# मूलचन्द गौतम
बम्बई ,दिल्ली ,बनारस ,
इलाहाबाद ,लखनऊ की तुलना में शाहजहांपुर छोटा शहर है ,लेकिन उसका क्रान्तिकारी
इतिहास छोटा नहीं तो उसका लेखक ही क्यों छोटा होने लगा .भुवनेश्वर उसके आदि लेखक
थे ,जिनकी ऐतिहासिक टक्कर महाकवि निराला से हो गयी थी .दुर्भाग्य और दुर्घटना का
वह संयोग प्रखर प्रतिभा के धनी भुवनेश्वर
पर भारी पड़ गया और उनका जो दुखद अंत हुआ उसके मूल में कहीं न कहीं इस टक्कर का भी
हाथ था .
छोटे शहर और गाँव के आदमी के मामले में एक चुटकुला बड़ा मशहूर है कि जब
वह बम्बई या दिल्ली जैसे बड़े शहर में पंहुचा और वहां भौंचक्का होकर ऊँची –ऊँची
इमारतों को सिर उठाकर देखने लगा तो अचानक एक चतुर सुजान सयाना उसके पास पंहुचकर पुलिसिया स्टाइल में धमकाने लगा कि क्या कर रहे
हो ?तो घबराते –घिघियाते हुए उसने बताया कि उसने अपने देस में इतनी ऊँची बिल्डिंग
नहीं देखी ,सो उसी को देख रहा था .चतुर सुजान तुरंत ताड़ गया कि शिकार तैयार है
.कौन सी मंजिल देख रहे हो ? दसवीं .तो सौ रूपये निकालो .नहीं साब में दसवीं नहीं
पांचवीं देख रहा था .तो चलो पचास ही दो .देहाती ने पचास का नोट चुपचाप उसके हवाले
किया और राहत की साँस ली कि चलो पचास रूपये तो बचे .
अब यही किस्सा नई कहानी और
कविता के सन्दर्भ में छोटे शहर के किसी लेखक पर ज्यों का त्यों लागू कर दिया जाय
तो अज्ञेय , राजेन्द्र यादव , मोहन राकेश ,कमलेश्वर और धर्मवीर भारती चतुर सुजान
श्रेणी में खड़े मिलेंगे और धूमिल , शेखर जोशी ,अमरकांत , हृदयेश ,इब्राहीम शरीफ
,मधुकर सिंह साहित्य की ऊँची इमारत को हसरत से ताकने वाले छोटे शहर के छुटभैये
,टुटपूंजिये की शक्ल में दिखाई देंगे .दयनीय ,सहानुभूति के पात्र भिखमंगे .दाता और
पाता का यह फर्क आज तक साहित्य क्या हर क्षेत्र में मौजूद है .यह बात अलबत्ता अलग
है इनमें भी अधिकांश लोग छोटे शहरों से ही महानगरों की शोभा बने .
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इनमें भी हृदयेश के चेहरे
मोहरे पर तो छोटे शहर का लेवल फेविकोल से इस तरह फिट होकर चिपक गया था कि आखिर तक
छुटाए नहीं छूटा. चंडीप्रसाद हृदयेश से परिचित
पुराने लोग प्राय : शाहजहाँपुर के हृदयेश को कम जानते थे .उनका एक कहानी
संग्रह भी छोटे शहर के लोग नाम से क्या छपा कि यह जैसे उनका स्थायी भाव हो गया .फिर
वे भले गाहे बगाहे संचारी की तरह बड़े बड़े शहरों के घाघ महंतनुमा लेखकों ,संपादकों
और प्रकाशकों से मिलकर उपकृत और धन्य होते
रहे लेकिन छोटू की चिप्पी से पीछा नहीं छुड़ा पाये .यहाँ तक कि बेटे की कृपा से
अमेरिका भी हो आये लेकिन उससे ज्यादा दुखद यात्रा उनके लिए कोई नहीं रही
.हवाईअड्डे से बेटे के घर तक ,फिर बीमारी की चपेट और फिर खाली हाथ बुद्धू की तरह
घर वापस .इन्हीं चिप्पियों से तैयार है उनकी आत्मकथा –जोखिम .
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हृदयेश का सीधा सादा सरल जीवन ही जैसे उनकी रचनाएँ हैं .अपनी संतति को
भी उन्होंने इन्हीं उसूलों से गढा है .इसीलिए वे आत्ममुग्धता की हद तक उन्हें
प्यार करते हैं .हंसी दिल्लगी की बात अलग है ,अन्यथा उन्हें अपनी रचनाओं की कटुता
की हद तक की जाने वाली आलोचना नापसंद है .मुद्गल जी इस मामले में कुछ छूट ले सकते
हैं .श्याम किशोर ,चंद्रमोहन दिनेश मर्यादा में रहकर कुछ हास्य के छींटे फैंक सकते
हैं .जैसे कि उनकी कहानी या उपन्यास-बैंगन का पौधा ,सांड आदि के नाम से प्रभावित होकर कृषि –पशुपालन विभाग
द्वारा पुस्तकों की खरीद का जुमला .
हृदयेश की कहानियां उनकी न्याय विभाग की नियमित नौकरी की तरह
व्यवस्थित हैं .बारीक से बारीक कोई तफसील उनसे छूटती नहीं .रचना और पात्रों का
परिवेश और पृष्ठभूमि की बारीकियां उन्हें खास बनाती हैं ,या कहें हृदयेश मेहनत
करके उन्हें खास बनाते हैं .सफेद घोडा काला सवार का यथार्थ उनका अच्छी तरह रात दिन
देखा –भोगा हुआ यथार्थ है .राणा प्रताप के चेतक की तरह वे हाकिमों की भाषा और
इशारा अच्छी तरह समझते हैं .जहाँ नहीं समझ पाते वहाँ अपनी हिकमतों से काम निकालते
हैं .इन्हीं तरीकों के कच्चे पक्के रह जाने में रचनाएँ कहीं कमजोर रह जाती हैं .
मसलन दंडनायक की फैंटेसी .
हृदयेश की कहानियों का साहित्य में एक खास मुकाम है .सारिका की जिस
प्रतियोगिता में संजीव की कहानी अपराध को प्रथम पुरस्कार मिला था उसी में उनकी
कहानी को सांत्वना के लायक समझा गया था .यह हृदयेश की बिडम्बना नहीं थी ,दौर ही
बदल गया था .
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हृदयेश को पहल सम्मान मिला .उस अवसर पर मैंने उनकी स्पेशल साइकिल का
जिक्र किया था ,जिसे चलाना उन्हीं के बस की बात थी .एक बार मैं उस साइकिल से
उन्हें पीछे बिठाकर मुद्गल जी से मिलने के लिए चला .थोड़ी असंतुलित होते ही पैर न
टिक पाने की वजह से हम दोनों ही मुश्किल से गिरते गिरते बचे .मुझे लगा कि हृदयेश
जी मुझे खींचें इससे बेहतर है कि मैं उन्हें खींचूं.मुझे क्या पता था कि जिसका साज
उसी को साजे .एक बार वीरेन डंगवाल के कहने से मैंने उनका एक साक्षात्कार लिया था
.प्रश्नों के लिखित उत्तर उन्होंने मुझे डाक से भिजवा दिए थे ताकि गलती की कोई
गुंजाइश न रहे .वीरेन ने उसके पारिश्रमिक की राशि हृदयेशजी को भेज दी थी .मैंने
पूछा तो वीरेन ने गलती मान ली.
हृदयेश जी से मेरा लम्बा पत्राचार रहा .पत्रों का जबाब देने में वे
कोई देरी नहीं करते थे .यही हाल मधुरेश का भी है जो पहले कथाकार के रूप में ही
लेखन की शुरुआत करना चाहते थे .हृदयेश से मिलता जुलता नाम भी शायद इस आदर्श और प्रभाव
का कोई रूप रहा हो लेकिन बाद में यशपाल की आलोचनात्मक ढाल बनने के लिए पुस्तक
समीक्षा ही उनकी नियति बनकर रह गयी .
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पहल सम्मान के दौरान ही मेरा सुधीर विद्यार्थी से
परिचय हुआ .वे ही इस आयोजन के स्थानीय संयोजक थे ,लेकिन पत्नी के निधन के कारण
इसमें बहुत सक्रिय नहीं हो सके .वे हृदयेशजी के प्रति समर्पित लोगों में रहे .बाद
में कुछ कारणों से उनका मतवैभिन्न्य हुआ जो मनोमालिन्य तक पंहुच गया .हृदयेशजी की
आत्मकथा के कुछ अप्रिय प्रसंगों को वे सह नहीं पाये जिसका लिखित प्रतिवाद परिवेश
में प्रकाशित हुआ .
# शक्तिनगर ,चन्दौसी ,संभल उ.प्र. 244412 मोबाइल-9412322067
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