Monday, November 28, 2022

मुर्दों के साथ मस्ती

मुर्दों की बस्ती में मस्ती 

# मूलचन्द्र गौतम

कबीर ने जब से कहा -साधो यह मुर्दों का गाँव -तब से मैं यहाँ  मुर्दों के सरदार जिंदा आदमी की तलाश में हूँ जो जिंदादिल भी हो ।मुर्दों के टीले पर बैठकर शव साधना के मजे ही अलग हैं थ्री डी और फाइव जी के साथ ।जहाँ सारे मुर्दे मोबाइल की मस्ती में डूबे हैं और राजा की सवारी खरामा खरामा निकली जा रही है।शतरंज के खिलाड़ी परस्पर मार काट में व्यस्त हैं।

ईश्वर की मृत्यु की घोषणा के बहुत दिनों के बाद विद्वानों को समझ आया कि इतिहास की हत्या भी जरूरी है अन्यथा स्वयम्भू अनंत निराकार कभी भी सामने आकर अपना आधार कार्ड दिखाकर  करोड़ों के बीमे का दावा कर सकता है।अब इतिहास के प्रेत लगे हैं उसे बचाने में ।उसकी नयी से नयी व्याख्याएँ प्रकट हो रही हैं।आम आदमी चकरघिन्नी हो रहा है कि किसे सच माने।आखिर में वह हारकर सत्ता की इतिहास दृष्टि की शरण में ही जाता है क्योंकि यहीं मोक्ष है।कुछ सिरफिरे ही बचते हैं तो इतिहास की पत्थर की  सख्त दीवार से सिर मारते रहते हैं और आखिरकार पागलखाने में आखिरी साँस लेते हैं।

दरअसल आधुनिक दौर यंत्र ,मंत्र और तंत्र का है।जिस व्यक्ति और दल ने इस त्रिकोण को साध लिया विजय उसी की दासी है विश्व पर उसका वर्चस्व है और जो पिछड़ गया वह आजीवन अभिशप्त होने को बाध्य है।आजीवन विपक्ष का जीवन भी कोई जीवन है? सत्ता सुंदरी उससे कोसों दूर रहती है फिर मजबूरी में वह चाहे ब्रह्मचारी होने का स्वाँग करे या सन्यास का ढोंग ।धूप में बाल सफेद करने वाले और अनुभवी में कुछ तो फर्क होता है।बालों के  अधुनातन डिजाइन के दौर में उम्र का पता ही नहीं चलता।बालकों को बूढ़ा होने के फैशन का रोग लगा है तो बुड्ढों को जवान दिखने का शौक चर्राया है।बूढ़े मुँह मुहाँसे दिखाकर मस्त हैं भले उनके कब्र में जाने के दिन हों ।डॉक्टरों ने दिल को जवान रखने के एक से एक नायाब नुस्खे ईजाद जो कर लिये हैं।इसीलिए  कुँआरे नौजवानों को दिल के दौरे पड़ रहे हैं और बूढ़े नित नयी नवेली दुल्हनों के ख्बाव सजा रहे हैं।

पहले मकरध्वज और शिलाजीत की जानकारी केवल राजवैद्यों तक सीमित थी अब हर मुर्दा उनका मजा ले रहा है।झंडू बाम ने जब से फिल्मी गाने में आकर अपार लोकप्रियता हासिल की है तब से पीके भन्नाया हुआ है कि उसके  राजनीतिक ताकत के  तमाम ऐलोपैथिक नुस्खे फेल क्यों हो रहे हैं ।उसे आयुर्वेद की शक्ति का पता ही नहीं है।दरअसल उसे तत्काल श्मशान में किसी योग्य गुरु के निर्देशन में शव साधना की दरकार है।तभी सत्ता सुंदरी उसका वरण करेगी ।

तंत्र कोई भी हो ताकतवर होता है नाम उसका चाहे राजतंत्र हो या लोकतंत्र क्या फर्क पड़ता है?इस तंत्र से ही यंत्र और मंत्र को साधा जा सकता है ,घोड़े की लगाम और ऊँट की नकेल की तरह ।पुतली के इशारे पर नाचता है पूरा तंत्र ।बर्दाश्त से बाहर होने पर जनता नचाती है तंत्र को ।इसीलिए तलवार की धार पर चलने की कला ही तंत्र का सन्तुलन बना सकती है।मुर्दों के साथ मस्ती लेने के लिये भी शिव होने की जरूरत है। खेलें मसाने में होली अन्यथा भूत प्रेत पिशाच छोड़ने वाले नहीं।
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# शक्तिनगर, चन्दौसी, संभल 244412
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Tuesday, November 8, 2022

भूत की जुगाली

भूत की जुगाली 

# मूलचन्द्र गौतम

सृष्टि के समस्त जीवों पर शोधकर्ताओं के निष्कर्षों में जुगाली पर विशेष रूप में कोई शोध नहीं हुआ है।अब तक ऊँट की जुगाली मशहूर थी लेकिन जब से उसने जुगाली के बाद बिसलेरी का विज्ञापन किया है तबसे उसका यह दर्जा छिन गया है।जुगाली में उसे समाधि की तन्मयता का ब्रह्मानंद प्राप्त होता था जो अब नहीं मिलता।रसखान को गायों की जुगाली पसंद थी जिसमें महारास का आनंद था ।रहीम कबूतर को दुनिया का सबसे सुखी जीव मानते थे।वह  गुटरगूँ करते हुए जब मस्ती में आता था तो क्या कहने ?घोड़े को लगाम में जुगाली का आनंद प्राप्त होता था जिसकी आड़ में वह अपनी गुलामी भूल जाता है और उसी को अपनी जिंदगी समझ लेता है।

कबूतर की तरह जुगाली में बन्दर भी कम नहीं है लेकिन इसकी भूख कभी शांत नहीं होती ।इसके गलुए कितने भी भरे हों यह कभी तृप्त नहीं होता।चौबीसों घण्टे जुगाली में रत ।नुकसान करने के अलावा इसका कोई काम नहीं।ऊपर से बजरंगबली का वरदहस्त।इसीलिए कोई राजनीतिक दल इन्हें छूने छेड़ने की हिम्मत नहीं करता।अब बजरंगबली जनता के सुप्रीम कोर्ट में सफाई तो देने आ नहीं सकते ,अखबार में विज्ञापन नहीं दे सकते कि उनका इस उत्पाती जीव से कोई नाता रिश्ता नहीं ।

जुगाली में सोशल ऐनिमल आदमी भी किसी से पीछे नहीं लेकिन यह भोजन के बजाय रात दिन भूत भविष्य की योजनाओं की जुगाली में तल्लीन रहता है।पुराने दौर में जुगाली के शौकीन साबुत सुपारी मुँह में रखकर जुगाली का मजा लेते थे ।अब उसकी जगह पान , तम्बाकू और  गुटके तथा पान मसाले में  हर दम  तल्लीन रहते हैं।इनकी पिचकारियों की मॉडर्न आर्ट से देश भर के  तमाम कोने अंतरे और दीवारें रंगी पड़ी हैं।कई बार अति दबाव में  दूसरों के ऊपर रंग बिरंगी होली भी हो जाती है।ज्यादा गम हो जिंदगी में तो उसे गलत करने के तमाम तामसिक माध्यम मनुपुत्र के पास हैं। वर्तमान में जीने की आदत ही नहीं।इसका खुरपेंची दिमाग हरदम खुराफातों में ही लगा रहता है।दोस्तों से ज्यादा दुश्मनों की फिक्र रखता है।इसके जासूस हर पल की खबरों से जीना हराम किये रहते हैं।एक एक से बदला चुकाना इसका एकमात्र परम कर्तव्य है।जियो और जीने दो में इसकी कोई आस्था नहीं।जीने नहीं दूँगा फ़िल्म का सुपर हीरो यही है।

यह विराट पुरुषोत्तम अनेक रूपों में स्वाँग उर्फ लीला करता रहता है।स्वाँग भौतिक जगत हित में तो लीला परमार्थ हेतु ।दोनों हाथों में लड्डू ।पाँचों उंगलियाँ घी में सिर कड़ाही में उर्फ बल्ले बल्ले।किसी का बल्ला फेल हो जाय इसका कभी नहीं होता।इस मायने में यह ब्रह्मराक्षस का बड़ा भाई है।बड़े बड़े आदमी काल से हार गये लेकिन काल को इसी ने हराया है। कालातीत कला का स्वामी ।यमराज इसका दास है और मौत दासी । इसलिए अब यह केवल भूत की नहीं तीनों कालों की जुगाली करता रहता है।टेस्ट ट्यूब बेबी के बाद यह समूची सृष्टि का रचयिता है।
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Wednesday, October 19, 2022

धर्मशाला में विपश्यना

 धर्मशाला में विपश्यना 


# मूलचन्द्र गौतम

पहली बार मार्च 22 में लखनऊ में विपश्यना शिविर किया था ।तभी लगा कि एक और शिविर किये बिना धारणा साफ नहीं हो पायेगी।कोरी स्लेट से काम करना आसान होता है ।पुरानी अवधारणाओं और विधियों को एकदम खत्म करना कठिन होता है।बौद्ध धर्म और दर्शन के प्रति पूर्वग्रह मन में रहे हों तो यह और भी कठिन काम है।फिर भी विपस्सना को समझने की जिज्ञासावश जानने  और समझने के बाद उसे गम्भीरता से ग्रहण करने की इच्छा से ही धर्मशाला में  1 अक्टूबर से शुरु होने वाले दूसरे शिविर का पंजीकरण करा लिया।

दिल्ली से वाया पठानकोट 1 अक्टूबर को मैक्लोडगंज शिविर स्थल पर पहुँच गया ।विंग कमांडर विश्वामित्र मुसाफिर के आचार्यत्व में रात आठ बजे  से मौन का प्रारंभ।सुबह चार बजे से रात नौ बजे तक की गम्भीर साधना प्रक्रिया से गुजरना औसत आदमी के बस का काम नहीं।अनभ्यस्त बारह घण्टे लगातार ध्यान में बैठ नहीं सकते । पहले दिन बिना किसी औपचारिक कर्मकाण्ड के अष्टांगिक मार्ग  -शील ,समाधि और प्रज्ञा की दीक्षा और  बुद्ध ,धम्म और संघ हेतु समर्पण सम्पन्न होते हैं। अक्सर कई कच्चे लोग शुरू में ही  मैदान छोड़कर भाग खड़े होते हैं  बहाना कोई भी क्यों न हो ।फिर भी युवा वर्ग की बड़ी संख्या आश्वस्त करती है कि यह साधना निष्फल नहीं है।

धर्मशाला हिमाचल प्रदेश का एक खूबसूरत पर्यटन केंद्र है।इसका शांत और सुरम्य वातावरण ध्यान के लिये अत्यंत उपयुक्त है।मैक्लोडगंज में दलाई लामा के आवास के कारण यह अंतरराष्ट्रीय खबरों में भी रहता है।

बुद्ध की परंपरा में म्यामार के साधक सयाजी ऊ बा खिन द्वारा सिखाई गयी विपश्यना की क्रिया सत्यनारायण गोयनका जी ने शुध्द रूप में भारत  और विश्वभर  में प्रस्तुत और प्रचारित की है ।सभी केंद्रों पर विपश्यना की विधि समान है।  लगभग साढ़े तीन दिन प्राण पर ध्यान केंद्रित करने की आनापानसति  विधि के  अभ्यास के बाद विपश्यना दी जाती है।प्राण के माध्यम से मन को वशीभूत करना होता है। इसमें किसी भी नामरूप को शामिल करने की अनुमति नहीं है। इसके बाद प्रतिदिन एक एक कर तीन घण्टे की अधिष्ठान साधना कठिन है। प्रज्ञा ,समता और अनित्यबोध के आधार पर खड़ा विपश्यना का भवन बेहद मजबूत है। उदय और व्यय तथा उच्छेद,निर्जरा और क्षय  की अनवरत चलने वाली कारण कार्य की श्रृंखला  की समझ सम्यक सम्बोधि का मार्ग प्रशस्त करती है। राग ,द्वेष और मोह से मुक्ति का यह मार्ग निर्विघ्न है।आत्म और जगत के प्रति दृष्टा और साक्षीभाव विकसित करना और सिर  से  लेकर पाँव तक  और पाँव से लेकर सिर तक की विविध प्रकार की  यात्रा प्रक्रियाओं के द्वारा  धाराप्रवाह और भंग तक पहुंचना होता है।निर्वाण का अनुभव इसके बाद ही संभव है।

विधि की शुद्धता पर जोर देने और प्रशिक्षण के कतिपय अंगों के अतिविस्तार के कारण विपश्यना थोड़ी  बोझिल हो जाती है।हिंदी और अंग्रेजी के मिश्रण के चलते दोहरी विपश्यना में अनावश्यक रूप से ज्यादा समय लगता है।विमर्श तो दोनों भाषाओं में अलग अलग होता है अन्यथा झेलना मुश्किल हो जाय ।इसी तरह गोयनका जी की दोहा शैली की घरघराहट में कई बार  शब्द स्पष्ट रूप में सुनाई नहीं देते । उनकी प्रस्तुति बेहतर की जा सकती है।पाली  के मूल रूप को भी हिंदी और अंग्रेजी के अनुवादों में होना चाहिए, तब ये ज्यादा सुगम हो सकते हैं क्योंकि यह भाषा हर एक को समझ नहीं आती ।आज विपश्यना को समय के अनुसार संक्षिप्त और सारगर्भित होने की जरूरत है प्रोफेशनल भी ।तभी इसे अनावश्यक विस्तार और बोझिल होने से बचाकर बहुसंख्यक वर्ग तक पहुंचाया जा सकता है।

यह शुभ लक्षण है कि गोयनका जी ने विपश्यना को किसी धर्म विशेष से न जोड़कर सामान्य जन के लिये उपलब्ध कराया है।समन्वित रूप में वे किसी धर्म और उनकी मान्यताओं के अंधविरोध से बचते हैं।शील के गुणों को सर्वत्र ग्रहण करने की उदारता ही उन्हें संकीर्णता से बचाती है।उनकी व्याख्याएं और कथाएँ इसे रोचक बनाती हैं।किसी भी तरह की व्यावसायिकता की यहां कोई गुंजाइश न रखकर उन्होंने इसे सहज और सुगम बनाया है। लगातार तनाव और दबाब भरी जीवन शैली के बीच अभ्यास की निरंतरता से ही इसके आध्यात्मिक लाभों को हासिल किया जा सकता है।
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Monday, October 17, 2022

चौदहवीं का चाँद उर्फ मूनलाइटिंग

 चौदहवीं का चाँद उर्फ मूनलाइटिंग


# मूलचन्द्र गौतम

कवियों की दुनिया भी विचित्र है।एक तुक मिलाने के चक्कर में वे दुनियाभर के कुलाबे मिला देते हैं।उनकी कुछ तुकें और तुक्के तो अजीबोगरीब होते हैं।एक एक तुक के लिये  ये तुक्कड़ शिरोमणि बेतुके होने तक को तैयार रहते हैं।उनकी बेचैनी का आलम घर वालों तक की समझ में नहीं आता ।कुछ की कुंडलिनी तो वाशरूम में ही जाग्रत हो पाती है जहाँ वे घण्टों बैठे रहकर एक सही तुक के शिकार की तलाश करते हैं। इसे वे समाधि से कम का दर्जा नहीं देते ।इसीलिए घरवालों से अलग उनका सेपरेट वाशरूम है जिसमें हमेशा अन्यों का प्रवेश वर्जित है ।पता नहीं चौबीस घण्टों में  कब उन्हें इसकी जरूरत पड़ जाय ।

विश्व की समस्त भाषाओं के कवियों को चाँद हमेशा से सबसे ज्यादा पसंद रहा है ।चाँद की आड़ में वे अपनी प्रेमिकाओं को एक से  बढ़कर एक कल्पनाओं के उपहार देते रहे हैं।इसी कारण वे प्रेमियों के सरताज हैं ।हर बेजुबान प्रेमी उनकी शायरी में प्रेम का इजहार करता है भले बदले में लात घूँसे और जूते खाने की नौबत आ जाय ।इस मौके का सबसे मौजूँ गाना किसे याद नहीं आता जिसे सुनकर हर हसीना का दिल गार्डन गार्डन हो जाता है।लाजबाब की तुक में ध्यान ही नहीं रहता कि उसे आफ़ताब क्यों कहा जा रहा है?
दरअसल यह आफ़ताब ही पूरी आफ़त का आदिम स्रोत है जहाँ से सृष्टि में मूनलाइटिंग की शुरुआत हुई या कहें श्रीगणेश हुआ ।ऊपर की आमदनी मूल आमदनी पर भारी पड़ गयी ।ओवरटाइम तक को यह झेलनीय था लेकिन मूनलाइटिंग की जद में आते ही यह ईडी और सीबीआई की पकड़ में आ गया ।अब भरष्टाचार तो एक पैसे का हो यह अरबों खरबों का भरष्टाचार ही है।कोई कम्पनी कंसल्टेंसी के नाम पर ऐसे  बेमुरव्वत और बेईमान को अपने यहाँ क्यों बर्दाश्त करेगी ?यह तो चोरी  है और सीनाजोरी भी।

अब सवाल यह है कि इस मूनलाइटिंग की जड़ें जिंदगी के किस क्षेत्र में नहीं हैं।एक आदमी तीन तीन कमाऊ बीबियाँ रखे हुए है उसे कोई नहीं देख रहा ।गर्लफ्रैंड और लिवइन के चक्कर अलग ।नैतिकता के स्वयम्भू ठेकेदार और दरोगा इन महान प्रतिभाओं को नमन करने को बाध्य हैं।कितने हैं जिनसे न एक सरकारी नौकरी सध रही है ,न एक बीबी ।स्टार्टअप की दुनिया में इस अपार क्षमता की कोई कद्र ही नहीं।उद्योगिनमं सिंघमुपैति लक्ष्मी ।लक्ष्मी इसी विराट पुरुष पर फिदा होती है घरघुसरे कीड़े मकोड़े पर नहीं।

इसलिए मूनलाइटिंग को बदनाम करने वाले विकृत बुद्धियों से करबद्ध निवेदन है कि वे खाहमखाह अफवाहों को फैलाने से बचें और चाहें तो खुद भी कभी  पूर्णिमा की रात में इस मूनलाइटिंग का दीदार करें जो कवियों की नींद हराम किये रहती थी , है और रहेगी ।

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Sunday, September 11, 2022

रेवडी के घनचक्कर में

 रेवडी के घनचक्कर में 


# मूलचंद्र गौतम

जब से रेवडी का शेयर उठकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचा है तब से उसकी बल्ले बल्ले है ।अब रेवडी के नाम से ही बड़े बड़ों के मुहँ में पानी क्या लार टपकने लगी है जबकि लोकतंत्र में हर कीमत पर चुनाव जीतने के आकांक्षी दलों के नेताओं के गले में यह हड्डी की तरह अटक गयी है ।उनके सामने यह सवाल मुहँ बाये खड़ा है कि जायें तो जायें कहाँ ? हर तरफ है रेवड़ियों का जहाँ ।आखिर रेबड़ को रेबड़ी बांटने में बुराई क्या है ?रेवडी न हुई गले की जेवड़ी हो गयी ।

बड़ी मुश्किल से एक मुहावरे का जन्म हुआ था कि अंधा बाँटे रेवडी फिर फिर अपनों को दे ।अब सवाल यह है कि निपट अंधों की दुनिया में कौन अंधा नहीं है जो गैरों को रेवडी देगा ?इस रेवडी की अमरबेल ऐसी फैली है कि इसने बाबा की चौपाई स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती को फेल कर दिया ।बाबा ने  वाल्मीकि के मुकाबले लोकानुभव के प्रतिनिधि के नाते रामकथा को जन जन तक पहुंचाने का श्रेय लिया था लेकिन इस रेवडी ने उनकी ऐसी रेड लगाई कि उन्हें पीछे छोड़कर सीधे छलाँगें लगाती हुई यह सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ पर जाकर विराजमान हो गयी ।अब आखिरी निर्णय हो जायेगा कि रेवडी और जनकल्याण में क्या फर्क है? जबकि  वैयाकरण अभी तक तय नहीं कर पा रहे हैं कि यह रेवडी है या रेबड़ी ? सुप्रीम कोर्ट इसमें भी हस्तक्षेप करेगा ।घपला करने वालों को कड़ी सजा मिलेगी।बाबा इसे कलिकाल का दुष्प्रभाव मानकर  अपने दोस्त रहीमदास की बात मानकर सौंठ पीकर चुप हैं  कि जब नीके दिन आइहें बनत न लागे बेर ।दुनिया के सारे भले लोग आयें न आयें इन्हीं नीके दिनों की उम्मीद में जी रहे हैं ।
रेवडी की इस डायरेक्ट प्रोन्नति को देखकर गजक के प्रेमियों के चेहरे उतर गये हैं ।कुरकुरी और चुरमुरी रेवडी की तुलना में उनकी कुटी हुई खस्ता गजक को कोई नहीं पूछ रहा जबकि यह खरी चौबीस कैरेट वाली चीज थी और दीवानों के मुहँ में जाकर ऐसी घुल जाती थी कि पोपले से पोपले आदमी का दिल गार्डन गार्डन हो जाता था ।गजक का चूरा उनकी ऐसी स्वर्गीय नियामत थी जिसके आगे तीनों लोकों का राज्य भी बेकार था । रेवडी की इकहरी बनावट के मुकाबले गजक के बहुआयामी प्रकारों की कोई चर्चा तक इस डर से नहीं कर रहा कि कहीं सरकार द्वारा उन्हें देशद्रोही न ठहरा दिया जाय।यों भी उनकी जमानत लेने वालों तक के लाले पड़े हुए हैं। इस गम को वे नेटफ्लिक्स पर वक्त पिक्चर देखकर गलत कर रहे हैं।
रेवडी के इस महान उपक्रम के चलते रबड़ी भी निचले पायदान तक खिसक चुकी है ।उसके प्रेमी भंगड़ी अब रबड़ी के बजाय खटाई खाकर मुहँ सिले बैठे हैं।रेवडी की मुकाबले रबड़ी के लच्छे दो कौड़ी के सिद्ध हो गये हैं।खुरचन का तो कोई नामलेवा ही नहीं बचा है।समुद्र से निकली सुरा के कुएँ में ऐसी भाँग घुली है कि सारे देव दानव चकरघिन्नी हो गये हैं।उन्हें इससे मुक्ति का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा ।बड़े बड़े गड्ढों को पलक झपकते पार कर लेने वाले चेतक की टाँगों तक में फ्रेक्चर हो चुका है।

अब सुप्रीम कोर्ट की पीठ ही तय करेगी कि रेवडी भी किस शहर की मशहूर होनी चाहिए।अगर लखनऊ ने इस प्रतियोगिता में बाजी मार ली तो मेरठ की पुनर्विचार याचिका पहले से तैयार रखी है।आदेश निकलते ही नहले पर दहला पड़ेगा ।बहरहाल रेवडी को ब्रह्म का पर्यायवाची मानने वालों का बहुमत दिखाई दे रहा है ।

# शक्तिनगर, चन्दौसी, संभल 244412
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कोरोना के मौसेरे भाई

  मौसेरे भाईयों का घराना


#  मूलचंद्र गौतम 

अब तक चोर चोर होते थे मौसेरे भाई लेकिन कलिकाल में जो न हो जाय सो थोडा है।वायरसों ने पुरानी विरासत से चोरों को अपदस्थ क्या बिल्कुल बहिष्कृत कर दिया है और पूरी दुनिया में अपना दबदबा कायम कर लिया है।अब लोकल चोरों के बजाय मार्केट में ग्लोबल चोरों की डिमाण्ड है।पता ही नहीं चलेगा कि चोर है किस देश का ।ढूँढते ही रह जाओगे ।दुनिया का कोई थाना पुलिस उसका कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा।थोडे दिनों में दुनिया में आतंकवादी संगठन और तूफान इन ग्लोबल  वायरसों के नाम से ही पहचाने जाँय तो कोई ताज्जुब नहीं होगा।सहस्र नामों वाले तमाम देवी देवता इस प्रतियोगिता से बाहर हो जायेंगे।विश्व की राजनीति पर इसी घराने का कब्जा होगा ।

इधर कोरोना नामधारी डकैत के आतंक से दुनिया परेशान है।यह रक्तबीज का भी बाप है।जितनी बार काटोगे बार बार नये नाम रूपों में खिलकर खुलकर सामने आकर ताल ठोंकने लगेगा।तालिबानी इसके सामने निहायत पिद्दी हैं।ओसामा मक्खी मच्छर से ज्यादा अहमियत नहीं रखता।देहात में बसे भारतमाता के सपूत तो इसके नये नये नामों को याद रखने की क्षमता ही नहीं रखते ।डेल्टा ,ओमिक्रोन बोलने में उनके तलवे घिसने लगते हैं।मुख सुख के आदी इन निकम्मों का पाला पहली बार किसी जटिल भूत से पड़ा है जो ब्रह्मराक्षस से करोड़ों गुना ज्यादा ताकतवर है।इसके नये से नये वेरिएण्टों के धमाके उत्तर कोरिया से ज्यादा और जबरदस्त हैं।
इसलिए देहाती भाइयों और बहनों ने याददाश्त पर जोर लगाने के बजाय इन्हें आचार्य शुक्ल की तरह कोरोना के तमाम मौसेरे भाइयों के फुटकल खाते में दर्ज कर दिया है जो अनंत है ।कहने को वे इन्हें चचेरे  तहेरे फुफेरे ममेेरे भी कह सकते थे लेकिन मौसेरे की टक्कर में ये हल्के लगते हैं।मौसेरे की धज ही अलग है ध्वजा भी,घराना भी।पता नहीं आगे चलकर इस महान घराने में कोई ऐसा उस्ताद निकल आये जो समूची सृष्टि को ही निगल जाय।

शुकुल जी के आदर्श बाबा भी हरि अनंत हरि कथा अनंता कहकर एक तरफ हरि से पीछा छुड़ा लेते थे वहीं दूसरी तरफ आगामी कथावाचकों की भावी संभावनाओं का विशालकाय द्वार खोलकर रखते थे ताकि उन्हें तत्काल सूजी का हलवा न मिल जाय और थोड़ी मेहनत मशक्कत तो करनी पड़े।

कोरोना घराने को भी तलाश है किसी वेदव्यास की जो उसकी अनंत लहरों के इतिहास को दस्तावेज की तरह दर्ज कर सके ।भले ही वह अंत में नेति नेति कहकर जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ ले ,मिथ्या जगत में केवल कोरोना ही सत्य सिद्ध हो जाय ।अभी तक फेसबुक के छुटभैयों में यह क्षमता नहीं दिख रही कि वे यह महान कार्य सम्पन्न कर सकें।कल्कि अवतार की तरह कभी व्यास का अवतार ही भविष्य में  इसे पूरा करने में समर्थ होगा ।ऐसी आशा है ,आशंका नहीं।

#  शक्तिनगर, चंदौसी, संभल 244412
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Wednesday, January 5, 2022

राम और कृष्ण के बीच महायुद्ध

 राम और कृष्ण के बीच महायुद्ध


# मूलचन्द्र गौतम

मिथक और इतिहास भी अनेक बार समाज को धर्म संकट में डाल देते हैं धर्म संसद की तरह ।कहावत है कि युद्ध और प्रेम में सब जायज है।इस मान्यता ने ही सारा बबाल और जंजाल खड़ा कर दिया है।पहले थप्पड़ मारो फिर सॉरी बोल दो ।कुछ नहीं बिगड़ेगा लेकिन फायदा थप्पड़बाज का ही होगा ।वाकयुद्ध का सबसे उर्वर समय चुनाव होता है जो मुँह में आये भौंक दो ।सोचने समझने की जरूरत ही नहीं।जनता भी इस अंत्याक्षरी में पिटे हुए पहलवान का साथ नहीं देती ।इसलिए यहाँ हमेशा सोलह दूनी आठ होते हैं।इस मनोरंजन का मजा लेती है जनता तो झेलेगा कौन?

इतिहास गवाह है कि मिथकों की दुनिया में कुछ भी नामुमकिन नहीं।यहाँ अवढरदानी आशुतोष शिव हैं जो अपने ऊटपटांग वरदानों से दुनिया के सामने कोई भी मुश्किल खड़ी कर सकते हैं तो सृष्टि के रक्षक विष्णु किसी भी तरकीब से भस्मासुर की अपार विध्वंसक शक्तियों को निरर्थक बना सकते हैं।उन्हीं विष्णु के अवतारों में महा घमासान हो सकता है यह कोई सोच भी नहीं सकता।कभी भी कोई भी परस्पर परमप्रिय आमने सामने आ सकते हैं।कृष्णार्जुन युद्ध अकल्पनीय था लेकिन नौबत आ ही गयी यह बात अलग है कि वह टल गयी अन्यथा......।

यही हाल कलिकाल में चुनावों का है।दलबदलू लोकतंत्र में एक से बढ़कर एक नजारे देखने को मिलते हैं।कल तक हम प्याला हम निवाला रहे दोस्त जानी दुश्मन बने नजर आते हैं तो एक दूसरे को आँख उठाकर भी न देखने वाले दुश्मन सात जनम तक साथ निभाने की कसमों के साथ गलबहियां डाले दिखते हैं।विरुद्धों के इसी सामंजस्य ने लोकतंत्र में अचूक अवसरवाद को कालातीत कला में परिवर्तित कर दिया है।यह तलवार की धार पर चलने से कहीं ज्यादा खतरनाक खेल है।

हाल ही में त्रेता और द्वापरयुग के महानायकों को आमने सामने खड़ा कर दिया गया है।बारह और सोलह कलाओं के बीच कौन जीतेगा यह भविष्य के गर्भ में छिपा है।इस जैविक और रासायनिक युद्ध में सब कुछ दाँव पर लगा है।युधिष्ठिर की कोई प्रतिष्ठा नहीं रह गयी है।कलियुगी युधिष्ठिर आद्यंत झूठ बोलने में माहिर है।झूठ की इस माया को काटने की कोई युक्ति नहीं बची है।रामभक्त बाबा खुलेआम कह सकते थे कि तुलसी मस्तक तब नवै जब धनुष बाण लेउ हाथ जबकि उन्हें मालूम था कि सुदर्शन चक्र का मिसाइल धनुष बाण से ज्यादा असरदार है।दोनों महारथी हैं लेकिन कलिकाल तो कलिकाल है।रावण और कंस से लड़ाई आसान थी क्योंकि मामला साफ था और दुश्मन सामने था ।अब तो अठारह अक्षौहिणी भी कम पड़ जायेगी।यहाँ तो संत असंत की परिभाषा और फर्क लुप्तप्राय है।अब सीकरी से निरपेक्ष संत गायब हैं।बाबा को पहले ही यह अंदेशा था जोअब संदेशा बन चुका है।तय करो इस महायुद्ध में किस ओर हो तुम ?क्योंकि बीच का रास्ता कोई रास्ता नहीं होता।
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