Monday, January 5, 2015

क्रान्तिकारी लफ्फाजी

# मूलचन्द्र गौतम

सिर्फ काला और सफेद दो ही रंग नहीं होते प्रकृति में

आज सहसा विश्वास नहीं होता कि हिंदी चिन्तन और चिंताओं में प्रेमचंद के इस कथन कि- साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है- की तरह मुक्तिबोध के इस कथन कि- पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है –का बेहद दुरूपयोग नहीं हुआ है ?
 मौके बेमौके मार्क्स और एंगेल्स के उद्धरणों की झड़ी लगा देने वाले लोग प्राय : जरूरत पड़ने पर भी लेनिन का नाम तक लेना गवारा नहीं करते .क्यों नहीं करते ?यह जानने की जरूरत भारत में  आज दक्षिणपंथी राजनीति के बहुमती उभार के दौर में  जितनी वामपंथी दलों और उनके नेताओं को है ,उससे कम वामरंगी साहित्यकारों –कलाकारों को नहीं है .
1918 में लेनिन ने पार्टी की एक बैठक में जो महत्वपूर्ण बहस उठाई थी ,उसे आज फिर से भारत में उठाने की जरूरत है कि क्रन्तिकारी युद्ध के विषय में क्रन्तिकारी लफ्फाजी हमारी क्रांति को तबाह कर सकती है ....क्रन्तिकारी लफ्फाजी से हमारा मतलब है घटनाओं के एक खास मोड़ पर तत्कालीन अवस्था में वस्तुस्थिति का ख्याल किये बिना क्रन्तिकारी नारों को दुहराना .ये नारे बहुत शानदार ,आकर्षक और उन्मत्त्कारी ,परन्तु निराधार होते हैं –क्रन्तिकारी लफ्फाजी का यही लक्षण है .लेनिन ने इस लफ्फाजी को एक गंदी खुजली वाली तकलीफदेह बीमारी यों ही नहीं कहा था .
कहने की जरूरत नहीं कि यह बीमारी रायपुर महोत्सव के बहाने इन दिनों हिंदी के लेखकों में फैली हुई है .गनीमत बस इतनी है कि इससे कुछ लोगों में अनबोला भले हो गया हो इबोला नहीं हुआ है .
ऐसे में फिर बकौल लेनिन –बुद्धिमान वह नहीं है जो कभी गलती नहीं करता .ऐसे आदमी न कहीं हैं ,न हो सकते हैं .बुद्धिमान वह है जो ज्यादा बड़ी गलतियाँ नहीं करता और जो उन गलतियों को आसानी से और जल्दी से ठीक करना जानता है .
हिंदी के कुछ स्वयम्भू तथाकथित वामपंथी लेखकनुमा -नेताओं  में वस्तुस्थिति को समझे बिना राजनीति के मसलों को साहित्य में हल कर लेने की इतनी उतावली है कि वे खुद को मशाल समझने लगे हैं और दुश्मनों के लिए मसालों का काम करने में ही कृतार्थ हो रहे हैं .इस कबंध युद्ध में वे अपनों को ही टीन की तलवार चमकाकर न केवल डरा रहे हैं ,बल्कि मैदान छोड़कर भाग जाने को मजबूर कर रहे हैं .ये महारथी दरअसल अपने संगठनों को सक्रिय करने के बजाय काल्पनिक शत्रुओं के साथ डान क्विग्जोट की तरह व्यवहार करके नकली विजय के उन्माद में डूबे हैं .गोर्की ने –व्यक्तित्व का विघटन –निबन्ध में  इन जैसे अवसरवादी मध्यवर्गीय व्यक्तिवादियों की कुत्सित –घृणित मनोवृत्तियों का खाका बहुत पहले ही खींच दिया था .बुद्धिजीवियों की बस्तियों में हर एक सदस्य के हृदय में अपने अहं,अपने मैं –पन को मनवाने की रुग्ण और विक्षिप्त भावना की भयंकर ज्वाला दहक उठती थी .लोग इस तरह व्यवहार करते थे जैसे जिन्दा ही उनकी खाल खींच ली गयी हो .रायपुर प्रसंग में यही दिख रहा है .वहां माओवादियों के द्वारा किये जा रहे जनसंहारों के समर्थन में या सलवा जुडूम के विरोध की रणनीति गड्डमड्ड हो रही है .कौन किसका नैतिक इस्तेमाल कर ले रहा है –यही कशमकश चल रही है .तमाशा खुद न बन जाना तमाशा देखने वाले.ईर्ष्यालुओं को लिफाफों में रखा धन दिख रहा है .सस्ते में बिक जाने की तोहमत या खुद के न बिक पाने का मलाल .मुद्दे गायब हैं .जनसंस्कृति के पक्षधर होने की दुहाई देने वालों के पास इस गंदगी में घुसने के अलावा कोई विकल्प नहीं दिख रहा .क्या यहाँ मुक्तिबोध का तीसरा क्षण उन्हें नहीं दीखता जो उनके अनुयायी होने का दावा करते हैं .हबीब तनवीर का छत्तीसगढ़ क्या सलवा जुडूम का आकांक्षी है .दो कदम आगे और चार कदम पीछे की रणनीति क्या सरकारी आतंकवाद का समर्थन है ,या  गलत नसबंदी में अकाल मौत की शिकार आदिवासी महिलाओं का काव्यात्मक विरोध .सत्ता और संस्कृति के कर्णधार वहां भी सूत्रधार हैं और नैतिक विलाप करने वालों में भी शामिल हैं क्योंकि उनका बहुत पुराना तर्क है कि मरने वालों के साथ मरा नहीं जाता .कहीं तो कोई रेखा दिखे कि सब कहीं धुंधलका है .
वामपंथी दलों की पूंछ से जुड़ने का दावा करने वाले लेखक संगठनों में ही यह बिखराव और मनमुटाव क्यों दिख रहा है ?क्या पार्टनर की पालिटिक्स की दिशा पूछने-जानने  वालों के पास कोई अधिकार है या यह सब खाहमखाह का तुफैल है और लोग जबरदस्ती आपस में जूझ रहे हैं .साहित्य और संस्कृति क्या कोई यांत्रिक कार्यवाही है और उन्हें सम्पन्न करने वाले क्या किसी ऐसे संगठन के सदस्य हैं जहाँ अनुशासनहीनता के कारण उनकी सदस्यता खतरे में पड़ सकती है .यदि ऐसा है तो इसे सांगठनिक तरीके से ही निबटाया जाना चाहिए न कि चौराहे पर जूतमपैजार के द्वारा .फूस में चिंगारी लगाकर हाथ तापने से यह आग काबू में नहीं आने वाली .इसलिए इस तरह के मसलों को व्यर्थ वितंडावाद ही माना जाना चाहिए और यह अन्त्याक्षरी बंद होनी चाहिए .कहीं आने –जाने से ही साहित्य के मुद्दों का निर्धारण होगा तो सारे लेखक घरों में ही नजरबंद हो जायेंगे.  
# शक्तिनगर ,चन्दौसी, संभल 244412
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