Saturday, August 6, 2016

नारी का साग




मुझे नहीं मालूम कि हिन्दुस्तान के किसी भू भाग में नारी का साग मिलता है या नहीं लेकिन चन्दौसी के आस पास गली गली सुबह से सिर पर गठरियों में बड़ी बूढी महिलाएं चिल्लाती घूमती हैं –नारी का साग ले लो नारी का साग .मन में सवाल उठता है कि क्या नर का भी कोई साग होता है क्या और नहीं होता तो क्यों नहीं होता ?पुरुष प्रधान समाज में घर चलाने की सारी जिम्मेदारी नारियों की ही क्यों ?जबकि तमाम बड़े बड़े होटलों में कुक पुरुष ही ज्यादा होते हैं .शादी ब्याहों में भी खाना ज्यादातर पुरुष ही बनाते हैं .
फिर यह नारी का साग क्या कला और बला है ?बरसात के दिनों में हरी सब्जियां नष्ट हो जाती हैं .तो घर कैसे चले .दालें देवताओं के लिए भी दुर्लभ .देहात में तो जिन्दगी सिर्फ नमक और चटनी के भरोसे चलता है .ऐसे में देहात की कुछ सुघड़ ,समझदार नारियां अपने सहज कौशल से घर चलाती हैं .तालाबों ,जोहड़ों के आस पास की वनस्पतियों को सब्जी में बदलने की कला में माहिर ये नारियां अपने कौशल से नारी का साग खोंट लाती हैं . पूस माघ के जाड़ों में भी -बन गया काम बनाये से, दिन कट गये गाजर खाए से का गरीबी हुनर अब गायब होता जा रहा है .गाँवों का यह स्वास्थ्यवर्धक फ़ास्ट फ़ूड गजरभात पांच सितारा होटलों के गरमागरम गाजर के हलवे से कहीं अधिक पौष्टिक और सहज सुलभ होता है .गुड और गाजर का यह मेल बेमेल दुनिया पर भारी पड़ता है .किसान भी चूंकि अब व्यापारी हो चला है इसलिए उसके खेतों से गन्ना ,गाजर और बथुआ तोडना जुर्म है .इस जुर्म की सजा दलितों को तो खासी भारी पड़ जाती है .
लेकिन नारी के साग को एकत्र करने पर इस तरह का कोई प्रतिबन्ध नहीं सो इस पर नारियों के अलावा किसी का अधिकार नहीं .बारीक़ भुजिया की शक्ल में मक्के की रोटी के साथ यह सरसों दे साग से बेहतर है.मौका मिले तो आजमाइए या फरमाइए .बन्दा हाजिर है खिदमत के लिए . 

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