मैया कबहिं बढैगी
चोटी
डॉ .मूलचन्द्र गौतम
हिंदी अध्यापन की शुरुआत बंगाल के रायल एशियाटिक सोसाइटी से हुई .उसी
की शाखाएं बाद में बनारस ,इलाहाबाद,दिल्ली ,पटना, सागर ,अलीगढ़ .....आदि जगहों से पुष्पित पल्लवित हुईं डॉ .
ग्रियर्सन के भारतीय भाषाओँ के सर्वेक्षण ने इस आधार के भव्य भवन की नींव तैयार की
.आचार्य रामचंद्र शुक्ल ,बाबू श्याम सुंदर दास ,आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी,डॉ .
धीरेन्द्र वर्मा ,डॉ. रामकुमार वर्मा ,आचार्य नलिन विलोचन शर्मा , डॉ .
देवेन्द्रनाथ शर्मा , लाला भगवान दींन ,रमाशंकर शुक्ल रसाल ,डॉ. नगेन्द्र ,डॉ .
हरवंश लाल शर्मा जैसे दिग्गजों और उनकी शिष्य मंडली ने संस्कृत भाषा और साहित्य की समृद्ध परम्परा
और पृष्ठभूमि में हिंदी भाषा और साहित्य
के अध्ययन- अध्यापन की नींव रखी .व्यास और समास शैली में साहित्य के इतिहास,
काव्यशास्त्र ,भाषा विज्ञान , काव्य और गद्य के पाठ्यक्रम की आधारभूत संरचना तैयार
हुई . आज यह सोचकर और जानकर अजीब लग सकता है कि पहले हिंदी और संस्कृत साहित्य की
उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी था .
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के हिंदी साहित्य के इतिहास ,रस मीमांसा और
निबन्धों की ऐतिहासिक भूमिका के बिना हिंदी के अध्ययन-अध्यापन की कोई चर्चा नहीं
हो सकती .त्रिवेणी की वृहद भूमिकाओं ने मध्यकालीन साहित्य के श्रेणीकरण और
गुणवत्ता के जो मानक तैयार किये ,उन पर आज भी गहन विमर्श जारी है .लोकमंगल का उनका
प्रतिमान आज भी किसी न किसी रूप में आज भी कायम है . रीतिवाद का प्रतिरोध आज भी
प्रासंगिक है .यही कारण है कि केवल कलावाद साहित्य का एकमात्र लक्ष्य नहीं बन पाया
. उर्दू भाषा और साहित्य के साथ पश्चिम की साहित्यिक –दार्शनिक बहसों ने इसे और
अधिक समृद्ध और संपन्न बनाने में मदद की है .असहमत लोग दूसरी परम्परा की खोज करके
अपने मार्ग अलग बनाने की कोशिश कर रहे हैं .
जहाँ तक हिंदी ,संस्कृत की उच्च
शिक्षा का सम्बन्ध है तो इसकी ओर गाँव –देहात के गरीब लोग ही ज्यादा
आकर्षित होते हैं .संस्कृत पर तो ब्राह्मणों का लगभग एकाधिकार ही है .अंग्रेजी
चूंकि प्रारम्भ से ही उच्च और अभिजात वर्ग की भाषा रही है जो ज्यादातर शहरों में
ही केन्द्रित है लेकिन वर्तमान में भूमंडलीकरण के प्रभाव से अंग्रेजी सत्ता और अधिकार प्राप्ति की ललक में देहातों में भी
अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना फैशन और मजबूरी दोनों है .यद्यपि
भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में हिंदी माध्यम स्वीकृत है लेकिन फिर भी अंग्रेजी का
लाभ विशेष है .सीसेट के विवाद से यह जाहिर हो चुका है कि भारत में आज भी वर्चस्व
अंग्रेजी का ही रहना है .
हिन्दीभाषी जनता की देश और
विदेश की भाषाओँ और साहित्य के प्रति सीमित और संकीर्ण सोच से बेहद नुकसान होता है
.हिंदी तो चूंकि उनके लिए घर की मुर्गी की तरह उपेक्षित होती है ,इसलिए उसके शुद्ध
,मानक उच्चारण और वर्तनी पर खास ध्यान देने की जरूरत ही महसूस नहीं होती .रही सही
कसर हिंग्रेजी ने पूरी कर दी है .हालांकि बदलते परिदृश्य में भाषा की शुद्धता और
व्याकरण से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि अब जोर इनके बजाय सम्प्रेषण –कम्युनिकेशन
पर होता है .अमेरिकी अंग्रेजी ने जैसे विक्टोरियन अंग्रेजी की ऐसी तैसी करके रख दी
है ,ठीक वही हाल हिंदी का हिंग्रेजी ने कर दिया है .लेकिन उच्च शिक्षा और शासन के
क्षेत्र में यह अराजकता नहीं चल सकती .यह बात अलग है कि हिंदी की जटिल पारिभाषिक
शब्दावली और वर्तनी के कारण हिंदी के बजाय अंग्रेजी आसान लगती है .इसीलिए हिंदी
लिखित रूप में निरंतर प्रचलन से बाहर होती जा रही है ,जो चिंता की बात है .
आज विज्ञान और टेक्नोलॉजी के
युग में प्रश्न यह उठता है कि क्या साहित्य के अध्ययन और अध्यापन की पारम्परिक
गुरू –शिष्य परम्परा प्रासंगिक रह गयी है या भूमंडलीकरण के विश्वव्यापी प्रसार के
नाते उसमें किसी खास विशेषज्ञता की जरूरत है .क्या सूरदास के श्याम की चोटी आज भी
ज्यों की त्यों है या उसमें कोई बदलाव हुआ है .टीका और व्याख्याओं के अलावा भी
क्या ऐसा कुछ नया है जिसकी जरूरत है .उत्तर आधुनिकता और संरचनावाद ने इस पारम्परिक
अध्ययन अध्यापन की दिशा ही बदलकर रख दी है .उस ओर से आँख बंद करके शुतुरमुर्ग की
तरह इतिहास की शव साधना का क्या कोई अर्थ –मतलब होगा ?केवल कबीर ,सूर ,तुलसी को
रटने से काम नहीं चलने वाला . हिंदी कविता चूंकि हिन्दू धर्म का अभिन्न हिस्सा रही
है और कथा ,प्रवचनों में उसका व्यापक व्यापारिक-राजनीतिक उपयोग निरंतर हो रहा है
फिर भी आधुनिक हिंदी साहित्य की पंहुच सामाजिक रही है .यों भी हिंदी के
ज्यादातर छात्रों और अध्यापकों की चेतना
छायावाद से आगे नहीं बढ़ पाती .ऐसे में समकालीन हिंदी साहित्य से परिचितों का दायरा
बेहद सीमित है .पुराने दौर में इतिहास ,विज्ञान ,समाजशास्त्र और अन्य अनुशासनों के
लोग भी साहित्य में सक्रिय दखल रखते थे लेकिन वर्तमान में यह अपवाद ही है .अलबत्ता
साहित्य और पत्रकारिता जरूर नजदीक आये लेकिन अब शुद्ध व्यावसायिकता ने उस नजदीकी
को लगभग खत्म कर दिया है .यह शुभ संकेत
नहीं है .
विश्व की तेजी से नजदीक आती सभ्यताओं में पारस्परिक आदान प्रदान ने
साहित्य और संस्कृति के सामने जहाँ नई सम्भावनाओं के दरवाजे खुले हैं वहां उसने नये –नये संकट भी खड़े कर दिए हैं .एक से एक थिंक
टैंक और विचारकों की फ़ौज अब सूचना और
संचार की जिस आधुनिकतम प्रविधि से जुड़ रही
है ,वहां पल भर में सब कुछ बदल जाता है .नये परिदृश्य में पैर टिकाना
मुश्किल हो जाता है .हर समय आउट ऑफ़ डेट होने का खतरा सिर पर मंडराता रहता है . इस
तीव्र प्रवाह में आपकी भूमिका सिर्फ फालोव्र्र या कहें पिछलग्गू फिसड्डी भर की
रहती है जो घिसटने को मजबूर है .हिंदी के कम्प्युटर पर उपयोग ने विकास के नये
द्वार खोल दिए हैं .गूगल की भाषा सेवाओं ने अनुवाद की जरूरत में हिंदी को भी
महत्वपूर्ण जगह मिली है .बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के उत्पादों के विज्ञापनों का
हिंदी भाषी उपभोक्ताओं तक पंहुचना जरूरी हो गया है .ऐसे में हिंदी के व्यावसायिक
उपयोग की अनेक दिशाएं खुल रही हैं .फिल्म ,मीडिया और संचार क्षेत्र में हिंदी की
पंहुच अंग्रेजी भाषी जनता से कहीं ज्यादा है .
भारत की जनता का यह दुर्भाग्य है की इस देश में तमाम आयोगों के बावजूद
देसी भाषा और शिक्षा की बेहद दुर्गति है .शिक्षा राज्य का विषय है इसलिए उसकी गुणवत्ता
भगवान भरोसे है .विश्वगुरु होने का दावा करने वाले देश के पास गर्व करने लायक एक
भी विश्वस्तरीय शिक्षा संस्थान नहीं है .अलबत्ता विदेशों को टेक्नोकुली पर्याप्त
मात्रा में निर्यात किये जा रहे हैं .
ऐसे में हिंदी साहित्य के अध्ययन और अध्यापन को अपडेट करना जरूरी है
.विकास के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में संतुलन बनाकर टिकने के लिए
हिंदी के एक ऐसे पाठ्यक्रम और विशेषज्ञता की दरकार है जो तमाम क्षेत्रों की
आवश्यकता की पूर्ति करने में समर्थ हो . तात्कालिक रूप से कम से कम इतना तो तुरंत
होना चाहिए कि देश भर में सीबीएसई पैटर्न
पर स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर हिंदी
का वही पाठ्यक्रम स्वीकृत किया जाय जो
यूजीसी और भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के लिए मान्य है .अन्यथा तो उसका कोई भविष्य
नहीं होगा .
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