Thursday, August 18, 2016

वाग्वीरों का ओलम्पिक

#मूलचन्द्र गौतम

हिंदी में किसी संदर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का  नाम लेने का मतलब ही गम्भीरता है .अपने उत्साह नामक प्रसिद्ध निबन्ध में उन्होंने वीरों पर भी विचार किया था .इनमें युद्धवीर ,दानवीर ,दयावीर ,कर्मवीर ,बुद्धिवीर से बड़े थे वाग्वीर .तुलसी के लोकमंगल को साहित्य का आदर्श मानने वाले आचार्यप्रवर ने इन वीरों को यथोचित सम्मान से याद नहीं किया जबकि बाबा ने कलिकाल में इन्हीं की महिमा को सर्वोत्कृष्ट ठहराया .जो कह झूठ मसखरी जाना कलियुग सोई गुनवंत बखाना या पंडित सोई जो गाल बजाबा.अब उन्हें क्या पता था कि कलिकाल में ये वाग्वीर नेता लोकतंत्र के चुनावी दंगल में रामराज्य की ऐसी तैसी कर देंगे . इनमें से ज्यादातर संत ,साधू ,साध्वी और महंत होंगे ,जो सत्ता के चस्के को वैराग्य के चोले में आगे बढ़ाएंगे .बाबा ने ऐसे ही नहीं कह दिया था –तपसी धनवंत दरिद्र गृही .इन तपसियों का व्यापार अरबों –खरबों में पंहुच गया है .इनका आलीशान रहन सहन पांच सितारा होटलों को मात करने वाला है .सत्ता में इनकी हनक और धमक है .बिना इनकी मर्जी के सत्ता का पत्ता तक नहीं हिलता.बाबा को क्या पता था कि जनता जनक के बजाय धनक को चुनेगी और सत्ता सुंदरी सबसे बड़े गपोड़ी  वाग्वीर को चक्रवर्ती सम्राट के रूप में चुनेगी .
प्यारेलाल बाबा के साथ शुक्लजी के परमभक्त हैं .उनके पास हर मौके और माहौल के लिए चुने हुए दोहे ,चौपाई और कहावतों का भंडार है जिसे वे गाहे बगाहे बेहिचक अचूक तरीके से हर फील्ड में  इस्तेमाल करते रहते हैं .इसीलिए उनके सामने मेरे कच्चे पक्के तर्क धराशायी हो जाते हैं .उनके लिए वाकयुद्ध महाभारत और राम रावण युद्ध से ज्यादा बड़ा और  व्यापक जनसंहार का उदाहरण है .अक्सर  भारत –पाक के बीच के सम्वादों के सुअवसरों पर वाककौशल,वाकचातुर्य,वाग्विदग्ध ,वाक्छल जैसी व्यापक कूटनीतिक शब्दावली के प्रयोगों के हिमायती प्यारेलाल का जोश विद होश हमेशा अटलजी की टक्कर का होता है .ऐसे में उनकी कुंडलिनी जाग्रत हो जाती है .जिह्वाग्र पर साक्षात सरस्वती विराजमान हो जाती हैं .लिखा हुआ भाषण कूड़ेदान की शोभा बढ़ाता है .
प्यारेलाल इन जुमलों को  अर्थव्यवस्था से लेकर खेलकूद तक  बड़ी कुशलता से खींचकर ले जाते हैं.उनके अनुसार  विश्व में विकसित देशों को ही ओलम्पिक में अग्रिम पंक्ति में स्थान प्राप्त होता है .उनके लिए खेलकूद अर्थव्यवस्था में वर्चस्व से किसी मामले में कम नहीं होते .उनके विश्व रिकार्ड धारी खिलाडियों का दर्जा  किसी फ़िल्मी और इल्मी हीरो –हीरोइन से कम नहीं होता ,जबकि अविकसित देशों में उनका अंत  प्राय :बड़ा दुखद होता है . राष्ट्रीय खेल हाकी के जादूगर  दादा ध्यानचंद को आज तक भारत रत्न के काबिल नहीं समझा गया .इसके पीछे उसी पुरानी कहावत का हाथ है जिसमें खेलने कूदने को खराब होने की गारंटी की तरह माना जाता था .पहलवानों को तो आज तक अक्ल से पैदल माना जाता है .खेलों में भी इतनी राजनीति चलती है कि उसके तमाम तथाकथित संघों पर नेता ही हावी रहते हैं .आज तक किसी राजनीतिक दल के घोषणापत्र में ओलम्पिक में पदकों की संख्या को शामिल नहीं किया .जबकि भावी प्रधानमन्त्री को यह बताना चाहिए कि उसे जनता चुनाव में जितनी सीटें देगी ,वह उतने ही पदक देश को दिलाएगा .बल्कि यह कोटा राज्यों के मुख्यमंत्रियों के लिए भी निर्धारित किया जाना चाहिए कि वे कितने ऐसे खिलाडी तैयार करेंगे जो देश को पदक दिलाने की जिम्मेदारी निभाएंगे .
भारत की गुलामी की मानसिकता के कारण आज तक क्रिकेट के अलावा किसी खेल और खिलाडियों को  इज्जत –शोहरत और पैसा नहीं मिलता .जबकि क्रिकेट का मामूली सा खिलाडी विज्ञापनों से ही करोड़ों कमा लेता है .इनर और अंडरवियर तक उन्हीं के नाम से बिकते हैं .
भारत में राजनीति एकमात्र खेल है जिसमें किसी योग्यता की जरूरत नहीं है .सिर्फ दस बीस कत्ल ,बलात्कार,भ्रष्टाचार के मुकदमे चुनाव जीतने के लिए काफी हैं .वाग्वीरता सारी कमियों को पूरा कर देती है .जनता भी उसी मायावी मदारी को पसंद करती है जो भले करे कुछ नहीं लेकिन हांके ऊंची ऊंची ,वादे भी ऐसे करे जो दस बीस साल तक  अपनी जगह से हिलें नहीं . जनता में सतयुग ,रामराज्य लाने ,गरीबी हटाने ,रंगीन टीवी ,साडी –कपड़ा और सबसे ऊपर भरपेट दारू .भोले भाले लोगों को और क्या चाहिए ?उनका यही तात्कालिक विकास है बाकी सब नेताओं का खेला है .यही कारण है कि उनकी दौलत साल दर साल एवरेस्ट की ऊंचाई तक को पीछे छोड़ जाती है .जबकि खेलकूद की दुनिया में देश नीचे से भी फर्स्ट नहीं आ पाता.
 कल्पना कीजिये कि इन दशानन वाग्वीरों  का कोई ओलम्पिक आयोजित किया जाय या स्वप्न सुंदरी के स्वयम्वर में इन्हें आमंत्रित किया जाय तो क्या होगा ? सारे स्वर्णपदक यही ले उड़ेंगे .नारद मोह की लीला उलट जायेगी .पचास करोड़ की गर्ल फ्रेंड इन्हीं की सुग्रीव में वरमाला डालेगी .धीरे धीरे भ्रष्टाचार की सुरसा इस राशि को लाखों करोड़ में बदल देगी . इनका धोबी पाट कभी खाली नहीं जाता .स्विस बैंक इनकी इस खून पसीने की कमाई को बड़े जतन से संभाल कर सुरक्षित रखते हैं ताकि कोई भी उसे नजर तक न लगा सके . सनसनी और अफवाहों को फ़ैलाने में माहिर ये वाग्वीर पानी में आग लगाने की क्षमता से लैस होते हैं .उन्हें मालूम होता है कि कहाँ कौन सा हथियार काम करेगा .धर्म ,जाति से लेकर गाय भैंस तक इनके काम की चीजें होती हैं . वैसे भी वर्तमान में परमाणु युद्ध से पहले वाकयुद्ध ही पृष्ठभूमि की तैयारी करता है . अबकी बार विश्व के सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव तक में वाकयुद्ध का जो छिछला स्तर देखने को मिला है ,उसे लेकर लोग हैरान –परेशान हैं .यह वहां की बंदूक संस्कृति से ज्यादा घातक है .
प्यारेलाल ने आँखें फाड़कर मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे उन्होंने एक साथ करोड़ रूपये देख लिए हों .मैंने कहा प्यारेलाल जी आज के जमाने में पनवाड़ी और कुंजड़े भी करोडपति से कम नहीं .यह तुम्हारा जमाना नहीं जहाँ पतियों की तो पूरी पल्टन होती थी लेकिन लखपति दूर दूर तक दर्शन नहीं देता था .प्यारेलाल को लगा कि किसी ने  उनके सिर पर लाखों  करोड़ों की  यह गठरी रख दी है जिसके बोझ से उनकी नाजुक कमरिया दोहरी हुई जा रही है और लोग समझ रहे हैं कि वे सजदे में हैं .

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Monday, August 8, 2016

नामवर सिंह


अपने अंतिम अरण्य में फिर से उलझाता हूँ मैं
 # मूलचन्द गौतम

नामवर सिंह की प्रथम और अंतिम रूचि पोलिटिक्स नहीं पोलेमिक्स है .इसलिए जिन लोगों की प्रथम और अंतिम रूचि पोलिटिक्स है वे उन्हें चीन्ह्नने में अक्सर चूक जाते हैं .उनका परम प्रिय शेर अर्ज है –

जो सुलझ जाती है गुत्थी ,फिर से उलझाता हूँ मैं


नामवर सिंह  निराला की कविता में मोगल दल की तारीफ़ ढूंढ कर लाते हैं .उनके पट्ट आलोचक डॉ . रामविलास शर्मा के वैदिक साहित्य के अध्ययन और पांचजन्य के साक्षात्कार को संघी झुकाव में लपेटकर उनकी मिटटी पलीद करते हैं . शुक्लजी की परम्परा के विरुद्ध दूसरी परम्परा की खोज करते हैं .निर्मल वर्मा के उपन्यास अंतिम अरण्य को उनके हिन्दू मोक्ष की कामना से जोड़कर मार्क्सवाद विरोधी सिद्ध कर रहे हैं. भाजपा के पाकिस्तान में विवादित बयान के शिकार और अवमूल्यित आडवाणीजी के सहधर्मी  जसवंत सिंह की किताब के लोकार्पण में जान बूझकर जाते हैं और गाली खा रहे हैं  बनारस में प्रलेस के राज्य सम्मेलन में  बिहार के राजेन्द्र राजन खफा हैं –आपने ऐसा क्यों किया .गलत सन्देश जाता है .जनता हमसे सवाल करती है ,हम क्या जबाब दें ?नामवर सिंह चुपचाप मन में मुस्कुरा रहे हैं –बच्चू आगे आगे देखो . दरअसल उन्हें मालूम हैं विवादास्पद होने के मजे .
 नामवर सिंह के पचहत्तर के होने पर प्रभाष जोशी ने भारत भर में आयोजन किये .यह जैसे उनका अश्वमेध यज्ञ था .तो उसी दौर के सिपहसालार रामबहादुर राय जब इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र के कर्ता धर्ता बने तो उन्हें याद आया कि अब नामवर सिंह नब्बे के हो रहे हैं .इस मौके को भुनाया जा सकता है नामवर सिंह के बहाने, क्योंकि लौंडे लपाड़ों  की साहित्य अकादमी की पुरस्कार वापसी जिसमें उनके लक्ष्मण भी शामिल हो गये थे , से असहमति जताकर नामवरजी अपनी भावी रणनीति का संकेत दे चुके थे .फिर चूंकि मोदी जी भी बनारसी हो चुके हैं तो जुगलबंदी होने में बुराई क्या है ?आखिर जब अन्य कलाएं अमूर्त राजनीति के मजे लेती हैं तो साहित्य क्यों पीछे रहे ?आखिर विद्या निवास मिश्र भी तो राज्यसभा की शोभा बढ़ा ही चुके थे .अब कोई उन्हें बीजेपी  का सलाहकार बताये या कलाकार क्या फर्क पड़ता है ?जब महाबली का पतन घोषित किया जा चुका है तो उसकी कोई सीमा तो नहीं हो सकती . एकांत के अंतिम अरण्य में जाने से बेहतर है अनेकान्तवाद .तो वे भी  कबीर की तरह चौराहे पर लुकाठा लेकर खड़े हो सकते हैं और तुलसीदास की तरह घोषित कर सकते हैं –काहू की बेटी सों बेटा न ब्याहबों ....
अब जो लोग उनसे हिंदी क्षेत्र का सार्त्र या नोम चोमस्की होने की अपेक्षाएं रखते हैं उनका खुदा हाफिज .फ़िलहाल मोदीजी देश के प्रधानमन्त्री हैं ......
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Saturday, August 6, 2016

हिंदी के अध्यापन की आधुनिक समस्याएं


 



मैया कबहिं बढैगी चोटी

डॉ .मूलचन्द्र गौतम
हिंदी अध्यापन की शुरुआत बंगाल के रायल एशियाटिक सोसाइटी से हुई .उसी की शाखाएं बाद में बनारस ,इलाहाबाद,दिल्ली ,पटना, सागर ,अलीगढ़  .....आदि जगहों से पुष्पित पल्लवित हुईं डॉ . ग्रियर्सन के भारतीय भाषाओँ के सर्वेक्षण ने इस आधार के भव्य भवन की नींव तैयार की .आचार्य रामचंद्र शुक्ल ,बाबू श्याम सुंदर दास ,आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी,डॉ . धीरेन्द्र वर्मा ,डॉ. रामकुमार वर्मा ,आचार्य नलिन विलोचन शर्मा , डॉ . देवेन्द्रनाथ शर्मा , लाला भगवान दींन ,रमाशंकर शुक्ल रसाल ,डॉ. नगेन्द्र ,डॉ . हरवंश लाल शर्मा जैसे दिग्गजों और उनकी शिष्य मंडली  ने संस्कृत भाषा और साहित्य की समृद्ध परम्परा और पृष्ठभूमि में  हिंदी भाषा और साहित्य के अध्ययन- अध्यापन की नींव रखी .व्यास और समास शैली में साहित्य के इतिहास, काव्यशास्त्र ,भाषा विज्ञान , काव्य और गद्य के पाठ्यक्रम की आधारभूत संरचना तैयार हुई . आज यह सोचकर और जानकर अजीब लग सकता है कि पहले हिंदी और संस्कृत साहित्य की उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी था .
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के हिंदी साहित्य के इतिहास ,रस मीमांसा और निबन्धों की ऐतिहासिक भूमिका के बिना हिंदी के अध्ययन-अध्यापन की कोई चर्चा नहीं हो सकती .त्रिवेणी की वृहद भूमिकाओं ने मध्यकालीन साहित्य के श्रेणीकरण और गुणवत्ता के जो मानक तैयार किये ,उन पर आज भी गहन विमर्श जारी है .लोकमंगल का उनका प्रतिमान आज भी किसी न किसी रूप में आज भी कायम है . रीतिवाद का प्रतिरोध आज भी प्रासंगिक है .यही कारण है कि केवल कलावाद साहित्य का एकमात्र लक्ष्य नहीं बन पाया . उर्दू भाषा और साहित्य के साथ पश्चिम की साहित्यिक –दार्शनिक बहसों ने इसे और अधिक समृद्ध और संपन्न बनाने में मदद की है .असहमत लोग दूसरी परम्परा की खोज करके अपने मार्ग अलग बनाने की कोशिश कर रहे हैं .
जहाँ तक हिंदी ,संस्कृत की उच्च  शिक्षा का सम्बन्ध है तो इसकी ओर गाँव –देहात के गरीब लोग ही ज्यादा आकर्षित होते हैं .संस्कृत पर तो ब्राह्मणों का लगभग एकाधिकार ही है .अंग्रेजी चूंकि प्रारम्भ से ही उच्च और अभिजात वर्ग की भाषा रही है जो ज्यादातर शहरों में ही केन्द्रित है लेकिन वर्तमान में भूमंडलीकरण के प्रभाव से अंग्रेजी सत्ता  और अधिकार प्राप्ति की ललक में देहातों में भी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना फैशन और मजबूरी दोनों है .यद्यपि भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में हिंदी माध्यम स्वीकृत है लेकिन फिर भी अंग्रेजी का लाभ विशेष है .सीसेट के विवाद से यह जाहिर हो चुका है कि भारत में आज भी वर्चस्व अंग्रेजी का ही रहना है .
हिन्दीभाषी जनता की  देश और विदेश की भाषाओँ और साहित्य के प्रति सीमित और संकीर्ण सोच से बेहद नुकसान होता है .हिंदी तो चूंकि उनके लिए घर की मुर्गी की तरह उपेक्षित होती है ,इसलिए उसके शुद्ध ,मानक उच्चारण और वर्तनी पर खास ध्यान देने की जरूरत ही महसूस नहीं होती .रही सही कसर हिंग्रेजी ने पूरी कर दी है .हालांकि बदलते परिदृश्य में भाषा की शुद्धता और व्याकरण से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि अब जोर इनके बजाय सम्प्रेषण –कम्युनिकेशन पर होता है .अमेरिकी अंग्रेजी ने जैसे विक्टोरियन अंग्रेजी की ऐसी तैसी करके रख दी है ,ठीक वही हाल हिंदी का हिंग्रेजी ने कर दिया है .लेकिन उच्च शिक्षा और शासन के क्षेत्र में यह अराजकता नहीं चल सकती .यह बात अलग है कि हिंदी की जटिल पारिभाषिक शब्दावली और वर्तनी के कारण हिंदी के बजाय अंग्रेजी आसान लगती है .इसीलिए हिंदी लिखित रूप में निरंतर प्रचलन से बाहर होती जा रही है ,जो चिंता की बात है .
 आज विज्ञान और टेक्नोलॉजी के युग में प्रश्न यह उठता है कि क्या साहित्य के अध्ययन और अध्यापन की पारम्परिक गुरू –शिष्य परम्परा प्रासंगिक रह गयी है या भूमंडलीकरण के विश्वव्यापी प्रसार के नाते उसमें किसी खास विशेषज्ञता की जरूरत है .क्या सूरदास के श्याम की चोटी आज भी ज्यों की त्यों है या उसमें कोई बदलाव हुआ है .टीका और व्याख्याओं के अलावा भी क्या ऐसा कुछ नया है जिसकी जरूरत है .उत्तर आधुनिकता और संरचनावाद ने इस पारम्परिक अध्ययन अध्यापन की दिशा ही बदलकर रख दी है .उस ओर से आँख बंद करके शुतुरमुर्ग की तरह इतिहास की शव साधना का क्या कोई अर्थ –मतलब होगा ?केवल कबीर ,सूर ,तुलसी को रटने से काम नहीं चलने वाला . हिंदी कविता चूंकि हिन्दू धर्म का अभिन्न हिस्सा रही है और कथा ,प्रवचनों में उसका व्यापक व्यापारिक-राजनीतिक उपयोग निरंतर हो रहा है फिर भी आधुनिक हिंदी साहित्य की पंहुच सामाजिक रही है .यों भी हिंदी के ज्यादातर  छात्रों और अध्यापकों की चेतना छायावाद से आगे नहीं बढ़ पाती .ऐसे में समकालीन हिंदी साहित्य से परिचितों का दायरा बेहद सीमित है .पुराने दौर में इतिहास ,विज्ञान ,समाजशास्त्र और अन्य अनुशासनों के लोग भी साहित्य में सक्रिय दखल रखते थे लेकिन वर्तमान में यह अपवाद ही है .अलबत्ता साहित्य और पत्रकारिता जरूर नजदीक आये लेकिन अब शुद्ध व्यावसायिकता ने उस नजदीकी को  लगभग खत्म कर दिया है .यह शुभ संकेत नहीं है .
विश्व की तेजी से नजदीक आती सभ्यताओं में पारस्परिक आदान प्रदान ने साहित्य और संस्कृति के सामने जहाँ नई सम्भावनाओं के दरवाजे खुले हैं वहां उसने  नये –नये संकट भी खड़े कर दिए हैं .एक से एक थिंक टैंक और विचारकों की फ़ौज  अब सूचना और संचार की जिस आधुनिकतम प्रविधि से जुड़ रही  है ,वहां पल भर में सब कुछ बदल जाता है .नये परिदृश्य में पैर टिकाना मुश्किल हो जाता है .हर समय आउट ऑफ़ डेट होने का खतरा सिर पर मंडराता रहता है . इस तीव्र प्रवाह में आपकी भूमिका सिर्फ फालोव्र्र या कहें पिछलग्गू फिसड्डी भर की रहती है जो घिसटने को मजबूर है .हिंदी के कम्प्युटर पर उपयोग ने विकास के नये द्वार खोल दिए हैं .गूगल की भाषा सेवाओं ने अनुवाद की जरूरत में हिंदी को भी महत्वपूर्ण जगह मिली है .बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के उत्पादों के विज्ञापनों का हिंदी भाषी उपभोक्ताओं तक पंहुचना जरूरी हो गया है .ऐसे में हिंदी के व्यावसायिक उपयोग की अनेक दिशाएं खुल रही हैं .फिल्म ,मीडिया और संचार क्षेत्र में हिंदी की पंहुच अंग्रेजी भाषी जनता से कहीं ज्यादा है .
भारत की जनता का यह दुर्भाग्य है की इस देश में तमाम आयोगों के बावजूद देसी भाषा और शिक्षा की बेहद दुर्गति है .शिक्षा राज्य का विषय है इसलिए उसकी गुणवत्ता भगवान भरोसे है .विश्वगुरु होने का दावा करने वाले देश के पास गर्व करने लायक एक भी विश्वस्तरीय शिक्षा संस्थान नहीं है .अलबत्ता विदेशों को टेक्नोकुली पर्याप्त मात्रा में निर्यात किये जा रहे हैं .
ऐसे में हिंदी साहित्य के अध्ययन और अध्यापन को अपडेट करना जरूरी है .विकास के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में संतुलन बनाकर टिकने के लिए हिंदी के एक ऐसे पाठ्यक्रम और विशेषज्ञता की दरकार है जो तमाम क्षेत्रों की आवश्यकता की पूर्ति करने में समर्थ हो . तात्कालिक रूप से कम से कम इतना तो तुरंत होना चाहिए कि देश भर में  सीबीएसई पैटर्न पर  स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर हिंदी का वही  पाठ्यक्रम स्वीकृत किया जाय जो यूजीसी और भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के लिए मान्य है .अन्यथा तो उसका कोई भविष्य नहीं होगा .
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नारी का साग




मुझे नहीं मालूम कि हिन्दुस्तान के किसी भू भाग में नारी का साग मिलता है या नहीं लेकिन चन्दौसी के आस पास गली गली सुबह से सिर पर गठरियों में बड़ी बूढी महिलाएं चिल्लाती घूमती हैं –नारी का साग ले लो नारी का साग .मन में सवाल उठता है कि क्या नर का भी कोई साग होता है क्या और नहीं होता तो क्यों नहीं होता ?पुरुष प्रधान समाज में घर चलाने की सारी जिम्मेदारी नारियों की ही क्यों ?जबकि तमाम बड़े बड़े होटलों में कुक पुरुष ही ज्यादा होते हैं .शादी ब्याहों में भी खाना ज्यादातर पुरुष ही बनाते हैं .
फिर यह नारी का साग क्या कला और बला है ?बरसात के दिनों में हरी सब्जियां नष्ट हो जाती हैं .तो घर कैसे चले .दालें देवताओं के लिए भी दुर्लभ .देहात में तो जिन्दगी सिर्फ नमक और चटनी के भरोसे चलता है .ऐसे में देहात की कुछ सुघड़ ,समझदार नारियां अपने सहज कौशल से घर चलाती हैं .तालाबों ,जोहड़ों के आस पास की वनस्पतियों को सब्जी में बदलने की कला में माहिर ये नारियां अपने कौशल से नारी का साग खोंट लाती हैं . पूस माघ के जाड़ों में भी -बन गया काम बनाये से, दिन कट गये गाजर खाए से का गरीबी हुनर अब गायब होता जा रहा है .गाँवों का यह स्वास्थ्यवर्धक फ़ास्ट फ़ूड गजरभात पांच सितारा होटलों के गरमागरम गाजर के हलवे से कहीं अधिक पौष्टिक और सहज सुलभ होता है .गुड और गाजर का यह मेल बेमेल दुनिया पर भारी पड़ता है .किसान भी चूंकि अब व्यापारी हो चला है इसलिए उसके खेतों से गन्ना ,गाजर और बथुआ तोडना जुर्म है .इस जुर्म की सजा दलितों को तो खासी भारी पड़ जाती है .
लेकिन नारी के साग को एकत्र करने पर इस तरह का कोई प्रतिबन्ध नहीं सो इस पर नारियों के अलावा किसी का अधिकार नहीं .बारीक़ भुजिया की शक्ल में मक्के की रोटी के साथ यह सरसों दे साग से बेहतर है.मौका मिले तो आजमाइए या फरमाइए .बन्दा हाजिर है खिदमत के लिए .