Saturday, September 30, 2017

नाम बड़े और दर्शन छोटे


# मूलचन्द्र गौतम
शेक्सपियर के लिए भले ही नाम में कुछ न रखा हो लेकिन भारत में नाम ही सब कुछ है .शेक्सपियर के नाटकों के पश्चिमी समाज के षड्यंत्र और हिंसा भारत में भले ज्यों के त्यों लागू होते हों लेकिन आज भी नाम मनुस्मृति और तुलसीदास के हिसाब किताब से चलता है –कलियुग केवल नाम अधारा. नाम रखने ,चलाने और कमाने में फर्क है .अब नाम ब्राण्ड हो चुका है जो बिकता है या चुक जाता है ,दिवालिया हो जाता है .नटवरलाल टाइप नाम आपराधिक धारा चार सौ बीस के पर्याय हो जाते हैं और कुछ महामानव हो जाते हैं .वर्चस्व की जंग में हिंसा और हत्या से नाम नेस्तनाबूद करने की कोशिशें भी की जाती हैं लेकिन उनसे  शरीर भले नष्ट हो जाता हो नाम अमर हो जाता है . भावी पीढ़ियों के लिए इतिहास में इन्हीं नायकों की महागाथाएं सुरक्षित रखी जाती हैं .नायक और खलनायकों की यह जंग ही तमाम महाकाव्यात्मक आख्यानों को जन्म देती है .सत्ता के बदलाव के साथ ही अपराधी खलनायक महानायक हो जाते हैं .
वर्णव्यवस्था  और धर्म को कोसने वाले आज भी इनके मकडजाल से मुक्त नहीं हो पा रहे .जाति का जंजाल और संजाल जीव को इतना जकड़ देता है कि ज्यों ज्यों सुरझि भज्यो चहत त्यों त्यों उरझत जात.कितने ही दलित ताउम्र चिपक जाने वाली इस गंदगी से बचने को ईसाई और बौद्ध हो गये लेकिन अंत तक पीछा छुड़ाने में असफल और असमर्थ रहे . लोग कहीं न कहीं से उनके मूलाधार को खोज ही लेते थे .नामकरण के पीछे छिपे मनोविज्ञान में वर्ण और जाति का हमेशा ध्यान रखा जाता था . नामकरण ब्राह्मणों का विशेषाधिकार था .ब्राह्मणों के नाम जहाँ ज्ञानसूचक होते थे तो क्षत्रियों के नाम बल और वीरतापूर्ण रखे जाते थे .वैश्यों के नाम धन और ऐश्वर्य से जुड़े होते थे वहीं शूद्रों के सेवा सूचक .होरी ,हल्कू ,गोबर ,धनिया ,गरीबदास ,सनीचर ,इतवारी आजीवन जीव से चिपके रहते थे और उनसे पीछा छुड़ाना असम्भव होता था . नाम के साथ उपनाम की महिमा और ज्यादा होती थी .लोग नाम को भूलकर उपनाम उर्फ़ निकनेम से ही आजीवन जाने जाते और काम चलाते थे .नाम जैसे पूरी पारिवारिक,सामाजिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट कर देता था क्योंकि उनका चुनाव करनेवाले जिस गड्ढे-कठघरे में लोगों को डाल देते थे वही उनकी नियति बन जाता था .महिलाओं की स्थिति इस मामले में और भी बुरी थी .उनके सामने तो नियति और दुर्गति को बदलने का कोई विकल्प ही नहीं था . पति के पेशे और जाति का अनुसरण उनकी मजबूरी थी और आज भी है .उनकी कोई स्वतंत्र अस्मिता नहीं थी . आज भी अलग जातियों में विवाह के बाद भी पितृ परिवार से उनका सम्बन्ध समाप्त हो जाता है . महानगरों में जन्मी नई कालोनी और सोसाइटी कल्चर ने तो नाम की जगह नम्बर को प्रतिष्ठित कर दिया है .जिन्दगी भर पडौसियों को नाम के बजाय नम्बर से ही जाना जाता है .कभी कभी तो नाम पूछने पर भकुआए से देखते हैं अरे उनका यह नाम है हमें तो पता ही नहीं था . अतीत में अलबत्ता बुराई सूचक नामों से बचा जाता था मसलन राक्षसों और बुरे लोगों के नाम प्राय: नहीं रखे जाते थे .रावण ,कुंभकर्ण,मेघनाद,विभीषण ,मन्दोदरी ,त्रिजटा या दुर्योधन ,दुशासन ,कैकेयी ,मंथरा इत्यादि आज तक प्रचलन में नहीं हैं .अब उत्तराधुनिकता के विमर्श और पाठ ने स्थिति को शीर्षासन करा दिया है .खलनायकों के समर्थक अब खुलकर सामने आने लगे हैं .अस्मितामूलक विमर्श ने अपमान को सम्मान में बदलना शुरू कर दिया है .बौद्ध होकर दलितों को एक नई पहचान मिली है .जबकि बहुत से वर्ग अभी तक हाशिये पर खड़े खड़े अपनी बारी और पारी का इन्तजार कर रहे हैं कि वोट की जातिवादी राजनीति में उनका हिस्सा कब तय होगा ?
भारत के साथ समूचे दक्षिण पूर्व एशिया में नाम बदलने की संक्रामक बीमारी फैली हुई है .ऐतिहासिक चम्पा द्वीप लाओस ,स्याम थाईलैंड ,बर्मा म्यामार ,रंगून यंगून .....में बदल चुके हैं .इतिहास अप्रासंगिक ही नहीं निरर्थक हो चुका है .
यथा नाम तथा गुण की तर्ज पर रखे जाने वाले नामों को बदलने की कोशिश कब से शुरू हुई इसके ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं .वर्तमान में संस्कृत के तत्सम नाम रखे जाने का फैशन जोर पकड़ रहा है .इसलिए घसीटा ,खचेडू इत्यादि बुरे नामों से बच्चों का पीछा छूट रहा है . जन्म की राशि और नक्षत्र के अनुसार कुंडली का  नाम रखना अब जरूरी नहीं है अंग्रेजी ने इन्हें थोडा सम्मानजनक बना दिया है .अब जी राम घसीटा राम नहीं रह गया है .ऐसे अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं .
मनुष्यों की तरह गाँव ,शहरों ,मुहल्लों ,सड़कों के नामों का भी एक इतिहास होता है जो प्रेत की तरह पीछा नहीं छोड़ता .राजनीति के बदलने पर इस विकृत इतिहास से पीछा छुड़ाने की कोशिशें होती हैं ,जिसके तहत कलकत्ता कोलकाता,मद्रास चेन्नई ,बम्बई मुंबई किये जाते हैं लेकिन बोलचाल के मुहावरे और प्रचलन में बदलाव नहीं आ पाता .उत्तर प्रदेश में बसपा ने  सत्ता के दौर में  वर्चस्व की राजनीति के तहत अनेक नये जिलों , विश्वविद्यालयों के नाम बदले जो जनता के लिए सिरदर्द ही साबित हुए .आज तक उनका इतिहास भूगोल परिचित नहीं हो पाया है .अमरोहा ज्योतिबाफुलेनगर और हाथरस महामायानगर नहीं हो पाया है .....अब भाजपा ने  भी नाम बदलने की इस राजनीति के माध्यम से पुराने इतिहास से पीछा छुड़ाकर नया इतिहास रचने की कोशिश की है . मुगलिया सल्तनत के इतिहास को क्या बाबरी मस्जिद की तरह ध्वस्त किया जा सकता है ?यह सवाल हिमालय की तरह सामने खड़ा है .धर्म और सभ्यताओं का यह संघर्ष क्या विश्व इतिहास का दुस्वप्न साबित होगा ? देश की आजादी के आंदोलनों के नायकों को अपदस्थ करना क्या इतना आसान होगा ? ऊँची दुकान फीका पकवान की तरह जनता इन टोटकों और जुमलों की असलियत बहुत जल्द पहचान जाती है .माना कि जनता की स्मृति क्षीण होती है और बड़ी बड़ी दुर्घटनाएं जल्द विस्मृति के गर्भ में विलीन हो जाती हैं लेकिन फिर भी जनस्मृति को एकदम मिटाया और नष्ट नहीं किया जा सकता .क्षणिक भावावेश और प्रयासों को  स्थायी सामूहिक निर्णयों में नहीं बदला जा सकता . विश्व में वर्चस्व की इस जंग को जीतने के लिए फिर से नागासाकी और हिरोशिमा को और अधिक भयावह रूप में दोहराया जायेगा ?भारत में रेसकोर्स लोककल्याण मार्ग हो गया है .मुगलसराय दीनदयाल नगर इत्यादि इत्यादि.प्रधानमन्त्री प्रधानसेवक नहीं हो पाया है . लालबत्ती की धमक कायम है .अलबत्ता राष्ट्रपति  देश का प्रथम नागरिक ज्यों का त्यों है और वैसा ही उसका औपनिवेशिक ताम झाम .अंग्रेजी देश की प्रथम राजभाषा है क्योंकि उसके बिना प्रशासन ,न्याय व्यवस्था ,शिक्षा का काम नहीं चल सकता .नाम बदलना जितना आसान है संविधान और काम बदलना उतना ही जटिल और मुश्किल .पुरानी पटरी पर चलने की आदी व्यवस्था के लिए नयी पटरियां रातोंरात तैयार नहीं हो सकतीं . इतिहास और विचारधारा का अंत तमाम हो हल्ले के बावजूद इतना आसान नहीं होता .इतिहास का ब्रह्मराक्षस आसानी से पीछा नहीं छोड़ता .इतनी क्रांतिकारी इच्छाशक्ति  लोकतंत्र में असम्भव है .फिर भी उम्मीद पर दुनिया कायम है शायद कभी ऐसा हो पाये ?
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