वीरेन डंगवाल के तुरंत बाद महेश राही का महाप्रस्थान .मित्र कितने भी
करीब हों लेकिन उनकी रचनाओं की तरह उनके व्यक्तित्व को तटस्थ और निर्मम होकर आलोचकीय तरीके से देखना –पढना
बेहद कठिन और कई बार दुखदायी होता है ,यातनादायक भी .क्योंकि हम सोच ही नहीं पाते
कि वे कभी हमारे लिए इस कदर अदृश्य हो जायेंगे ?उनके मृत –निर्जीव शरीर के अंतिम
क्रियाकर्म में जाने की सोचते ही रूह कांपती है कि चाहे –अनचाहे यह मानना ही पड़ेगा कि अब वे इस दुनिया
में नहीं हैं ,जबकि उन्हें खुद से अलग करना बेहद मुश्किल होता है .
वीरेन तो लम्बे समय से कैंसर के अजगर और फिर मगरमच्छ के शिकंजे में था
.फोन करते भी डर लगता था कि अचानक दुश्चक्र के सृष्टा की तरफ से कोई दुखद सूचना न मिल जाए .लेकिन उसे इस टोटके
से लम्बे समय तक टाला भी नहीं जा सकता था
.आखिर मृत्यु को एक दिन सच होना ही था .
लेकिन महेश राही से तो दीपावली के अगले दिन अच्छी-खासी बातचीत हुई थी
.उन्होंने बेटे के पास अहमदाबाद जाने की योजना का जिक्र किया था तो अचानक क्या हुआ
कि ठीक दो दिन बाद ही बाल दिवस पर उन्होंने प्राण त्याग दिए .
#
अक्तूबर 1977 में मैं एस एम्
कालिज चंदौसी के हिंदी विभाग में आ गया था .उसी साल रामपुर से एक विद्यार्थी
चन्द्रशेखर त्यागी ने एम ए हिंदी में
प्रवेश लिया था .उसके बहनोई शिव चन्द्र त्यागी वहां के राजकीय महाविद्यालय में
हिंदी विभाग में थे ,जिनकी नियुक्ति बैंक में हिंदी अधिकारी के रूप में हो गयी थी
और वे वहां से बाहर चले गये थे .चन्द्रशेखर की रूचि साहित्यिक थी और उसे रामपुर के
माहौल की अच्छी जानकारी थी .कंवल भारती ने शायद उन दिनों वहां एक प्रेस खोला था और
सहकारी युग अख़बार में भी कुछ सहयोग किया था .ये सब चर्चाएँ चन्द्रशेखर अक्सर करता
रहता था .
तभी 1978 में एक दिन दिनमान के अक्तूबर के प्रथम साप्ताहिक अंक से पता
चला कि किसी पत्रिका में प्रकाशित एक
कहानी में अश्लीलता के आरोपों में कथाकार की गिरफ्तारी और यातना की कार्रवाई हो
चुकी है सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के नियमित स्तम्भ .चरचे और चरखे में जगह , कथाकार
और कहानी का कोई स्पष्ट उल्लेख न होने के कारण मामला अमूर्त ही था लेकिन बाद में
पाठकीय प्रतिक्रियाओं में मामला खुला .बात आयी -गयी हो गयी .
#
दिन –तारीख का पता नहीं क्योंकि कालक्रम और इतिहास का हिसाब मुश्किल
है .तो किस्सा कोताह उन दिनों स्वप्निल
श्रीवास्तव चंदौसी में मनोरंजन कर अधिकारी के रूप में नियुक्त थे और सारिका में
उनकी एक कहानी छपी थी . कथाकार कुमार सम्भव को स्वप्निल की सम्भावनाओं को
प्रोत्साहित करने की चाहत यहाँ खींच लाई.बन्दा मुरादाबाद से मोटर सायकिल से शाम को
आ धमका .स्वप्निल का कुछ अता पता नहीं मिला तो मेरी तलाश हुई .भाई मेरे परिचित के
यहाँ मोटर सायकिल छोडकर पता नहीं कहाँ रात
भर गायब रहा ?स्टेशन पर सुबह की गाडी आने पर रिक्शे वालों ने सवारियों के लिए मोहल्लों
की आवाज लगाई तो उसे ध्यान आया कि मेरा घर कहाँ था .इस तरह शाम का भूला सुबह घर
आया तो मैं उसे लेकर स्वप्निल के यहाँ गया .बातचीत हुई और फिर किसी न किसी बहाने
मुरादाबाद ,रामपुर ,बरेली मिलने जुलने का सिलसिला चलने लगा .उस किस्सागो के किस्से
और कहकहे मिलते ही चालू हो जाते अपनी भंगिमा में .
परिवेश के भाग्य में लिखी थीं दुर्घटनाएं .पहले बीएचयू से इसे काशीनाथ
सिंह ने निकाला तो यह सात अंक निकलकर विवादास्पद स्थितियों में बंद हो गया .फिर कुमार सम्भव ने निकाला तो नवें
अंक में महेश राही की कहानी-आखिरी जबाव –पर विवाद के चलते इसका दसवां हो गया
.निलम्बन ,जेल और कोर्ट –कचहरी के कारण हौसले पस्त .
बस कथा –कहानियों पर गोष्ठी –चर्चा ,आकाशवाणी पर कहानी पाठ तक सिमट
गया कारोबार .इसी क्रम में मेरा रामपुर
जाना हुआ तो कुमार सम्भव के साथ महेश राही
जी से मुलाकात हुई .फिर तो कार्यक्रमों की रूपरेखा बनने लगी और महेश जी का महल
सराय वाला घर किताब घर हो गया .उनके कथा संग्रह –धुंध और धूल- पर स्थानीय
रचनाकारों की भारी सहभागिता के साथ एक गोष्ठी सम्पन्न हुई .यह जैसे उनके नये
उत्साह की शुरुआत थी .कुमार सम्भव अक्सर बड़ी कथा पत्रिकाओं में छपता रहता था लेकिन
महेश राही केवल आकाशवाणी और सहकारी युग तक सीमित रचनाकार थे .इस नाते उनका परिवेश
कुछ कुछ तात्कालिक खानापूरी भर का था .वे तमाम उकसावे के बावजूद रचनाओं पर मेहनत
नहीं करना चाहते थे .अक्सर काशीनाथ सिंह उन्हें कहानी की दुनिया में नबाव रामपुर
और मजाक में बुढऊ कहकर चिढाते रहते थे .इसलिए लिक्खाड़ मुन्शीनुमा आलोचकों ने
उन्हें कभी गम्भीरता से नहीं लिया लेकिन हम लोगों के हौसले के बल पर वे कवि यश
:प्रार्थी बनकर लगातार सक्रिय रहे . उनकी
कोई तमन्ना प्रेमचंद और नागार्जुन बनने की नहीं थी .प्रगतिशील लेखक संघ के
कार्यकर्ता की तरह लिखना और काम करना ही उनकी प्राथमिकता थी .उन्होंने कभी गलत की
तरफदारी नहीं की और न पीत साहित्य की रचना की .लेखकों से मिलना –जुलना ,उनकी
निश्छल आवभगत करना उनका स्वभाव था जिसका कुछ गलत लोग नाजायज लोग लाभ भी उठाते थे .
हमने तमाम विपरीत परिस्थितियों और दुश्मनों के बीच उनके भीतर के लेखक को आखिर
तक मरने नहीं दिया . बल्कि वे नबाब रामपुर
के हरम की हकीकतों पर एक ऐतिहासिक उपन्यास की तैयारी कर रहे थे जो शायद उनकी एक
बड़ी उपलब्धि होती .
#
कथाकार शैलेन्द्र सागर के पिता आनंद सागर महेश राही के मित्र थे
.सहकारी युग में बैठकर तमाम लोगों को लेखन की प्रेरणा मिलती थी .वह जैसे रामपुर का
बौद्धिक अड्डा था . उसके सम्पादक महेन्द्र गुप्त हर आगंतुक के स्वागत को तत्पर
रहते .उनका नैतिक और बौद्धिक साहस बहस मुबाहिसों में निर्णायक हस्तक्षेप होता
.लेकिन महेश राही की कहानी पर कानूनी विवाद से वे भी दुखी थे .
इसी आवाजाही के बीच हम तीनों ने परिवेश को पुनर्जीवित करने की योजना
बनाई ,जिसमें आर्थिक जिम्मेदारी कुमार सम्भव की
,सम्पादकीय और प्रकाशन व्यवस्था और डिस्पैच का दायित्व मेरा और महेश राही
का सम्पूर्ण सहयोग था .इस कार्यक्रम के तहत 1991 में परिवेश का 11 वां अंक
प्रकाशित हुआ .1992 में कलकत्ता में लघु पत्रिकाओ का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन होना
था जिसमें हम तीनों परिवेश -12 के साथ सम्मिलित हुए थे .इस यात्रा से हमारे बीच एक
नई समझदारी और सहकार विकसित हो चुका था . उम्र में बड़े होने के नाते हम महेशजी का
बराबर ध्यान रखते थे कि उन्हें कोई दिक्कत न हो .काशीनाथ सिंह इस मैत्री के बीच
सीमेंट का काम करते थे .इसलिए कलकत्ते से लौटते हुए हम बनारस रुकते हुए लौटे थे
-एक नई ऊर्जा से लबालब .
अब तय हुआ की आखिरी जबाव को कहानी संग्रह के रूप में प्रकाशित किया
जाय जिसमें मुकदमे का पूरा विवरण मय लेखकों के पत्रों के दिया जाय .तैयार होने पर
दिल्ली से भारत भारद्वाज ,श्याम कश्यप ,केवल गोस्वामी और प्रताप सिंह आदि
मित्रों की उपस्थिति में उसका लोकार्पण और चर्चा महेशजी के महल सराय वाले घर पर
हुई थी . उसकी पहली प्रति उनकी अर्धांगिनी अन्नपूर्णा स्वरूपा सरलाजी को समर्पित
की गयी थी ,जिनके भंडार में हम जैसे भुक्खड़ों
को खिलाने के लिए हमेशा कुछ न कुछ रहता था .कुमार सम्भव को तो अक्सर खिचड़ी का तत्काल
भोग मिलता था . इस आयोजन से महेश राही को जैसे नवजीवन मिल गया और वे दुगने उत्साह
से साहित्यिक कार्यों में संलग्न हो गये .
इसी क्रम में परिवेश -13 भी प्रकाशित हुआ .हिंदी जगत में तीनों अंकों
की चर्चा बरकरार थी .6 दिसम्बर 1992 की बाबरी ध्वंस की घटना से पूरा देश उद्वेलित
और उत्तेजित था .परिवेश की ओर से इस सुनियोजित साम्प्रदायिकता के विरुद्ध
कारगर प्रतिरोध दर्ज कराये जाने की तैयारी
के तौर पर परिवेश 14-15 के एक विशेषांक की
योजना बनाई गयी जिसमें कवि सत्येन्द्र रघुवंशी को अतिथि सम्पादक तय किया गया
.सामग्री का सामूहिक चयन करके जिस अंक को झाँसी में छपवाकर प्रकाशित किया गया उसकी
धूम देश –विदेश तक फैली .श्रीलाल शुक्ल जी ने नवभारत टाइम्स के अपने स्तम्भ में
अंक की विशेष चर्चा की .पूरे देश से उसके
पाठकों के पत्र और फ़ोनों ने हमारा उत्साह आसमान पर पंहुचा दिया .विभूति नारायण राय
उन दिनों राजस्थान में थे .उन्होंने खुद उस अंक की कुछ प्रतियाँ पाकिस्तान के
लेखकों के लिए मंगवाईं .
#
लेकिन परिवेश के भाग्य में फिर एक दुर्भाग्य का
उदय हुआ . नबम्वर 1993 में कुमार सम्भव ने आत्मदाह कर लिया . उस प्रकरण पर परिवेश
का एक विशेषांक फिर छपा इसलिए उस पर यहाँ चर्चा करने का कोई औचित्य नहीं .सब कुछ
निबटने के बाद मैंने और महेश राही ने तय किया कि उस भगोड़े की स्मृति में एक बड़ा
वैचारिक आयोजन किया जाय ताकि लेखकों में कोई नकारात्मक संदेश न जाए .इस बीच परिवेश
को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से 1992 का सरस्वती सम्मान प्राप्त हुआ .हमने
काशीनाथ सिंह के निर्देशन और संरक्षण में –सत्ता ,संस्कृति और भूमंडलीकरण पर एक
राष्ट्रीय स्तर का परिसंवाद आयोजित किया जिसमें परिवेश के देश भर के तमाम मित्र और हितैषी जुड़े.इसी योजना
में कुमार सम्भव की स्मृति में परिवेश सम्मान की शुरुआत की गयी जो सबसे पहले
कथाकार हरी चरन प्रकाश को दिया गया . बाद
में सत्ता ,संस्कृति और भूमंडलीकरण पर
पूरा विशेषांक प्रकाशित किया ,जिसकी चर्चा 6 दिसम्बर 1992 के विशेषांक से कम नहीं
हुई पाठकों को याद दिलाना शायद जरूरी नहीं
की यही दौर है जब देश में आर्थिक सुधारों के नाम पर भूमंडलीकरण का प्रारंभ हुआ
.इन तमाम योजनाओं में अगर सेवानिवृत्त महेश राही ने साथ न दिया होता तो
परिवेश भी अकालमृत्यु को प्राप्त हो गया होता .अंक 64-65 के बाद मैंने स्वयं ही
उन्हें इस भार से मुक्त कर दिया था और इसके साथ ही वे खुद संसार से मुक्त हो गये .