Thursday, April 4, 2024

नीबू निचोडने की कला

 नीबू निचोड़ने की कला 

# मूलचन्द्र गौतम

श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण ने अपने विराट रूप को प्रदर्शित करते हुए कुछ रूपों की चर्चा छोड़ दी थी जिन्हें बाद में वेदव्यास जी ने श्रीमद्भागवत में प्रकट किया। उनकी सोलह कलाओं में भी कुछ कलाएं छूट गईं थीं , जिनमें एक महत्वपूर्ण कला थी नीबू निचोड़ने की कला। दरअसल उनके जमाने में परिवारवाद का बोलबाला था और राजा का चुनाव ईवीएम के बजाय उत्तराधिकार के सनातन नियम से होता था। किसी तरह के आरक्षण की भी कोई  व्यवस्था नहीं थी । इसीलिए नीबू निचोड़ने की जरूरत ही नहीं थी।ये कला होती तो महाभारत होता ही नहीं।

राजतंत्र के बड़े फायदे थे।राजा के निर्णयों के खिलाफ कहीं कोई सुनवाई नहीं होती थी। राजा चक्रवर्ती हो तो क्या कहने?उसके रथ के पहियों से आदमी क्या धरती तक कांपती थी ।वो जिधर निकल जाता सड़कें खाली हो जाती थीं। मंत्री, संतरी सब सिर झुकाकर उसके फरमानों का पालन करते थे। किसी में भी उसकी बेअदबी की हिम्मत नहीं थी। मुगल बादशाहों के दरबारों में तो कोई राजा को पीठ तक नहीं दिखा सकता था।कोर्निस में में जरा सी कोताही नाकाबिले बर्दाश्त थी। बिना कड़ी ट्रेनिंग के यह कार्य असंभव था। थोड़ी सी छूट केवल राजा के मुंहलगे विदूषक को प्राप्त थी ताकि गाहे बगाहे राजा के चेहरे पर उसकी मूर्खतापूर्ण बातों से थोड़ी सी हंसी की झलक दिखाई दे सके और दरबार का अत्यधिक तनावपूर्ण माहौल थोड़ा हल्का फुल्का हो सके और राजाजी का पेट साफ हो सके। अन्यथा तो कविराज को जुलाब का इंतजाम करना पड़ता था । यही कविराज राजा जी को जवानी बरकरार रखने के लिए मकरध्वज और शिलाजीत की तगड़ी खुराकें उपलब्ध करवाते थे ।

लोकतंत्र के आने से कोर्निस में तो थोड़ी छूट मिल गई है बाकी सारे नियम ज्यों के त्यों हैं। इस व्यवस्था में परंपरागत उत्तराधिकार के बजाय जनता को हर पांच साल में चुनाव के द्वारा नायक चुनने की छूट है। ये चुनाव आजादी के बाद नायक के आभामंडल के प्रताप से सम्पन्न होते थे। इसके क्षीण होने पर अराजकता उत्पन्न होने का भय था जिसके दमन के लिए वह कोई भी कदम उठा सकता है। यह नायक पुराने महाकाव्यों की तर्ज पर धीरोदात्त हो यह कतई जरूरी नहीं। असल चीज है उसका साम दाम दण्ड भेद की सम्पूर्ण प्रक्रिया में पारंगत होना । एक अंग में भी जरा सी कमी आते ही सत्ता का किला धराशायी हो सकता है। विपक्षी नेताओं के साथ अंत्याक्षरी में पारंगत वाकपटुता के बिना तो कुछ भी नहीं हो सकता। निरंतर नई से नई शब्दावली के साथ चुनाव हेतु विराट संसाधन जुटाने की क्षमता ही उसे महानायक बना सकती है। इसके बिना तो वह महानालायक सिद्ध होगा। संक्षेप में यही नीबू निचोड़ने की कला है जिसे पॉलिटिकल मैनेजमेंट कहा जाता है और इस मामूली से काम के लिए बड़े बड़े सलाहकारों को करोड़ों के पैकेज दिए जाते हैं। चुनाव से पहले सरकार पूंजीपतियों का नीबू निचोड़ती है बाद में मंहगाई बढ़ाकर पूंजीपतियों द्वारा जनता का नीबू निचोड़ा जाता है। अब नीबू निचोड़ने की तमाम तरह की मशीनें बाजार में आ गई हैं लेकिन हाथ की सफाई का कोई मुकाबला नहीं।इस काम में जरा सी कोताही बोफोर्स की तरह खेल बिगाड़ सकती है। अन्यथा तो आप बिना किसी को पता चले हाथी ऊंट तक मजे से निगल जा सकते हैं। दिव्य और भव्य धार्मिक आध्यात्मिक आभामंडल के बिना बहुसंख्यक जनता का दिल जीतना तो एकदम नामुमकिन है । शतरंज और कुश्ती कबड्डी के अचूक दांव ही नेता को धरतीपकड़ के बजाय धोबीपछाड़ में माहिर खिलाड़ी बना सकते हैं। जनता चुनावी लोकतन्त्र में भी बिना जादू के किसी ऐरे गैरे का जय जयकार नहीं करती और न सिर माथे बिठाती है।

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