Tuesday, December 19, 2017

भाजपा का हिंदी ,हिन्दू प्रेम ?


@ मूलचन्द्र गौतम
भारतीय संविधान की अनेक विसंगतियों में एक सबसे बड़ी विसंगति हिंदी को लेकर रही है ,जिसके बारे में संविधान संशोधन की तत्काल और सख्त जरूरत है .जब देश में भाषावार राज्यों का विभाजन हो रहा था तो आश्चर्य होता है कि हिंदीभाषियों का एक राज्य क्यों नहीं बनाया गया ?ठीक उसी तरह  जैसे संविधान में हिंदी को देश की प्रथम राजभाषा नहीं बनाया गया जबकि देश की आजादी के आन्दोलन की प्रमुख भाषा हिंदी थी .यह गांधीजी की हार और मैकाले और उसके समर्थक काले अंग्रेजों की जीत थी जिसमें दुर्भाग्य से नेहरूजी शामिल थे . देश के विभाजन की तरह बांटो और राज करो की नीति के तहत यह एक सोचा समझा सुसंगत षड्यंत्र था जिसका आज तक कोई जिक्र नहीं होता .इसी के तहत देश का संविधान लागू होने से पहले ही हिन्दीभाषी जनता के किसी तरह के विरोध को शांत करने के लिए 14 सितम्बर 1949 को हिंदी दिवस का झुनझुना थमा दिया जिसे इस गोबरपट्टी के जाहिल बाशिंदे बड़े ही शौक से सालाना त्यौहार की तरह मनाते हैं .ये शतरंज के धर्मनिरपेक्ष खिलाडी आपस में एक दूसरे को  शह और मात  देने के चक्कर में खाहमखाह भिड़े रहते हैं और अंग्रेजी और अंग्रेजीपरस्तों की शाही सवारी शान से राजपथ से गुजरती रहती है और देसी भाषाओँ का ऊबड़ खाबड़ जनपथ भिखमंगों को ढोता रहता है .
 रात दिन संविधान की धारा 370 और तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की विसंगति का हल्ला मचाने वाली राष्ट्रवादी परम देशभक्ति का ढिंढोरा पीटने वाली भाजपा भी इस ओर कोई ध्यान नहीं देती .बस गरीब हिंदी और हिंदीभाषियों के थोक वोटबैंक को मरहम लगाने वास्ते कभी अटलजी ,कभी मोदीजी कभी सुषमाजी संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में बोलने का अहसान कर आते हैं और बस इतने भर से संघी बम बम हो जाते हैं कि हिंदी जल्दी ही विश्व भाषा बनेगी .जबकि यह तल्ख़ हक़ीकत है कि हिंदी जिस देश के संघ लोक सेवा आयोग और सुप्रीमकोर्ट में ही प्रथम राजभाषा के रूप में मान्य नहीं है वहाँ वह उपेक्षित ही रहने को अभिशप्त है . इस मामले में कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक दलों का रवैया एक जैसा रहा है . क्या संघ और भाजपा हिंदी को उसका सम्मान दिलाने की कोई चर्चा या कोशिश करते हुए दिखाई देते हैं ?रात दिन चीन की बराबरी और  विकास में उसे पीछे छोड़ देने की कसमें खाने वाले चीन की भाषा ,संस्कृति ,खेल ,टेक्नोलॉजी और जनसंख्या नीति से कोई सीख लेने को तैयार हैं ? संघ  के तमाम कर्णधार संगठनों का काम केवल और केवल अंग्रेजी में चलता है .उन्हें राष्ट्रभाषा से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय भाषा प्यारी है क्योंकि विदेश व्यापार उसी से सधता है . सिर्फ  मन की बात करने और वोट हासिल करने के लिए उन्हें हिंदी की जरूरत होती है.बाकी  देसी गधे  और भेड़ें तो यों ही हिंदुत्व के नाम पर उसके बाड़े को छोडकर कहीं जा नहीं सकते ?
आजादी के आन्दोलन में महात्मा गाँधी के सामने सबसे बड़ी चुनौती भारत के बहुलतावादी समाज को एक साथ लेकर चलने की थी जिसमें वे हिंसा को कतई प्रविष्ट करने को तैयार नहीं थे ,इसीलिए उन्होंने उदार हिंदुत्व में हिन्दू और मुसलमानों को साथ रखा और कट्टर हिन्दू महासभा तथा मुस्लिम लीग को जानबूझकर अलग रखा . इस मायने में महामना मदन मोहन मालवीय हिन्दुओं के और अब्दुल गफ्फार खां तथा मौलाना आजाद उनके मुसलमानों के प्रतिनिधि थे जिन्हें वे सार्वजनिक रूप से  अंग्रेजी शासन के विरोध में पेश करते थे .कट्टर हिन्दुओं को उनकी यही शैली अखरती थी ,जिसका प्रदर्शन उन्होंने गाँधी की हत्या के माध्यम से देश के सामने रखा . पूना पैक्ट के द्वारा गाँधीजी ने दलित समाज को  विभाजन की हद तक अलग होने से बचा लिया था ,जिसे आज सवर्ण हिंदुत्व के तरफदारों ने बार बार आरक्षण खत्म की चुनौती दे देकर हाशिये पर खदेड़ देने की कोशिश की है और वह इस तथाकथित हिंदुत्व से अलग थलग महसूस करता है .आइआइटी,आइआइएम जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में प्रवेश के बावजूद दलित छात्र आत्महत्या क्यों कर रहे हैं ,यह चिंता की बात है .यह एक पिल्ले का कार से कुचल जाना भर नहीं है .रोहित वेमुला इसका अकेला उदाहरण नहीं है .  तमाम बौद्धिकों की हत्यारी जमात को कौन नहीं जानता ?कहने की जरूरत नहीं कि आज भाजपा उसी आक्रामक और संकीर्ण अल्पसंख्यक विरोधी हिंदुत्व को  प्रखर राष्ट्रवाद और भारतीय सेना की आड़ में कट्टर और आतंकवादी इस्लाम उर्फ़ पाकिस्तान के विरुद्ध खड़ा करती है लेकिन उसके निशाने पर देशभक्त गरीब  मुसलमान क्यों होना चाहिए .  गौमाता की आड़ में  हमें होरी और हल्कू का शोषण क्यों नहीं दिखता जब किसान की मेहनत की फसल गौशाला के नाम दान की आड़ में ठग ली जाती है .एक ही मरियल गाय का गंगा किनारे लाखों बार गोदान कराया जाता है . मशीनी खेती ने प्रेमचंद के हीरा मोती को कब का बेगाना बना दिया उन्होंने  गोदान यों ही नहीं लिखा था .  आज किसानों की आत्महत्या उसी शोषण की आधुनिक प्रक्रिया है .गाय की आड़ में  उदार निर्दोष ,निरीह  गरीब मुसलमान भी पिसता है ,हिंसा का शिकार होता है .इन हत्यारों को गाय से भी ज्यादा गरीब और दयनीय हिंदी कहीं नजर नहीं आती जिसकी हत्या सरेआम हो रही है .वह अपने ही देश में  दोयम दर्जे की जिन्दगी ढो रही है .
प्रताप नारायण मिश्र ने जिस  भावना से हिंदी ,हिन्दू ,हिंदुस्तान का नारा दिया था आज वह नदारद है .मोहन भागवत बड़ी शान से कहते हैं कि हर भारतवासी हिन्दू है लेकिन वे हर भारतवासी को यह अहसास दिलाने में क्यों नाकाम रहते हैं कि हर हिन्दू की धार्मिक आस्था और विश्वास की रक्षा करना भी  उस हिंदुत्व के ठेकेदारों की जिम्मेदारी है .अतीत और इतिहास से बदला उसके प्रतीकों को नेस्तनाबूद करके नहीं लिया जा सकता .उन्हें स्वतन्त्रचेता लेखकों और इतिहासकारों की जमात से खतरा क्यों महसूस होता है ? इस मामले में भाजपा हिंदी के  नख दंतविहीन निरीह मास्टरों  की जमात का उपयोग बेहतर मानती है .भोपाल के विश्व हिंदी सम्मेलन और हाल ही के उप्र हिंदी संस्थान के पुरस्कारों ने यह प्रमाणित भी कर दिया है .क्यों वे एक खास किस्म के लोगों को ही पसंद करते हैं ?सामान्य जन उनके सोच विचार के दायरे से क्यों बाहर है ?केवल चुनावी चंदा देने वाले कारपोरेट का हित साधन ही तो सब कुछ नहीं है ,न चुनाव जीतना कोई परम पुरुषार्थ है .रेसकोर्स का नाम लोककल्याण कर देने भर से लोककल्याण नहीं होता ,किसान मजदूर का हित नहीं सधता .?
 आपात्काल के बाद देश की तथाकथित दूसरी आजादी के दौरान दोहरी सदस्यता के  द्वंद्व में सरकार का शीराजा बिखर गया था .यूपीए के भ्रष्टाचार की यादें जैसे ही जनमानस से धुंधली होने लगेंगी वैसे ही भाजपा के ये अंतर्विरोध और नाकामियां उस पर भारी पड़ने लगेंगी .भावनात्मक खिलवाड़ ,जुमलों और टोटकों से देर और दूर तक चुनाव नहीं जीते जा सकते .जनभावना को ज्यादा बहलाया –फुसलाया नहीं जा सकता .
इसलिए हिन्दीभाषी जनता को मजबूती के साथ यह संकल्प लेना चाहिए कि अगले लोकसभा के चुनाव से पहले हिंदी को देश की प्रथम राजभाषा और राष्ट्रभाषा घोषित करने वाले दल को ही  सत्ता का बहुमत देगी . अंग्रेजी को दोयम बनाने से इस निर्णय का कोई विरोध नहीं है .मन्दिर  निर्माण से पहले अगर भाजपा इसे पूरा करती है तो देश की जनता को क्या आपति होगी ?
# शक्तिनगर ,चन्दौसी ,संभल उप्र 244412 मोबाइल 9412322067 ईमेल –moolchand.gautam@gmail.com


Thursday, December 14, 2017

पेड़ न्यूज से प्रेस्टीटयूट तक

सत्ता की यथास्थिति और परिवर्तन के बीच मीडिया मैनेजमेंट का उत्तर सत्य


@ मूलचन्द्र गौतम
देश की तथाकथित आजादी को विभाजक रेखा माना जाय तो भारतीय पत्रकारिता और साहित्य का बहुलांश आजादी के आन्दोलन का पूरक था और उसकी भूमिका राजनीतिकों से कमतर नहीं थी .यही वजह थी कि इस दौर में आज की तरह साहित्य और पत्रकारिता में संलग्न लोग अलग अलग नहीं थे . मैथिलीशरण गुप्त और गणेश शंकर विद्यार्थी महात्मा गाँधी के कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते थे . तोप के मुकाबले के लिए तोप के बजाय अख़बार भारी था, यानी तलवार पर  अहिंसक कलम भारी थी .इसीलिए पत्रकारिता और साहित्य सृजन रोजी रोटी कमाने के व्यवसाय के बजाय मिशन थे ,जिसमें लोग घर फूंक तमाशा देखने के हर तरह के जोखिम उठाने  की तैयारी के साथ आते थे और ज्यादातर ने ख़ुशी ख़ुशी उठाये भी – जमानत से जेल जाने तक .अभिव्यक्ति की आजादी का मजा तभी लिया जा सकता है जब उस पर कोई गलत पाबंदी लगाई जाये और उसका डटकर विरोध हो और पाबंदी आयद करने वाली ताकत मैदान से भाग खड़ी हो ,भले समझौते में विखंडित आजादी मिले जो नासूर बन जाये .
देश 1962 तक नेहरूजी के आभामंडल की छाया तले आराम से चलता रहा .संसद में कुछेक कुजात गांधीवादियों के अलावा कोई बहसतलब नहीं था .चीन युद्ध ने जैसे देश को मोहनिद्रा से जगा दिया और पाकिस्तान से युद्ध के झटके लगते रहे जो आतंकवाद की शक्ल में अब भी जारी हैं.
पत्रकारिता के सामने सबसे बड़ी चुनौती आपात्काल में उभरी .सत्ता के पीछे पीछे चलने वाली पत्रकारिता अचानक उसके दबाव तले कराहने लगी .उसके कर्ता धर्ताओं से घुटनों के बल चलने को कहा गया तो वो रेंगने लगे .यह सत्ता की निरंकुश ताकत के सामने पत्रकारिता का विवश समर्पण था . लगभग समूचा विपक्ष जेल में था .कुछेक ने थोड़ा सा  प्रतीकात्मक विरोध भी किया लेकिन अंत तक रामनाथ गोयनका ही डटे रहे जिसकी उन्हें भारी कीमत भी चुकानी पड़ी . इस तरह आपात्काल पत्रकारिता के लिए भी सरकारी अनुशासन पर्व बन गया . संजय गाँधी की चौकड़ी ने पूरे देश को कब्जे में ले लिया .सरकारी विज्ञापनों पर आधारित क्या आश्रित पत्रकारिता की रीढ़ वैसे भी कमजोर होती है ,फिर पूंजीपति घरानों के हाथ में रहने वाली पत्रकारिता के हित सत्ता के विरोध में रहने पर नहीं सधते .इस नाते यह पत्रकारिता रागदरबारी ही गाती बजाती रहती है और सरकार के विश्वसनीय सूचना और जनसंपर्क विभाग की तरह सरकार विरोधी खबरों को सेंसर करती रहती है .कोई भी सत्ताधारी दल या व्यक्ति जब आलोचना और असहमतियों को बर्दाश्त नहीं कर पाता तो असहिष्णुता का खुलकर प्रदर्शन करने लगता है .यह असहिष्णुता भाषा ,कार्य ,व्यवहार और प्रतिक्रियाओं में उभरने लगती है .प्रभुता पाहि काहि मद नाहीं का मद विपक्षियों के प्रति घृणित कटाक्षों ,व्यंग्योक्तियों में साफ़ दिखता है .पिछले दिनों विपक्षियों और एक खास चैनल के प्रति  सत्तासीन वर्ग की यह घृणा  दिखाई दी जो किसी तरह भी लोकतान्त्रिक नहीं कही जा सकती .पद्मावती फिल्म के कलाकारों के प्रति प्रदर्शित यह घृणा कोई शुभ संकेत नहीं है . इतिहास के बदले वर्तमान में चुकाने के भयंकर दुष्परिणाम हो सकते हैं .जिनके निराकरण के लिए देश को चीन और पाकिस्तान बनने को बाध्य होना  पड़ेगा .वोट के लिए ध्रुवीकरण के ये हथकंडे एक उदार लोकतंत्र के लिए आपात्काल से कम नहीं घातक नहीं हैं .इसीलिए बौद्धिक तबका विदेशी सूचना संचार स्रोतों पर ज्यादा भरोसा करता है .
आपात्काल के भयंकर शिकंजे के बाद जनविस्फोट होना ही था .चुनाव से शांतिपूर्ण सत्तापरिवर्तन हो गया .इसमें पत्रकारिता की भी मामूली ही सही भूमिका रही और वैकल्पिक मीडिया की जरूरत पर चर्चाएँ भी हुईं .कैदी कविराय और त्रिकाल संध्या के साथ बाबा नागार्जुन ,फणीश्वर नाथ रेणु की कविता और साहित्य के साथ अनेक जेल डायरियों से आपात्काल का दारुण सत्य सामने आया .लेकिन यह तथाकथित दूसरी आजादी बिना किसी ठोस वैचारिक दिशा और संगठन के आपसी सिर फुटौव्वल में बदलकर बिखर गयी .इस खिचड़ी विप्लव से जनता का जल्दी मोहभंग हो गया .पत्रकारिता का चौथा खम्भा फिर यथास्थिति को प्राप्त हुआ .
इंदिरा गाँधी की दुखद हत्या से उपजे व्यापक जनसमर्थन से अपार बहुमत से बनी सरकार को बोफोर्स का भूत निगल गया .कम्प्यूटर और संचार क्रांति ने भूमंडलीकरण की मजबूत आधारशिला स्थापित कर दी .इसी प्रस्थानबिन्दु से देश में विदेशी हथियार विक्रेता बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ उनके समर्थक मीडिया और 1992 के बाबरी विध्वंस के बाद तो  देश में विभाजन की मानसिकता तैयार हो गयी .वो तो भला हो धर्मनिरपेक्ष जनता का जिसने इस नियोजित –प्रायोजित घृणा को नकार दिया लेकिन आखिर कब तक ?
इस दौर में पत्रकारिता का जो शुद्ध व्यावसायीकरण हुआ है उसने  संपादक की जगह एक नये मीडिया मैनेजमेंट को जन्म दिया है जिसने उसे पूँजी के महामायाजाल का जूनियर पार्टनर बना दिया है . देसी विदेशी पूँजी का निवेश अक्सर अपने अनुकूल राजनीति चाहता है ,इसी का नाम आर्थिक सुधार है जिसे सभी क्षेत्रों में एकसार लागू किया जाना जरूरी है .पत्रकारिता भी अपवाद नहीं . इससे पहले ज्यादातर  प्रतिष्ठित साहित्यकार ही अख़बारों ,साप्ताहिकों में  सम्पादक थे लेकिन बाद में साहित्यकारों को पत्रकारिता से जैसे निष्काषित कर दिया गया .एक प्रोफेशनल किस्म के मैनेजर को सम्पादक की कार्यकारी जिम्मेदारी सौंप दी गयी जो पीर बाबर्ची भिश्ती खर हो चुका है . अख़बार के संसाधन जुटाने से लेकर हर दायित्व उसका है और उसके सिर पर खुद मालिक के रूप में  प्रबंध सम्पादक बैठा है जिसके हर इशारे पर उसे नाचकर दिखाना है.ऊपरी राजनीति से ब्लेकमेल के स्तर तक लाभ उठाने में उसे कोई हिचक नहीं .मीडिया उसकी टेढ़ी ऊँगली है जो घी निकालने  के काम आती है .इसीलिए आज सत्ता का यह चौथा खम्भा पहला दर्जा रखता है .पीआर के नाम पर उसे हर कोई साधकर रखना चाहता है .आज इलेक्ट्रोनिक मीडिया की मायावी दुनिया पलक झपकते सब कुछ बदलने में समर्थ हो चुकी है .वह किंग और किंगमेकर दोनों भूमिकाओं को बखूबी निभा रही है और मजे से सत्ता और विपक्ष के बीच की तनी रस्सी पर सरपट दौड़ रही है .लखू भाई पाठक के एक करोड़ अब लाखों करोड़ में तब्दील हो चुके हैं .करोडपति अब गरीबी रेखा के नीचे है . रघुवीर सहाय,प्रभाष जोशी और पी साईंनाथ भारत में  पुरानी  टाइप पत्रकारिता के जैसे अंतिम चौकीदार थे .पत्रकारिता के इस विश्वव्यापी स्मार्ट परिदृश्य में आप ग्लोबल विलेज के मामूली बाशिंदे हैं जिन्हें सिर्फ आदेशों का पालन करना है .आर्थिक सुधारों की पटरी पर आँख बंद करके दौड़ना है .यदि आपने इस प्रक्रिया में कोई भ्रष्टाचार या गडबडी की तो तत्काल आपका विकल्प तैयार है .फिर आप सिर्फ हाथ मलते रह जायेंगे . विकिलीक्स और पनामा पेपर्स और गलत सलत बयान और ईमेल आपका बना बनाया खेल नेनो सेकेंड्स में बिगाड़ सकते हैं .ओबामा से ट्रम्प और  यूपीए से एनडीए और टाटा ,इनफ़ोसिस के सीईओ के  विश्वव्यापी बदलाव इसकी बानगी हैं .अब या तो परिणाम दीजिये वरना निकलिए .इस कारपोरेट कल्चर के रथ के भारी पहियों के नीचे कुचलकर आपकी जान जाये तो जाये . हल्ला गुल्ला करने पर आपको उचित मुआवजा दे दिया जायेगा .
इसी दौर में  संस्कृति के संचार की क्रांति और शक्ति का श्रीगणेश हुआ है .विकसित देशों के  थिंक टैंक हर  देश के नीति निर्धारक बन गये हैं और देश के प्रखर सम्पादक और बुद्धिजीवी उनके उच्छिष्ट का उल्टा सीधा उल्था करके विद्वत्ता बघारने लगे हैं  .अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्वबैंक के कर्जों के इशारों पर हर  देश का राजनीतिक नेतृत्व और विपक्ष नर्तन करने लगा  है .अर्थ और राजनीति की गरमागरम बहस  और मुबाहिसों के बीच देश के युवा जनमानस में आ रहे क्रान्तिकारी बदलाव की ओर जैसे कोई ध्यान ही नहीं दे रहा .मीडिया मुगल रुपर्ट मर्डोक की विशाल टीम ने न केवल हमारे सोच में बल्कि खान पान की संस्कृति में एकदम बदलाव ला दिया . चैनलों की धकापेल में इतिहास और विचारधारा सबका अंत हो चुका है .सिर्फ दो मिनट की फ़ास्ट संस्कृति देश के किसान मजदूरों ,गरीबों ,आदिवासियों ,अल्पसंख्यकों के दुःख दर्द से अनजान बनी फोर जी और बुलेट की गति से दौड़ रही है और हमारे पास कोई नोम चोमस्की नहीं है जो इस खतरे से बचा भले न सके, आगाह ही कर सके ?  अमेरिका खुद चोमस्की की विपरीत दिशा में भाग रहा है और आतंकवाद को फैला कर खुद उसका शिकार हो रहा है .अमेरिकी समाज की मजबूरी है उस दिशा में जाना ,भले वह गर्त में ले जाती हो .
अब आप पैसे से सब कुछ खरीद सकते हैं ,यानी सब कुछ बिकाऊ है .जो नहीं बिकेगा उसे बाजार से बाहर कचरे के ढेर पर फेंक दिया जायेगा या वो बेमौत मारा जायेगा –शंकर गुहा नियोगी की तरह . पत्रकारिता भी इसका अपवाद नहीं .पेड़ न्यूज और जैकेट के चार चार पेजी विज्ञापनों के बल पर आप मजे से सस्ते में चुनाव जीत सकते हैं , जियो की तरह व्यापार और बाजार को हथिया सकते हैं .रातोंरात अरब-खरबपति बन सकते हैं . भले इसके लिए हमें प्रेस्टीटयूट पुकारा जाय .इसी अनुपात में नेताओं के बीच गरिमा और मर्यादा की जगह एक नीच किस्म के युद्ध ने ले ली है जिसमें सब कुछ जायज है –षड्यंत्र ,चीरहरण से लेकर हत्या तक .इसीलिए राजनेताओं की तरह पत्रकारिता की भाषा का भी पतन हुआ है .पत्रकारिता का मतलब अब सनसनी की टीआरपी है जिसे हासिल करने के लिए कोई भी जोखिम उठाया जा सकता है .
इस बीच पारम्परिक मीडिया को पीछे छोड़ते हुए सोशल मीडिया ने इन्टरनेट पर अपनी बढत कायम की है जिसका प्रभाव कहीं ज्यादा साबित हुआ है .फेसबुक ,ट्विटर और अन्य माध्यमों से जनरुचि को जो विस्तार मिला है वह निर्णायक साबित हुआ है .मोबाइल की पंहुच ने आम आदमी के हाथ में जो हथियार सौंपा है उसने माहौल को एकदम बदल दिया है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती . अब ट्वीट युद्ध से ही सारे मसले हल हो रहे हैं .बाल की खाल निकाली जा रही है .विपक्षियों के काले और भ्रष्ट कारनामों पर कानूनी कार्यवाहियां हो रही हैं .यानी एक दूसरे को हर तरह से घेरने की पूरी तैयारी है ताकि सत्ता पर एकाधिकार कायम रहे  . ट्विटर हैंडल नई से नई तरकीबें सुझा रहे हैं .सलाहकारों की पूरी फ़ौज सुनियोजित तरीके से चुनाव प्रचार और छवि निर्माण की बागडोर संभाल रही है .पीके जैसे मंहगे प्रोफेशनल्स की सेवाएँ ली जा रही हैं .इस मंहगे चुनावी  महाभारत में भूखे नंगे नागरिक की भूमिका बस इतनी भर छोड़ी गयी है कि वह अपनी पसंद का उत्पाद चुन ले .सूचना के अधिकार ने सत्ता की नैतिकता के क्षेत्र में जो हस्तक्षेप किया है वह मामूली नहीं .इन माध्यमों ने जनरुचि के निर्माण में क्रान्तिकारी भूमिका अदा की है जो लोकतंत्र की गुणवत्ता को बढ़ाने वाली है या घटाने वाली है इसका निर्णय होना बाकी है  .साथ ही तमाम क्षेत्रों में आम लोगों की पंहुच को आसान बनाया है जो सत्ताधारी वर्ग को चिंतित करता है .इन माध्यमों ने पेड़ न्यूज और प्रेस्टीटयूट को एक नई व्यावसायिक गतिविधि में बदल दिया  है जो कतई विश्वसनीय नहीं है . आपका पिल्ला ही आपके नाम से ट्वीट पेल रहा है और आप बैठे बैठे नजारे का मजा ले रहे हैं .पैसे के बल पर आपको फालोवर उपलब्ध कराये जा रहे हैं .फिल्मों की तरह फैशन डिजायनर आपकी सज्जा कर रहे हैं .यानी गाँधी की लाठी और धोती की अब कोई जरूरत नहीं है .बस हवा में जुमले हैं ,फरेब है और झांसे हैं .यही आज  सत्ता के जुए के पांसे हैं .इन्टरनेट के मायावी संजाल की पंहुच अफवाहों से संसार को विचलित कर सकती है क्योंकि ऐसे में सत्य और असत्य के बीच फर्क करना मुश्किल काम है . चूंकि आम आदमी प्राय : सोच विचार के बजाय प्रवाह के साथ बह जाता है जिसके भावनात्मक दुष्परिणाम घातक हो सकते हैं .उत्तेजना की तीव्रता का अनुमान दक्षिणी महासागर और  अमेरिका तथा उत्तर कोरिया के बीच चलने वाले काल्पनिक परमाणु युद्ध से समझे जा सकते हैं .विस्तारवाद और साम्राज्यवाद का प्रतिस्पर्धी यह नया रूप किसी भी समय मानवता के लिए संकट खड़ा कर सकता है .कोई विदेशी थिंक टैंक इसे रोकने के उपाय नहीं सुझाता . मनुष्य में आई इस आक्रामकता और हिंसा के पीछे कहीं जलवायु परिवर्तन का तो हाथ नहीं ?

इसीलिए अब हमें विश्वभर में जनकल्याण के लिए समर्पित  ईमानदार और परम नैतिक राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री नहीं हुनरमंद सीईओ चाहिए जो हमें पलक झपकते अंधाधुंध चमचमाती टेक्नोलोजी से विकास की चकाचौंध से चौंधिया सकें . भले इससे हम अंधे हो जाएँ .कहने की जरूरत नहीं कि हमें अब ऐसी ही पत्रकारिता भी चाहिए .ठस और पिछड़ी ,उबाऊ दुनिया अब हमें रास नहीं आती .हो सकता है जल्द ई -पत्रकारिता के चलते छपने वाले अख़बार और पत्रिकाएँ गुजरे जमाने की चीज हो जाएँ और केवल संग्रहालयों की शोभा बढाएं.सचमुच सोने से ज्यादा कीमती कागज की बहुत बचत होगी .

# शक्तिनगर ,चन्दौसी ,संभल उप्र २४४४१२ मोबाइल -९४१२३२२०६७ ईमेल –moolchand.gautam@gmail.com

Saturday, September 30, 2017

नाम बड़े और दर्शन छोटे


# मूलचन्द्र गौतम
शेक्सपियर के लिए भले ही नाम में कुछ न रखा हो लेकिन भारत में नाम ही सब कुछ है .शेक्सपियर के नाटकों के पश्चिमी समाज के षड्यंत्र और हिंसा भारत में भले ज्यों के त्यों लागू होते हों लेकिन आज भी नाम मनुस्मृति और तुलसीदास के हिसाब किताब से चलता है –कलियुग केवल नाम अधारा. नाम रखने ,चलाने और कमाने में फर्क है .अब नाम ब्राण्ड हो चुका है जो बिकता है या चुक जाता है ,दिवालिया हो जाता है .नटवरलाल टाइप नाम आपराधिक धारा चार सौ बीस के पर्याय हो जाते हैं और कुछ महामानव हो जाते हैं .वर्चस्व की जंग में हिंसा और हत्या से नाम नेस्तनाबूद करने की कोशिशें भी की जाती हैं लेकिन उनसे  शरीर भले नष्ट हो जाता हो नाम अमर हो जाता है . भावी पीढ़ियों के लिए इतिहास में इन्हीं नायकों की महागाथाएं सुरक्षित रखी जाती हैं .नायक और खलनायकों की यह जंग ही तमाम महाकाव्यात्मक आख्यानों को जन्म देती है .सत्ता के बदलाव के साथ ही अपराधी खलनायक महानायक हो जाते हैं .
वर्णव्यवस्था  और धर्म को कोसने वाले आज भी इनके मकडजाल से मुक्त नहीं हो पा रहे .जाति का जंजाल और संजाल जीव को इतना जकड़ देता है कि ज्यों ज्यों सुरझि भज्यो चहत त्यों त्यों उरझत जात.कितने ही दलित ताउम्र चिपक जाने वाली इस गंदगी से बचने को ईसाई और बौद्ध हो गये लेकिन अंत तक पीछा छुड़ाने में असफल और असमर्थ रहे . लोग कहीं न कहीं से उनके मूलाधार को खोज ही लेते थे .नामकरण के पीछे छिपे मनोविज्ञान में वर्ण और जाति का हमेशा ध्यान रखा जाता था . नामकरण ब्राह्मणों का विशेषाधिकार था .ब्राह्मणों के नाम जहाँ ज्ञानसूचक होते थे तो क्षत्रियों के नाम बल और वीरतापूर्ण रखे जाते थे .वैश्यों के नाम धन और ऐश्वर्य से जुड़े होते थे वहीं शूद्रों के सेवा सूचक .होरी ,हल्कू ,गोबर ,धनिया ,गरीबदास ,सनीचर ,इतवारी आजीवन जीव से चिपके रहते थे और उनसे पीछा छुड़ाना असम्भव होता था . नाम के साथ उपनाम की महिमा और ज्यादा होती थी .लोग नाम को भूलकर उपनाम उर्फ़ निकनेम से ही आजीवन जाने जाते और काम चलाते थे .नाम जैसे पूरी पारिवारिक,सामाजिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट कर देता था क्योंकि उनका चुनाव करनेवाले जिस गड्ढे-कठघरे में लोगों को डाल देते थे वही उनकी नियति बन जाता था .महिलाओं की स्थिति इस मामले में और भी बुरी थी .उनके सामने तो नियति और दुर्गति को बदलने का कोई विकल्प ही नहीं था . पति के पेशे और जाति का अनुसरण उनकी मजबूरी थी और आज भी है .उनकी कोई स्वतंत्र अस्मिता नहीं थी . आज भी अलग जातियों में विवाह के बाद भी पितृ परिवार से उनका सम्बन्ध समाप्त हो जाता है . महानगरों में जन्मी नई कालोनी और सोसाइटी कल्चर ने तो नाम की जगह नम्बर को प्रतिष्ठित कर दिया है .जिन्दगी भर पडौसियों को नाम के बजाय नम्बर से ही जाना जाता है .कभी कभी तो नाम पूछने पर भकुआए से देखते हैं अरे उनका यह नाम है हमें तो पता ही नहीं था . अतीत में अलबत्ता बुराई सूचक नामों से बचा जाता था मसलन राक्षसों और बुरे लोगों के नाम प्राय: नहीं रखे जाते थे .रावण ,कुंभकर्ण,मेघनाद,विभीषण ,मन्दोदरी ,त्रिजटा या दुर्योधन ,दुशासन ,कैकेयी ,मंथरा इत्यादि आज तक प्रचलन में नहीं हैं .अब उत्तराधुनिकता के विमर्श और पाठ ने स्थिति को शीर्षासन करा दिया है .खलनायकों के समर्थक अब खुलकर सामने आने लगे हैं .अस्मितामूलक विमर्श ने अपमान को सम्मान में बदलना शुरू कर दिया है .बौद्ध होकर दलितों को एक नई पहचान मिली है .जबकि बहुत से वर्ग अभी तक हाशिये पर खड़े खड़े अपनी बारी और पारी का इन्तजार कर रहे हैं कि वोट की जातिवादी राजनीति में उनका हिस्सा कब तय होगा ?
भारत के साथ समूचे दक्षिण पूर्व एशिया में नाम बदलने की संक्रामक बीमारी फैली हुई है .ऐतिहासिक चम्पा द्वीप लाओस ,स्याम थाईलैंड ,बर्मा म्यामार ,रंगून यंगून .....में बदल चुके हैं .इतिहास अप्रासंगिक ही नहीं निरर्थक हो चुका है .
यथा नाम तथा गुण की तर्ज पर रखे जाने वाले नामों को बदलने की कोशिश कब से शुरू हुई इसके ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं .वर्तमान में संस्कृत के तत्सम नाम रखे जाने का फैशन जोर पकड़ रहा है .इसलिए घसीटा ,खचेडू इत्यादि बुरे नामों से बच्चों का पीछा छूट रहा है . जन्म की राशि और नक्षत्र के अनुसार कुंडली का  नाम रखना अब जरूरी नहीं है अंग्रेजी ने इन्हें थोडा सम्मानजनक बना दिया है .अब जी राम घसीटा राम नहीं रह गया है .ऐसे अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं .
मनुष्यों की तरह गाँव ,शहरों ,मुहल्लों ,सड़कों के नामों का भी एक इतिहास होता है जो प्रेत की तरह पीछा नहीं छोड़ता .राजनीति के बदलने पर इस विकृत इतिहास से पीछा छुड़ाने की कोशिशें होती हैं ,जिसके तहत कलकत्ता कोलकाता,मद्रास चेन्नई ,बम्बई मुंबई किये जाते हैं लेकिन बोलचाल के मुहावरे और प्रचलन में बदलाव नहीं आ पाता .उत्तर प्रदेश में बसपा ने  सत्ता के दौर में  वर्चस्व की राजनीति के तहत अनेक नये जिलों , विश्वविद्यालयों के नाम बदले जो जनता के लिए सिरदर्द ही साबित हुए .आज तक उनका इतिहास भूगोल परिचित नहीं हो पाया है .अमरोहा ज्योतिबाफुलेनगर और हाथरस महामायानगर नहीं हो पाया है .....अब भाजपा ने  भी नाम बदलने की इस राजनीति के माध्यम से पुराने इतिहास से पीछा छुड़ाकर नया इतिहास रचने की कोशिश की है . मुगलिया सल्तनत के इतिहास को क्या बाबरी मस्जिद की तरह ध्वस्त किया जा सकता है ?यह सवाल हिमालय की तरह सामने खड़ा है .धर्म और सभ्यताओं का यह संघर्ष क्या विश्व इतिहास का दुस्वप्न साबित होगा ? देश की आजादी के आंदोलनों के नायकों को अपदस्थ करना क्या इतना आसान होगा ? ऊँची दुकान फीका पकवान की तरह जनता इन टोटकों और जुमलों की असलियत बहुत जल्द पहचान जाती है .माना कि जनता की स्मृति क्षीण होती है और बड़ी बड़ी दुर्घटनाएं जल्द विस्मृति के गर्भ में विलीन हो जाती हैं लेकिन फिर भी जनस्मृति को एकदम मिटाया और नष्ट नहीं किया जा सकता .क्षणिक भावावेश और प्रयासों को  स्थायी सामूहिक निर्णयों में नहीं बदला जा सकता . विश्व में वर्चस्व की इस जंग को जीतने के लिए फिर से नागासाकी और हिरोशिमा को और अधिक भयावह रूप में दोहराया जायेगा ?भारत में रेसकोर्स लोककल्याण मार्ग हो गया है .मुगलसराय दीनदयाल नगर इत्यादि इत्यादि.प्रधानमन्त्री प्रधानसेवक नहीं हो पाया है . लालबत्ती की धमक कायम है .अलबत्ता राष्ट्रपति  देश का प्रथम नागरिक ज्यों का त्यों है और वैसा ही उसका औपनिवेशिक ताम झाम .अंग्रेजी देश की प्रथम राजभाषा है क्योंकि उसके बिना प्रशासन ,न्याय व्यवस्था ,शिक्षा का काम नहीं चल सकता .नाम बदलना जितना आसान है संविधान और काम बदलना उतना ही जटिल और मुश्किल .पुरानी पटरी पर चलने की आदी व्यवस्था के लिए नयी पटरियां रातोंरात तैयार नहीं हो सकतीं . इतिहास और विचारधारा का अंत तमाम हो हल्ले के बावजूद इतना आसान नहीं होता .इतिहास का ब्रह्मराक्षस आसानी से पीछा नहीं छोड़ता .इतनी क्रांतिकारी इच्छाशक्ति  लोकतंत्र में असम्भव है .फिर भी उम्मीद पर दुनिया कायम है शायद कभी ऐसा हो पाये ?
# शक्तिनगर ,चन्दौसी ,संभल उप्र  244412  मोबाइल-9412322067



Friday, June 2, 2017

मैं कलंकी हूँ : गौ हत्या


# मूलचन्द गौतम
बचपन में गाँव में  एक आदमी गले में गाय की पूंछ बांधे चिल्ला रहा था –मैं कलंकी हूँ –मैंने गाय को मारा है या गाय मेरे हाथों से मर गयी है .लोगबाग अपने अपने घरों से रोटी ,अनाज सामर्थ्य भर ला लाकर उसे दे रहे थे .मैंने माँ से पूछा तो बताया कि यह आदमी गौ हत्या की सजा भुगत रहा है .कम से कम सात गाँवों में चिल्ला चिल्लाकर खुद को कलंकी बताने और भीख मांगने से ही इसकी कलंक मुक्ति होगी . इसके बाद ही यह अपने घर लौटेगा .यह कोई कहानी नहीं वास्तविकता है .
औसत हिन्दुओं के घर में पहली रोटी गाय की होती थी जिसे ताजा ताजा खिलाने का जिम्मा घर के बच्चों का होता था .रोटी खिलाने के बहाने बच्चे गाय के दोस्त हो जाते थे .गाय को अपनी गर्दन के गलगल को उनसे  घंटों सहलवाने में बड़ा मजा आता था .बड़ी से बड़ी लतकनी गाय इसे सहलाने से तुरंत काबू में आ जाती थी .
हमारे घर में पहले गाय पलती थी .वह माँ के अलावा किसी से दुहाती ही नहीं थी जिससे उन्हें कहीं आने जाने का बड़ा बंधन रहता था .फिर उस शर्मीली लजीली को रोज किसी न किसी की नजर लग जाती थी तो दूध का नागा अलग . अतिरिक्त साफ़ सफाई अलग से .गंदगी उसे पसंद नहीं . बरसात में उसका बुरा हाल .दुहाने के लिए एक जना मक्खी उड़ाने के लिए अलग चाहिए .बुढ़ाने पर उसे जंगल में छुडवाने का झंझट अलग जो बेटी की विदाई से कम दर्दनाक हादसा नहीं होता था . कसाई को देना वर्जित . गाय को खूंटे की इतनी पहचान कि मालूम हुआ तीसरे दिन फिर खूंटे पर .रंभा रंभाकर रोने को मजबूर कर दे ऐसा दारुण रुदन –बाबुल मेरे काहे को ब्याही विदेश वाला . बछड़ी दे तो लडकी की तरह झेलने की मजबूरी . ज्यादा हो जाएँ तो बहन बेटियों को दान में दे दी जातीं क्योंकि दान की बछिया के दांत नहीं देखे जाते और कोई न मिले तो मरी बछिया बाम्हन के सिर .बछड़ा दे तो खुशी –चलो हल में साथ देने वाला एक मजबूत  कमाऊ बेटा  मिला .
यह कहानी कृषि प्रधान देश भारत के घर घर की कहानी है .जहाँ गाय और सुंदर मजबूत बैलों की जोड़ी घर की समृद्धि की मोटी पहचान थी .प्रेमचंद और कांग्रेस की दो बैलों की इस कथा ने लम्बे समय तक देश पर राज किया .बच्चे गली गली नारे लगाते थे –दुनिया वालो तुम मत जाना किसी की होडा होडी पे ,देख भाल के मोहर लगाना दो बैलों की जोड़ी पे –इसके आगे कोई पार्टी और उसका निशान टिक नहीं पाता था .  अब कहीं नहीं होती बैलों की दौड़ जब जीतने पर उनकी खातिर दामाद से ज्यादा होती थी .बारात में रथ में जुतने वाले बैल वीआईपी होते थे ,उन्हें एक सेर देसी घी अलग से दिया जाता था .गोदान यों ही  रामायण -महाभारत के बाद का हिंदी का महान महाकाव्यात्मक उपन्यास नहीं है . चतुर सुजान द्रौपदी के अपमान को महाभारत का बीज मानते हैं उन्हें द्रोणाचार्य की गाय नहीं दिखती .जबसे देश में  हीरा मोती की जगह इंजन –ट्रैक्टर ने ली तभी से गाय बैल दुर्गति को प्राप्त हुए .गाय की जगह भैंस ने ले ली और बैलों को कसाई खा गये .अब फिल्मों में भी नहीं दिखती आँखों को जुड़ाने वाली दो बैलों की जोड़ी .कांग्रेस ने भी  जनता को आपात्काल का पंजा दिखाकर जैसे किसानी छवि से मुक्ति पा ली.जबकि भारत में राजनीति की वैतरणी भी बिना गाय के पार नहीं की जा सकती .इसलिए अब हमने  भारतीय संस्कृति और समाज की  केन्द्रीय धुरी गाय - गंगा  और गीता को थाम लिया है क्योंकि इनमें बड़े से बड़े पापी और पाप को समूल नष्ट कर देने की शक्ति है .इसलिए जो इनसे टकराएगा चूर चूर हो जायेगा .हम इनके साथ चाहे जो बुरे से बुरा सलूक करें लेकिन किसी विधर्मी को करने की अनुमति नहीं देंगे .जान ले लेंगे .यह नई आक्रामकता हमें हिमाद्रि तुंग श्रृंग की ओर ले जायेगी .क्या यह तथाकथित विकास की प्रतिगामी दिशा है या बहुसंख्यक वोट तंत्र को साधने की रणनीति ?
-@शक्तिनगर,चन्दौसी ,संभल 244412  मोबाइल 9412322067

Monday, March 27, 2017

पालिटिक्स और प्रोफेशनलिज्म


# मूलचन्द गौतम
भारत में 1991 से भूमंडलीकरण का दौर शुरू हुआ है .यह भारतीय राजनीति का भी सर्वाधिक उठापटक का दौर भी है क्योंकि यह अनायास नहीं कि सबसे ज्यादा  सामाजिक –सांस्कृतिक संक्रमण, विघटन ,ध्रुवीकरण और घोटाले इसी समय में घटित हुए .मंडल –कमंडल ,बाबरी मस्जिद का ध्वंस ,राष्ट्र्मंडल खेल घोटाला ,टू जी इत्यादि के घटनाक्रम ने  देश में एक ऐसी पटकथा लिख दी जिसमें कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी का  राष्ट्रव्यापी पराभव अवश्यम्भावी था .दरअसल यह एक ढुलमुल लोकतंत्र की ही दुर्गति थी जिसे बहुराष्ट्रीय कार्पोरेटी आक्सीजन की जरूरत थी . यूपीए की गठबंधन वाली कांग्रेस के पास उस चमत्कारी नेतृत्व का अभाव हो गया जिसकी आड़ में उसका भ्रष्टाचार और अन्य दुर्गुण दबे ढके रहते थे . जगजीवनराम के बाद उसके पास कोई प्रभावी दलित नेता ही नहीं था .यही हाल उसका बहुमत बढ़ाने वाले सवर्ण और मुस्लिम नेतृत्व का था .जयप्रकाश नारायण ,लोहिया  और कांशीराम के चेलों ने यूपी बिहार जैसे बड़े हिन्दीभाषी राज्यों में दलित और पिछड़ों के राजनीतिक वर्चस्व को स्थापित करके भी उसका आधार छिन्न भिन्न कर दिया .
इस मायने में 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की कांग्रेस मुक्त भारत की मुहिम ने जो राजनीतिक परिदृश्य पेश किया उसमें मोदी के अनथक हाईटेक प्रचार के बाद मिली जीत ने देश की परम्परागत राजनीति का मिजाज और माहौल बदल दिया .खुद बीजेपी में पुराने ढंग के रथयात्री अप्रासंगिक हो गये .दरअसल मोदी तीव्रगति के भूमण्डलीकृत विकास की एक अनिवार्य जरूरत की उपज हैं जिसमें बहुमत को खींचने का गुरुत्वाकर्षण है . इसी आधार से वे आर्थिक सुधारों को वांछित दिशा में तीव्रता से ले जा सकते हैं .जिसकी जरूरत देश से ज्यादा कारपोरेट को है .उन्हें आडवाणी तक ने सर्वश्रेष्ठ इवेंट मैनेजर यों ही नहीं कह दिया था .वरना तो बीजेपी में  वाजपेयी जी के बाद देश के प्रधानमन्त्री बनने की काबिलियत उनके अलावा किस के पास थी .पार्टी के एक दौर के अर्जुन को मार्गदर्शक मंडल में जगह मिले इससे बड़ी भाग्य की विडम्बना और क्या हो सकती है .भिल्लन लूटी गोपिका वही अर्जुन वही बान.बीजेपी के पास तमाम तरह के साधन और उपकरण पहले भी थे ,समर्पित स्वयंसेवकों की फ़ौज हर समय अपने आकाओं का फरमान बजाने को तैयार रहती है .उदार हिन्दू जो उसके साथ नहीं जाना चाहते थे अबकी बार वे भी उस पर विश्वास के लिए तैयार हो गये . अन्य दलों की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियों का जबाब उन्हें इस विकल्पहीनता में  एकमात्र विकल्प के रूप में दिखा .बार बार की छद्म धर्मनिरपेक्षता के बजाय उन्होंने छद्म राष्ट्रवाद को चुना .वैसे भी पूरे विश्व में राजनीति वामपंथ से हटकर दक्षिणपन्थ की ओर झुक रही है तो भारत ही अपवाद क्यों रहे ?
विदेशों में बदलती राजनीति और तकनीक को लेकर थिंक टैंक बड़ी बड़ी सैद्धांतिकी तैयार करने में उलझे रहते हैं जबकि भारत  की जनता उनसे अलग व्यावहारिक राजनीतिक प्रयोगों को अंजाम देती  रहती है जो किसी सिद्धांत की पकड़ में नहीं आ पाते .भारतीय राजनीति में प्रशांत किशोर का प्रवेश और आगमन जनमत को बनाने –बिगाड़ने की तकनीकों के प्रोफेशनलिज्म के प्रवेश की परिघटना है .  अभी उसकी सफलता –असफलता का कोई सीधा फार्मूला भले न हो लेकिन भविष्य की राजनीति के सूत्र उसमें निहित हैं .अमेरिकी चुनाव की तर्ज पर अब भारतीय चुनावों में भी मीडिया और कारपोरेट घरानों का दखल बढ़ेगा . मोटे गणित के हिसाब से  जिस तरह  बड़ी विशालकाय कम्पनियों से मुकाबले में छोटी कम्पनियां नहीं टिक पाएंगी उसी तरह विशालकाय ताम झाम वाले दलों के आगे छोटे राजनीतिक दल नहीं टिक पायेंगे .  राहुल और अखिलेश की बिखरी हुई  जुगलबंदी भी उसका मुकाबला नहीं कर पाएगी . आखिर विपक्ष बिहार को यूपी में क्यों नहीं दोहरा पाया यह भी  विशेषज्ञों के लिए अध्ययन का विषय है. नोटबंदी,जियो और पेटीएम के उदाहरण हमारे सामने हैं .यूपी में बीजेपी की बम्पर जीत में इनका योगदान कम नहीं है .आखिर भारत सबसे ज्यादा युवा आबादी या कहें वोटरों वाला देश है जो  खुद प्रोफेशनल है और लफ्फाजी के बजाय ठोस परिणामों में विश्वास करता है .जाहिर है कि अब  भारत की पोलिटिक्स ढुलमुल परम्परावादी नेतृत्व के बजाय प्रोफेशनल तरीकों से संचालित होगी .
प्रोफेशनल की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि वह केवल काम से काम रखते हैं और  हर क्षेत्र में परिणाम देना उसकी फितरत होती है .इस मायने में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी माडल माने जा सकते हैं –नॉन पॉलिटिकल.इनमें भी जो किसी खास दल या नेता से गहरे जुड़ जाते हैं उन्हें इसका नुकसान उठाना पड़ता है और दूसरों की विश्वसनीयता हासिल नहीं होती .मल्टीनेशनल कम्पनियों का वर्क कल्चर केवल प्रोफेशनल्स पर यकीन करता है . इसीलिए वे किसी खास दल से नहीं जुड़ते हालाँकि चुनावी चंदा सबको देते हैं ताकि जो भी सत्ता में आये उन्हें पूरा संरक्षण और सुविधा  उनकी अपनी शर्तों पर उपलब्ध कराए . विरोधी को भी खरीदना उनके बांये हाथ का खेल है .धीरे धीरे यही प्रोफेशनलिज्म  भारतीय राजनीति में प्रवेश कर रहा है .इसमें पिछड़ने वालों को कोई नहीं पूछेगा .
# शक्तिनगर ,चन्दौसी ,संभल  उ.प्र .244412   मोबाइल- 9412322067




Thursday, January 5, 2017

गाँधी मानस निर्मिति के बीज बिंदु



# मूलचन्द गौतम                                                    

क्या महान होना हमेशा गलत समझा जाना है और यथार्थ की कठोर खुरदुरी जमीन पर असफलता ही उसकी अनिवार्य नियति है .तर्कबुद्धि ही परमसत्य है अंतर्प्रवृत्ति कुछ नहीं ?
अपनी अंतरात्मा खोकर संसार जीतने की अंधी दौड़ और होड़ में लगे लोगों को सचमुच यकीन दिलाना मुश्किल है कि भारत में कभी कोई मोहनदास करमचन्द गांधी नामक जीता जागता आदमी भी हुआ करता था, जिसने अन्याय और शोषण के सतत प्रतिरोध का कोई मौलिक मार्ग और दर्शन ईजाद ही नहीं किया था उस पर चलकर आधी अधूरी सी –मामूली सी सफलता भी हासिल की थी .
मजे की बात यह है देश की तथाकथित आजादी के सत्तर सालों के बाद भी उसके नायकों –खलनायकों पर किसी न किसी बहाने चर्चा जारी ही नहीं उसकी कीमत भी बदस्तूर बरकरार है जो इसके पक्ष –प्रतिपक्ष में खड़े होने वालों को कभी तत्काल तो कभी देर से  किसी न किसी रूप में चुकानी पडती है . इस तरह की विवादास्पद राजनीतिक सनसनी और विचारोत्तेजक अमर्षों- विमर्शों से नफा नुकसान हासिल करने वालों से अलग देश में कुछ गम्भीर बौद्धिक प्रयास और प्रयत्न भी होते रहते हैं जो किसी टीआरपी में दर्ज नहीं होते ,न कोई ब्रेकिंग न्यूज बनते हैं .
 आडवाणी, जसवन्तसिंह और अनपढ़ छुटभैये स्वघोषित सांस्कृतिक संगठनों से अलग हिंदी में मुक्तिबोध की सभ्यता समीक्षा की परम्परा में वीरेन्द्र कुमार बरनवाल ने गाँधी और जिन्ना पर जो गम्भीर विमर्श प्रस्तुत किया है ,उसकी कोई चर्चा मीडिया में नहीं हुई .बरनवाल के निधन के बाद भी दोस्तों ने इसका कोई विधिवत प्रयत्न नहीं किया भले ही उन्होंने जीते जी उनका भरपूर दोहन किया .
 आज भी गाँधी के सम्पूर्ण सोच और कर्म का आधार स्तम्भ उनकी एक छोटी सी पुस्तिका हिन्द स्वराज है जो किलडोनन कैसल नामक जहाज पर लन्दन से दक्षिण अफ्रीका की यात्रा के दौरान 13 से 22 नवम्बर 1909 की अवधि में गुजराती में हाथ से लिखी गयी थी . इसके सौ साल होने पर पक्ष विपक्ष में अनेक प्रकार की चर्चाएँ हुईं .इसी क्रम में बरनवाल ने विश्व व्यापी परिप्रेक्ष्य में  सिर्फ पुस्तक के आकार प्रकार को बढ़ाने के लिए इसके मूल और हिंदी में अनूदित पाठ के साथ एक नव सभ्यता विमर्श प्रस्तुत किया ,जिससे गाँधी की मानस निर्मिति के बीज बिन्दुओं सहित हिन्द स्वराज के अनंत   विस्तार का पता चलता है ,जिसे गाँधी के राजनीतिक गुरू गोखले और उत्तराधिकारी तक ने यथार्थ से परे निरी खामखयाली मानकर ख़ारिज कर दिया था .यही गाँधी की विडम्बना थी जो उन्हें अपने ही देश काल में जीते जी चाहे अनचाहे झेलनी पड़ी,हत्या तक . काश वे सत्ता की राजनीति में अपनी कोई कैसी भी उपस्थिति रखते तो शायद अलग स्थिति होती .नेल्सन मंडेला ने इस मायने में सत्ता की चाभी अपने हाथ में रखकर अपने आदर्शों के अनुरूप देश को चलाया .मार्क्स और माओ भी इस मायने में भाग्यशाली रहे ,भले ही उन्हें वर्तमान में मात्र पुस्तकालयों तक सीमित  हो जाना पड़ा .
डॉ .प्राण जीवन मेहता के साथ हुई बातचीत की यह जस की तस प्रस्तुति सभ्यता का मुक्तिकामी विमर्श है ,जिसका उत्तर आधुनिक नव्य बोध इसे अमानवीय आधुनिक भोगवादी सभ्यता की कठोर भर्त्सना बनाता है .यही इसका अनेकान्तवाद है जो इसे अपरिमित विस्तार देता है ,जिसके तहत मार्टिन लूथर किंग की अहिंसा से लेकर केन सारो वीवा की शहादत तक समेटी जा सकती है .
गाँधी की इस मानस निर्मिति में विश्व के अनेक देसी विदेशी लोगों और विचारों का हाथ रहा .गाँधी ने स्वविवेक से उन्हें  छोड़ा और ग्रहण किया और उनके अवदान को विनम्रता से खुलकर स्वीकार किया .सोच को आचरण से जोड़कर ही जनग्राह्य बनाया जा सकता है .इस मामले में गाँधी में जो चारित्रिक दृढता और नैतिक साहस था वही उन्हें बेजोड़ बनाता था .उसी के बल पर वे अकेले ही निर्भय होकर निकल पड़ने की हिम्मत रखते थे . क्या यही तत्व उन्हें रस्किन से ऊँचा उठाता है क्योंकि रस्किन अपने सिद्धांतों को जीवन में उतार नहीं सके और गाँधी ने आजादी के बाद देश को अपने सत्य की प्रयोगशाला बनाने का मौका गंवा दिया . काश ऐसा हो पाता तो गाँधी उतनी आसानी से वध्य भी नहीं होते .समाज के आखिरी आदमी तक गाँधी की दृष्टि रहती थी जो आजकल के जीडीपी मानकों के प्रतिकूल है .उन्हें मानव विकास सूचकांक की प्रगति ही सच्ची प्रगति लगती थी .यह भारत का दुर्भाग्य रहा कि गाँधी का देश गाँधी के जीते जी उलटे मार्ग पर चल पड़ा ,जिसके कारण गाँव और शहर के बीच समता और विकास का संतुलन गडबडा गया .आज भी जिस स्मार्ट सिटी का आदर्श अपनाया जा रहा है वह इस खाई को बढ़ाने का काम करेगा .बरनवाल ने इस विमर्श में कहीं भी अर्थशास्त्री  गुन्नार मिर्डल का जिक्र नहीं किया है जो इसका एक बेहद जरूरी हिस्सा है .कई बार वे गाँधी के विचारों को उत्तर आधुनिक सिद्ध करने की झोंक और जोश में होश तक खो बैठते हैं .मसलन चरखे पर सूत कातने और शौचालयों की सफाई को गीता की यज्ञ की अवधारणा को उत्तर आधुनिकता  में शामिल करना .
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और तथाकथित विकसित देशों की कुटिल दुरभिसंधियों को तोड़ने में गाँधी के प्रयोग आज भी कारगर सिद्ध हो सकते हैं .यह बात अलग है कि जनांदोलनों के नाम पर विदेशी इशारों और संसाधनों के बल पर पनपे स्वयंसेवी संगठन कितने स्वदेशी हो पाते हैं .भूमण्डलीकरण की आंधी में उड़ते देश कब धडाम से औंधे मुंह गिर पड़ेंगे कोई नहीं कह सकता .आज का दौर गाँधी से अलग और अधिक जटिल है .गाँधी के थिंक टैंक के भरोसे शुतुरमुर्ग की तरह हालात का सामना करना बेहद मुश्किल है . विभाजित भारत की आजादी गाँधी नहीं रोक पाये जो नासूर की तरह दंगों ,आतंकवाद और अनेक रूपों में रिसती है .चीन से नेहरू का मोहभंग केवल पंचशील की  नाकामी नहीं ,कहीं उनके भीतर के आदर्शवादी गाँधी की भी नाकामी थी .गाँधी चाहते थे कि उनके उत्तराधिकारी जवाहर की कांति डालर की चमक से धुंधली न पड़ जाये लेकिन आज तो देश ही डालरमय हो चुका है .गाँधी के उदार हिंदुत्व पर अलग तरह का खतरा मंडरा रहा है .क्या आज हिंदुत्व अन्य धर्मों के बरअक्स गाँधी का सतत विकाशशील धर्म रह गया है जिसकी परिभाषा सुप्रीमकोर्ट तय करता है .
जाहिर है कि आज केवल हिन्द स्वराज की आध्यात्मिक आभा के तले उत्तर आधुनिक विमर्श सम्भव नहीं है .इस स्यादवाद में हमें यशपाल और हंसराज रहबर के विखण्डनात्मक विमर्श को भी कहीं शामिल करना होगा अन्यथा यह एक निरी इकहरी कवायद ही सिद्ध होगी .बरनवाल बार बार यह कहते नहीं थकते कि गाँधी के इस विमर्श में गरमदल के किसी नेता का जिक्र नहीं . कांग्रेस के गरमदल के सभी नेता हिंसा और सशस्त्र क्रांति के समर्थक नहीं थे .भले हिन्द स्वराज में गाँधी स्वराज की इस अराजक समझ के अंत तक विरुद्ध रहे लेकिन  किसी उत्तर आधुनिक विमर्श में उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती .माना कि गाँधी पर स्वयं गाँधी ही सर्वश्रेष्ठ हैं और उन पर किसी पवित्र पाठ का आपका इरादा नहीं है लेकिन विखण्डन और पाठ के बिना उत्तर सत्य खुल नहीं सकता .
गाँधी ने हिन्द स्वराज में कहा कि राजनीतिक दल परिस्थितियों की उपज हैं ,सिद्धांतों की नहीं और कि पार्लियामेंट वेश्या है ,जिसे उन्होंने महिला मित्र की भावनाओं का सम्मान करते हुए हटा दिया .इसीलिए गाँधी  देश की विभाजित आजादी के बाद कांग्रेस को भंग कर देना चाहते थे जो हो न सका और लम्बे समय तक उनका दुरूपयोग होता रहा .गाँधी दर्शन और हत्या साथ साथ चलते रहे . कोई देश एक धुंधलके में कब तक रह सकता है .गाँधी आज भी किसी निश्चित सांचे और ढाँचे के लिए चुनौती हैं लेकिन विदेश में गाँधी को दिखाओ और देश में मारो-यह कब तक चलेगा ?