Friday, May 30, 2014

काठ की हांड़ी और चौहान साब की चूक


राजनीति की तरह भाषा भी बेहद कुत्ती चीज है .कमान से निकला तीर और जुबान से निकला बयान लौट कर नहीं आता फिर आप लाख सफाई देते फिरें कि मेरा यह मतलब नहीं था या मीडिया अर्थ का अनर्थ कर रहा है .मुहावरे और लोकोक्तियों की भी दुर्गति हो रही है .अचूक अवसरवादियों ने हर अवसर को भुनाने की कला में महारत हासिल कर ली है लेकिन फिर भी कुछ चौहान अब की बार चूक गये हैं जिसका उन्हें बेहद पछतावा है .पता नहीं कैसे वे अब की बार हवा का रुख पहचान नहीं पाए ?
ऐसे ही कई चौहान इस बार चुनाव के धंधे में दिवालिया हो गये हैं .उनका घर बार सब कुछ लुट चुका है .यहाँ तक कि कोई नामलेवा भी नहीं बचा है .बुरा हो मोदी का कि उनकी आखिरी हसरतें चौराहे पर दम तोड़ चुकी हैं और कफन -काँटी तक का इंतजाम चंदे से कराने की नौबत आ चुकी है .देश की नामुराद –नमकहराम जनता को इत्मीनान से कोसने के लिए वे स्विट्जरलैंड की ठंडी वादियों में चले गये हैं ताकि दिमागी दिवालिया होने से बचे रहें और उनकी काली कमाई बची रहे .
दरअसल उन्हें इस देश के भावुक मूर्खों से पहले से ही नफरत रही है ,इसीलिए उन्हें देश में धुले हुए कपड़े तक पसंद नहीं आते थे . उनके फोड़े –फुंसी तक का इलाज अमरीका में होता है .इन्हीं जाहिल –गंवारों ने उनका भट्टा बैठा दिया है .यहाँ तक कि  उनके देवता श्मशानवासी शिव तक उनके खिलाफ हो गये .ये जटाजूटधारी बदबूदार गंजेड़ी –भंगेड़ी उन्हें पहले ही पसंद नहीं था और अब तो वह खुलकर नंगे भूत -प्रेतों के साथ है .क्षीरसागर में लेटे कमलनाथ तक को पसंद नहीं आई है उनकी यह फूहड़ पसंद .लक्ष्मी जी के ड्राइवर उल्लूनाथ को तो यह  परिणाम पहले से पता था .शेषनाग ने भी अबकी बार सर हिलाकर मना कर दिया था कि चुप रहो –जमानत बचाने तक के लाले पड़ जायेंगे .कृष्ण के वंशज तक बचाने नहीं आयेंगे .अब वे उतने अंधक –बंधक नहीं रहे कि कोई अललटप्पू उन्हें हांक ले जाये.
मैंने पहले ही उन्हें समझाया कि काठ की हांड़ी एक बार भी बहुत मुश्किल से काम कर पाती है और आप हैं कि इसे बार –बार आजमाने पर आमादा हैं .चूहे तक डूबते जहाज से सबसे पहले भागते हैं .लेकिन  आप अपनी अकड में डूबते जहाज में ही बैठे रहे ताकि आपको कोई चूहान न कहे.मैंने कहा कि इस बार   हांड़ी बदल लो लेकिन उन्होंने मेरी एक न सुनी .चमचों की भी कोई इज्जत –औकात होती है .दुनिया उन्हें यों ही मोटी –मोटी पगार देकर सलाहकार नहीं बनाती अब झेलो .नूरे चश्म और चश्मे चिरागों तक ने समझाया कि बुढौती की शादी जगहंसाई के अलावा कुछ नहीं होती लेकिन इश्क के डेंगू का डंक जिसे लग जाये वह एनडी हो जाता है .तो अब हो जाओ एनडी-फेंडी ...या जो चाहो हमारी बला स

Tuesday, May 6, 2014

कबन्धों का महाभारत


रामलीला और रासलीला तो देश में बारह महीनों चलती है लेकिन महाभारत सिर्फ चुनाव के मौसम में दिखाई देता है .इसे तटस्थ होकर सिर्फ दो लोग ही देख सकते हैं –एक संजय और दूसरे कृष्ण .कुछ लोगों ने संजय को द्वापर का दूरदर्शी पत्रकार माना था .यह नारदजी से  चाल ,चरित्र और चिन्तन में कुछ अलग था .एक तो इसने दोनों पक्षों में लगाई-बुझाई करके आग को ज्यादा भडकाया नहीं ,दूसरे निजी स्वार्थ को खबरों से अलग रखा .कल्पना कीजिये कि उस जमाने में पेड मीडिया होता तो क्या होता ?हिरोशिमा –नागासाकी का जनसंहार काबिले जिक्र तक न होता .

कुछ अति धार्मिक लोग जो आज भी राम वन गमन और लक्ष्मण को शक्ति लगने पर दहाड़ मारकर-बुक्का फाड़कर रोते हैं ,उनकी हालत तो बेहद खराब हो जाती .रामचरित मानस में जिन्होंने भी राम –रावण के महामायावी युद्ध का सजीव वर्णन पढ़ा है ,उनके  आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं .कलिकाल में यही दृश्य चुनाव लीला में दिखाई देते हैं .हजारों वीरों को अपनी शमशीर से प्रकम्पित करता हुआ वीर ,जरा से शिखंडी के सामने आते ही धराशायी हो जाता है .पहले जमाने में तो पितामह को उत्तरायण आते ही मुक्ति मिल गयी थी लेकिन आज के पितामहों को तो शरशैया ही नहीं छोड़ रही –कम्बल की तरह .पता नहीं उनका प्राण कहाँ अटका है . कलिकाल में इसीलिए जनता को यह सख्त ताकीद कर दी गयी कि घर में महाभारत की प्रति न रखें वर्ना घर में ही बावेला मच जायेगा .व्यासजी को भी इसी कारण श्रीमदभागवत की रचना करनी पड़ी ताकि लोग लीला में लगे रहें ,युद्ध से बचे रहें .रामलीला में भी विभीषण की तरह रावण की नाभि का भेद बताने वाला तक कोई नहीं है .ये विकीलीक्स,कोबरापोस्ट...सब फेल हो चुके हैं .
बाबा तुलसीदास भी कितने पागल थे कि उन्होंने बनारस के गली मुहल्लों के नाम तक रामलीला से जोड़ दिए .अब रामनगर को कोई नहीं पूछता . रामावतार काशीनरेश के कहने से कोई वोट नहीं देता .काशीनाथ तक खिसियाये हुए घूम रहे हैं –खीसें निपोरते हुए .जैसे त्रिनेत्र अपना त्रिशूल इन्हीं को थमा गये थे .
यानी कुल मिलाकर लुब्बोलुबाव यह है कि जान आफत में है .वानरदल खोंखियाया हुआ घूम रहा है ,संकटमोचन को कोई हल नहीं दिख रहा –समस्या का .बुरा हो अयोध्या का अपना बवाल काशी के मत्थे मढ दिया .वोटर माया से भ्रमित है .उसे मार्ग नहीं दिख रहा .बुद्ध की तपस्थली से भी कोई मध्यमार्ग दिखाई नहीं दे रहा .दर्शन, पर्सन सब फेल हैं .नेटवर्क गायब हैं .क्या लीला है ?
ऐसे ही माहौल में कबन्धों का महाभारत चालू है .सम्बन्धों को तिलांजलि देकर ही कबंध बना जा सकता है –जहाँ अपना पराया कोई नहीं .कालातीत कला और साहित्य –संगीत के सब रसिया इसमें कबंध बन चुके हैं  त्रेता –द्वापर का भेद मिट चुका है .कोई संजय और कृष्ण मौजूद नहीं कि सही –सही बताये कि क्या चल रहा है या इस युद्ध का क्या अंजाम होगा .खुदा हाफि

Thursday, May 1, 2014

नेता -नीति और सेक्स नैतिकता


भारत किसी भी मामले में अमेरिका नहीं हो सकता लेकिन हमारे नेता हैं कि उसे हर मामले में अमेरिका बनाने पर तुले हैं और विडम्बना यह है कि पश्चिम भारतीय पारिवारिक पवित्र मूल्यों की तरफ लौट रहा है .अमेरिका में क्लिंटन –मोनिका और इटली के बर्लुस्कोनी का मामला एक मिसाल हो सकता है कि वहाँ की जनता ने इनके कदाचार को मूल्यों के रूप में खुलेआम स्वीकार करने से इंकार कर दिया .
राजतन्त्र में राजाओं द्वारा असंख्य रानियों को पत्नी के तौर पर रखने की स्वतंत्रता थी लेकिन पटरानी की संतान ही उत्तराधिकार रखती थी .इस्लाम में भी चार पत्नियों की स्वीकृति मजबूरी के कारण  थी –शौक नहीं .रामायण और महाभारत इस बहुविवाह के कारण उत्पन्न सम्पत्ति के असमान बंटवारे की विवाद कथाएं ही तो हैं .उनमें हम अध्यात्म तलाश कर लें –यह अलग बात है .
हिन्दू समाज की संरचना में तलाक अभी उस तरह सहज रूप से स्वीकृत नहीं हुआ है जैसे इसाई और मुस्लिम समाज में स्वीकृत है . पुरुष और स्त्रियों के विवाह और विवाहेतर सम्बन्धों की दबी –ढकी चर्चा अफवाहों के रूप में ही सही होती है .समाज इनका हिसाब जिन्दगी भर आपसे मांगता रहता है .बड़े आदमियों का हिसाब बड़े पैमाने पर माँगा जाता है तो छोटों का छोटे पैमाने पर .गांधीजी और नेहरु के साथ –साथ अनेक नेताओं के हिसाब दस्तावेजों की तरह दर्ज हैं .जयप्रकाश नारायण और प्रभावती जिसमें उन्हें हार कर झख मारकर रोहित को अपना जैविक पुत्र स्वीकार करना पड़ा.सोनिया को विदेशी बहू होने का कष्ट आज तक झेलना पड़ रहा है वरना तो उन्हें  बहुमत के बावजूद देश का प्रधानमन्त्री स्वीकार करने में क्या हिचक है ?मोदी का वैवाहिक जीवन क्यों चर्चा में है ?आप लाख कहते रहें यह उनका निजी मामला है इसमें कोई दखल नहीं दे सकता लेकिन एक नेता का  मर्यादा के अलावा कुछ भी निजी नहीं हो सकता .आप हर बात के लिए जबावदेह हैं .जनता सब देखती है कि आप क्या खाते हैं –कहाँ जाते हैं .
इस मायने में लोकतंत्र जनता का ही नहीं नेताओं की भी आत्म मर्यादा और आत्म नियंत्रण का नाम है .वरना क्यों घोटालों की चर्चा होती है ?आप देश को लूटकर मजे से विदेश भाग 
सकते हैं .
दिग्गी के ताजे मामले ने इस निजी नैतिकता को फिर चौराहे पर खड़ा कर दिया है .जनता जनार्दन का फैसला सर माथे ...