Thursday, July 30, 2015

कोफ़्त के साथ कोफ़्ता


जबसे मिड डे मील में देहाती बच्चों को दूध के साथ कोफ़्ता मिलने लगा है वे स्कूल नहीं आ रहे ,इससे मुझे क्या पूरी सरकार को चिंता होने लगी है कि आखिर ये भूखे नंगे क्या खाकर संतुष्ट होंगे .पहले इनके खाने में कीड़े मकोड़े निकल रहे थे और अब कैमिकल .अंडा दिया गया तो ये बिदक गये कि यह मांसाहार है .सरकारी स्कूलों से बच्चों को भगाने के और कौन से उपाय किये जाने चाहिए इसके लिए सरकार ने एक कमेटी गठित कर दी है .मुफ्तखोरों को चन्दन लगाना भी रास नहीं आ रहा और ये मीडिया है कि लगातार खबरें छाप रहा है कि दूध पीने से कुपोषित बच्चे सामूहिक रूप से बीमार हो रहे हैं .कोफ्ता फ़िलहाल मुल्तवी है क्योंकि उसे बनाने वाले ही नहीं मिल रहे .देहाती रसोइयों को पल्ले ही नहीं पड़ रहा कि यह कोफ़्ता भला किस बला –अबला का नाम है .हिन्दू इसे मुसलमान डिश समझ रहे हैं और मियां भाई इसे पोलियो की दवा .
इसीलिए आंगनवाडी की पंजीरी भैसों को खिलाई जा रही है .मीठे कट्टे वाली आंटी को भैंसों से कोई शिकायत नहीं मिल रही. उनका दुग्ध उत्पादन बढ़ गया है और उनके गर्भस्थ शिशु स्वस्थ पैदा हो रहे हैं .दे उसका भी भला और न दे उसका भी भला तो फिर भला क्यों किया जाये ?समझदार नेताओं  ने जनता और जानवरों में फर्क करना बंद कर दिया है .  इसलिए विश्व बैंक के कर्ज का पूरा माल जानवरों में तकसीम किया जा रहा है .
पडौस में रहने वाले एक उर्दू शायर से जब मैंने पूछा कि यह कोफ्ता कहाँ से आया तो उन्होंने पहले तो कहा –ला हौल बिला कुब्बत फिर बोले कि मुझसे ऐसे सवाल क़िबला क्यों पूछ रहे हो मुझे बड़ी कोफ़्त हो रही है .तो मैं धीरे –धीरे कोफ़्ते के नजदीक पहुंचा हुआ महसूस करने लगा .मैंने जान लिया कि यह कोफ़्ता जरुर कोफ़्त का बड़ा भाई होगा . मलाई कोफ्ता तो कोफ़्त का दामाद होता होगा . जैसे पूड़ी से बड़ी मलाई पूड़ी .इससे तो अच्छा होता सरकार इन नामुरादों में पनीर बंटवा देती .पनीर का नाम सुनते ही बड़े –बड़ों के मुंह में पानी आने लगता है और यह शाही हो तो क्या कहने ?आदमी इसे खाकर खुद को शहंशाह से कम नहीं समझता .कमेटी को चाहिए कि अब देहाती स्कूलों को स्मार्ट बनाने के लिए उन्हें फाइव स्टार का दर्जा दे दे और उनका मीनू संसद की कैंटीन की तरह हाई –फाई नहीं तो कमसे कम वाई फाई ही कर दे .

Tuesday, July 14, 2015

पराया माल अपना

# मूलचन्द्र गौतम
बाबा पूरी जिन्दगी कलिकाल से परेशान रहे और मरते दम आगे आने वालों को भी सावधान कर गये .उन्होंने तो लंकाकांड के बाद ही कथा को खत्म कर देने का प्लान बना लिया था लेकिन उन्हें लगा कि रामकथा के साथ कुछ आत्मकथा –आत्मानुभव भी होना चाहिए ताकि रामभक्त पहले से ही कलिकाल की भयंकरता का अनुमान लगाकर उससे बच सकें .यही अनुभव उत्तरकांड में मौजूद हैं जिनकी नकल पर उत्तर आधुनिकता का निर्माण हुआ है .उनके कथाव्यासों ने रामकथा के व्यापार को ही अरबों तक पंहुचा दिया है जिसकी कल्पना भी उन्होंने नहीं की थी . अब फटाफट  क्रिकेट और रामकथा की आमदनी बराबर है . इससे  रावण की  कालेधन की सोने की लंका और राम की अयोध्या का फर्क ही गायब हो गया है .कालेधन के उपासकों का एक ही लक्ष्य है –राम नाम जपना पराया माल अपना या मुंह में राम बगल में छुरी.रामनामी की आड़ में छिपे व्यभिचारी –बलात्कारी –चोर डाकू .कलिकाल यानी घोटाला काल .
यों तो तमाम संतों ने आचरण की शुद्धता पर जोर दिया था लेकिन कबीर और तुलसी ने ढोंगी –पाखंडियों को सबसे ज्यादा फटकारा था .कथनी और कथनी की एकता न हो तो रामराज्य का कोई मतलब नहीं है जबकि इनका फर्क ही कलिकाल की बुनियाद है .सोइ सयान जो परधन हारी -कलिकाल के सयानों का मुख्य कार्य और कार्यक्रम है .यह चाहे कैसे भी आये .गांधीजी अब पिछड़ेपन के प्रतीक मात्र हैं जो विकास के साधनों में भी शुद्धता की चाहत रखते थे .उन्हें चुनाव लड़ना पड़ता तो पता चलता कि उनकी जमानत जब्त हो गयी और यह केवल एक जुमला है जिसे कभी हकीकत नहीं बनना है .जनता को मूर्ख बनाने का एक हथकंडा मात्र .इसीलिए आज उनका नाम देश की मजबूरी बन चुका है जिसे सिर्फ साख बनाने  का दिखावा करने भर के लिए इस्तेमाल किया जाता है .
सतयुगी संतों के एक सर्वे में यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि देश में  रामराज्य और राममन्दिर की स्थापना के लिए चुनाव हमेशा के लिए स्थगित कर दिए जाने चाहिए क्योंकि समस्त अनाचार –भ्रष्टाचार की जड़ में यही हैं जिनके लिए पार्टियाँ क्या –क्या नहीं करती हैं .कालेधन की अर्थ व्यवस्था में चुनावों का महत्वपूर्ण रोल है .इसी के लिए देश के  चरित्रवान  नेताओं को कोतवाली से लेकर मंत्रालय,कोयला ,हवा ,पानी ,आकाश  तक नीलाम करने पड़ते हैं .विदेशों में गली –गली जाकर देश बेचना पड़ता है –आओ निवेश करो और हमें लूटकर ले जाओ .
# शक्तिनगर, चन्दौसी, संभल 244412
मोबाइल 8218636741

Tuesday, July 7, 2015

राजभाषा :पारिभाषिक शब्दकोश और हिंदी की यांत्रिक हत्या



देश की तथाकथित विभक्त आजादी ने ,आजादी के लिए संघर्षरत गाँधी सहित तमाम विचार और आंदोलनों को अप्रासंगिक बना दिया था .शिक्षा ,भाषा और संस्कृति के साथ भी यही छल हुआ था और दुर्भाग्यवश यह स्थिति आज भी जारी है .हिंदी ,हिन्दू,हिंदुस्तान की भावना और धारणा केवल नारेबाजी और जुमले तक सीमित रह गयी है .गांधीजी के साथ हिंदी की हत्या हो चुकी है ,हिन्दू साम्प्रदायिक समाज हो गया है और हिंदुस्तान स्मार्ट इंडिया में तब्दील हो चुका है और भारत की भारतीयता अजनबी और विखंडित हो चुकी है .घोटालेबाज ,धोखेबाज ,भ्रष्ट नेता भारत भाग्य विधाता बन गये हैं .राजनीति से नैतिकता गायब हो गयी है .
 अगर यह एक परम निराश –हताश नागरिक की प्रतिक्रिया मानी जाय तो राहत है लेकिन वास्तविकता यही है तो इस जटिल समस्या का हल क्या है ?क्या यह मानकर चुप रहें कि जल्दी सतयुग आएगा .धन्य है भारतीय जनता की जिजीविषा जिसे नमन करने को मन करता है .घोर रौरव नरक में भी स्वर्ग का सुहाना सपना पाले रहने का साहस और भरम . देश का बड़ा नेता बड़े आराम से कहकर बच निकलता है कि उसके पास जादू की छड़ी नहीं जिसे घुमाते ही तमाम समस्याएं छूमंतर हो जाएँगी .किसी को इन्हें ठीक करने के लिए पांच साल चाहिए तो किसी को दस या बीस .साठ साल बनाम साठ दिन जबकि मसला सिर्फ साठ मिनट का है . सवाल इच्छाशक्ति का है जो चुनाव से पहले तो दिखाई देती है लेकिन चुनाव जीतते ही  गधे के सिर से सींगों की तरह गायब हो जाती है .बदलाव की सारी कवायद यथास्थिति के पक्ष में ही नहीं बल्कि उससे बदतर स्थिति में पहुँच जाती है .
फ़िलहाल इस पूरे परिदृश्य को छोडकर केवल राजभाषा हिंदी की सम्वैधानिक और वास्तविक स्थिति  पर ही चर्चा केन्द्रित की जाय तो भी निष्कर्ष कमोवेश वही निकलेंगे ,जो पूरे माहौल पर लागू होंगे .भाषा और सम्प्रदाय आपस में इतने गुंथे हुए हैं कि एक को दूसरे से अलग करना मुश्किल है .गांधीजी ने धर्म ,सम्प्रदाय और भाषा के इन अंतर्विरोधों के बीच जो मध्यमार्ग निकाल लिया था ,आजादी मिलते ही वह कमजोर पुल ध्वस्त हो गया और दरारें ही सामने नहीं आ गयीं बल्कि दिलों में हमेशा के लिए गांठें पड़ गयीं ,खाइयाँ खुद गयीं .गांधीजी खुद अंध हिंसा की  इस आग में झुलस गये ,होम हो गये .अगर थोड़े दिन इस विभक्त आजादी को स्थगित कर दिया जाता तो शायद देश का विभाजन रुक गया होता .साथ ही गांधीजी स्वयं प्रधानमन्त्री बने होते तो देश की दशा और दिशा कुछ अलग होती .इस विचार को केवल कल्पना की उडान मानकर नहीं रहा जा सकता .राजनीति में असम्भव कुछ भी नहीं होता .
देश की आजादी को सम्वैधानिक दर्जा दिलाने के लिए बनी अंग्रेजी में सम्विधान निर्मात्री सम्विधान सभा को सम्विधान के प्रकाशन से पहले देश की भाषा समस्या से जूझना था ,क्योंकि यहीं से नागरिकों की वास्तविक आजादी तय होनी थी .इसमें सबसे बड़ी बाधा हिंदी थी जो आजादी के आन्दोलन की मुख्य भाषा थी और सचमुच राष्ट्रभाषा और राजभाषा होने की एकमात्र अधिकारिणी थी और आजादी केवल अंग्रेजी शासन से ही नहीं अंग्रेजी भाषा से भी मुक्ति का आन्दोलन था . अंग्रेजों की तरह मैकाले के मानसपुत्र काले अंग्रेजों को  भी हिंदी नेटिवों से घृणा थी .वे नहीं चाहते थे कि ये और इनकी भाषा धंधे में बाधक बनें .गांधीजी यों ही वकीलों और डाक्टरों को जनविरोधी नहीं मानते थे .उन्हें मालूम था कि अंग्रेजी के कारण ही यह वर्ग जनता के खून –पसीने की कमाई को ठगता है और ठगता चला आ रहा है .देश के सर्वोच्च न्यायालय और चिकित्सा संस्थानों की भाषा को देखा जाय तो गांधीजी गलत नहीं थे .आज कोई भी राजनीतिक दल हो उसमें मुख्य कार्यकारी वकील और व्यापार-वाणिज्य विशषज्ञों का ही वर्चस्व है .गैर अंग्रेजी भाषी जनता को सिर्फ इन्हें वोट देने का अधिकार है .इसीलिए नकली धर्मनिरपेक्षता का विकल्प नकली राष्ट्रवाद नहीं हो सकता जब तक कि बुनियादी बदलाव न हो .
गांधीजी के चिन्तन के मूल में शासन और सत्ता की बुनियाद को बदला था लेकिन दुर्भाग्यवश औपनिवेशिकता की पुरानी बुनियाद इतनी मजबूत थी कि बड़े से बड़े तीसमारखां उसे नेस्तनाबूद करना तो दूर आज तक हिला नहीं पाए हैं बल्कि यह दिनोंदिन और अधिक मजबूत होती जा रही है .पुराने गिरमिटिया नये टेक्नोकुलियों में भले बदल गये हों और फिर भी राष्ट्रपति रोज कहते रहते हों कि देश का कोई विश्वविद्यालय विश्व के दो सौ विश्वविद्यालयों में नहीं आता .कुली देश के नायक नहीं हो सकते जैसे व्यापारी देश के नायक नहीं हो सकते .
यह भारत का दुर्भाग्य था जब गांधीजी ने नेहरूजी को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी चुना .इसी हिमालय जैसी भूल से देश की दिशा ही  नहीं बदल गयी बल्कि उत्तराधिकारी चुनने वाले राष्ट्रपिता  के तमाम संकल्पों को शीर्षासन करा दिया गया और वह एक खब्ती बुड्ढ़े में तब्दील हो गया जो खुद देश के लिए समस्या बन गया .यह तो अच्छा हुआ कि भाई लोगों ने उसे ठिकाने लगा दिया वरना वह देश की दूसरी आजादी दिलाने के लिए एक नई पार्टी बना लेता और काले अंग्रेजों के खिलाफ एक नया  आन्दोलन छेड़ देता .यह बात अलग है कुछ कुजात गांधीवादियों ने गाँधीजी की अनमोल विरासत को बचाने के लिए खिचड़ी विप्लवनुमा  कुछ असफल प्रयास किये . भले आपात्काल के बाद की राजनीति को दूसरी आजादी कहने वाले अति उत्साहीलाल तमाम घोटालों में रंगे हाथों गिरफ्तार हुए लेकिन देश की रफ्तार है रुकने का नाम नहीं लेती ?
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तो देश के सम्विधान विशेषज्ञों को लगा कि किसी देशव्यापी बवाल से बचना है तो सबसे पहले भाषा के पचड़ों से निकले का रास्ता निकालो.  गांधीजी जिस हिन्दुस्तानी की बात करते थे ,उसे राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जा सकता था ..इससे बचने के लिए ही  26 जनवरी 1950 से पहले 14 सितम्बर 1949 को हिंदी को देश की राजभाषा घोषित कर दिया गया ,इस शर्त के साथ कि 15 वर्षों तक अंग्रेजी सह राजभाषा बनी रहेगी ,जब तक कि वह पूरी तरह राजभाषा होने के योग्य नहीं हो जाती .यानी पर्दे के आगे रानी और पर्दे के पीछे नौकरानी .इस मसले को सम्विधान की अनेक धाराओं और उपधाराओं में विभक्त कर दिया गया कि जनता भ्रमित हो गयी कि आखिर देश की राजभाषा है क्या ? फिर 14 सितम्बर को हिंदी दिवस घोषित करके इस रहस्य को और गहरा कर दिया गया कि देश में हिंदी का बड़ा सम्मान है .इस दिन को समझदार  राष्ट्रप्रेमियों  ने  हिंदी का श्राद्धदिवस घोषित कर दिया और हिंदी के पंडे ,पुरोहितों ,गिद्ध ,कौओं को दान –दक्षिणा सहित महाभोज की भरपूर व्यवस्था करा दी जो आज भी जारी है .मातृभाषा के भोज में आखिर वंशानुगत  पौत्र-पुत्रियों ने जमकर खाया –पिया .दो –दो मंत्रालय उसे मिल गये –गृह और मानव संसाधन –यानी दान भी अनुदान भी . राजभाषा विभाग और केन्द्रीय हिंदी निदेशालय ने तकनीकी वैज्ञानिक शब्दावली आयोग और ऐसी ही तमाम यांत्रिक योजनाओं से हिंदी की जो श्री वृद्धि की है उसे देश जानता है .आज तक हिंदी अधिकारियों की फ़ौज इसमें मौज लेने के अलावा कुछ नहीं कर पाई.और इस महान श्रम की खूबी यह कि जिसने भी इन शब्दकोशों की मदद ली वही चिल्ला उठा कि इन कंकड़ –पत्थरों से जूझने के बजाय अंग्रेजी कहीं ज्यादा आसान है .सरकार ने इन कोशों के निर्माण के बाद आज तक  इन्हें लगातार अद्यतन करने की न कोई व्यवस्था की ,न जरूरत समझी .जबकि अंग्रेजी की मामूली सी डिक्शनरी हिंदी सहित तमाम भाषाओँ के प्रचलित शब्दों को अपने में समाहित करती चली जा रही है .हमारे शुद्धतावादी हिंगलिश तो छोडिये हिंदी की बोलियों के प्रयोग  से ही मुंह बिगाड़ लेते हैं और उनके सम्विधान की आठवीं अनुसूची में दाखिल होते ही हिंदी को तोड़ने का हल्ला मचाने लगते हैं .इस मामले में गरीब किसान –मजदूरों के हिमायती  भारतीय वामपंथी दलों का अंग्रेजी प्रेम किसी से छिपा नहीं है .इसीलिए हिंदी क्षेत्र में उनके नामलेवा भी इक्का –दुक्का रह गये हैं . डॉ. रामविलास शर्मा जिन्दगी भर चिल्लाते रहे हिंदी की जातीय एकता के लिए ,लेकिन कुछ नहीं हुआ .उन्हें संघी खेमे तक में धकेलने की कोशिशें हुईं लेकिन परिणाम शून्य .
संयुक्त राष्ट्र महासभा में विदेश मंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के हिंदी भाषण को बड़े राष्ट्रीय सम्मान और अस्मिता  से जोड़ा गया .हाल ही में देश के प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी की हिंदी वक्तृता की बड़ी धूम रही लेकिन क्या इतने भर से हिंदी विश्वभाषा बन गयी . सरकारी विश्व हिंदी सम्मेलनों से क्या देश में हिंदी प्रतिष्ठित हो गयी ?अब तो हर अल्लू –पल्लू विश्व हिंदी सम्मेलनों के नाम पर हिंदी पर्यटन करा रहे हैं .हिंदी का हल्ला गुल्ला जितना बढ़ रहा है देश में अंग्रेजी स्कूल उससे ज्यादा गति से बढ़ रहे हैं .श्यामरुद्र पाठक जैसे लोग जान दे दें ,संघ लोक सेवा आयोग हिंदी को प्रथम भाषा नहीं मानेगा .अनुवाद में उसकी ऐसी तैसी की जाती रहेगी .
बहरहाल हिंदी को राजकाज की भाषा न होना था ,न होने देना था .दक्षिण भारतीय राजनेताओं को जो वर्चस्व अंग्रेजी से मिलना था ,हिंदी से उसके छिनने का डर था .सो हिंदी साम्राज्यवाद का हल्ला .नेताओं को बहाना पूरे देश की सहमति के बिना कैसे लागू हो सकती है हिंदी . आज भी देश के  सुप्रीमकोर्ट में अंग्रेजी पहले नम्बर की भाषा है ,हिंदी अनुवाद में कोई याचिका दाखिल कर भी दे तो अंग्रेजी की प्रामाणिकता असंदिग्ध .
दुर्भाग्य यह कि  इससे पहले 1948 में ही डॉ. राधाकृष्णन आयोग यह बता चुका था कि-अंग्रेजी का प्रयोग लोगों को दो राष्ट्रों में विभक्त करता है –मुट्ठी भर वे लोग जो शासन करते हैं और बहुत सारे वे लोग जिन पर शासन किया जाता है .यह लोकतंत्र के विरुद्ध है .....इस गोबर पट्टी के मुर्दे चैन से सोये पड़े हैं –साधो यह मुर्दों का गाँव .इंडिया और भारत की यह बहस आज भी जारी है . लोहियाजी के बाद कोई नेता जनता की भाषा के साथ घटी इस दुर्घटना की कोई चर्चा नहीं करता .

संघों के इस गणराज्य में भाषावार प्रान्तों के गठन में भी हिंदी भाषी प्रान्तों को विखंडित किया गया .अंग्रेजी साम्राज्यवाद को हिंदी जाति से भय था तो क्या आजादी के बाद भारतीय सरकारें भी भयग्रस्त रहीं .हिंदी को उसकी बोलियों के विरुद्ध खड़ा करके कौन से महान उद्देश्य सिद्ध किये जा रहे हैं ?विश्व में बोलने वालों की संख्या के आधार पर विश्व की चौथी भाषा अपने देश में ही प्रतिष्ठित नहीं है तो विश्व में उसे कौन पूछेगा ?क्या बहुराष्ट्रीय कम्पनियां उसे प्रतिष्ठित करेंगी जिन्हें अपने हिन्दीभाषी उपभोक्ताओं तक पहुंचने के लिए हिंदी की जरूरत है . यह हिंदी पारिभाषिक यांत्रिक शब्दकोशों की मृत हिंदी तो नहीं हो सकती . उनके लिए व्यापार और व्यवहार की हिंदी का उपयोग ही सार्थक है .दरअसल हिंदी को खतरा हिन्दीभाषी जनता के बजाय  उसके नीम हकीम अधकचरे विद्वानों से ज्यादा है .राजभाषा के नाम पर मिलनेवाली अनुदान की मोटी राशियों को यही तरह –तरह से हजम कर जाते हैं और अंग्रेजी का वर्चस्व यथावत कायम रहता है .यही कारण है कि भाषाई औपनिवेशिकता से भारत मुक्त नहीं हो पाता.तब स्वतंत्र शिक्षा और संस्कृति स्वाभिमान के बजाय पिछलग्गू बने रहने में ही सारी शक्ति लगा देती है और हम अपने आकाओं को नट-बाजीगरों की तरह तमाशे दिखा –दिखाकर तारीफें और तमगे हासिल करके खुश होते रहते हैं .
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 हिंदी भाषा और पूरे देश का साहित्यिक –सांस्कृतिक संघर्ष आजादी के समूचे आन्दोलन से नाभि –नालबद्ध है .गांधीजी से काफी पहले से साहित्य में आजादी की गूँज मौजूद रही है .लेखकों ने अंग्रेजी सत्ता के दबावों को अपने सीने पर झेला था .पत्र –पत्रिकाओं पर प्रतिबन्ध के साथ जेल यात्रायें आम थीं .भारतेंदु की निज भाषा की धारणा  पूरे समाज के विकास की बुनियाद थी .इसमें उस दौर के तमाम धार्मिक –सांस्कृतिक पुनर्जागरण के पुरोधाओं का भी योगदान था .और यह धारा समस्त भारतीय भाषाओँ के साहित्य में  आजादी तक लगातार सक्रिय थी .इसी एकता ने देश को एकसूत्र में पिरो दिया था .वंदेमातरम् केवल नारा नहीं था –सरफरोशी की तमन्ना थी .हिंदी और हिदोस्तां एक दुसरे के पर्याय थे .
हिंदी को लेकर चले पूरे विचार विमर्श के अतीत पर गौर किया जाय तो कहीं भी उसके विरोध का कोई आभास तक नहीं मिलता ,बल्कि हिंदी –उर्दू के बीच लिपि तक का कोई मसला नहीं था .हिन्दुस्तानी में  हिन्दू –मुसलमान की तरह दोनों शामिल मानी जाती थीं .गंगा जमुनी तहजीब के अलग –अलग रंग और रूप नहीं थे .हिन्द स्वराज में 1909 में ही गांधीजी ने तय कर लिया था कि वे जनता के दुश्मन हैं जो अंग्रेजी के माध्यम से शिक्षा दे रहे हैं .मैकाले की शिक्षा नीति का उन्होंने डटकर विरोध किया .उनके लिए अंग्रेजी भाषा में दी जाने वाली शिक्षा गुलामी का मुख्य कारण थी जो शरीर से ज्यादा दिमागी गुलामी की जड़ थी .उन्होंने साफ लिखा कि’अंग्रेजी शिक्षा लेकर हमने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है .अंग्रेजी शिक्षा से दंभ,जुल्म बढ़े हैं .अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में ,उसे परेशान करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है –पृष्ठ -90-91.दुनिया से कह दो गाँधी अंग्रेजी भूल गया का उद्घोष क्या महज लफ्फाजी थी ?यही नहीं उन्होंने 1931 में स्वराज के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहा कि-यदि स्वराज अंग्रेजी पढ़े भारतवासियों का है और केवल उनके लिए है तो सम्पर्क भाषा अवश्य अंग्रेजी होगी .यदि वह करोड़ों भूखे लोगों ,करोड़ों निरक्षर लोगों ,निरक्षर स्त्रियों ,सताये हुए अछूतों के लिए है तो सम्पर्क भाषा केवल हिंदी हो सकती है .-थॉट्स ऑन नेशनल लेंग्वेज पृष्ठ-31.यही नहीं अंतिम सत्य की तरह इस साधक ने आगाह किया कि जो लोग अपनी भाषा छोड़ देते हैं, वे देशद्रोही हैं और जनता के प्रति विश्वासघात करते हैं –वही ,पृष्ठ 189.सौ से ज्यादा सालों के बाद देश किस  दिशा में बढ़ा यह कोई छिपा हुआ रहस्य नहीं है .
इन तथ्यों के मद्देनजर अगर रिजले और  गांधीजी के सुयोग्य उत्तराधिकारी नेहरूजी के  भाषा सम्बन्धी विचारों को देखा जाय तो  दोनों में फर्क साफ नजर आएगा .रिजले लिख रहे थे कि यह सम्भव है कि-यद्यपि सम्भावना दूर भविष्य की है ..कि शायद अंग्रेजी ही भारत की राष्ट्रभाषा बनेगी .यह सम्भावना अब कटुसत्य की तरह सामने है .इसी तरह नेहरूजी ने सम्विधान सभा की भाषा सम्बन्धी बहसों में साफ कहा-आप इस बात को प्रस्ताव में लिखें ,चाहे न लिखें ,अंग्रेजी लाजिमी तौर से भारत में बहुत महत्वपूर्ण भाषा बनकर रहेगी ,जिसे बहुत लोग सीखेंगे और शायद उन्हें उसे जबरन सीखना होगा .
कहने की जरूरत नहीं कि इसके बाद ही हिंदी को बरायेनाम राजभाषा बनाकर अंग्रेजी को आगे बढ़ाने का सम्वैधानिक मार्ग तैयार किया गया जो आज भी जारी है .