Thursday, April 4, 2024

नीबू निचोडने की कला

 नीबू निचोड़ने की कला 

# मूलचन्द्र गौतम

श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण ने अपने विराट रूप को प्रदर्शित करते हुए कुछ रूपों की चर्चा छोड़ दी थी जिन्हें बाद में वेदव्यास जी ने श्रीमद्भागवत में प्रकट किया। उनकी सोलह कलाओं में भी कुछ कलाएं छूट गईं थीं , जिनमें एक महत्वपूर्ण कला थी नीबू निचोड़ने की कला। दरअसल उनके जमाने में परिवारवाद का बोलबाला था और राजा का चुनाव ईवीएम के बजाय उत्तराधिकार के सनातन नियम से होता था। किसी तरह के आरक्षण की भी कोई  व्यवस्था नहीं थी । इसीलिए नीबू निचोड़ने की जरूरत ही नहीं थी।ये कला होती तो महाभारत होता ही नहीं।

राजतंत्र के बड़े फायदे थे।राजा के निर्णयों के खिलाफ कहीं कोई सुनवाई नहीं होती थी। राजा चक्रवर्ती हो तो क्या कहने?उसके रथ के पहियों से आदमी क्या धरती तक कांपती थी ।वो जिधर निकल जाता सड़कें खाली हो जाती थीं। मंत्री, संतरी सब सिर झुकाकर उसके फरमानों का पालन करते थे। किसी में भी उसकी बेअदबी की हिम्मत नहीं थी। मुगल बादशाहों के दरबारों में तो कोई राजा को पीठ तक नहीं दिखा सकता था।कोर्निस में में जरा सी कोताही नाकाबिले बर्दाश्त थी। बिना कड़ी ट्रेनिंग के यह कार्य असंभव था। थोड़ी सी छूट केवल राजा के मुंहलगे विदूषक को प्राप्त थी ताकि गाहे बगाहे राजा के चेहरे पर उसकी मूर्खतापूर्ण बातों से थोड़ी सी हंसी की झलक दिखाई दे सके और दरबार का अत्यधिक तनावपूर्ण माहौल थोड़ा हल्का फुल्का हो सके और राजाजी का पेट साफ हो सके। अन्यथा तो कविराज को जुलाब का इंतजाम करना पड़ता था । यही कविराज राजा जी को जवानी बरकरार रखने के लिए मकरध्वज और शिलाजीत की तगड़ी खुराकें उपलब्ध करवाते थे ।

लोकतंत्र के आने से कोर्निस में तो थोड़ी छूट मिल गई है बाकी सारे नियम ज्यों के त्यों हैं। इस व्यवस्था में परंपरागत उत्तराधिकार के बजाय जनता को हर पांच साल में चुनाव के द्वारा नायक चुनने की छूट है। ये चुनाव आजादी के बाद नायक के आभामंडल के प्रताप से सम्पन्न होते थे। इसके क्षीण होने पर अराजकता उत्पन्न होने का भय था जिसके दमन के लिए वह कोई भी कदम उठा सकता है। यह नायक पुराने महाकाव्यों की तर्ज पर धीरोदात्त हो यह कतई जरूरी नहीं। असल चीज है उसका साम दाम दण्ड भेद की सम्पूर्ण प्रक्रिया में पारंगत होना । एक अंग में भी जरा सी कमी आते ही सत्ता का किला धराशायी हो सकता है। विपक्षी नेताओं के साथ अंत्याक्षरी में पारंगत वाकपटुता के बिना तो कुछ भी नहीं हो सकता। निरंतर नई से नई शब्दावली के साथ चुनाव हेतु विराट संसाधन जुटाने की क्षमता ही उसे महानायक बना सकती है। इसके बिना तो वह महानालायक सिद्ध होगा। संक्षेप में यही नीबू निचोड़ने की कला है जिसे पॉलिटिकल मैनेजमेंट कहा जाता है और इस मामूली से काम के लिए बड़े बड़े सलाहकारों को करोड़ों के पैकेज दिए जाते हैं। चुनाव से पहले सरकार पूंजीपतियों का नीबू निचोड़ती है बाद में मंहगाई बढ़ाकर पूंजीपतियों द्वारा जनता का नीबू निचोड़ा जाता है। अब नीबू निचोड़ने की तमाम तरह की मशीनें बाजार में आ गई हैं लेकिन हाथ की सफाई का कोई मुकाबला नहीं।इस काम में जरा सी कोताही बोफोर्स की तरह खेल बिगाड़ सकती है। अन्यथा तो आप बिना किसी को पता चले हाथी ऊंट तक मजे से निगल जा सकते हैं। दिव्य और भव्य धार्मिक आध्यात्मिक आभामंडल के बिना बहुसंख्यक जनता का दिल जीतना तो एकदम नामुमकिन है । शतरंज और कुश्ती कबड्डी के अचूक दांव ही नेता को धरतीपकड़ के बजाय धोबीपछाड़ में माहिर खिलाड़ी बना सकते हैं। जनता चुनावी लोकतन्त्र में भी बिना जादू के किसी ऐरे गैरे का जय जयकार नहीं करती और न सिर माथे बिठाती है।

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मोबाइल 9412322067

Friday, February 16, 2024

रामराज्य: सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और भारतीय भाषाएं

रामराज्य:सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और भारतीय भाषाएं 

# मूलचंद्र गौतम 

सतयुग की तरह रामराज्य को एक मिथकीय परिकल्पना ही मान लें तो क्या उसकी वास्तविकता से बचा जा सकता है?फिर भी राम रावण के पक्ष तत्कालीन समाज में धर्म और नैतिकता की कुछ सर्वमान्य धारणाओं को तो सामने लाते ही हैं।इस मायने में प्रमुख रूप से वाल्मीकि और तुलसी के रामराज्य की तुलना से भी दोनों के बीच का अंतर यह साफ करने के लिए काफी है कि उनकी असमानताएं रामराज्य को मात्र परिकल्पना तक सीमित नहीं रहने देतीं । वहां विसंगतियां प्राय: मौजूद नहीं हैं। सबका साथ सबका विश्वास और सहकार , सह अस्तित्व विद्यमान है।तुलसी के रामचरित मानस के उत्तरकांड और कवितावली में कलिकाल के वर्णन में वर्तमान समाज और मुगल शासन व्यवस्था की विसंगतियां साफ साफ दिखाई देती हैं जिनका अस्तित्व केवल कल्पना तक सीमित नहीं है।तुलसी एक तरह से उनका समाधान रामराज्य की स्थापना में देखते हैं। गांधी तक आते आते रामराज्य का एक अलग परिवर्तित रूप सामने आता है जहां ईश्वर के साथ अल्लाह जुड़ कर सर्वधर्म समन्वय स्थापित करता है।हिंदी और उर्दू का विवाद उन्हें हिंदुस्तानी की ओर ले जाता है जो केवल भाषा तक सीमित न होकर संस्कृति से भी जुड़ता है।विभाजन की विभीषिका से इन विवादों का गहरा संबंध है जो आज तक कायम है और नासूर की तरह रह रह कर फूट पड़ता है। संविधान भी इन विसंगतियां को दूर करने में अक्षम है।तमाम तरह के संशोधनों के बावजूद अभी तक अन्य संशोधनों की जरूरत इसका प्रमाण है।

रामराज्य की इस बहुआयामी लोकतांत्रिक चुनावी मुख्य धारा के बीच जिस भाजपाई सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का जन्म होता है वह रामराज्य का संकुचित संस्करण है ।उससे हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र जैसी संकीर्ण धारणाएं पनपती हैं जहां अन्य धार्मिक पंथों का दर्जा दोयम है।कांग्रेस की तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की सत्ता की राजनीति में तुष्टिकरण के आरोप और आक्षेपों से आहत जनमानस में अतिवादी हिंदू राजनीति का वर्चस्व और उभार की स्थापना और स्वीकृति  जैसे गांधी  और उनके तथाकथित उत्तराधिकारियों के खोखले समन्वित रामराज्य और हिंद स्वराज की अप्रासंगिकता है जिनके लिए गांधी सिर्फ एक सुविधाजनक मुखौटे तक सीमित रह गए थे , सत्ता प्राप्ति के साधन मात्र। मूल में रामराज्य ज्यों का त्यों है लेकिन मंडल और कमंडल की राजनीति के द्वंद्व के बीच मस्जिद और चर्च को छोड़कर मध्यमार्ग से कमंडल की ओर अग्रसर । गांधी की  मध्यमार्गी कांग्रेस का मजबूत हिंदूवादी राजनीतिक विपक्ष और विकल्प। धारा 370 के संशोधन और राम मंदिर की स्थापना का प्रस्थान बिंदु कमंडल के वर्चस्व के प्रमाण हैं।यह यात्रा अनिवार्य रूप से मथुरा काशी तक जायेगी ही परिणाम चाहे जो हों।

इस पूरी यात्रा में भारतीय संस्कृति और उसके प्रमुख उपकरण भाषाओं की अनवरत उपेक्षा हुई है। दार्शनिक प्रतिपत्तियों के बीच जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई जदपि मृषा छूटत कठिनई की तरह विश्वभर की संस्कृति और भाषाओं के पड़ी असंख्य ग्रंथियों का हल किसी ने तलाशने की कोशिश नहीं की। उनके बीच की वर्चस्व की जंग के विश्वयुद्धों का कोई समाधान नहीं खोजा गया  जो यूक्रेन और गाजा में भयावह भीषणता के साथ जारी है।

इस समस्या को केवल भारतीय उपमहाद्वीप या विखंडित भारत तक ही सीमित रखें तो लगता है कि महापुरुषों का ध्यान इस ओर गंभीरता से गया ही नहीं।आर्य अनार्य और द्रविड़ सभ्यताओं के बीच युद्धों की जितनी ऐतिहासिक चर्चाएं हुईं उतनी उनके बीच समन्वय और संवाद की कोशिशें नहीं हुईं। इनकी भाषा और संस्कृतियों के अपरिचय और अज्ञान को दूर करने के कोई प्रयास नहीं हुए । किंवदंती है कि अगस्त्य ऋषि दक्षिण की यात्रा पर जाने पर उत्तर और दक्षिण के बीच संपर्क की मुख्य बाधा विंध्याचल को आदेश देकर गए थे कि उनके लौटने तक वह झुका ही रहे लेकिन लगता है कि वे शायद गए ही नहीं ,अन्यथा तो  दोनों के बीच भाषाओं का यह विंध्याचल आज भी ज्यों का त्यों खड़ा दिखाई नहीं देता ।दक्षिण के राज्यों में हिंदी विरोध की ज्वाला कुछ तो ठंडी पड़ी होती। या उत्तर के राज्यों ने ही दक्षिण की भाषाओं से अपरिचय को दूर करने का कोई ठोस व्यावहारिक प्रयास किया होता ।अंग्रेजी आज भी देश की राजमहिषी तो नहीं होती । चार धाम और अन्य मंदिरों की यात्राओं के बावजूद राज्यों  के इस संघ के सदस्यों  की राजनीति और जनता के बीच भाषा और संस्कृति के विद्वेष आज भी ज्यों के त्यों कायम क्यों हैं?

देश की तथाकथित विभक्त आजादी के वक्त ही राज्यों के भाषावार गठन और संविधान निर्माण में भारतीय भाषाओं के पारस्परिक सहकार और शिक्षण की कोई ऐसी वैज्ञानिक और व्यावहारिक व्यवस्था की जानी चाहिए थी जो संघीय भावना को सांस्कृतिक रूप से एकजुट और मजबूत बनाती ।भारत की खोज में तल्लीन तत्कालीन  प्रधानमंत्री जी ने गांधी जी की तमाम नीतियों की तरह उनके भाषा संबंधी विचारों तक की उपेक्षा ,अवज्ञा और अवहेलना की । हिंदी,हिंदू , हिंदुस्तान की राष्ट्र की मूल चेतना, अवधारणा को ध्वस्त कर दिया।हिंदी दिवस के बहाने उसकी दुर्गति की स्थाई नीति बना दी जो आज तक कायम है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के धुरंधर और सत्ता के अश्वमेध में चक्रवर्ती होने की कामना पाले लोगों ने भी नई शिक्षा नीति में इसका कोई ध्यान नहीं रखा है। शिक्षा को राज्यों का विषय बनाकर अराजकता को ही बढ़ावा दिया जाता रहा है।इसी के चलते हिंदी भाषी राज्यों के मूढ़ नेतृत्व ने त्रिभाषा फार्मूले की हवा निकाल दी । त्रिभाषा के नाम पर संस्कृत की पूंछ लटका दी ।अंग्रेजी से मुक्ति दिलाकर केंद्रीय सेवाओं से युवाओं को वंचित कर दिया।गोबर पट्टी की जनता वैसे भी गणित और भाषाओं को सीखने में नितांत काहिल और जाहिल है । हर जगह मुलायम चारे की तलाश ।दक्षिण में हिंदी विरोध की एक वजह केंद्रीय सेवाओं में वर्चस्व की जंग भी है जो अंग्रेजी से ही संभव है।

वर्तमान में जरूरी है कि अब पूरी तैयारी और विधि विधान के साथ संस्कृति और भारतीय भाषाओं के इस हिमालय को मजबूती से कंधों पर उठाया जाय । छिटपुट साहित्यिक अनुवादों और यात्राओं से बात बनने वाली नहीं जब तक शिक्षा और विशेष रूप से माध्यमिक शिक्षा को केंद्रीय विषय बनाकर ऐसी भाषा नीति को जामा न पहनाया जाय कि युवा देश और दुनिया को ज्यादा जिम्मेदारी से समझने में समर्थ हो सकें ।हिंदी भाषी राज्यों में अंग्रेजी सहित किन्हीं दो अहिंदी भाषाओं को सीखना और उनमें प्रवीणता को अनिवार्य किया जाय ,वहीं अहिंदी भाषी राज्यों में हिंदी को अनिवार्य किया जाय । नवोदय विद्यालयों में यह भाषा नीति जारी है।इसी नीति को उच्च शिक्षा में जारी रखा जाय ।इस प्रक्रिया से रोजगार में पर्याप्त वृद्धि हाेगी। जरूरत है कि अब प्रशासन और उच्चतम न्यायालय में हिंदी को प्रथम राजभाषा और राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाय। यह कार्य धारा 370 में संशोधन से किसी मायने में कम महत्वपूर्ण नहीं है।

# शक्तिनगर, चंदौसी,संभल 244412
मोबाइल 9412322067


Sunday, January 28, 2024

पलटू राम की पलटन

पलटू राम की पलटन 

# मूलचंद्र गौतम


पहले ही साफ कर दूं कि थर्ड डिग्री की डेमोक्रेसी में पलटू राम कोई व्यक्ति नहीं प्रवृत्ति है। इसलिए कोई महानुभाव इससे ग्रस्त होते हुए भी दिल पर न लें।सृष्टि के आरंभ उर्फ वैदिक काल से ही यह मानुष मन में मौजूद रही है। राम के नाम पर यह कारोबार सदियों से चलता रहा है।कुछ अगंभीर लोग इसे पाटलिपुत्र से जोड़ते हुए पलटी पुत्रों का निरादर करते हैं।।प्रारंभ में इस प्रवृत्ति को संकल्प विकल्प कहते थे। बाद में इसको असंख्य नामों से पुकारा जाने लगा ।मसलन आयाराम गयाराम, दलबदलू,गिरगिट, डबल ढोलकी,बेवफा, बेमुरब्बत ,चार सौ बीस , विश्वासघाती,कुर्सी कुमार इत्यादि ।उसी क्रम की नई उत्पत्ति है पलटू राम जिसे आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का आविष्कार माना जा रहा है। इसकी संभावनाएं और दिशाएं अनंत हैं और इसके बारे में कोई भी भविष्यवाणी मुमकिन नहीं है । इसीलिए कोई भी बड़े से बडा ज्योतिषी रिस्क लेने को तैयार नहीं है। बड़े बड़े रणनीतिकार इसकी चाल को भांपने में नितांत फेल हो चुके हैं।कोई भी जीव वैज्ञानिक इसके डीएनए का विश्लेषण करने में असमर्थ है।बड़े से बडे पावरफुल रडार इसे पकड़ नहीं पा रहे। ओलम्पिक में पलटू राम के नाम से ही पलटीमार गेम को शामिल किया गया है जिसमें आज तक उनके रिकार्ड को तोड़ना तो अलग कोई तीसमारखान छू तक नहीं पाया है। जलेबी जैसे सीधे सादे पलटू राम जैसे विश्वरत्न को उचित सम्मान हेतु कोई पद, पुरस्कार अभी तक देना तो दूर सोचा तक नहीं जा सका है।सुपर कम्प्यूटर तक उनकी प्रतिभा के सूर्य की गणना करने में असफल हो चुके हैं।

अब तक अनचाहे जीवों में बरसाती मेंढक नाहक बदनाम थे जिन्हें किसी भी तराजू पर तोलना असंभव था ।इसी बेइज्जती की वजह से  अब भर बरसात में उनकी आवाज सुनाई नहीं देती ।इसी भय से झिल्ली ,झींगुर और थोक में उत्पन्न होने वाले भुनगे तक गायब हो चुके हैं।वैज्ञानिक प्रयोगों तक के लिए यह प्रजाति उपलब्ध नहीं है। ये प्रयोग अब मजबूरी में चूहों और बंदरों पर किए जा रहे हैं। इनके अभाव के पीछे पलटू राम और उनकी अपार पलटन का हाथ माना जा रहा है। रक्तबीज के बाद पलटू राम ही ऐसी हस्ती के रूप में उभरकर सामने आए हैं जिनका संहार अष्टभुजा क्या मां दशभुजा तक के बस का नहीं है। सुरसा और हनुमानजी के बीच बदन के विस्तार की प्रतियोगिता पलटू राम के लिए मामूली कवायद है। उनकी जिम्नास्टिक गुलाटियां विश्व में क्लासिक का दर्जा हासिल कर चुकी हैं।

पलटू राम की असली प्रतिभा के सतरंगी इंद्रधनुष चुनावों के मौसम की अपेक्षा रखते हैं।चुनावों में ही पलटीमारों की चांदी कटती है।तमाम दलों के दलदल से भटकती हुई आत्माओं की तरह टिकट के दावेदार उमड़ने लगते हैं। उनकी कोई पहचान करना मुश्किल होता है। इनकी वजह से राजनीति में अवसरवादी अराजकता को मान्यता प्राप्त होती है। इनके सीमेंट से ही सत्ता की नींव ,दीवारें और छत मजबूत होती है।इससे प्रमाणित होता है कि राजनीति में कोई किसी का स्थायी मित्र और शत्रु नहीं होता।इस गेम में पारंपरिक नैतिकता का कोई अर्थ मतलब नहीं है। हर हाल में शुभ लाभ एकमात्र लक्ष्य है। इनमें से हर पंछी जीतने वाली पार्टी का टिकट चाहता है । वार्ड मेंबरी तक न जीत पाने वाला खडूस सीधे लोकसभा में प्रवेश का दावेदार है।कहीं से भी घास न पड़ने की मजबूरी में मोटे पार्टी फंड को हड़पने के लालच में जमानत जब्त कराने को भी तैयार हो जाता है ।चार छह चपरकनातियों का खर्चा भी खुशी खुशी उठाता है।उनकी कबूतरी आसमानी उड़ानों और करतबों को देखकर लोग दांतों तले उंगली क्या पूरा जबड़ा ही चबा डालते हैं। गणतंत्र दिवस पर सुखोई इत्यादि विमानों के करतब इसके सामने कोई मायने नहीं रखते। उस समय पलटू राम सातवें आसमान से अपनी  विकराल हंसी की जो छटा बिखेरते हैं उसके सामने विपक्षी कीड़े मकोड़ों की कामरूप सेना ध्वस्त हो जाती है। एकमेव अद्वितीयम की प्रतिष्ठा ब्रह्म के बाद पलटू राम के ही हिस्से में आई है। विश्व का कोई भी  महाकवि अब तक किसी भी महाकाव्य में उनके विराट स्वरूप का वर्णन क्या उल्लेख तक नहीं कर पाया है। छोटे मोटे दोहे,शेर , हाइकु, चालीसा, खण्ड काव्य उसकी मामूली सी झलक दिखला पाते हैं। विश्व के तमाम महान उपन्यासकार परलोक से आकर उनके ऊपर कालजयी कहानियां ,उपन्यास  लिखना चाहते हैं लेकिन पलटू राम ने उन्हें रिजेक्ट कर दिया है।वे इस प्रोजेक्ट के लिए वाल्मीकि और व्यास जैसी प्रतिभाओं की तलाश में हैं।फिलहाल उन्हें चुटकुले लिखने में माहिर कोई बीरबल टाइप बंदा ही भाषण लिखने वास्ते मिल जाय तो काफी होगा क्योंकि वे चाहते हैं कि उनके शासन में प्रजा कतई गमगीन दिखाई न दे । इस खोज के लिए उन्होंने अपनी पलटन को मौखिक आदेश निर्देश जारी कर दिया है ।

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Thursday, January 18, 2024

काले धागे और मोटे कलावे का ट्रेंड

काले धागे और मोटे कलावे का ट्रेंड 

#    मूलचंद्र गौतम

इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ से ही आभास था कि विश्व का माहौल अविश्वसनीय तरीके से तेजी से बदल जायेगा।बाबा ने तो काफी पहले से भविष्यवाणी कर रखी थी कि कलियुग केवल नाम अधारा ।राम नाम की यही अनंत महिमा अब अयोध्या में राम मंदिर के साथ प्रकट होनी प्रारंभ हुई है ।जैसे  कलिकाल में त्रेता का आगमन हो रहा हो ।पश्चिम के कवि और दार्शनिक भले काल, इतिहास,नाम और अस्तित्व को लेकर भ्रम के शिकार रहे हों विश्वगुरु को कभी कोई संदेह नहीं रहा । इसीलिए हमारे यहां कोई पंचमकारी टोना टोटका कामयाब नहीं हो पाया ।वेदांत ने कोरोना की आसुरी माया और विभीषिका को फूंक मार कर उड़ा दिया । यह विपक्षी असुर अब भी अनेक रूप धारण कर प्रकट हो रहा है लेकिन हमारे एक मामूली से ईडी के टीके के आगे निरीह की तरह जान की भीख मांगता रहता है।

सृष्टि के प्रारंभ से ही नकल असल पर भारी पड़ता रहा है लेकिन आखिर एक दिन पोल खुलकर ही रहती है फिर उघरे अंत न होहि निबाहू.....। कबीरदास जी को नकल से सख्त नफरत थी । इसीलिए वे पकड़ लेते थे मन न रंगाये रंगाये जोगी कपड़ा। कर का  मनका और मन का मनका को उनकी कसौटी पकड़ लेती थी ।हाथी के खाने और दिखाने के दांतों की तरह नेता ,संत और व्यापारी का दिखावा ज्यादा देर तक छिप नहीं सकता । ऊपर वाले की लाठी में आवाज नहीं होती। कानून का घनचक्कर उसे कहीं का नहीं रहने देता ।

सतयुग में धर्म अधर्म ,न्याय अन्याय ,देव दानव का रंग एकदम सफेद और काला था जो तुरंत पहचान में आता था ।दुनिया ,फिल्में और धन जब से ब्लैक और व्हाइट के बजाय रंगीन होना शुरू हो गये तभी से घपला शुरू हो गया ।अब एक नंबर में कुछ होता ही नहीं सब कुछ दो या दस नंबरी है। दस बीस करोड़ धारी तो बीपीएल की श्रेणी में भी नहीं आयेंगे।नए कानून में चार सौ बीस नंबर की धारा भी अपराध की सीमा से बाहर हो जायेगी। इस नंबर को धारण करने वाले लोग मोटे मोटे कलावे पहनकर विधर्मी राहु केतु की तरह देवताओं और धार्मिकों की अग्रिम पंक्ति में अमृत पान  करेंगे।स्वर्ग में इंद्र की सभा में उर्वशी और रंभा जैसी नामी गिरामी अप्सराओं के साथ नृत्य करेंगे।दो चार पकड़े भी गए तो क्या फर्क पड़ता है।वैसे भी मोटू कलावाधारी का रथ जमीन से कम से कम छह इंच ऊपर चलता है। जप,माला, छापा, तिलक की श्रेणी में मोटा कलावा ससम्मान जुड़ चुका है।आज की तारीख में इसके बिना किसी को प्रामाणिक रूप से धार्मिक नहीं माना जा सकता।

बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला । ट्रकों के पीछे शोभा बढ़ाने वाला  यह आसुरी कलर अब फैशन में नंबर वन पर ट्रेंड कर रहा है।नाजुक बदन वाली हसीनाएं बुरी नजरों से बचने को काले टीके का इस्तेमाल करती थीं ।अब उसी की जगह काले धागे ने ले ली है जो गरदन और कमर से होता हुआ पैरों तक आ पहुंचा है और अब जिसे पैर में आभूषण की तरह धारण करने का ट्रेंड चल रहा है। यह काला जादू कश्मीर से कन्याकुमारी तक चल रहा है।

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Wednesday, January 3, 2024

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का फंडा

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का फंडा

# मूलचंद्र गौतम 

विश्व पटल पर हाल  ही में प्रकृति प्रदत्त प्रज्ञा और प्रतिभा के स्थानापन्न के रूप में उभरी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस उर्फ ए आई तकनीक ने जो धूम मचा दी है उसने आदमी के ईश्वर में गहरे विश्वास की जड़ों को हिला दिया है । चैट जीपीटी और टेक्स्ट से डीप फेक उर्फ महाफर्जी तस्वीर बनाने में सक्षम डैल ई जैसे उत्पादों ने कम्प्यूटर क्रांति को मानवीय कल्पना की चरम सीमा के परे  तक पहुंचा दिया है ।उसके दुरुपयोग की अनंत सम्भावनाओं से बड़े बड़े ताकतवरों की सत्ता हिली हुई है ।कहीं भी किसी का चेहरा फिट  करके ब्लैकमेल किया जा सकता है।असल से ज्यादा मजेदार पैरोडी हो जाय तो लोग असल को भाव क्यों देंगे ।अभी तक जो लोग फेक न्यूज,पेगासस  और टूल किट में ही उलझे हुए थे कि उनकी जान को यह एक नया बबाल और आ गया ।बीमारी दर बीमारी जो चलते चलते बन जाय महामारी।

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से पलभर में पूरे माहौल को बदला जा सकता है।छवि निर्माण और विध्वंस की यह कला कुछ भी करने में समर्थ है । परम्परागत नैतिकता का यहाँ कोई मूल्य और मान नहीं है ।जनता को जितनी दिलचस्पी अफवाहों और चंडूखाने की गपबाजी में होती है उतनी सत्य  जानने में नहीं ।आप देते रहिये सफाई यह गंदगी किसी डिटर्जेंट से साफ नहीं होगी ।इन पर दुनिया का कोई कानून लागू नहीं होता।बाजार में चलती है खोटी चवन्नी और अफवाहों में शुरू हो जाता है दंगा।भीड़ और भेड़चाल में कोई फर्क नहीं रहता।

रोबोटों ने हाड़ माँस के आदमी का मशीनी विकल्प उपलब्ध करा दिया था ।विश्व की बढ़ती आबादी के बीच इनकी उपस्थिति से मानवीय श्रम की गरिमा खतरे में पड़ चुकी है । बेरोजगारी का भूत भविष्य को डरावना बना रहा है।मनुष्य के अद्भुत कल्पनाशील मस्तिष्क को सुपर कम्प्यूटर भी पीछे नहीं छोड़ पाया है तब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से ज्यादा उम्मीद सिर्फ उसके व्यावसायिक उपयोगकर्ताओं को ही हो सकती है ।प्रकृति के वैविध्य के आगे कृत्रिमता यों भी टिक नहीं पाती ।बोनसाई कल्चर ने यह सिद्ध कर दिया है गमले और  साफ सुथरे सजे धजे बाग बगीचे सुंदरता में जंगल का मुकाबला नहीं कर सकते जैसे पालतू महँगे कुत्ते देसी सड़कछापों के आगे टिक नहीं पाते । 

अस्त्र शस्त्रों से पहले हर युद्ध मुहँ जबानी लड़ा जाता है । वाग्वीरों से और कोई अपेक्षा हो भी नहीं सकती।बातों में हारे सो .... ।मोहल्ले की सारी लड़ाइयां शब्दों की महा अश्लील गालियों से लड़ी जाती हैं ।मंटो और इस्मत चुगताई भी यहाँ पानी माँगते हैं ।जाति और धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका यहाँ भी होती है ।इनके अनुरूप गालियों का वजन कम बढ़ होता रहता है।शाकाहारी गालियों के बजाय तीखे मिर्च मसालों वाली गालियों को दर्शकों की ज्यादा वाहवाही हासिल होती है।महिलाओं को यहाँ भी विशेषज्ञता और बढ़त हासिल है ।पुरुषों के झगड़े जहाँ शारीरिक हिंसा में बदल जाते हैं वहाँ महिलाओं की हिंसा  ज्यादातर शाब्दिक रहती है ।चरित्र की भूमिका यहाँ  सोदाहरण प्रमुख रूप से बखानी जाती है।बहनजी टाइप महिलाओं के लिये यह क्षेत्र वर्जित है।

अब हिंग्रेजी में भाषाई समझ का लचीलापन आ चुका है फिर भी शुध्दता के आग्रही  राजा लक्ष्मण सिंह के पालतू हिंदी तोते आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की हिंदी करने के पीछे पड़े हैं ।उनकी जिद को संतुष्ट करने के लिये लंगड़े गूगल गुरु के अनुवाद की शरण में जाने पर उसकी हिंदी कृत्रिम बुद्धिमत्ता या मेधा से काम चलाया जा सकता है लेकिन जो चमक दमक और चाकचिक्य अंग्रेजी में है वह हिंदी में नहीं ।हिंदी में आते ही जैसे गुड़ गोबर में परिवर्तित हो जाता है ,अच्छा भला उठता हुआ शेयर डाउन हो जाता है वही हाल परम प्रिय आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का है।कृत्रिम बुद्धिमत्ता या मेधा कहते ही मुहँ का स्वाद कड़वा और कसैला हो जाता है।आगे आगे देखिए होता है क्या ?

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Monday, October 23, 2023

गंगू तेली का दुखड़ा

गंगू तेली का दुखड़ा

# मूलचन्द्र गौतम 

राजा भोज के जमाने से गंगू तेली मशहूर है ।राजा भोज ने एक एक मामूली से श्लोक पर सोने की लाखों मुहरें और जमींदारियां लुटा दी थीं लेकिन गंगू को कभी अधेला भी नहीं बख्शा था ।गंगू की  शारीरिक मेहनत का उस समय  कोई मोल नहीं था आज भी नहीं है ।गंगू का मरियल बैल आंखों पर अंधौटे बाँधकर कोल्हू के चारों ओर हजारों मील की यात्रा करता था और सरसों और दुआं का स्वास्थवर्धक तेल और खल के सुंदर घेरे बनाकर जनता को  देता था ।भैंस और वोटरों को हाँकने वाली बाहुबलियों की जिस मजबूत लाठी को उसका तेल पिलाया जाता था वह भी अब केवल किस्से कहानियों तक सीमित रह गयी है ।गन कल्चर ने उसे बहुत पीछे छोड़ दिया है ।मशीनीकरण ने गंगू का  रोजीरोटी का हर सहारा  छीन लिया है तो अब वह पूरी तरह नंगू हो चुका है ।गांधी बाबा का यह आखिरी आदमी आज भी आखिरी सीढ़ी पर ही ठिठका हुआ खड़ा है कि कभी तो उस पर किसी की निगाह पड़ेगी और उसके दिन भी बहुरेंगे लेकिन जो नहीं हुआ उसका गम क्या?

धंधा चौपट होने से पहले गंगू ने लाख कोशिश की कि उसके बड़ी मेहनत से पेड़ की जड़ के ऊपरी हिस्से से बनाये गये कोल्हू को लुप्त होने से बचाने के लिए अंतरराष्ट्रीय न सही राष्ट्रीय धरोहर में ही शामिल करके उसे मुआवजे की मोटी रकम सरकार से मिल जायेगी लेकिन ऐसा कुछ न हो सका ।स्टार्टअप के रूप में वह बहुरूपिया भी बना लेकिन पुलिस ने उसका यह धंधा भी न चलने दिया । आखिर झख मारकर वह कनमैलिया बना तो लोगों ने ईयरबड्स खरीदकर उसे फिर से बेरोजगार बना दिया ।जैसे पुराने दलाल लोग इज्जत से कमीशन एजेंट बनकर सम्मान से रोजी कमा रहे हैं वैसा कोई नाम उसे आजतक उपलब्ध नहीं हो पाया है । हेयर कटिंग और मालिश कराने का काम भी मसाज पार्लरों में बदल चुका है और उसकी आड़ में करोड़ों के बारे न्यारे हो रहे हैं । इस धंधे में आदमी स्त्रियों से काफी पीछे छूट गये हैं ।क्लब कसीनो में बदल रहे हैं ।धर्मशालाओं ने होटल का रूप ले लिया है लेकिन दुर्भाग्यशाली तेली और तमोली का कोई विकास और पुनर्वास नहीं हुआ है।कच्ची घानी के तेल के विज्ञापन पर भी गंगू नहीं फिल्मी हीरो कब्जा जमाये हुए हैं।

गंगू बेहद बारीकी से दुनिया को बदलते हुए देख रहा है।उसे आत्मानुभव से मालूम है कि तेजी से बहती इस बदलाव की धारा में पैर टिकाये रखना बड़ा मुश्किल काम है ।देहात की परस्पर निर्भर दुनिया में फायदे के सब धंधों पर पैसे वालों का कब्जा है ।उन्हें अब जूतों के चमचमाते शोरूमों पर शान से बैठने में कोई शर्म नहीं आती ।अब ग्राहक चमक दमक पर मरता है और दो पैसे की चीज पर दो हजार लुटाने को तैयार है ।पहले वह सस्ती से सस्ती चीजें देखता था अब महंगी से महंगी चीजें खरीदता है ।पहले शादी में दहेज के तौर पर घड़ी ,साइकिल ,रेडियो की बड़ी इज्जत थी लेकिन अब दूल्हेराजा को  फोर व्हीलर भी मारुति आठ सौ नहीं एसयूवी चाहिए,भले बाद में पेट्रोल भरवाने के भी लाले पड़ जाएं ।पार्टी मोटी हो तो   हाई फाई सोसाइटी में फ्लैट अलग से ।ये सब नहीं तो शादी केंसिल और हो भी जाय तो तत्काल तलाक या दुल्हन दहन ।

इस माहौल में नंगू तय नहीं कर पा रहा कि किससे नहाये और क्या निचोड़े ?अब उसकी आखिरी उम्मीद राजनीति ही बची है ।
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मोबाइल 9412322067

Saturday, September 30, 2023

कदमताल की गिनती

कदमताल की गिनती 

# मूलचंद्र गौतम

चचा की घड़ी में जबसे पोते पोतियों ने गूगल फिट और स्टेप काउंटर ऐप लगाया है तबसे उन्होंने एक नया बबाल मोल ले लिया है । बचपन से ही  व्यायाम  के शौकीन चचा ने कभी गिनती करके कदमताल और दौड़भाग नहीं की ।अब वे रोज शाम होते ही अपने ब्लड प्रेशर और कदमताल की गिनती चालू कर देते हैं। दिल के मरीज होने के नाते डॉक्टर के हिसाब से रोज दस हजार कदम चलना उनकी मजबूरी है ।जिस दिन वे यह आँकड़ा छू नहीं पाते उस दिन उन्हें अपराधबोध  और डिप्रेशन घेर लेता है ।एक चतुर राजनेता की तरह वे अगले दिन के संकल्प और सिद्धि की तैयारी के साथ सोने चले जाते हैं लेकिन नींद  क्यों रात भर नहीं आती ?

चचा शुरू से ही पतली चमड़ी  के रहे हैं इसलिए हर बात उन पर तुरंत असर करती है ।कोई उन्हें देखकर यों ही अगर हँस दे तो वे सोच सोचकर परेशान हो जाते हैं कि उसकी हँसी का कारण क्या है ।वे शीशे के सामने खड़े होकर बार बार लाफिंग बुद्धा का पोज बनाते हैं लेकिन कारण है कि उनकी पकड़ में नहीं आता ।मरने की बात से ही उनकी जान निकल जाती है फिर वे वेदांत की शरण में चले जाते हैं जहाँ जगत मिथ्या है लेकिन सत्य पकड़ में नहीं आता ।सपने में उनकी मुलाकात अक्सर आदिगुरु एवं अन्य गुरुओं से निरंतर होती रहती है लेकिन कोई मार्ग उन्हें नहीं मिलता।मध्यमार्ग की तलाश में चचा बचपन से ही भटकते फिर रहे हैं लेकिन कोई न कोई अतिवाद उन्हें बीच मंझधार में ले डूबता है ।

चचा शुरू से ही किताबी हिसाब से नियम कायदों का पालन करने के लिए प्रतिबद्ध हैं ।इस वजह से कुछ लोग उन्हें  गाली की तरह कम्युनिस्ट तक कह देते हैं ।इस अच्छाई की खोज में चचा पार्टी के घोषणा पत्र से लेकर पूँजी के तीनों खण्ड चाट चुके हैं ।चचा खुले दिल से हर अच्छी और सच्ची बात को सब कहीं से ग्रहण करने को तैयार रहते हैं ।बस लेबल लगाने से उन्हें चिढ़ है ।तत्व और द्वंद्व के बीच वे हमेशा द्वंद्व के पक्षधर हैं ।इसीलिए वे हर जगह मिसफिट होकर अकेले पड़ जाते हैं ।घर वाले उन्हें लाख समझाते हैं वक्त के हिसाब से बदलने और चलने को लेकिन चचा का एक ही जबाब होता है आखिरी वक्त में क्या खाक मुसलमाँ होंगे ।लोग इसमें भी धर्मपरिवर्तन की आहट सूँघ लें तो चचा की क्या गलती है ?
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