Friday, June 24, 2016

हठयोग की पी टी




 आजकल महर्षि पतंजलि के योग के नाम पर जिस गोरखनाथ मार्का हठयोग का प्रचार देश विदेश में किया जा रहा है , उस ठगविद्या को प्रेमयोगी ब्रजवासियों ने काफी पहले नकार दिया था जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै लेकिन साब आखिर उस ठगौरी के दिन कलिकाल में ही फिरने थे . सो फिर रहे हैं .योगा का मार्किट उफान पर है .विदेशी इस योगा पर मक्खियों की तरह टूट पड़ रहे हैं .विदेशी मुद्रा के अम्बार लगे हैं .
भला हो स्वामी विवेकानंद का जो अमेरिका में वेदांत का झंडा काफी पहले गाड़ आये थे .अब उसी झंडे की शान को हम भुनाने की जुगत भिड़ा रहे हैं .उनके बाद तो अनेक अंग्रेजीदां महात्माओं ने इस व्यापार को बुलंदियों पर पंहुचा दिया है . भगवान रजनीश और महेश योगी से लेकर श्री श्री तक का सफर इसे सिद्ध करने के लिए काफी है . मुफ्तखोर ,फोकटिये भारतियों को किसी आदमी और चीज की कदर तभी पता चलती है जब वह विदेशों में हिट हो जाते हैं .जो लोग चवन्नी रिक्शे पर खर्च नहीं कर सकते उन्हें हवाई जहाज का किराया देते जान निकलती है .सब्सिडी में उनकी जान बसती है .उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य है सरकार तेल दे तो पल्ले में ले भले निकल जाए .

बचपन में अंग्रेजों की पी टी और लेझिम के अनुभवी विद्यार्थियों को आज के जिम में सिक्स और एट पैक के मुकाबले का पता नहीं .पी टी से पुलिस और फ़ौज की ट्रेनिंग में मदद मिलती थी जबकि सिक्स पैक से फिल्में आसानी से मिल जाती हैं .अब जवानों को बाबा रामदेव के नुस्खे से फूं फाँ मार्का धौकनी  चलाने और पेट में आंतें घुमाने की प्रेक्टिस करनी होगी भले इसमें दस बीस हलाक हो जाएँ , वरना उनको देश की नागरिकता से वंचित किया जा सकता है .अब बिना पढ़े लिखे इस नट करतब से ही रोजी रोटी का जुगाड़ हो सकता है तो कौन पढ़ाई की कढाई में सिर खपायेगा .पाणिनि का ब्राण्ड पतंजलि के आगे फेल है.

आओ पलायन -पलायन खेलें

# मूलचन्द्र गौतम

भारत अरसे से पलायन- पलायन खेल रहा है  .आज तक इतिहासकार ,पुरातत्ववेत्ता तय नहीं कर पाये कि आर्य यहाँ बाहर से आये थे या यहाँ के मूल निवासी थे ?क्या यह इस देश का दुर्भाग्य था जो तमाम आक्रमणकारी इस ओर आकर्षित होते रहे .इनमें से कुछ लुटेरे थे जो इसे लूटकर चले गये ,कुछ को यहाँ की आबोहवा इतनी पसंद आई कि यहीं के होकर रह गये .वर्चस्व की इस जंग में सब कुछ जायज था .कमजोर पिटते रहे ,ताकतवर पीटते रहे .मामला चाहे धर्म का रहा हो या शासन का .

पिटने वाले लोगों ने ताकतवर होते ही पुराने बदले लेने शुरू कर दिए .लोकतंत्र में चुनाव जीतने के समीकरणों के हिसाब से जाति और धर्म की गोलबंदियां होने लगीं ,ध्रुवीकरण होने लगे .इंसानियत और सर्व धर्म समभाव की दुहाई देने वाले मानवीय चेहरे खूंखार हो गये .हर चुनाव से पहले और बाद में दिलों  के बीच की दूरियां बढने लगीं .बुद्ध और गाँधी जैसे अहिंसा के पुजारी हत्या और हिंसा के लपेटे में आने लगे .सभ्यता और संस्कृति की सामासिकता का संक्रमण विवाद और अलगाव का रूप लेने लगा .हिंसा के इस नवाचार को भुनाने में लगी शक्तियों के चेहरों के नकाब उतरने लगे .
 आधुनिक शब्दावली के घटाटोप में तय करना मुश्किल हो गया है कि शासन की कौन सी पद्धति बेहतर है .रूस के विघटन और जी सात देशों की पूँजी की बढती ललक ने भूमंडलीकरण का जो विखंडित दर्शन पेश किया है वहाँ किसी देश के इतिहास और भूगोल का कोई अर्थ मतलब नहीं रह गया है .अमेरिका और चीन की व्यापारिक प्रतिद्वंदिता किस हद तक जाएगी कुछ नहीं कहा जा सकता।छुद्र स्वार्थों की राजनीति के मोतियाबिंद के कारण दूर का कुछ दिखाई नहीं देता . इसलिए तमाम अक्लमंद लोग प्रतिभा पलायन ,रोजगार पलायन में भी राजनीति का धंधा ढूँढने में लगे हैं .ब्रेन ड्रेन-ब्रेन गेम और ब्रेन गेन बन गया है .
# शक्तिनगर, चन्दौसी,संभल 244412
मोबाइल 8218636741

Friday, June 17, 2016

पार्टी लाइन

# मूलचन्द्र गौतम
जब से हर खेल को नियमों की रेखाओं में कैद किया गया है तब से उनका देसीपन ही खत्म हो गया .कुश्ती –कबड्डी जैसे देहाती खेल भी अब शहरी लगते हैं .लोकगीत का तो मतलब ही फ़िल्मी गीत हो गया है .पाला चीर कबड्डी के मजे ही अलग थे .प्रेमचंद आज होते तो उनकी कहानी गुल्ली डंडा क्रिकेट की गिल्लियों में फंसकर रह जाती .आज के इन खेल –खिलाडियों पर कोई क्लासिक रचना लिखी ही नहीं जा सकती .किसी माई के लाल में हिम्मत हो तो लिखकर दिखा दे .
यही हाल राजनैतिक पार्टियों का हुआ है .पहले एक ही पार्टी में कई –कई लाइनें एक साथ चलती रहती थीं .कभी गरम ,कभी नरम .गुलाबी ,लाल-सुर्ख लाल  ,नीली ,हरी के साथ भगवा का अलग ही जलवा था .दीपक के साथ यह पार्टी पहले केवल शहर के लालाओं तक सीमित थी .फिर इसमें सिन्धी और पंडित भी घुस गये .पंडित बहुत बदमाश कौम है .हर जाति और पार्टी में इनके यजमान निकल ही आते हैं .कितना भी नास्तिक होने का दावा करे कोई नेता और पार्टी जीत के लिए होम –हवन ,तन्त्र –मन्त्र से नहीं बच सकती .छोटे से छोटे कुकर्मी संत के  पीछे लाख पचास हजार वोट होते ही हैं .गाँव में तो मन्दिर-मस्जिद ,गुरद्वारे  ,जागरण ,हवन के चंदे के नाम पर कोई भी नेता तुरंत पिघल जाता है.ईंट ढोने वाले तक हनुमानजी की मठिया पर चार ईंट डालना जरूरी समझते हैं .
पहले भी पार्टियों में हाईकमान के नाम पर केवल एक नेता होता था ,लेकिन सामूहिकता का बोध भी रहता था .गांधीजी की भी एकछत्र तानाशाही खूब चलती थी . उनके अंध नेहरु प्रेम के कारण अनेक नेता उनसे छिटक गये और उनकी घर वापसी आज तक नहीं हो पायी है .उनकी इच्छा ही पार्टी लाइन मानी जाती थी .अब दल और दिल खुलेआम अलग –अलग भी चलते हैं और मजबूरी में साथ साथ भी .और लोग बोलते हुए भी कुछ नहीं बोल पाते क्योंकि पार्टी लाइन ,व्हिप का डंडा उनके पीछे लगा रहता है . जरा सा दायें –बांये होते ही आपको खुड्डे लाइन या लाइन हाजिर किया जा सकता है .और अब तो अफसरों से भी अपेक्षा की जाती है कि वे पार्टी लाइन को न लांघें और पार्टी के हर छुटभैये को अपना आका मानें . फिर भी मौकापरस्त हरजाइयों की हिम्मत के आगे सब ध्वस्त हो जाते हैं .इस तरह एक निकृष्टतम लोकतंत्र के पर्दे की आड़ में परिवार ,भाई भतीजावाद ,दामाद्वाद ,जातिवाद सब चलते रहते हैं .वादे वादे जायते तत्वबोध :की तरह .
अब जब से फिल्मों में पार्टी सोंग्स की धूम मची है तब से नेता परेशान हैं .पार्टी यूँ  ही चालेगी या मेरी मर्जी... के तडके ने जिस युवा तुर्क को पैदा किया है वह आतंक के जोर पर सब कुछ हासिल कर लेना चाहता है .अब हर नेता रखैलों के साथ अपने युवराज को भी साथ बल्कि आगे लेकर चलने पर विवश है .मगरमच्छ नेता की नींद हराम रहती है कि पता नहीं उसका कौन सा रिश्ता और रिश्तेदार ऐन मौके पर दगा दे जाय और रातों रात नई पार्टी खड़ी कर दे .ये फन फैलाये व्याल सब कुछ निगल जाने के बाद भी बुभुक्षित रहते हैं .इस पार्टी लाइन को निरंतर सम्भाले रखने का कौशल और नट करतब हरेक के बस की बात नहीं होती .
#शक्तिनगर, चन्दौसी,संभल 244412
मोबाइल8218636741

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Thursday, June 16, 2016

घर की मुर्गी दाल बराबर भी नहीं

# मूलचन्द्र गौतम
प्यारेलाल ने  सुबह-सुबह मातृभाषा से घर की मुर्गी की तुलना की तो मेरा दिमाग घूम गया .बुढ़ापे में यह क्या मजाक सूझ रहा है प्यारेलाल को .मजाक में हम भी कभी कभी उन्हें प्रोफेसर प्यारेलाल ही कहते हैं .लेकिन हर वक्त तो मजाक और चुहलबाजी का नहीं होता .
लेकिन मामला वाकई गम्भीर था जब मैंने देखा कि प्रोफेसर आज कतई मजाक के मूड में नहीं हैं ,बल्कि उनका मूड जड़ से ही उखड़ा हुआ है .बोले अभी तक बिहार के टापर्स का सदमा ही नहीं झेल पाया था कि दूसरा झटका यूपी ने दे दिया . एक तो उन्हें देश के विभाजन से ही खुंदक थी .ऊपर से हिंदी प्रदेशों के अलगाव ने उन्हें डिप्रेशन का शिकार बना दिया .रात दिन कामता प्रसाद गुरु और किशोरी दास वाजपेयी का नाम जप करने वाले प्रोफेसर को महान दल की तरह महान कष्ट था कि संस्कृत की तरह हिंदी को कोई पाणिनि ,पतंजलि क्यों नसीब नहीं हुआ ?उन्हें नहीं मालूम कि ऐसा होता तो हिंदी  कब की मर गयी होती .
प्यारेलाल विक्टोरियन जमाने के अंग्रेजीदां हैं .इसीलिए उन्हें अमेरिकन अंग्रेजी भी गंवारू लगती है और असल में कोई कुछ भी कहे वे  भाषा ही नहीं पूरी दुनिया की गडबडियों की जड में वे अमेरिका को ही मानते हैं .वैयाकरण गणितज्ञों की तरह झक्की हो जाते हैं .उन्हें हर समय सूत्र और समीकरण ही सूझते रहते हैं .इसीलिए दुनियादारों की नजर में वे पगलैट,क्रैक,हाफ माइंड और न जाने क्या क्या होते हैं .प्रेमपत्रों में भी व्याकरण की अशुद्धियाँ देखने वाले .
तो कुल मिलाकर लुब्बोलुबाब यह निकला कि प्रोफेसर यूपी की टीजीटी-पीजीटी परीक्षा में हिंदी की तथ्यात्मक और व्याकरणिक अशुद्धियों पर बिफरे हुए हैं .उन्हें क्या पता कि गडबडी सैटर की नहीं मुद्राराक्षस की हो?.गोपनीयता के चक्कर में प्रूफ रीडिंग न हो पायी हो .लेकिन प्यारेलाल हैं कि ब्राह्मण-कायस्थों के अलावा किसी को शिक्षा और प्रशासन के योग्य नहीं मानते .
मेरे दिमाग में खटका हुआ कि प्रोफेसर को कहीं सनक चढ़ गयी और मुख्यमंत्री ने उन्हें शिक्षा सलाहकार बना लिया तो उनकी ऐसी तैसी हो जायेगी .सब शुद्धता खाक में मिल जायेगी . एक एक वर्तनी की गलती की सजा कमचियों और उँगलियों पर झेल चुके प्यारेलाल को इस्तीफा देते ही बनेगा . चुनाव की नैया पार कराने में व्याकरण फेल हो जायेगी .
अंत में मैंने उन्हें यही समझाया खब्त छोडो प्यारे और मंहगी दाल से घर की मुर्गी की व्यर्थ तुलना मत करो .देश आगे बढ़ रहा है और तुम हो कि वर्तनी की गलतियाँ निकालने पर तुले हो .अमेरिका ही आज का और भविष्य का महाजन है अत: आँख बंदकर उसी के पन्थ का अनुसरण करो .मौज में रहोगे
#  .शक्तिनगर, चन्दौसी, संभल 244412
मोबाइल8218636741


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Wednesday, June 15, 2016

और अब टमाटर्र

# मूलचन्द्र गौतम
कभी आलू ,कभी प्याज,कभी दाल और अब टमाटर्र .प्यारेलाल चाहे अनचाहे अपने  पुराने जमाने में गुम हो जाते हैं .बुढ़ापे में शायद यह बीमारी आम हो जाती है .हम भी अपने बड़े बूढों के किस्सों पर अक्सर हँसते थे .देशी घी रूपये सेर मिलता था .गेहूं एक रूपये के बीस सेर और मटर को तो गरीबों के अलावा कोई पूछता ही नहीं था क्योंकि उसकी दाल गैस बहुत बनाती थी .उसे लेकर कुछ महान कविताओं की रचना भी लोकप्रिय थी .आज मटर पनीर से जुड़कर इज्जतदार हो गयी है .वो जमाने लद गये जब ककड़ियाँ लैला की उँगलियाँ और  मियां मजनूं की पसलियाँ हुआ करती थीं .अब तो दुकान पर ग्राहक को फाड़कर खा जाने को तैयार हैं .उनकी आँखों से चिंगारियां छूटती हैं .दुकानदार भी अब ठसक से सामान बेचता है –लेना है तो लो वरना चलते बनो .इसलिए अब कोई भी इज्जत बचाने के लिए भाव ही नहीं पूछता .भूल चूक लेनी देनी का तो सवाल ही नहीं .बैंक में भी कैशियर के सामने नोट गिनने वाले को घूर कर देखा जाता है ,जैसे रूपये उसके खाते से नहीं भीख में मिल रहे हों .
बुरा हो इस मीडिया का रोज हर मामूली चीज के भाव पूरे देश में अफवाह की तरह फैलाता है .पहले किसी को मालूम ही नहीं होता था की किस चीज का क्या भाव है ?पहले हम बड़े भाई के घर दिल्ली जाते थे तो साथ में लौकी या मौसम की कोई सस्ती सब्जी या खोया उपहार के बतौर ले जाते थे .भाभी बड़ी खुश हो जाती थीं जैसे उन्हें कल्पवृक्ष मिल गया हो .उन्हें हमारा सब्जियों के साथ आना अखरता नहीं था .
अब इस पंचसितारा संस्कृति ने सब गुड गोबर कर दिया है .हर सब्जी –सलाद बारहों महीने चाहिए .मौसम के खिलाफ मंहगी सब्जियां खाने के चलन ने मंहगाई दर को आसमान पर पंहुचा दिया है .रूपये किलो टमाटर मिलेगा तो कोई नहीं कहेगा कि सस्ता है क्योंकि वह किसान का है . कम्पनियां उसका खूब किसान छाप सास बनाकर रख लेती हैं .महंगा बेचने के लिए .कोल्ड स्टोर में पंहुचते ही वह आलू ,सेव की तरह पंच सितारा हो जाता है .मौसम के खिलाफ महंगी सब्जियां खरीदना और फिर पडौसियों –किटियों में इसका प्रचार करना स्टेट्स सिम्बल है .

बड़े बूढ़े मना करते थे की भई रात में दही मत खाओ लेकिन अब तीन टाइम दही से कोई परहेज नहीं .यहाँ तक कि डाक्टर तो नवप्रसूता को भी खूब दही खिलाते हैं .दावतों में तो भर ठंड में दही और आइसक्रीम की खपत सबसे ज्यादा होती है .सब कुछ अमरीका की तर्ज पर अप्राकृतिक होता जा रहा है .
महंगाई कोई दाल या सब्जी कम खाने को मना करे तो देश की जनता का सबसे बड़ा दुश्मन ,जैसे मना करने वाले की जेब फट रही हो .गेहूं महंगा हो तो केक खाओ या रूपये क्या पेड़ पर उगते हैं जैसी कहावतों के उद्धरणकर्ताओं की दुर्गति हमारे सामने है .सो समझदारी चुप रहने में है .एक चुप सौ को हरावे
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शक्तिनगर, चन्दौसी, संभल 244412
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Tuesday, June 14, 2016

क्रास वोटिंग का है जमाना


मेंढकों को तराजू में तौलने की कोशिश में प्यारेलाल कई बार औंधे मुंह गिर चुके हैं ,लेकिन फिर भी बाज नहीं आते . आयाराम गयाराम के खेल में अनाड़ी की तरह व्यवहार करते हैं .उनकी मन्दमति में कलिकाल की माया घुसती ही नहीं .पंडित सोई जो गाल बजावा और प्यारेलाल हैं कि गाल बजाने की कहो तो बगलें बजाने लगते हैं . कितना भी समझाओ हर समय खुद को सत्य हरिश्चंद्र की जायज औलाद समझते हैं .
अरे भैया जब झूठइ लेना झूठइ देना ,झूठइ भोजन झूठ चबेना हो तो आपको कौन तौलेगा ?घर बैठे मारते रहिये मक्खियाँ या मक्खीनुमा हिटलरी मूंछों को नोंचते रहिये कि जैसे उन्हीं में से विश्वशांति का हल निकलेगा .महाभारत भी वर्णसंकरता के कारण ही हुआ था जिसे आजकल क्रास ब्रीड कहते हैं .जहाँ गधे ,घोड़े फेल हो जाते हैं वहां खच्चर बाजी मार ले जाते हैं .अब ई ससुरी देश की राजनीतिक पार्टियों को वर्ण शुद्धता का रोग लगा है कि खच्चरों को लतियाकर बाहर निकाले दे रही हैं .जबकि सबका हिनहिनाना एक सा है .एफिडेविट देकर कोई सगा हुआ है आज तक .हरी हरी घास जहाँ दिखेगी वहाँ दीन ईमान कौन देखेगा ?फिर डूबती नैया में कौन बुडबक सवारी करेगा ?अक्लमंद कहेंगे कि चूहों को ही सबसे पहले जहाज के डूबने की खबर  क्यों मिलती है ?
इन अक्लमन्दों ने आज तक न कोई चुनाव लड़ा और न जीता .इसलिए हर पार्टी ने उन्हें पार्टी प्रवक्ता बनाकर हर चैनल पर बैठा दिया है .लड़ाते रहें चोंचें .समझते रहें खुद को थिंक टैंक .युद्ध के मैदान में इनमें से एक नहीं चलेगा .वहां देसी कट्टा ही काम आएगा .इसलिए पूरा देश वोटिंग के बजाय क्रास वोटिंग करने वाले रणबांकुरों को ही टकटकी लगाये देख रही है क्योंकि यही दिशाकाक हैं .इन्हीं से हवा का पता चलता है .घोडा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या और ह्गेगा क्या ?इन्हीं की लीद लीड़ बनेगी जिसे हर चैनल सिर पर ससम्मान उठाकर घूमेगा .अब हाईकमान सिर धुनता है तो धुने इनकी बला से .इनकी तकदीर में हाईकमान के धक्के नहीं लिखे हैं ,इसीलिए चतुर सुजान हक्के बक्के हैं .उन्हें न खुदा ही मिला न बिसाले सनम 

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