Thursday, December 22, 2016

हिंदी क्षेत्र में सरकारी शिक्षा के शत्रु



 

# मूलचन्द गौतम
हाल ही में यूपी में शिक्षक पात्रता परीक्षा हुई ,जिसकी दूसरी पाली में अधिकांश शिक्षामित्रों ने भाग लिया ताकि वे नियमित नौकरी के पात्र बन सकें .यह प्रदेश की जनता का ही दुर्भाग्य कहा जा सकता है कि यहाँ की बेसिक से लेकर विश्वविद्यालय तक की सरकारी शिक्षा का स्तर और गुणवत्ता लगभग शून्य है .रही सही कसर मिड डे मील और शिक्षामित्रों ने पूरी कर दी है .इस मायने में प्रदेश की तमाम नौकरियां  उच्च भुगतान वाली पेंशन के नियमित बट्टे खाते में चली गयी हैं ,जहाँ बिना कुछ किये धरे नियमित मुफ्त की आमदनी की गारंटी है .बस थोड़ी बहुत खानापूरी है दिखावे के लिए .
जब से शिक्षा को राज्य का विषय बनाया गया तभी से उसका यह हाल है .पहले कुछ ईमानदार मिशनरी शिक्षक कम वेतन और गरीबी में भी उसकी गुणवत्ता बनाये हुए थे ,जो मात्र नौकरी में बदलते ही ध्वस्त हो चुकी है .बेसिक शिक्षा में भाषा और गणित जैसे बुनियादी विषयों की उपेक्षा का हाल यह है कि जड़ों की यह कमजोरी आजीवन बने रहने को अभिशप्त है .जो  शिक्षक और शिक्षामित्र खुद चार अक्षर साफ़ और शुद्ध नहीं लिख सकता वह बच्चों को क्या सिखा सकता है .मुख्यमंत्री के लिए शिक्षा सबसे निचले पायदान पर है क्योंकि उससे न वोट सधता है न नोट . यथास्थिति बनाये रखकर मंत्रीजी का बस कामचलाऊ इंतजाम हो जाता है ले देकर .हाँ  चुनाव में पुलिस ,होमगार्ड और शिक्षकों की सर्वाधिक उपकृत त्रयी रोजगारदाता सरकार के प्रति वफादारी खूब निभाती है .इसलिए हर सरकार विकास का नकली हल्लागुल्ला करने को केवल इसी वर्ग की भर्ती पर जोर देती है .
इस सरकारी शिक्षा के समांतर  अंग्रेजी माध्यम के प्राइवेट शिक्षा संस्थान हैं जिनमें प्रबन्धतंत्र की खुली लूट और छूट है .यहाँ छात्रों और अभिभावकों की संतुष्टि के नाम पर उनको खुलकर लूटा जा रहा है और शिक्षकों का मनमाना शोषण किया जाता है .ड्रेस और किताबों के नाम पर अलग से शोषण की मनमानी व्यवस्था है जिस पर कोई आवाज तक नहीं उठती .सरकार इन संस्थानों में छात्रों की फीस ,छात्रवृत्ति और शिक्षकों के वेतन का कोई नियमन नहीं करती ,जबकि  जनकल्याण के नाम पर किया जाना चाहिए .
इस तरह हिंदी क्षेत्र में शिक्षा के मामले में सरकारी तन्त्र की नीतिगत असफलता ,पिछड़ेपन और  निकम्मेपन से जनता को दोहरा नुकसान होता है .सरकारी क्षेत्र के विद्यार्थी राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में कोई उल्लेखनीय स्थान हासिल करने में असमर्थ रहते हैं .  हिंदी माध्यम से शिक्षित आरक्षित वर्ग के छात्रों को अंग्रेजी माध्यम की उच्च शिक्षा से महरूम होना पड़ता है .कई बार तो वे पूर्णत :असफल होकर लौट आते हैं और जिन्दगी भर हीनता और कुंठा से ग्रसित होते हैं .यहाँ तक कि आत्महत्या करने तक को विवश होते हैं . प्रथम और चतुर्थ श्रेणी की शिक्षा क्षेत्र की यह असमानता एक जान बूझकर की गयी साजिश लगती है .
जाहिर है कि इस असफलता और असमानता को दूर करने के लिए शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है ,अन्यथा यह निरंतर बढती जायेगी और विकास का ऊपरी तामझाम एक दिन चरमराकर ढह जायेगा जो व्यापक जनअसंतोष को जन्म देगा .
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------# शक्तिनगर ,चन्दौसी ,संभल उप्र 244412 मोबाइल-9412322067

Tuesday, November 29, 2016

मन न रंगाये रंगाये जोगी कपड़ा उर्फ़ मन की बात -दो


   

# मूलचन्द गौतम


कबीर का जनम बनारस में हुआ था ,जो आज भी हिन्दुओं का धार्मिक सुप्रीमकोर्ट है और अयोध्या से ज्यादा महत्वपूर्ण है . रामानंद के औचक शिष्य कबीर ने जहाँ के  हर चौराहे पर अपनी लुकाठी गाड़ कर  तमाम मुल्लों –कठमुल्लों और नकली धर्मध्वजियों के  पाखंडों पर वज्रप्रहार किया था. एक जमाने में वहाँ से फतवे जारी किये जाते थे लेकिन दूसरी तरफ वहां का एक मामूली सा अनपढ़ चांडाल आदि गुरू शंकराचार्य की ऐसी तैसी करने की हिम्मत रखता था . यही इस अद्भुत  शिवनगरी का टेढ़ा मेढ़ा त्रिशूल था जिस पर यह टिकी हुई थी . अवधू जोगी जग थें न्यारा . चना ,चबेना ,गंगजल और एक सोटा-लंगोटा मात्र से जिन्दगी बिता देने का बूता अब इब्ने बतूता के भी बस का नहीं रहा .हो सकता है कोई इक्का दुक्का लंगड़ –भंगड सुरती ठोंकता हुआ मणिकर्णिका के घाट पर मन की मौज में टहलता हुआ किसी यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर होने के जुगाड़ में धुत हो .का हो गुरू .....काशी का अस्सी या काशीनाथ सिंह का अस्सी .हर क्षेत्र के महारथियों को जिसने जनम दिया ,शरण दी .जहाँ रामकथा के अनन्य साधक महाकवि तुलसी ने ताल ठोंक कर घोषित किया –मांगि के खाइबो मसीत के सोइबो ....लेबे को एक न देवे को दोऊ .
ऐसे आचारी कबीर की तुलना में विश्व का कोई बड़े से बड़ा सत्ताधीश ,मठाधीश और महाकवि नहीं ठहरता .किसी को भी खरी खरी कहने –सुनाने में निर्भीक फिर चाहे पंडित हो या मुल्ला . तमाम मठों और गढ़ों की सत्ता और सेना पर अकेला भारी . एकला चलो .सारनाथ की टक्कर पर कबीर चौरा . आज के व्यापारी संत –महंत और शंकराचार्य कबीर की तुलना में कहीं नहीं ठहरते .हिंदी में निराला ,नागार्जुन ,मुक्तिबोध ,धूमिल और पाश के बाद यह परम्परा कवियों में भी मर गयी .कुछ को सरकारी पद और पुरस्कारों ने मार डाला .कुछ को शराब और शबाब के नबाबी शौक निगल गये .
डॉ . पीताम्बर दत्त बडथ्वाल ने गाँधी और कबीर की तुलना की .उन्हें नेहरू में यह गुण क्यों नहीं दिखाई दिया ?दरअसल गाँधी के विचार और कर्म के बीच की फांक से ही आधुनिक भारतीय राजनीति के अंतर्विरोधों और सामासिकता को समझा जा सकता है . गाँधी के राजनीतिक उत्तराधिकार के बावजूद नेहरू अपने ठाट बाट,कपड़े लत्तों तक में राजकुमार लगते हैं .भारत की खोज में लगकर जो बौद्धिक नेतृत्व उन्होंने हासिल किया वह कई बार गाँधी के कार्यों और विचारों के एकदम विपरीत है .इसीलिए नेहरू कबीरपंथी निराला को फूटी आँख नहीं भाते –सुहाते .कुकुरमुत्ता का गुलाब कोई और नहीं यही नेहरू हैं .रामवृक्ष बेनीपुरी  गेहूं और गुलाब की तुलना में जैसे इसी मत का विस्तार करते हैं .राजनीति में लोहिया ,जेपी और कृपलानी इस अन्तर्विरोध से आमने सामने बाकायदा टक्कर लेते हैं .
कबीर किसी भी नकली, फर्जी आदमी और आचार को रत्ती भर झेलने को तैयार नहीं . तुरंत खड्गहस्त .पंडित बाद बदन्ते झूठा .कबीर की उसी नगरी ने प्रयोग के तौर पर अपना प्रतिनिधि सांसद और सांसदों ने प्रधानमन्त्री चुना है . औसत भारतीय देहाती की तरह कबीर और गाँधी की तुड़ी मुड़ी लुचडी वेशभूषा की तुलना में वे देश के अमीरों के परिधानमंत्री ज्यादा लगते हैं .कबीर होते तो  कई तरीकों से छेड़ते – मन न रंगाये रंगाये भोगी कपड़ा .आखिर जोगी और भोगी के कपड़ा रंगाने में भी कोई फर्क होता है क्या ? कपड़ों के रंग रोगन और फैशन से आदमी की बोली ,बानी और आचार पर कोई फर्क पड़ जाता है ?तब मन से किसी दूसरी तरह की बातें निकलने लगती हैं क्या ? इसका मतलब यह नहीं कि हमारा प्रधानमन्त्री देश विदेश में दारिद्र्य प्रदर्शित करे लेकिन इसी काशी की मिटटी में जन्मे लाल बहादुर शास्त्री जैसी सादगी भी कोई चीज होती है साहब . गुजरात में  साबरमती के  किनारे कुटिया बनाकर देश में आजादी की अलख जगाने वाले संत और उसके किनारे विदेशी मेहमानों के साथ झूला झूलने की व्यापारीनुमा शासकीय मानसिकता के बीच का फर्क साफ़ दीखता है . जाहिर है कि मोदीछाप गुजरात गाँधी का गुजरात नहीं हो सकता .कई बार खयाल आता है कि अगर गाँधी देश के पहले प्रधानमन्त्री हुए होते तो क्या देश की दशा और दिशा यही होती ? देश के प्रधानमन्त्री को अपने मन के बजाय  जन के मन की बात करनी चाहिए और फिजूल की बातों के बजाय बिना किसी भेदभाव के कथनी को करनी में बदलना चाहिए . आखिर शासक के रूप में जनक हमारे आदर्श हैं . भारत की गरीब जनता आज भी जोगी की बातें सुनना पसंद करती है ,भोगी की नहीं .वैसे भी भोगी की कलई खुलते यहाँ देर नहीं लगती और किसी तरह का अंधेर तो इसे कबीर की तरह कतई पसंद नहीं . वरना तो  कबीरपंथी सहजोबाई  मय हथियारों के तैयार बैठी हैं –कहते सो करते नहीं ,हैं तो बड़े लबार.....
अच्छा हुआ कि गाँधी के रहते देश का संविधान नहीं बना वरना पता नहीं क्या होता ?कौन सी बात को लेकर बुड्ढा अकड जाता और आमरण अनशन शुरू कर देता और उसका हश्र अन्ना के अनशन जैसा न होता . आज भी हमारे पवित्र संविधान की अनेकानेक विसंगतियों ,विद्रूपों पर बहस जारी है .यह स्वस्थ लोकतंत्र का प्रमाण है लेकिन उसमें व्यक्तिगत –दलगत स्वार्थों के लिए हुए संशोधनों के कारण कुछ नई विसंगतियां पनप गयी हैं . देश की भाषा,शिक्षा और आरक्षण जैसे मुद्दे तक ठीक से तय नहीं हुए हैं .लम्बी प्रक्रिया के कारण उन्हें तत्काल आमूल नहीं बदला जा सकता लेकिन उस दिशा में कदम तो उठाये जा सकते हैं जिससे विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की अपेक्षा  आम नागरिक को असुविधा न हो .देश की जनता कितने ही मुद्दों पर विभाजित राय रख सकती है लेकिन उन्हें देशद्रोह की आड़ में नजरअंदाज करना बड़े खतरों को आमंत्रित करना है . देश में बढती हिंसा ,असहिष्णुता , भ्रष्टाचार,आतंकवाद के कारणों पर खुले मन से विचार किये बिना उन्हें रोका नहीं जा सकता . इन मामलों में कोई भी अतिवादी कदम अतिवादी प्रतिक्रियाओं को ही जन्म देगा जो घातक होगा .
 तत्काल न्याय और कठोर दंड के बिना लचर लोकतंत्र के कोई मायने नहीं होते .किसी भावनात्मक मुद्दे के आधार पर हुए चुनावों से हुआ सत्ता परिवर्तन लोकतंत्र नहीं लूटतन्त्र है जो भ्रष्टाचार में पारस्परिक सहभागिता है जिससे शासन की सम्पूर्ण गुणवत्ता प्रभावित होती है  .अपराध के दंड से बचने की बारहद्वारी का नाम लोकतंत्र नहीं है .पाप से घृणा करो पापी से नहीं का आदर्श धार्मिक और नैतिक हो सकता है लेकिन इसे शासन और व्यवस्था में लागू करना उचित नहीं . कबीर और गाँधी ने सत्य को केवल शब्दों से नहीं आचरण से प्रमाणित किया था .उनका  – साईं इतना दीजिये ...का अपरिग्रह दिखावे के लिए नहीं था, होता तो उसका असर इतना लम्बा नहीं चल सकता था .जिस तरह छद्म धर्मनिरपेक्षता का वोट बैंक लम्बा नहीं चल सकता उसी तरह छद्म राष्ट्रवाद भी अल्पजीवी होगा .सबका साथ सबका विकास जब केवल अपनों का या कुछ का विकास होगा तो उसमें से सबका साथ छीजता चला जायेगा .लोकतंत्र में जानबूझकर किसी समुदाय,वर्ग या क्षेत्र को इस आधार पर मुख्यधारा से अलग नहीं किया जाना चाहिए कि उसने किसी अन्य विचार या दल को वोट दिया .करना तो अलग  किसी जिम्मेदार व्यक्ति द्वारा यह कहा जाना भी लोकतंत्र की आत्मा को नष्ट करना है.
 देश में तमाम औद्योगिक,संचार क्रांति के बावजूद  अभी गाँधी के कतार के आखिरी आदमी कबीर के हाथ खाली हैं जिन्हें जुमलों और टोने टोटकों से नहीं भरा जा सकता .नीति आयोग के नाम पर उसे नीचे धकेलने की जनकल्याण विरोधी अनीतियाँ कम से कम लोकतंत्र के हित में नहीं होंगी .  
# शक्तिनगर ,चन्दौसी ,संभल उ प्र 244412  मोबाइल-9412322067

Monday, November 28, 2016

डूबा वंश कबीर का



# मूलचन्द गौतम  

  लोदी से लेकर मोदी तक के शासनकाल में  काशी के नंगे –भिखमंगे कबीर को खरीदने –बेचने की कोशिशें जारी हैं क्योंकि इसे किसी कीमत पर कुचला तो जा ही नहीं सकता .इस मामले में यह पूरा रक्तबीज है ,जो कभी धूमिल बन जाता है कभी पाश .माया मोह से दूर कबीर के घर में फूट डालने की कोशिशें क्या कम हुई थीं .राम नाम को छोडकर माल घर ले आने वाले कमाल से ही कबीर को अंदाजा हो गया था कि एक दिन यह कपूत उनका वंश गारत कर देगा .वही हुआ जब हाल ही में काशी के सांसद और प्रधानमन्त्री ने नोटबंदी की घोषणा की तो रातों रात किसी महेंद्रा नाम के पूंजीपति ने कमाल के  जनधन खाते में विजय माल्या के घोटाले के बराबर की रकम ट्रान्सफर कर दी . जबकि कबीर ने  इसी डर से अपना पहचान पत्र का पता तक मगहर का करवा लिया था ताकि उन पर किसी तरह का कोई इल्जाम न लगे .जो काशी तन तजे कबीरा रामहिं कौन निहोरा .कबीरपंथी गाँधी ने भी आम आदमी की लड़ाई लड़ने के लिए सिर्फ एक लाठी और लंगोटी को धारण किया था .अगर वे सूट बूट धारण किये रहते तो शायद राष्ट्रपिता न हो पाते .फैशन की शौकीनी सिर्फ चाचा और मामा के हिस्से आती है .
गांधीजी ने  देश की तथाकथित आजादी के बाद इसीलिए कांग्रेस को भंग करने के लिए कहा था क्योंकि उन्हें मालूम था कि उनके नाम और फोटो का दुरूपयोग होगा .वे तो नोटों तक पर अपना फोटो नहीं देना चाहते थे .अपरिग्रही गाँधी का इससे बड़ा दुरूपयोग क्या हो सकता था कि उनके फोटो छपे नोट घूस और तमाम तरह के  अपराधों में इस्तेमाल किये जाएँ .उनकी आत्मा अब और ज्यादा दुखी है जब  नये नोटों पर दोबारा उनकी फोटो छप गयी है .इस शर्मिंदगी में वे अपने कमालों-नक्कालों-हत्यारों को गाली भी नहीं दे सकते .दरअसल आदमी अपनी औलादों से ही हारा है .बड़े से बड़े नेता की औलादें ही उसकी ऐसी तैसी करके रख देती हैं और जीते जी उसे वंशवाद ,परिवारवाद के आरोप  अलग झेलने पड़ते हैं . हत्या तक हो जाती है .दामाद के मामले में तो दुर्गति और भी ज्यादा होती है .बहू विदेशी हो तो और ज्यादा मरण .बाबा तुलसीदास इसी डर से घर बार छोडकर भागे .धूत कहौ रजपूत कहौ ...जुलहा कहौ कोऊ . आखिर तक उन्हें पीड़ा यही रही कि उन्होंने भी कबीर से कम अपमान नहीं झेला लेकिन क्रांति का श्रेय कबीर को ही क्यों मिला ?
कुदरत का उसूल है कि जो आदमी जिस चीज से सबसे ज्यादा घृणा करता है ,उसे वही सबसे ज्यादा झेलनी पडती है .तो कबीर को  आज भी कमाल की करनी की जिल्लत झेलनी पड़ रही है तो इसमें आश्चर्य क्या है ?वंश डूबा है तो डूबे .
# शक्तिनगर ,चन्दौसी ,संभल 244412  मोबाइल-9412322067

Sunday, November 20, 2016

मन बनिया बनिज न छोड़े उर्फ़ मन की बात


विमर्श


# मूलचन्द गौतम

वेद ,उपनिषद और भक्तिकाल के कवियों के सकारात्मक मनोचिन्तन की तुलना में फ्रायड ,एडलर और जुंग का नकारात्मक मनोविश्लेषण दो कौड़ी का है .पश्चिम में सिर्फ विकृत मनोवृत्तियों का विश्लेषण किया गया है ,उनके सुधार और संस्कार की कोई चर्चा वहाँ नहीं मिलती .जबकि भारत में तन्मेमन:शिवसंकल्पमस्तु की प्रतिज्ञा के साथ योग द्वारा चित्तवृत्तियों के निरोध की वैज्ञानिक प्रक्रिया और भक्तकवियों के मन को दिए गये बार बार लगातार के ताने- तिश्ने, उलाहने उसे गलत मार्ग पर जाने से रोकते टोकते रहते हैं .इस तरह के सुभाषितों का एक पूरा महाकाव्य तैयार हो सकता है .मन का यह आत्मशोधन और परिष्कार ही मन की बात है –मनमानी और मनमर्जी नहीं .
भारतीय चिंतन में मन को लेकर जितना गहन विमर्श हुआ है ,उतना विश्व की किसी भी भाषा , सभ्यता ,संस्कृति और साहित्य में नहीं हुआ .मनोग्रन्थियों को खोलने की इतनी सूक्ष्म कोशिशें कहीं नहीं हुईं .रामायण ,महाभारत की परम्परा में रचित काव्यों –कवियों ने समाज और व्यक्ति के मन का शायद ही कोई कोना छोड़ा हो जहाँ तक उनकी पहुँच न हो .इस दृष्टि से कबीर ,तुलसी और सूर की मेधा अचूक है .समूचा भूगोल –खगोल इसकी जद में आता है .मन की कल्पना और ऋतम्भरा प्रज्ञा सृष्टि के मूलस्रोत के प्रारम्भ और प्रलय तक के ओर छोर नाप लेती है .मन का यही ऋषित्व इलहाम है अनलहक तक .
इस पृष्ठभूमि में देश के प्रधानमन्त्री के मन की बातों की श्रृंखला पर गौर से नजर डालें तो विचारणीय है क्या उनकी चिंताएं सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक विडम्बनाओं के प्रति जितनी सहानुभूतिपूर्ण हैं ,उतनी ही समाधानपरक और निर्णयात्मक भी हैं ? प्रश्न उठता है कि देश की आजादी के साथ भारतीय समाज को जो संविधान और विसंगतियों भरी समस्याएं मिलीं क्या उनका कोई समाधान भी है ?जिन संक्रमणों की प्रक्रिया से हमारे  समाज ,शासन और प्रशासन की पूरी संरचना गुजरी है क्या अब उसमें किसी बुनियादी बदलाव की जरूरत है ?इस बदलाव में बिना किसी जल्दबाजी के केंद्र और राज्यों के सम्बन्ध और उनकी जटिल  स्वायत्ततापूर्ण सक्रियता को गम्भीरता से समझने की जरूरत है .यह मामला केवल कुछ राजनीतिक दलों के बीच सत्ता के बंटवारे और बारी बारी से बदलाव भर का नहीं है .
आजादी के सम्पूर्ण आन्दोलन की विभिन्न धाराओं के इतिहास को इस विमर्श के केंद्र में रखना इसलिए भी जरूरी है कि कहीं यह भटक न जाये .गांधीजी के सामने ही उनकी अनिच्छा के बावजूद हुए इस आधे अधूरे साम्प्रदायिक विभाजन के नासूर को देश आज भी लगातार किसी न किसी रूप में भुगत रहा है . हाशिये पर फेंके –छेंके गये लोगों को आज तक सामाजिक –आर्थिक न्याय और समानता उपलब्ध नहीं हो पाई है . कांग्रेस और गैर कांग्रेसवाद की सत्ता की राजनीति ज्यादातर कुजात और सुजात गांधीवादियों के बीच ही झूलती रही है .नेहरूजी का समाजवाद अब अप्रासंगिक हो चुका है .चुनाव में जीत के जातिगत समीकरणों ने राजनीति की गुणवत्ता को रसातल में पंहुचा दिया है कि जल्दी उससे मुक्ति के आसार नजर नहीं आते .उसका नया अवतार  भ्रष्टाचार और आतंकवाद के रूप में सामने है ,जिसका हल सिर्फ बेमतलब का खून खराबा है ,जो लगातार हो रहा है .अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक समीकरणों के हिसाब से दोनों देश स्वसुविधानुसार पाले बदलते रहते हैं .समस्या जस की तस रहती है बल्कि और ज्यादा उलझती जाती है .
चीन के आक्रमण के बाद नेहरूजी की मृत्यु ,इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की हत्याओं के दौर भारतीय राजनीति के असफलताओं की कहानियाँ हैं .इन अंतरालों में प्रयोग के तौर पर उभरा नेतृत्व प्राय: विफल और बिखराव का शिकार रहा है .दूसरी आजादी का यह खिचड़ी विप्लव इस मुख्यधारा में कुछ खास जोड़ नहीं पाया है .1991 के आर्थिक उदारीकरण का जो विस्तार संचार ,कम्प्यूटर क्रांति के रूप में सामने आया उसके पच्चीस साल का इतिहास उथल पुथल का रहा है .सोवियत संघ के विघटन ने विश्व की गुट निरपेक्ष को एक बड़ा झटका दिया है .अमेरिका की एकध्रुवीय व्यवस्था के अपने अंतर्विरोध हैं .इनके बीच संतुलन बिठाना कठिन काम है .2014 के चुनाव के बाद मजबूत दक्षिणपंथी सरकार ने जैसे देश को कुछ बड़ी चुनौतियों के सामने खड़ा कर दिया है .तथाकथित  पारम्परिक धर्मनिरपेक्षता की मध्यमार्गी नीतियों को पिछड़े ,दलित ,अल्पसंख्यक और आदिवासी धड़े की राजनीति के सामने टकराव के कुछ नये मोर्चे खुले हैं .समान नागरिक संहिता ,तीन तलाक जैसे मुद्दे जिस ध्रुवीकरण की ओर मुड़ रहे हैं ,वहां से राजनीति का एक नया प्रस्थान बिंदु साफ़ दिखाई देता है .राज्यों के सत्ता समीकरण इसे एक नया आयाम दे रहे हैं .
विश्व राजनीति में भारत के बढ़ते दायित्वों के साथ प्रधानमन्त्री के रूप में मोदीजी देश के आंतरिक और बाह्य अंतर्विरोधों के साथ जिस दिशा में देश को ले जाना चाहते हैं ,वह बहुत कठिन और अनेक मोर्चों पर एक साथ लड़ाई को खोलना है ,जिसके विकट और विराट खतरे हैं . व्यक्तिगत तौर पर मन की बातों से इन्हें आसानी से बहलाया-फुसलाया  नहीं जा सकता . देश के विराट जन मन की बातों को शामिल किये बगैर लिए गये निर्णय  देश के समग्र विकास का मजबूत आधार नहीं बना सकते . एक चुनाव से कांग्रेस मुक्त भारत से उन्हें हमेशा के लिए मुक्ति नहीं मिल गयी है .कांग्रेस की समस्त नीतियों को एक साथ उल्टा खड़ा कराना मुश्किल है .उपनिषदों के ब्रह्मवाक्यों की तर्ज पर स्टार्ट अप ,स्मार्ट अप ....आदि आदि की थोथी शब्दावली की लफ्फाजी कार्य रूप में परिणत किये बिना कोई अर्थ नहीं रखती .मन ,वचन और कर्म की एकता का सतयुग केवल संकीर्ण हिंदुत्व से नहीं लाया जा सकता .किसी दल ,धर्म और वर्ग के प्रति खुल्लमखुल्ला घृणा और वैर से यह राह नहीं मिल सकती .कहने को सबका साथ ,सबका विकास और हक़ीकत में कुछ का साथ और कुछ का विकास लम्बे समय तक जनता की सतर्क निगाहों से बचाया –छिपाया नहीं जा सकता .आमूलचूल परिवर्तन के लिए जिस निष्पक्षता ,इच्छाशक्ति और साहस की जरूरत है ,उसके लिए कई बार चुनाव के जातिगत ,साम्प्रदायिक समीकरणों को तिलांजलि देनी होगी .यह मधुमक्खियों के छत्ते को छेड़ने से कम नहीं .मसलन आरक्षण .
ऐसे में घर फूंक तमाशा देखने के शौक़ीन कबीर की याद आना स्वाभाविक है क्योंकि यह सुविधा भक्तिकाल के मर्यादित राम और कृष्ण कथा के महाकाव्यों के कवियों को सुलभ नहीं थी .हालाँकि उन्होंने भी संकल्प विकल्पों के बीच डांवाडोल मन की कम ऐसी तैसी नहीं की .उधौ मन माने की बात ....मो सम कौन कुटिल खल कामी कहने वालों से अलग कबीर ने मन को बनिया बताकर उसकी मूल मन:स्थिति के शाश्वत स्वभाव के भूमण्डलीकृत व्यापारी रूप को खोल दिया था ,जिसके लिए हर हाल में सिर्फ शुभ लाभ होता है ,हानि  झेलने के लिए वह कतई तैयार नहीं .अब चूंकि राजनीति भी जनकल्याणकारी मिशन न होकर व्यापार हो गयी है ,इसलिए मन की बात में कोई परमहंस ऋषि नहीं व्यापारी ही बोलता है .बाबा ने तो पहले ही भाख दिया था कि कलिकाल में तपसी धनवंत दरिद्र गृही .अब इसमें किसी एक का नाम लेने की जरूरत नहीं है .मल्टीनेशनल  जनम जनम का मारा बनिया अजहूँ पूर न तोले .उसके लेने देने के बाँट बटखरे अलग अलग हैं .यही व्यापार का मूलमंत्र है .फिर कुनबा इसका सकल हरामी तो  फिर उम्मीद भी क्या और कितनी करें ?कारपोरेट के रूप में यही बनिया विश्व की सकल सत्ताओं को नचाता है .इसलिए इसके प्रतिनिधियों की कोई भी बात पता नहीं क्यों कबीर को विश्वसनीय नहीं लगती .नहीं लगती तो नहीं लगती अब इसमें हम और आप क्या कर सकते हैं ? कबीर का बनिया मन तो दूसरों को ठगने के बजाय खुद ठगे जाने से ज्यादा खुश होता है ,यही उसके सुखी होने का रहस्य है और जब सारा संसार सुखिया है तब दुखिया दास कबीर है जागे और रोवै  ----------------------------------------------------------------------------------------------------
 # शक्तिनगर ,चन्दौसी ,संभल उ .प्र. 244412 मोबाइल-9412322067

Saturday, November 12, 2016

माया महाठगिनी हम जानी



मोदीजी ने देश भर में बड़े नोटों का चलन बंद करके जनता को  विवेकानन्द की तरह वेदान्त की ऊंचाइयों पर पंहुचा दिया है .कुछ अज्ञानी ब्रह्म के बजाय जगत को ही सत्य मानने लगे थे ,उन्हें ही इससे सदमा पंहुचा है .उनमें से कुछ को हार्टअटैक ,ब्रेन स्ट्रोक हो चुका है और कुछ कोमा में पंहुच चुके हैं .कुछ इमरजेंसी में तो कुछ आईसीयू में भर्ती हैं .उनके पैरों के नीचे की जमीन रातोंरात गायब हो गयी है . विश्व के आध्यात्मिक गुरू का यह हाल है तो चेलों का क्या होगा ?मौज में  केवल कबीरनुमा फकीर फुकरे हैं जिन्होंने तत्काल झोंपड़ों को फूंक दिया है .तेरा तुझ को सौंपता क्या लागे है मोर ?
 देश में अब चारों तरफ वेदांता और मेदांता का बोलबाला है .प्राचीन ऋषि मुनियों को मालूम नहीं था कि उनकी गहन तपस्या की ऐसी दुर्गति होगी .उनके पवित्र निस्वार्थ आविष्कारों को शीर्षासन करा दिया जायेगा .पतंजलि को तिलांजलि दे दी जायेगी .देश विदेशों में रामकथा और भागवत का व्यापार अरबों में पंहुच जायेगा . केवल बाबा तुलसीदास को यह सत्य मालूम था कि कलिकाल में तपसी धनवंत दरिद्र गृही होंगे,झूठ और मसखरी की कला सिरमौर होगी ,परधन और परस्त्रीहारी सबसे बड़े गुनवंत कहलायेंगे  .उनके लिए वेदांत का मतलब होगा –वे दांती जो माल को चबाने की तकलीफ करने के बजाय अजगर की तरह सीधे निगल जायेंगे  ,कभी उगलने की नौबत ही नहीं आएगी .लेकिन अब वे  इसे न निगल पा रहे हैं  ,न उगलने की हालत में हैं  .इन्हीं क्षणों में उनका प्राणांत हो जायेगा .
बचपन में अलीगढ़ से गोंडा जाने वाली  बसों में कुछ सुभाषित दर्ज रहते थे जो यात्रियों को  निरंतर जगत की गति का बोध कराते रहते थे .जैसे –कर कमाई नेक बंदे मुफ्त खाना छोड़ दे ,झूठा है संसार सारा दिल लगाना छोड़ दे .अब उसी मार्ग पर मुफ्तखोरों के चलते बस सेवा ही बंद हो चुकी है .पैसा हाथ का मैल है .अब उस मैल को  झक्क सफेदी में बदलने वाले इतने साबुन ,सर्फ ,डिटर्जेंट आ चुके हैं कि पलक झपकते काले को सफेद और सफेद को काला किया जा सकता है .वकीलों की दलीलों से सब कुछ सम्भव है .जहाँ झूठी कसम खाना हराम था वहाँ सफेद झूठ बोलना लोगों का सम्मानजनक पेशा बन चुका है .कामांध  कबके अनुजा तनुजा का भेद भूल चुके हैं .बलात्कार रोजमर्रा की हेडलाइन हो चुका है .
 जब से कबीर को महेंद्रा ने खरीदा है तब से उनकी खंजड़ी और इकतारे की आवाज गायब है और उनके तमाम अवधूत, संत राजनीति के सौदागर बन गये हैं , पता ही नहीं चल रहा कि असली नकली में फर्क क्या है ? चीजों से देसी स्वाद गायब है .सब गड्डमड्ड है –हाइब्रिड .बस बुढ़ऊ एक ही रट लगाये जा रहे हैं –माया महाठगिनी हम जानी .
# मूलचन्द गौतम ,शक्तिनगर ,चन्दौसी ,संभल 244412 मोबाइल-9412322067

Tuesday, November 1, 2016

छोटे शहर का बड़ा लेखक :हृदयेश



# मूलचन्द गौतम  

 बम्बई ,दिल्ली ,बनारस , इलाहाबाद ,लखनऊ की तुलना में शाहजहांपुर छोटा शहर है ,लेकिन उसका क्रान्तिकारी इतिहास छोटा नहीं तो उसका लेखक ही क्यों छोटा होने लगा .भुवनेश्वर उसके आदि लेखक थे ,जिनकी ऐतिहासिक टक्कर महाकवि निराला से हो गयी थी .दुर्भाग्य और दुर्घटना का वह संयोग  प्रखर प्रतिभा के धनी भुवनेश्वर पर भारी पड़ गया और उनका जो दुखद अंत हुआ उसके मूल में कहीं न कहीं इस टक्कर का भी हाथ था .
छोटे शहर और गाँव के आदमी के मामले में एक चुटकुला बड़ा मशहूर है कि जब वह बम्बई या दिल्ली जैसे बड़े शहर में पंहुचा और वहां भौंचक्का होकर ऊँची –ऊँची इमारतों को सिर उठाकर देखने लगा तो अचानक एक चतुर सुजान सयाना उसके पास पंहुचकर  पुलिसिया स्टाइल में धमकाने लगा कि क्या कर रहे हो ?तो घबराते –घिघियाते हुए उसने बताया कि उसने अपने देस में इतनी ऊँची बिल्डिंग नहीं देखी ,सो उसी को देख रहा था .चतुर सुजान तुरंत ताड़ गया कि शिकार तैयार है .कौन सी मंजिल देख रहे हो ? दसवीं .तो सौ रूपये निकालो .नहीं साब में दसवीं नहीं पांचवीं देख रहा था .तो चलो पचास ही दो .देहाती ने पचास का नोट चुपचाप उसके हवाले किया और राहत की साँस ली कि चलो पचास रूपये तो बचे .
अब यही किस्सा  नई कहानी और कविता के सन्दर्भ में छोटे शहर के किसी लेखक पर ज्यों का त्यों लागू कर दिया जाय तो अज्ञेय , राजेन्द्र यादव , मोहन राकेश ,कमलेश्वर और धर्मवीर भारती चतुर सुजान श्रेणी में खड़े मिलेंगे और धूमिल , शेखर जोशी ,अमरकांत , हृदयेश ,इब्राहीम शरीफ ,मधुकर सिंह साहित्य की ऊँची इमारत को हसरत से ताकने वाले छोटे शहर के छुटभैये ,टुटपूंजिये की शक्ल में दिखाई देंगे .दयनीय ,सहानुभूति के पात्र भिखमंगे .दाता और पाता का यह फर्क आज तक साहित्य क्या हर क्षेत्र में मौजूद है .यह बात अलबत्ता अलग है इनमें भी अधिकांश लोग छोटे शहरों से ही महानगरों की शोभा बने .
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 इनमें भी हृदयेश के चेहरे मोहरे पर तो छोटे शहर का लेवल फेविकोल से इस तरह फिट होकर चिपक गया था कि आखिर तक छुटाए नहीं छूटा. चंडीप्रसाद हृदयेश से परिचित  पुराने लोग प्राय : शाहजहाँपुर के हृदयेश को कम जानते थे .उनका एक कहानी संग्रह भी छोटे शहर के लोग नाम से क्या छपा कि यह जैसे उनका स्थायी भाव हो गया .फिर वे भले गाहे बगाहे संचारी की तरह बड़े बड़े शहरों के घाघ महंतनुमा लेखकों ,संपादकों और प्रकाशकों से  मिलकर उपकृत और धन्य होते रहे लेकिन छोटू की चिप्पी से पीछा नहीं छुड़ा पाये .यहाँ तक कि बेटे की कृपा से अमेरिका भी हो आये लेकिन उससे ज्यादा दुखद यात्रा उनके लिए कोई नहीं रही .हवाईअड्डे से बेटे के घर तक ,फिर बीमारी की चपेट और फिर खाली हाथ बुद्धू की तरह घर वापस .इन्हीं चिप्पियों से तैयार है उनकी आत्मकथा –जोखिम .
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हृदयेश का सीधा सादा सरल जीवन ही जैसे उनकी रचनाएँ हैं .अपनी संतति को भी उन्होंने इन्हीं उसूलों से गढा है .इसीलिए वे आत्ममुग्धता की हद तक उन्हें प्यार करते हैं .हंसी दिल्लगी की बात अलग है ,अन्यथा उन्हें अपनी रचनाओं की कटुता की हद तक की जाने वाली आलोचना नापसंद है .मुद्गल जी इस मामले में कुछ छूट ले सकते हैं .श्याम किशोर ,चंद्रमोहन दिनेश मर्यादा में रहकर कुछ हास्य के छींटे फैंक सकते हैं .जैसे कि उनकी कहानी या उपन्यास-बैंगन का पौधा ,सांड आदि  के नाम से प्रभावित होकर कृषि –पशुपालन विभाग द्वारा पुस्तकों की खरीद का जुमला .
हृदयेश की कहानियां उनकी न्याय विभाग की नियमित नौकरी की तरह व्यवस्थित हैं .बारीक से बारीक कोई तफसील उनसे छूटती नहीं .रचना और पात्रों का परिवेश और पृष्ठभूमि की बारीकियां उन्हें खास बनाती हैं ,या कहें हृदयेश मेहनत करके उन्हें खास बनाते हैं .सफेद घोडा काला सवार का यथार्थ उनका अच्छी तरह रात दिन देखा –भोगा हुआ यथार्थ है .राणा प्रताप के चेतक की तरह वे हाकिमों की भाषा और इशारा अच्छी तरह समझते हैं .जहाँ नहीं समझ पाते वहाँ अपनी हिकमतों से काम निकालते हैं .इन्हीं तरीकों के कच्चे पक्के रह जाने में रचनाएँ कहीं कमजोर रह जाती हैं . मसलन दंडनायक की फैंटेसी .
हृदयेश की कहानियों का साहित्य में एक खास मुकाम है .सारिका की जिस प्रतियोगिता में संजीव की कहानी अपराध को प्रथम पुरस्कार मिला था उसी में उनकी कहानी को सांत्वना के लायक समझा गया था .यह हृदयेश की बिडम्बना नहीं थी ,दौर ही बदल गया था .
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हृदयेश को पहल सम्मान मिला .उस अवसर पर मैंने उनकी स्पेशल साइकिल का जिक्र किया था ,जिसे चलाना उन्हीं के बस की बात थी .एक बार मैं उस साइकिल से उन्हें पीछे बिठाकर मुद्गल जी से मिलने के लिए चला .थोड़ी असंतुलित होते ही पैर न टिक पाने की वजह से हम दोनों ही मुश्किल से गिरते गिरते बचे .मुझे लगा कि हृदयेश जी मुझे खींचें इससे बेहतर है कि मैं उन्हें खींचूं.मुझे क्या पता था कि जिसका साज उसी को साजे .एक बार वीरेन डंगवाल के कहने से मैंने उनका एक साक्षात्कार लिया था .प्रश्नों के लिखित उत्तर उन्होंने मुझे डाक से भिजवा दिए थे ताकि गलती की कोई गुंजाइश न रहे .वीरेन ने उसके पारिश्रमिक की राशि हृदयेशजी को भेज दी थी .मैंने पूछा तो वीरेन ने गलती मान ली.
हृदयेश जी से मेरा लम्बा पत्राचार रहा .पत्रों का जबाब देने में वे कोई देरी नहीं करते थे .यही हाल मधुरेश का भी है जो पहले कथाकार के रूप में ही लेखन की शुरुआत करना चाहते थे .हृदयेश से मिलता जुलता नाम भी शायद इस आदर्श और प्रभाव का कोई रूप रहा हो लेकिन बाद में यशपाल की आलोचनात्मक ढाल बनने के लिए पुस्तक समीक्षा ही उनकी नियति बनकर रह गयी .
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पहल सम्मान के दौरान ही मेरा सुधीर विद्यार्थी से परिचय हुआ .वे ही इस आयोजन के स्थानीय संयोजक थे ,लेकिन पत्नी के निधन के कारण इसमें बहुत सक्रिय नहीं हो सके .वे हृदयेशजी के प्रति समर्पित लोगों में रहे .बाद में कुछ कारणों से उनका मतवैभिन्न्य हुआ जो मनोमालिन्य तक पंहुच गया .हृदयेशजी की आत्मकथा के कुछ अप्रिय प्रसंगों को वे सह नहीं पाये जिसका लिखित प्रतिवाद परिवेश में प्रकाशित हुआ .
# शक्तिनगर ,चन्दौसी ,संभल उ.प्र. 244412 मोबाइल-9412322067

Sunday, September 18, 2016

खाट और खटमल का रिश्ता


व्यंग्य

जल ,जंगल और जमीन के मालिक आदिवासी मनुष्य ने सांप ,बिच्छुओं से बचने के लिए चारपाई को ईजाद किया होगा .उसी के लिए बाद में आकार के अनुरूप  खाट ,खटिया ,खटोला शब्द प्रयोग में आने लगे .इन्हीं प्रयोगों में कुछ मौलिक मुहावरे प्रविष्ट हो गये ,जिनसे खाट के विविध अर्थ खुले .खाट खड़ी होना ,खाट उलटना ,खाट कटना आदि आदि .
 जब से डबल बेड फैशन में आया है तब से खाट देहात में भी प्रचलन से बाहर हो गयी है .खाट बुनने की कला मृतप्राय हो चुकी है . गर्मी में खरहरी बंसखट पर पेड़ के नीचे दिन में लेटने के मजे ही अलग होते थे .कूलर ,एसी इस ठंडक के आगे फेल थे . चौपालों पर रात में किस्सागो और  आल्हा –ढोला सुनाने वाले जब खाट पर बैठकर लम्बी लम्बी तानें लेते थे तो वक्त का पता ही नहीं चलता था .शादी –ब्याहों में बारात के विशेष स्वागत के लिए आसपास के गाँवों तक से खाटों और मट्ठे की एडवांस बुकिंग शुरू हो जाती थी .खाटें बदल न जाएँ इसके लिए उनके मालिकों का नाम उनपर लिख दिया जाता था .दहेज में दिए जाने वाले पलंग की मजबूती तो उसके पीढ़ियों तक बरकरार रहने से नापी जाती थी . इसीलिए उसकी इज्जत भी मामूली खाट से ज्यादा होती थी .
आज भी फाइव स्टार होटलों तक में सरसों के साग और मक्की की रोटी के साथ गुड़ की डली की मांग होती है .देहाती थीम के चलते मचिया भोज की डिमांड रहती है .ढाबों में तो खाटों पर बैठकर खाये बिना  ड्राइवरों और शहरातियों को चैन ही नहीं पड़ता .इसी पुराने दौर को पोलिटिक्स में वापस लाने के वास्ते पीके ने पुराने मरियल खटमलों के कायाकल्प के वास्ते खाट सभा की योजना बनाई है  . लेकिन खाट के साथ में हुक्के को वे भूल गये इसीलिए लोग खाटों को ले उड़े .हुक्का साथ में रहता तो लोगों खाटों को उड़ाने में शर्म आती .दरअसल पीके को  देहाती मैनेजमेंट की समझ ही नहीं.  जाट और तेली का पुराना किस्सा उन्हें मालूम ही नहीं .उन्हें देहातियों को मर्यादा में बांधना आता ही नहीं .खाट और खटमल का रिश्ता उन्हें पढ़ाया ही नहीं गया . किसी भी अहिंसक समाज में  मक्खी ,मच्छर ,खटमल जैसे परजीवियों की हत्या हराम है .अहिंसक लोग खून चुसवाने के लिए खटमल वाली खाटों पर सोने के लिए घंटों के हिसाब से भुगतान करते थे .  खटमलों के विनाश के लिए देहात में खाटों को गर्मी में कड़ी धूप में और जाड़ों में पोखरों के ठंडे पानी में डाल दिया जाता था . पीके को नीरज का प्रसिद्ध गीत –खटमल धीरे से जाना खटियन में भी  याद नहीं .अगर उन देहातियों को बैठने से पहले ही बता दिया जाता कि इन खाटों में खून चूसने वाले खटमल और पिस्सू मौजूद हैं तो उनके बापों की भी हिम्मत उन्हें घर ले जाने की नहीं होती .
लेकिन अंदर खाने पता चला है कि पीके के मैनेजरों ने  खाटों में परीक्षण के तौर पर यह व्यवस्था गुपचुप तरीके से लागू कर रखी थी . उन  झिलंगी खाटों पर  लेटने -सोने वालों को रात दिन उन्हीं की पार्टी के सपने आयेंगे .अब वे सर्वे के जरिये खाटों को ले उड़ने वाले लोगों के खून की जांच करेंगे कि उनके खून में किस पार्टी का डीएनए मौजूद है.तभी वे तय करेंगे कि उस खून को कैसे बदला जाय ? पार्टी ने इसी काम का जिम्मा पीके को सौंपा है .
@ मूलचन्द गौतम
# शक्तिनगर ,चन्दौसी ,संभल उ .प्र 244412   मोबाइल-9412322067


Friday, September 2, 2016

दस का सिक्का उर्फ़ मुर्दों का बीमा



देश भर में अफवाह फैली हुई है कि दस का सिक्का बंद हो गया है . अर्थशास्त्र का पुराना सिद्धांत कि नकली मुद्रा असली मुद्रा को बाजार से बाहर कर देती है-फेल हो चुका है .अब विश्व की असली मुद्रा सिर्फ डालर है . इसलिए थोड़े दिन में सौ का नोट भी कोई मायने नहीं रखेगा .न्यौछावर में भी मिनिमम रेट पांच सौ का होगा .यह देश की तरक्की का बढ़ता हुआ ग्राफ है क्योंकि पहले चवन्नी –अठन्नी बंद हुई थीं तो सिर्फ भिखारियों को नुकसान हुआ था लेकिन अब उन्हें ख़ुशी हासिल हुई है कि चलो दस रुपया भी दुर्गति को प्राप्त हुआ . जगह जगह  चलन से बाहर की मुद्राओं के संग्रहालय बनेंगे. कुछ नकचढ़े अमेरिकी अर्थशास्त्री  इसे भारतीय मुद्रा बाजार में रघुराम राजन की पराजय मान रहे हैं .जबकि देश के मजदूर खुश हैं कि अब इससे  कम से कम उनकी न्यूनतम मजदूरी फोर फिगर में हो जायेगी और वे भी देश के सम्मानित मध्यवर्ग में शामिल हो जायेंगे .
प्यारेलाल इस माहौल से परेशान हैं कि देश का क्या होगा भगवान ?मैंने उन्हें नेक सलाह दी है कि आजीवन अख़बार और टीवी से दूर रहें क्योंकि यही सारी बीमारी की जड़ है . गीता का यही निष्कर्ष है - संशयात्मा विनश्यति. समाधिस्थ होकर ही इस महाभारत पर विजय पायी जा सकती है .
 लेकिन गीता के इस ज्ञान के विपरीत देश में अमीर होने का शौक इस कदर बढ़ रहा  है कि लोगों ने आमदनी के हजार तरीकों में मुर्दों का बीमा भी शामिल करा दिया है . देश में बोफोर्स तोप घोटाले ने घूस का रेट हजारों करोड़ में पंहुचा दिया था जिसे टू जी ने  ओलम्पिक रिकार्ड की तरह तोड़ दिया .अब फैशन में सेक्स सीडी आ गयी है .सामूहिक बलात्कार जैसे सम्वेदनशील मुद्दे को लेकर मंत्री और संतरी तक हलकान हैं .किसी के पास समस्या का कोई हल नहीं .आखिर में लोग इसी नतीजे पर पंहुचेंगे कि देश नेताओं के भरोसे नहीं भगवान भरोसे ही चलेगा .

Thursday, August 18, 2016

वाग्वीरों का ओलम्पिक

#मूलचन्द्र गौतम

हिंदी में किसी संदर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का  नाम लेने का मतलब ही गम्भीरता है .अपने उत्साह नामक प्रसिद्ध निबन्ध में उन्होंने वीरों पर भी विचार किया था .इनमें युद्धवीर ,दानवीर ,दयावीर ,कर्मवीर ,बुद्धिवीर से बड़े थे वाग्वीर .तुलसी के लोकमंगल को साहित्य का आदर्श मानने वाले आचार्यप्रवर ने इन वीरों को यथोचित सम्मान से याद नहीं किया जबकि बाबा ने कलिकाल में इन्हीं की महिमा को सर्वोत्कृष्ट ठहराया .जो कह झूठ मसखरी जाना कलियुग सोई गुनवंत बखाना या पंडित सोई जो गाल बजाबा.अब उन्हें क्या पता था कि कलिकाल में ये वाग्वीर नेता लोकतंत्र के चुनावी दंगल में रामराज्य की ऐसी तैसी कर देंगे . इनमें से ज्यादातर संत ,साधू ,साध्वी और महंत होंगे ,जो सत्ता के चस्के को वैराग्य के चोले में आगे बढ़ाएंगे .बाबा ने ऐसे ही नहीं कह दिया था –तपसी धनवंत दरिद्र गृही .इन तपसियों का व्यापार अरबों –खरबों में पंहुच गया है .इनका आलीशान रहन सहन पांच सितारा होटलों को मात करने वाला है .सत्ता में इनकी हनक और धमक है .बिना इनकी मर्जी के सत्ता का पत्ता तक नहीं हिलता.बाबा को क्या पता था कि जनता जनक के बजाय धनक को चुनेगी और सत्ता सुंदरी सबसे बड़े गपोड़ी  वाग्वीर को चक्रवर्ती सम्राट के रूप में चुनेगी .
प्यारेलाल बाबा के साथ शुक्लजी के परमभक्त हैं .उनके पास हर मौके और माहौल के लिए चुने हुए दोहे ,चौपाई और कहावतों का भंडार है जिसे वे गाहे बगाहे बेहिचक अचूक तरीके से हर फील्ड में  इस्तेमाल करते रहते हैं .इसीलिए उनके सामने मेरे कच्चे पक्के तर्क धराशायी हो जाते हैं .उनके लिए वाकयुद्ध महाभारत और राम रावण युद्ध से ज्यादा बड़ा और  व्यापक जनसंहार का उदाहरण है .अक्सर  भारत –पाक के बीच के सम्वादों के सुअवसरों पर वाककौशल,वाकचातुर्य,वाग्विदग्ध ,वाक्छल जैसी व्यापक कूटनीतिक शब्दावली के प्रयोगों के हिमायती प्यारेलाल का जोश विद होश हमेशा अटलजी की टक्कर का होता है .ऐसे में उनकी कुंडलिनी जाग्रत हो जाती है .जिह्वाग्र पर साक्षात सरस्वती विराजमान हो जाती हैं .लिखा हुआ भाषण कूड़ेदान की शोभा बढ़ाता है .
प्यारेलाल इन जुमलों को  अर्थव्यवस्था से लेकर खेलकूद तक  बड़ी कुशलता से खींचकर ले जाते हैं.उनके अनुसार  विश्व में विकसित देशों को ही ओलम्पिक में अग्रिम पंक्ति में स्थान प्राप्त होता है .उनके लिए खेलकूद अर्थव्यवस्था में वर्चस्व से किसी मामले में कम नहीं होते .उनके विश्व रिकार्ड धारी खिलाडियों का दर्जा  किसी फ़िल्मी और इल्मी हीरो –हीरोइन से कम नहीं होता ,जबकि अविकसित देशों में उनका अंत  प्राय :बड़ा दुखद होता है . राष्ट्रीय खेल हाकी के जादूगर  दादा ध्यानचंद को आज तक भारत रत्न के काबिल नहीं समझा गया .इसके पीछे उसी पुरानी कहावत का हाथ है जिसमें खेलने कूदने को खराब होने की गारंटी की तरह माना जाता था .पहलवानों को तो आज तक अक्ल से पैदल माना जाता है .खेलों में भी इतनी राजनीति चलती है कि उसके तमाम तथाकथित संघों पर नेता ही हावी रहते हैं .आज तक किसी राजनीतिक दल के घोषणापत्र में ओलम्पिक में पदकों की संख्या को शामिल नहीं किया .जबकि भावी प्रधानमन्त्री को यह बताना चाहिए कि उसे जनता चुनाव में जितनी सीटें देगी ,वह उतने ही पदक देश को दिलाएगा .बल्कि यह कोटा राज्यों के मुख्यमंत्रियों के लिए भी निर्धारित किया जाना चाहिए कि वे कितने ऐसे खिलाडी तैयार करेंगे जो देश को पदक दिलाने की जिम्मेदारी निभाएंगे .
भारत की गुलामी की मानसिकता के कारण आज तक क्रिकेट के अलावा किसी खेल और खिलाडियों को  इज्जत –शोहरत और पैसा नहीं मिलता .जबकि क्रिकेट का मामूली सा खिलाडी विज्ञापनों से ही करोड़ों कमा लेता है .इनर और अंडरवियर तक उन्हीं के नाम से बिकते हैं .
भारत में राजनीति एकमात्र खेल है जिसमें किसी योग्यता की जरूरत नहीं है .सिर्फ दस बीस कत्ल ,बलात्कार,भ्रष्टाचार के मुकदमे चुनाव जीतने के लिए काफी हैं .वाग्वीरता सारी कमियों को पूरा कर देती है .जनता भी उसी मायावी मदारी को पसंद करती है जो भले करे कुछ नहीं लेकिन हांके ऊंची ऊंची ,वादे भी ऐसे करे जो दस बीस साल तक  अपनी जगह से हिलें नहीं . जनता में सतयुग ,रामराज्य लाने ,गरीबी हटाने ,रंगीन टीवी ,साडी –कपड़ा और सबसे ऊपर भरपेट दारू .भोले भाले लोगों को और क्या चाहिए ?उनका यही तात्कालिक विकास है बाकी सब नेताओं का खेला है .यही कारण है कि उनकी दौलत साल दर साल एवरेस्ट की ऊंचाई तक को पीछे छोड़ जाती है .जबकि खेलकूद की दुनिया में देश नीचे से भी फर्स्ट नहीं आ पाता.
 कल्पना कीजिये कि इन दशानन वाग्वीरों  का कोई ओलम्पिक आयोजित किया जाय या स्वप्न सुंदरी के स्वयम्वर में इन्हें आमंत्रित किया जाय तो क्या होगा ? सारे स्वर्णपदक यही ले उड़ेंगे .नारद मोह की लीला उलट जायेगी .पचास करोड़ की गर्ल फ्रेंड इन्हीं की सुग्रीव में वरमाला डालेगी .धीरे धीरे भ्रष्टाचार की सुरसा इस राशि को लाखों करोड़ में बदल देगी . इनका धोबी पाट कभी खाली नहीं जाता .स्विस बैंक इनकी इस खून पसीने की कमाई को बड़े जतन से संभाल कर सुरक्षित रखते हैं ताकि कोई भी उसे नजर तक न लगा सके . सनसनी और अफवाहों को फ़ैलाने में माहिर ये वाग्वीर पानी में आग लगाने की क्षमता से लैस होते हैं .उन्हें मालूम होता है कि कहाँ कौन सा हथियार काम करेगा .धर्म ,जाति से लेकर गाय भैंस तक इनके काम की चीजें होती हैं . वैसे भी वर्तमान में परमाणु युद्ध से पहले वाकयुद्ध ही पृष्ठभूमि की तैयारी करता है . अबकी बार विश्व के सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव तक में वाकयुद्ध का जो छिछला स्तर देखने को मिला है ,उसे लेकर लोग हैरान –परेशान हैं .यह वहां की बंदूक संस्कृति से ज्यादा घातक है .
प्यारेलाल ने आँखें फाड़कर मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे उन्होंने एक साथ करोड़ रूपये देख लिए हों .मैंने कहा प्यारेलाल जी आज के जमाने में पनवाड़ी और कुंजड़े भी करोडपति से कम नहीं .यह तुम्हारा जमाना नहीं जहाँ पतियों की तो पूरी पल्टन होती थी लेकिन लखपति दूर दूर तक दर्शन नहीं देता था .प्यारेलाल को लगा कि किसी ने  उनके सिर पर लाखों  करोड़ों की  यह गठरी रख दी है जिसके बोझ से उनकी नाजुक कमरिया दोहरी हुई जा रही है और लोग समझ रहे हैं कि वे सजदे में हैं .

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ईमेल-moolchand.gautam@gmail.com

Monday, August 8, 2016

नामवर सिंह


अपने अंतिम अरण्य में फिर से उलझाता हूँ मैं
 # मूलचन्द गौतम

नामवर सिंह की प्रथम और अंतिम रूचि पोलिटिक्स नहीं पोलेमिक्स है .इसलिए जिन लोगों की प्रथम और अंतिम रूचि पोलिटिक्स है वे उन्हें चीन्ह्नने में अक्सर चूक जाते हैं .उनका परम प्रिय शेर अर्ज है –

जो सुलझ जाती है गुत्थी ,फिर से उलझाता हूँ मैं


नामवर सिंह  निराला की कविता में मोगल दल की तारीफ़ ढूंढ कर लाते हैं .उनके पट्ट आलोचक डॉ . रामविलास शर्मा के वैदिक साहित्य के अध्ययन और पांचजन्य के साक्षात्कार को संघी झुकाव में लपेटकर उनकी मिटटी पलीद करते हैं . शुक्लजी की परम्परा के विरुद्ध दूसरी परम्परा की खोज करते हैं .निर्मल वर्मा के उपन्यास अंतिम अरण्य को उनके हिन्दू मोक्ष की कामना से जोड़कर मार्क्सवाद विरोधी सिद्ध कर रहे हैं. भाजपा के पाकिस्तान में विवादित बयान के शिकार और अवमूल्यित आडवाणीजी के सहधर्मी  जसवंत सिंह की किताब के लोकार्पण में जान बूझकर जाते हैं और गाली खा रहे हैं  बनारस में प्रलेस के राज्य सम्मेलन में  बिहार के राजेन्द्र राजन खफा हैं –आपने ऐसा क्यों किया .गलत सन्देश जाता है .जनता हमसे सवाल करती है ,हम क्या जबाब दें ?नामवर सिंह चुपचाप मन में मुस्कुरा रहे हैं –बच्चू आगे आगे देखो . दरअसल उन्हें मालूम हैं विवादास्पद होने के मजे .
 नामवर सिंह के पचहत्तर के होने पर प्रभाष जोशी ने भारत भर में आयोजन किये .यह जैसे उनका अश्वमेध यज्ञ था .तो उसी दौर के सिपहसालार रामबहादुर राय जब इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र के कर्ता धर्ता बने तो उन्हें याद आया कि अब नामवर सिंह नब्बे के हो रहे हैं .इस मौके को भुनाया जा सकता है नामवर सिंह के बहाने, क्योंकि लौंडे लपाड़ों  की साहित्य अकादमी की पुरस्कार वापसी जिसमें उनके लक्ष्मण भी शामिल हो गये थे , से असहमति जताकर नामवरजी अपनी भावी रणनीति का संकेत दे चुके थे .फिर चूंकि मोदी जी भी बनारसी हो चुके हैं तो जुगलबंदी होने में बुराई क्या है ?आखिर जब अन्य कलाएं अमूर्त राजनीति के मजे लेती हैं तो साहित्य क्यों पीछे रहे ?आखिर विद्या निवास मिश्र भी तो राज्यसभा की शोभा बढ़ा ही चुके थे .अब कोई उन्हें बीजेपी  का सलाहकार बताये या कलाकार क्या फर्क पड़ता है ?जब महाबली का पतन घोषित किया जा चुका है तो उसकी कोई सीमा तो नहीं हो सकती . एकांत के अंतिम अरण्य में जाने से बेहतर है अनेकान्तवाद .तो वे भी  कबीर की तरह चौराहे पर लुकाठा लेकर खड़े हो सकते हैं और तुलसीदास की तरह घोषित कर सकते हैं –काहू की बेटी सों बेटा न ब्याहबों ....
अब जो लोग उनसे हिंदी क्षेत्र का सार्त्र या नोम चोमस्की होने की अपेक्षाएं रखते हैं उनका खुदा हाफिज .फ़िलहाल मोदीजी देश के प्रधानमन्त्री हैं ......
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Saturday, August 6, 2016

हिंदी के अध्यापन की आधुनिक समस्याएं


 



मैया कबहिं बढैगी चोटी

डॉ .मूलचन्द्र गौतम
हिंदी अध्यापन की शुरुआत बंगाल के रायल एशियाटिक सोसाइटी से हुई .उसी की शाखाएं बाद में बनारस ,इलाहाबाद,दिल्ली ,पटना, सागर ,अलीगढ़  .....आदि जगहों से पुष्पित पल्लवित हुईं डॉ . ग्रियर्सन के भारतीय भाषाओँ के सर्वेक्षण ने इस आधार के भव्य भवन की नींव तैयार की .आचार्य रामचंद्र शुक्ल ,बाबू श्याम सुंदर दास ,आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी,डॉ . धीरेन्द्र वर्मा ,डॉ. रामकुमार वर्मा ,आचार्य नलिन विलोचन शर्मा , डॉ . देवेन्द्रनाथ शर्मा , लाला भगवान दींन ,रमाशंकर शुक्ल रसाल ,डॉ. नगेन्द्र ,डॉ . हरवंश लाल शर्मा जैसे दिग्गजों और उनकी शिष्य मंडली  ने संस्कृत भाषा और साहित्य की समृद्ध परम्परा और पृष्ठभूमि में  हिंदी भाषा और साहित्य के अध्ययन- अध्यापन की नींव रखी .व्यास और समास शैली में साहित्य के इतिहास, काव्यशास्त्र ,भाषा विज्ञान , काव्य और गद्य के पाठ्यक्रम की आधारभूत संरचना तैयार हुई . आज यह सोचकर और जानकर अजीब लग सकता है कि पहले हिंदी और संस्कृत साहित्य की उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी था .
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के हिंदी साहित्य के इतिहास ,रस मीमांसा और निबन्धों की ऐतिहासिक भूमिका के बिना हिंदी के अध्ययन-अध्यापन की कोई चर्चा नहीं हो सकती .त्रिवेणी की वृहद भूमिकाओं ने मध्यकालीन साहित्य के श्रेणीकरण और गुणवत्ता के जो मानक तैयार किये ,उन पर आज भी गहन विमर्श जारी है .लोकमंगल का उनका प्रतिमान आज भी किसी न किसी रूप में आज भी कायम है . रीतिवाद का प्रतिरोध आज भी प्रासंगिक है .यही कारण है कि केवल कलावाद साहित्य का एकमात्र लक्ष्य नहीं बन पाया . उर्दू भाषा और साहित्य के साथ पश्चिम की साहित्यिक –दार्शनिक बहसों ने इसे और अधिक समृद्ध और संपन्न बनाने में मदद की है .असहमत लोग दूसरी परम्परा की खोज करके अपने मार्ग अलग बनाने की कोशिश कर रहे हैं .
जहाँ तक हिंदी ,संस्कृत की उच्च  शिक्षा का सम्बन्ध है तो इसकी ओर गाँव –देहात के गरीब लोग ही ज्यादा आकर्षित होते हैं .संस्कृत पर तो ब्राह्मणों का लगभग एकाधिकार ही है .अंग्रेजी चूंकि प्रारम्भ से ही उच्च और अभिजात वर्ग की भाषा रही है जो ज्यादातर शहरों में ही केन्द्रित है लेकिन वर्तमान में भूमंडलीकरण के प्रभाव से अंग्रेजी सत्ता  और अधिकार प्राप्ति की ललक में देहातों में भी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना फैशन और मजबूरी दोनों है .यद्यपि भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में हिंदी माध्यम स्वीकृत है लेकिन फिर भी अंग्रेजी का लाभ विशेष है .सीसेट के विवाद से यह जाहिर हो चुका है कि भारत में आज भी वर्चस्व अंग्रेजी का ही रहना है .
हिन्दीभाषी जनता की  देश और विदेश की भाषाओँ और साहित्य के प्रति सीमित और संकीर्ण सोच से बेहद नुकसान होता है .हिंदी तो चूंकि उनके लिए घर की मुर्गी की तरह उपेक्षित होती है ,इसलिए उसके शुद्ध ,मानक उच्चारण और वर्तनी पर खास ध्यान देने की जरूरत ही महसूस नहीं होती .रही सही कसर हिंग्रेजी ने पूरी कर दी है .हालांकि बदलते परिदृश्य में भाषा की शुद्धता और व्याकरण से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि अब जोर इनके बजाय सम्प्रेषण –कम्युनिकेशन पर होता है .अमेरिकी अंग्रेजी ने जैसे विक्टोरियन अंग्रेजी की ऐसी तैसी करके रख दी है ,ठीक वही हाल हिंदी का हिंग्रेजी ने कर दिया है .लेकिन उच्च शिक्षा और शासन के क्षेत्र में यह अराजकता नहीं चल सकती .यह बात अलग है कि हिंदी की जटिल पारिभाषिक शब्दावली और वर्तनी के कारण हिंदी के बजाय अंग्रेजी आसान लगती है .इसीलिए हिंदी लिखित रूप में निरंतर प्रचलन से बाहर होती जा रही है ,जो चिंता की बात है .
 आज विज्ञान और टेक्नोलॉजी के युग में प्रश्न यह उठता है कि क्या साहित्य के अध्ययन और अध्यापन की पारम्परिक गुरू –शिष्य परम्परा प्रासंगिक रह गयी है या भूमंडलीकरण के विश्वव्यापी प्रसार के नाते उसमें किसी खास विशेषज्ञता की जरूरत है .क्या सूरदास के श्याम की चोटी आज भी ज्यों की त्यों है या उसमें कोई बदलाव हुआ है .टीका और व्याख्याओं के अलावा भी क्या ऐसा कुछ नया है जिसकी जरूरत है .उत्तर आधुनिकता और संरचनावाद ने इस पारम्परिक अध्ययन अध्यापन की दिशा ही बदलकर रख दी है .उस ओर से आँख बंद करके शुतुरमुर्ग की तरह इतिहास की शव साधना का क्या कोई अर्थ –मतलब होगा ?केवल कबीर ,सूर ,तुलसी को रटने से काम नहीं चलने वाला . हिंदी कविता चूंकि हिन्दू धर्म का अभिन्न हिस्सा रही है और कथा ,प्रवचनों में उसका व्यापक व्यापारिक-राजनीतिक उपयोग निरंतर हो रहा है फिर भी आधुनिक हिंदी साहित्य की पंहुच सामाजिक रही है .यों भी हिंदी के ज्यादातर  छात्रों और अध्यापकों की चेतना छायावाद से आगे नहीं बढ़ पाती .ऐसे में समकालीन हिंदी साहित्य से परिचितों का दायरा बेहद सीमित है .पुराने दौर में इतिहास ,विज्ञान ,समाजशास्त्र और अन्य अनुशासनों के लोग भी साहित्य में सक्रिय दखल रखते थे लेकिन वर्तमान में यह अपवाद ही है .अलबत्ता साहित्य और पत्रकारिता जरूर नजदीक आये लेकिन अब शुद्ध व्यावसायिकता ने उस नजदीकी को  लगभग खत्म कर दिया है .यह शुभ संकेत नहीं है .
विश्व की तेजी से नजदीक आती सभ्यताओं में पारस्परिक आदान प्रदान ने साहित्य और संस्कृति के सामने जहाँ नई सम्भावनाओं के दरवाजे खुले हैं वहां उसने  नये –नये संकट भी खड़े कर दिए हैं .एक से एक थिंक टैंक और विचारकों की फ़ौज  अब सूचना और संचार की जिस आधुनिकतम प्रविधि से जुड़ रही  है ,वहां पल भर में सब कुछ बदल जाता है .नये परिदृश्य में पैर टिकाना मुश्किल हो जाता है .हर समय आउट ऑफ़ डेट होने का खतरा सिर पर मंडराता रहता है . इस तीव्र प्रवाह में आपकी भूमिका सिर्फ फालोव्र्र या कहें पिछलग्गू फिसड्डी भर की रहती है जो घिसटने को मजबूर है .हिंदी के कम्प्युटर पर उपयोग ने विकास के नये द्वार खोल दिए हैं .गूगल की भाषा सेवाओं ने अनुवाद की जरूरत में हिंदी को भी महत्वपूर्ण जगह मिली है .बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के उत्पादों के विज्ञापनों का हिंदी भाषी उपभोक्ताओं तक पंहुचना जरूरी हो गया है .ऐसे में हिंदी के व्यावसायिक उपयोग की अनेक दिशाएं खुल रही हैं .फिल्म ,मीडिया और संचार क्षेत्र में हिंदी की पंहुच अंग्रेजी भाषी जनता से कहीं ज्यादा है .
भारत की जनता का यह दुर्भाग्य है की इस देश में तमाम आयोगों के बावजूद देसी भाषा और शिक्षा की बेहद दुर्गति है .शिक्षा राज्य का विषय है इसलिए उसकी गुणवत्ता भगवान भरोसे है .विश्वगुरु होने का दावा करने वाले देश के पास गर्व करने लायक एक भी विश्वस्तरीय शिक्षा संस्थान नहीं है .अलबत्ता विदेशों को टेक्नोकुली पर्याप्त मात्रा में निर्यात किये जा रहे हैं .
ऐसे में हिंदी साहित्य के अध्ययन और अध्यापन को अपडेट करना जरूरी है .विकास के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में संतुलन बनाकर टिकने के लिए हिंदी के एक ऐसे पाठ्यक्रम और विशेषज्ञता की दरकार है जो तमाम क्षेत्रों की आवश्यकता की पूर्ति करने में समर्थ हो . तात्कालिक रूप से कम से कम इतना तो तुरंत होना चाहिए कि देश भर में  सीबीएसई पैटर्न पर  स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर हिंदी का वही  पाठ्यक्रम स्वीकृत किया जाय जो यूजीसी और भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के लिए मान्य है .अन्यथा तो उसका कोई भविष्य नहीं होगा .
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ईमेल-moolchand.gautam@gmail.com
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नारी का साग




मुझे नहीं मालूम कि हिन्दुस्तान के किसी भू भाग में नारी का साग मिलता है या नहीं लेकिन चन्दौसी के आस पास गली गली सुबह से सिर पर गठरियों में बड़ी बूढी महिलाएं चिल्लाती घूमती हैं –नारी का साग ले लो नारी का साग .मन में सवाल उठता है कि क्या नर का भी कोई साग होता है क्या और नहीं होता तो क्यों नहीं होता ?पुरुष प्रधान समाज में घर चलाने की सारी जिम्मेदारी नारियों की ही क्यों ?जबकि तमाम बड़े बड़े होटलों में कुक पुरुष ही ज्यादा होते हैं .शादी ब्याहों में भी खाना ज्यादातर पुरुष ही बनाते हैं .
फिर यह नारी का साग क्या कला और बला है ?बरसात के दिनों में हरी सब्जियां नष्ट हो जाती हैं .तो घर कैसे चले .दालें देवताओं के लिए भी दुर्लभ .देहात में तो जिन्दगी सिर्फ नमक और चटनी के भरोसे चलता है .ऐसे में देहात की कुछ सुघड़ ,समझदार नारियां अपने सहज कौशल से घर चलाती हैं .तालाबों ,जोहड़ों के आस पास की वनस्पतियों को सब्जी में बदलने की कला में माहिर ये नारियां अपने कौशल से नारी का साग खोंट लाती हैं . पूस माघ के जाड़ों में भी -बन गया काम बनाये से, दिन कट गये गाजर खाए से का गरीबी हुनर अब गायब होता जा रहा है .गाँवों का यह स्वास्थ्यवर्धक फ़ास्ट फ़ूड गजरभात पांच सितारा होटलों के गरमागरम गाजर के हलवे से कहीं अधिक पौष्टिक और सहज सुलभ होता है .गुड और गाजर का यह मेल बेमेल दुनिया पर भारी पड़ता है .किसान भी चूंकि अब व्यापारी हो चला है इसलिए उसके खेतों से गन्ना ,गाजर और बथुआ तोडना जुर्म है .इस जुर्म की सजा दलितों को तो खासी भारी पड़ जाती है .
लेकिन नारी के साग को एकत्र करने पर इस तरह का कोई प्रतिबन्ध नहीं सो इस पर नारियों के अलावा किसी का अधिकार नहीं .बारीक़ भुजिया की शक्ल में मक्के की रोटी के साथ यह सरसों दे साग से बेहतर है.मौका मिले तो आजमाइए या फरमाइए .बन्दा हाजिर है खिदमत के लिए . 

Friday, June 24, 2016

हठयोग की पी टी




 आजकल महर्षि पतंजलि के योग के नाम पर जिस गोरखनाथ मार्का हठयोग का प्रचार देश विदेश में किया जा रहा है , उस ठगविद्या को प्रेमयोगी ब्रजवासियों ने काफी पहले नकार दिया था जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै लेकिन साब आखिर उस ठगौरी के दिन कलिकाल में ही फिरने थे . सो फिर रहे हैं .योगा का मार्किट उफान पर है .विदेशी इस योगा पर मक्खियों की तरह टूट पड़ रहे हैं .विदेशी मुद्रा के अम्बार लगे हैं .
भला हो स्वामी विवेकानंद का जो अमेरिका में वेदांत का झंडा काफी पहले गाड़ आये थे .अब उसी झंडे की शान को हम भुनाने की जुगत भिड़ा रहे हैं .उनके बाद तो अनेक अंग्रेजीदां महात्माओं ने इस व्यापार को बुलंदियों पर पंहुचा दिया है . भगवान रजनीश और महेश योगी से लेकर श्री श्री तक का सफर इसे सिद्ध करने के लिए काफी है . मुफ्तखोर ,फोकटिये भारतियों को किसी आदमी और चीज की कदर तभी पता चलती है जब वह विदेशों में हिट हो जाते हैं .जो लोग चवन्नी रिक्शे पर खर्च नहीं कर सकते उन्हें हवाई जहाज का किराया देते जान निकलती है .सब्सिडी में उनकी जान बसती है .उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य है सरकार तेल दे तो पल्ले में ले भले निकल जाए .

बचपन में अंग्रेजों की पी टी और लेझिम के अनुभवी विद्यार्थियों को आज के जिम में सिक्स और एट पैक के मुकाबले का पता नहीं .पी टी से पुलिस और फ़ौज की ट्रेनिंग में मदद मिलती थी जबकि सिक्स पैक से फिल्में आसानी से मिल जाती हैं .अब जवानों को बाबा रामदेव के नुस्खे से फूं फाँ मार्का धौकनी  चलाने और पेट में आंतें घुमाने की प्रेक्टिस करनी होगी भले इसमें दस बीस हलाक हो जाएँ , वरना उनको देश की नागरिकता से वंचित किया जा सकता है .अब बिना पढ़े लिखे इस नट करतब से ही रोजी रोटी का जुगाड़ हो सकता है तो कौन पढ़ाई की कढाई में सिर खपायेगा .पाणिनि का ब्राण्ड पतंजलि के आगे फेल है.

आओ पलायन -पलायन खेलें

# मूलचन्द्र गौतम

भारत अरसे से पलायन- पलायन खेल रहा है  .आज तक इतिहासकार ,पुरातत्ववेत्ता तय नहीं कर पाये कि आर्य यहाँ बाहर से आये थे या यहाँ के मूल निवासी थे ?क्या यह इस देश का दुर्भाग्य था जो तमाम आक्रमणकारी इस ओर आकर्षित होते रहे .इनमें से कुछ लुटेरे थे जो इसे लूटकर चले गये ,कुछ को यहाँ की आबोहवा इतनी पसंद आई कि यहीं के होकर रह गये .वर्चस्व की इस जंग में सब कुछ जायज था .कमजोर पिटते रहे ,ताकतवर पीटते रहे .मामला चाहे धर्म का रहा हो या शासन का .

पिटने वाले लोगों ने ताकतवर होते ही पुराने बदले लेने शुरू कर दिए .लोकतंत्र में चुनाव जीतने के समीकरणों के हिसाब से जाति और धर्म की गोलबंदियां होने लगीं ,ध्रुवीकरण होने लगे .इंसानियत और सर्व धर्म समभाव की दुहाई देने वाले मानवीय चेहरे खूंखार हो गये .हर चुनाव से पहले और बाद में दिलों  के बीच की दूरियां बढने लगीं .बुद्ध और गाँधी जैसे अहिंसा के पुजारी हत्या और हिंसा के लपेटे में आने लगे .सभ्यता और संस्कृति की सामासिकता का संक्रमण विवाद और अलगाव का रूप लेने लगा .हिंसा के इस नवाचार को भुनाने में लगी शक्तियों के चेहरों के नकाब उतरने लगे .
 आधुनिक शब्दावली के घटाटोप में तय करना मुश्किल हो गया है कि शासन की कौन सी पद्धति बेहतर है .रूस के विघटन और जी सात देशों की पूँजी की बढती ललक ने भूमंडलीकरण का जो विखंडित दर्शन पेश किया है वहाँ किसी देश के इतिहास और भूगोल का कोई अर्थ मतलब नहीं रह गया है .अमेरिका और चीन की व्यापारिक प्रतिद्वंदिता किस हद तक जाएगी कुछ नहीं कहा जा सकता।छुद्र स्वार्थों की राजनीति के मोतियाबिंद के कारण दूर का कुछ दिखाई नहीं देता . इसलिए तमाम अक्लमंद लोग प्रतिभा पलायन ,रोजगार पलायन में भी राजनीति का धंधा ढूँढने में लगे हैं .ब्रेन ड्रेन-ब्रेन गेम और ब्रेन गेन बन गया है .
# शक्तिनगर, चन्दौसी,संभल 244412
मोबाइल 8218636741

Friday, June 17, 2016

पार्टी लाइन

# मूलचन्द्र गौतम
जब से हर खेल को नियमों की रेखाओं में कैद किया गया है तब से उनका देसीपन ही खत्म हो गया .कुश्ती –कबड्डी जैसे देहाती खेल भी अब शहरी लगते हैं .लोकगीत का तो मतलब ही फ़िल्मी गीत हो गया है .पाला चीर कबड्डी के मजे ही अलग थे .प्रेमचंद आज होते तो उनकी कहानी गुल्ली डंडा क्रिकेट की गिल्लियों में फंसकर रह जाती .आज के इन खेल –खिलाडियों पर कोई क्लासिक रचना लिखी ही नहीं जा सकती .किसी माई के लाल में हिम्मत हो तो लिखकर दिखा दे .
यही हाल राजनैतिक पार्टियों का हुआ है .पहले एक ही पार्टी में कई –कई लाइनें एक साथ चलती रहती थीं .कभी गरम ,कभी नरम .गुलाबी ,लाल-सुर्ख लाल  ,नीली ,हरी के साथ भगवा का अलग ही जलवा था .दीपक के साथ यह पार्टी पहले केवल शहर के लालाओं तक सीमित थी .फिर इसमें सिन्धी और पंडित भी घुस गये .पंडित बहुत बदमाश कौम है .हर जाति और पार्टी में इनके यजमान निकल ही आते हैं .कितना भी नास्तिक होने का दावा करे कोई नेता और पार्टी जीत के लिए होम –हवन ,तन्त्र –मन्त्र से नहीं बच सकती .छोटे से छोटे कुकर्मी संत के  पीछे लाख पचास हजार वोट होते ही हैं .गाँव में तो मन्दिर-मस्जिद ,गुरद्वारे  ,जागरण ,हवन के चंदे के नाम पर कोई भी नेता तुरंत पिघल जाता है.ईंट ढोने वाले तक हनुमानजी की मठिया पर चार ईंट डालना जरूरी समझते हैं .
पहले भी पार्टियों में हाईकमान के नाम पर केवल एक नेता होता था ,लेकिन सामूहिकता का बोध भी रहता था .गांधीजी की भी एकछत्र तानाशाही खूब चलती थी . उनके अंध नेहरु प्रेम के कारण अनेक नेता उनसे छिटक गये और उनकी घर वापसी आज तक नहीं हो पायी है .उनकी इच्छा ही पार्टी लाइन मानी जाती थी .अब दल और दिल खुलेआम अलग –अलग भी चलते हैं और मजबूरी में साथ साथ भी .और लोग बोलते हुए भी कुछ नहीं बोल पाते क्योंकि पार्टी लाइन ,व्हिप का डंडा उनके पीछे लगा रहता है . जरा सा दायें –बांये होते ही आपको खुड्डे लाइन या लाइन हाजिर किया जा सकता है .और अब तो अफसरों से भी अपेक्षा की जाती है कि वे पार्टी लाइन को न लांघें और पार्टी के हर छुटभैये को अपना आका मानें . फिर भी मौकापरस्त हरजाइयों की हिम्मत के आगे सब ध्वस्त हो जाते हैं .इस तरह एक निकृष्टतम लोकतंत्र के पर्दे की आड़ में परिवार ,भाई भतीजावाद ,दामाद्वाद ,जातिवाद सब चलते रहते हैं .वादे वादे जायते तत्वबोध :की तरह .
अब जब से फिल्मों में पार्टी सोंग्स की धूम मची है तब से नेता परेशान हैं .पार्टी यूँ  ही चालेगी या मेरी मर्जी... के तडके ने जिस युवा तुर्क को पैदा किया है वह आतंक के जोर पर सब कुछ हासिल कर लेना चाहता है .अब हर नेता रखैलों के साथ अपने युवराज को भी साथ बल्कि आगे लेकर चलने पर विवश है .मगरमच्छ नेता की नींद हराम रहती है कि पता नहीं उसका कौन सा रिश्ता और रिश्तेदार ऐन मौके पर दगा दे जाय और रातों रात नई पार्टी खड़ी कर दे .ये फन फैलाये व्याल सब कुछ निगल जाने के बाद भी बुभुक्षित रहते हैं .इस पार्टी लाइन को निरंतर सम्भाले रखने का कौशल और नट करतब हरेक के बस की बात नहीं होती .
#शक्तिनगर, चन्दौसी,संभल 244412
मोबाइल8218636741

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Thursday, June 16, 2016

घर की मुर्गी दाल बराबर भी नहीं

# मूलचन्द्र गौतम
प्यारेलाल ने  सुबह-सुबह मातृभाषा से घर की मुर्गी की तुलना की तो मेरा दिमाग घूम गया .बुढ़ापे में यह क्या मजाक सूझ रहा है प्यारेलाल को .मजाक में हम भी कभी कभी उन्हें प्रोफेसर प्यारेलाल ही कहते हैं .लेकिन हर वक्त तो मजाक और चुहलबाजी का नहीं होता .
लेकिन मामला वाकई गम्भीर था जब मैंने देखा कि प्रोफेसर आज कतई मजाक के मूड में नहीं हैं ,बल्कि उनका मूड जड़ से ही उखड़ा हुआ है .बोले अभी तक बिहार के टापर्स का सदमा ही नहीं झेल पाया था कि दूसरा झटका यूपी ने दे दिया . एक तो उन्हें देश के विभाजन से ही खुंदक थी .ऊपर से हिंदी प्रदेशों के अलगाव ने उन्हें डिप्रेशन का शिकार बना दिया .रात दिन कामता प्रसाद गुरु और किशोरी दास वाजपेयी का नाम जप करने वाले प्रोफेसर को महान दल की तरह महान कष्ट था कि संस्कृत की तरह हिंदी को कोई पाणिनि ,पतंजलि क्यों नसीब नहीं हुआ ?उन्हें नहीं मालूम कि ऐसा होता तो हिंदी  कब की मर गयी होती .
प्यारेलाल विक्टोरियन जमाने के अंग्रेजीदां हैं .इसीलिए उन्हें अमेरिकन अंग्रेजी भी गंवारू लगती है और असल में कोई कुछ भी कहे वे  भाषा ही नहीं पूरी दुनिया की गडबडियों की जड में वे अमेरिका को ही मानते हैं .वैयाकरण गणितज्ञों की तरह झक्की हो जाते हैं .उन्हें हर समय सूत्र और समीकरण ही सूझते रहते हैं .इसीलिए दुनियादारों की नजर में वे पगलैट,क्रैक,हाफ माइंड और न जाने क्या क्या होते हैं .प्रेमपत्रों में भी व्याकरण की अशुद्धियाँ देखने वाले .
तो कुल मिलाकर लुब्बोलुबाब यह निकला कि प्रोफेसर यूपी की टीजीटी-पीजीटी परीक्षा में हिंदी की तथ्यात्मक और व्याकरणिक अशुद्धियों पर बिफरे हुए हैं .उन्हें क्या पता कि गडबडी सैटर की नहीं मुद्राराक्षस की हो?.गोपनीयता के चक्कर में प्रूफ रीडिंग न हो पायी हो .लेकिन प्यारेलाल हैं कि ब्राह्मण-कायस्थों के अलावा किसी को शिक्षा और प्रशासन के योग्य नहीं मानते .
मेरे दिमाग में खटका हुआ कि प्रोफेसर को कहीं सनक चढ़ गयी और मुख्यमंत्री ने उन्हें शिक्षा सलाहकार बना लिया तो उनकी ऐसी तैसी हो जायेगी .सब शुद्धता खाक में मिल जायेगी . एक एक वर्तनी की गलती की सजा कमचियों और उँगलियों पर झेल चुके प्यारेलाल को इस्तीफा देते ही बनेगा . चुनाव की नैया पार कराने में व्याकरण फेल हो जायेगी .
अंत में मैंने उन्हें यही समझाया खब्त छोडो प्यारे और मंहगी दाल से घर की मुर्गी की व्यर्थ तुलना मत करो .देश आगे बढ़ रहा है और तुम हो कि वर्तनी की गलतियाँ निकालने पर तुले हो .अमेरिका ही आज का और भविष्य का महाजन है अत: आँख बंदकर उसी के पन्थ का अनुसरण करो .मौज में रहोगे
#  .शक्तिनगर, चन्दौसी, संभल 244412
मोबाइल8218636741


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