Tuesday, September 30, 2014

लफ्फाजी के पुए




जबसे रामलाल ने सुना है कलिकाल में केवल गाल बजाने वाले ही पंडित कहलायेंगे तभी से उनकी पौ बारह हो रही है .अब हर जगह वे मौका देखते ही यह काम शुरू कर देते हैं . राम लाल के पिताजी उन्हें कथावाचन के धंधे में डालना चाहते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि उनके बाद कहीं जजमानी के बारह गाँव उनके चंगुल से निकल न जाएँ .वे उन गांवों के खेरापत,पुरोहित वगैरह सब कुछ थे .
रामलाल गपोड़ी नम्बर वन थे .चलते –चलते किस्से गढने में उन्हें महारत हासिल थी .कोई चतुर सुजान उनकी तथ्यात्मक गलती पकड़ भी लेता था तो वे अपनी हाजिरजबावी से उसे लाजबाव कर देते थे .अगर वो फिर भी न माना तो खीसें निपोर कर फी... ही... ही.. की ऐसी हंसी हँसते थे कि सामने वाले की बोलती बंद हो जाती थी .
पिताजी ने उन्हें समझा दिया था कि केवल रामायण और गीता –दो ही किताबें उन्हें जिन्दगी में सब कुछ उपलब्ध करवा देंगी –धनधान्यसुतान्वित .यही नहीं कोई यजमान कायदे का मिल गया तो पौ बारह .तब से वे इसी पौ बारह के पीछे पगलाए घुमते हैं .उनका एक पैर लखनऊ तो दूसरा दिल्ली .तीसरा पैर होता तो उसे वे मुंबई में रोपते अंगद की तरह .
तो यही थी रामलाल की रामलीला .उनकी पत्नी का नाम भी लीला ही था जिसे वे प्यार से सत्यनारायन कथा की लीलावती कहते थे .अनुप्रास उनका प्रिय अलंकार था .थ्री डी,फॉर पी ,कभी थ्री आर , कभी थ्री एस ...थ्री उनका प्रिय नम्बर .सट्टेबाजी के शौकीनों के लिए फिक्स .कहीं यजमान की पौ बारह पड़ गयी तो वे हनुमान जी के रोट के नाम पर सवा मनी ,ढाई मनी ..और पांच मनी तक करा देते थे .
रामलाल को खाने में पुए पहली पसंद थे ,खीर के साथ  मिल जाएँ तो मानो उन्हें  अमरपद मिल गया .इसलिए वे हर समय सपनों में भी पुए ही देखते थे- खाते थे .मालपुए  जैसे उनके गालों में भरे रहते थे ,इसलिए उनकी आवाज भी खास तरह की हो गयी थी .
रामलाल परसों दिवंगत हो गये .उनकी आखिरी इच्छा विदेश जाने की थी जो अधूरी रह गयी है .उनके पुत्र –पौत्रों ने कसम खायी है कि वे विदेश तक अपनी जजमानी फैलाकर उन्हें सच्ची श्रृद्धांजलि देंगे .उनकी तेरहवीं में खीर और मालपुए बनेंगे .उनकी पहली पसंद .