी को देख रहा था .चतुर सुजान तुरंत ताड़ गया कि शिकार तैयार है .कौन सी मंजिल देख रहे हो ? दसवीं .तो सौ रूपये निकालो .नहीं साब में दसवीं नहीं पांचवीं देख रहा था .तो चलो पचास ही दो .देहाती ने पचास का नोट चुपचाप उसके हवाले किया और राहत की साँस ली कि चलो पचास रूपये तो बचे .
अब यही किस्सा  नई कहानी और कविता के सन्दर्भ में छोटे शहर के किसी लेखक पर ज्यों का त्यों लागू कर दिया जाय तो अज्ञेय , राजेन्द्र यादव , मोहन राकेश ,कमलेश्वर और धर्मवीर भारती चतुर सुजान श्रेणी में खड़े मिलेंगे और धूमिल , शेखर जोशी ,अमरकांत , हृदयेश ,इब्राहीम शरीफ ,मधुकर सिंह साहित्य की ऊँची इमारत को हसरत से ताकने वाले छोटे शहर के छुटभैये ,टुटपूंजिये की शक्ल में दिखाई देंगे .दयनीय ,सहानुभूति के पात्र भिखमंगे .दाता और पाता का यह फर्क आज तक साहित्य क्या हर क्षेत्र में मौजूद है .यह बात अलबत्ता अलग है इनमें भी अधिकांश लोग छोटे शहरों से ही महानगरों की शोभा बने .
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 इनमें भी हृदयेश के चेहरे मोहरे पर तो छोटे शहर का लेवल फेविकोल से इस तरह फिट होकर चिपक गया था कि आखिर तक छुटाए नहीं छूटा. चंडीप्रसाद हृदयेश से परिचित  पुराने लोग प्राय : शाहजहाँपुर के हृदयेश को कम जानते थे .उनका एक कहानी संग्रह भी छोटे शहर के लोग नाम से क्या छपा कि यह जैसे उनका स्थायी भाव हो गया .फिर वे भले गाहे बगाहे संचारी की तरह बड़े बड़े शहरों के घाघ महंतनुमा लेखकों ,संपादकों और प्रकाशकों से  मिलकर उपकृत और धन्य होते रहे लेकिन छोटू की चिप्पी से पीछा नहीं छुड़ा पाये .यहाँ तक कि बेटे की कृपा से अमेरिका भी हो आये लेकिन उससे ज्यादा दुखद यात्रा उनके लिए कोई नहीं रही .हवाईअड्डे से बेटे के घर तक ,फिर बीमारी की चपेट और फिर खाली हाथ बुद्धू की तरह घर वापस .इन्हीं चिप्पियों से तैयार है उनकी आत्मकथा –जोखिम .
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हृदयेश का सीधा सादा सरल जीवन ही जैसे उनकी रचनाएँ हैं .अपनी संतति को भी उन्होंने इन्हीं उसूलों से गढा है .इसीलिए वे आत्ममुग्धता की हद तक उन्हें प्यार करते हैं .हंसी दिल्लगी की बात अलग है ,अन्यथा उन्हें अपनी रचनाओं की कटुता की हद तक की जाने वाली आलोचना नापसंद है .मुद्गल जी इस मामले में कुछ छूट ले सकते हैं .श्याम किशोर ,चंद्रमोहन दिनेश मर्यादा में रहकर कुछ हास्य के छींटे फैंक सकते हैं .जैसे कि उनकी कहानी या उपन्यास-बैंगन का पौधा ,सांड आदि  के नाम से प्रभावित होकर कृषि –पशुपालन विभाग द्वारा पुस्तकों की खरीद का जुमला .
हृदयेश की कहानियां उनकी न्याय विभाग की नियमित नौकरी की तरह व्यवस्थित हैं .बारीक से बारीक कोई तफसील उनसे छूटती नहीं .रचना और पात्रों का परिवेश और पृष्ठभूमि की बारीकियां उन्हें खास बनाती हैं ,या कहें हृदयेश मेहनत करके उन्हें खास बनाते हैं .सफेद घोडा काला सवार का यथार्थ उनका अच्छी तरह रात दिन देखा –भोगा हुआ यथार्थ है .राणा प्रताप के चेतक की तरह वे हाकिमों की भाषा और इशारा अच्छी तरह समझते हैं .जहाँ नहीं समझ पाते वहाँ अपनी हिकमतों से काम निकालते हैं .इन्हीं तरीकों के कच्चे पक्के रह जाने में रचनाएँ कहीं कमजोर रह जाती हैं . मसलन दंडनायक की फैंटेसी .
हृदयेश की कहानियों का साहित्य में एक खास मुकाम है .सारिका की जिस प्रतियोगिता में संजीव की कहानी अपराध को प्रथम पुरस्कार मिला था उसी में उनकी कहानी को सांत्वना के लायक समझा गया था .यह हृदयेश की बिडम्बना नहीं थी ,दौर ही बदल गया था .
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हृदयेश को पहल सम्मान मिला .उस अवसर पर मैंने उनकी स्पेशल साइकिल का जिक्र किया था ,जिसे चलाना उन्हीं के बस की बात थी .एक बार मैं उस साइकिल से उन्हें पीछे बिठाकर मुद्गल जी से मिलने के लिए चला .थोड़ी असंतुलित होते ही पैर न टिक पाने की वजह से हम दोनों ही मुश्किल से गिरते गिरते बचे .मुझे लगा कि हृदयेश जी मुझे खींचें इससे बेहतर है कि मैं उन्हें खींचूं.मुझे क्या पता था कि जिसका साज उसी को साजे .एक बार वीरेन डंगवाल के कहने से मैंने उनका एक साक्षात्कार लिया था .प्रश्नों के लिखित उत्तर उन्होंने मुझे डाक से भिजवा दिए थे ताकि गलती की कोई गुंजाइश न रहे .वीरेन ने उसके पारिश्रमिक की राशि हृदयेशजी को भेज दी थी .मैंने पूछा तो वीरेन ने गलती मान ली.
हृदयेश जी से मेरा लम्बा पत्राचार रहा .पत्रों का जबाब देने में वे कोई देरी नहीं करते थे .यही हाल मधुरेश का भी है जो पहले कथाकार के रूप में ही लेखन की शुरुआत करना चाहते थे .हृदयेश से मिलता जुलता नाम भी शायद इस आदर्श और प्रभाव का कोई रूप रहा हो लेकिन बाद में यशपाल की आलोचनात्मक ढाल बनने के लिए पुस्तक समीक्षा ही उनकी नियति बनकर रह गयी .
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पहल सम्मान के दौरान ही मेरा सुधीर विद्यार्थी से परिचय हुआ .वे ही इस आयोजन के स्थानीय संयोजक थे ,लेकिन पत्नी के निधन के कारण इसमें बहुत सक्रिय नहीं हो सके .वे हृदयेशजी के प्रति समर्पित लोगों में रहे .बाद में कुछ कारणों से उनका मतवैभिन्न्य हुआ जो मनोमालिन्य तक पंहुच गया .हृदयेशजी की आत्मकथा के कुछ अप्रिय प्रसंगों को वे सह नहीं पाये जिसका लिखित प्रतिवाद परिवेश में प्रकाशित हुआ .
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