Sunday, November 20, 2016

मन बनिया बनिज न छोड़े उर्फ़ मन की बात


विमर्श


# मूलचन्द गौतम

वेद ,उपनिषद और भक्तिकाल के कवियों के सकारात्मक मनोचिन्तन की तुलना में फ्रायड ,एडलर और जुंग का नकारात्मक मनोविश्लेषण दो कौड़ी का है .पश्चिम में सिर्फ विकृत मनोवृत्तियों का विश्लेषण किया गया है ,उनके सुधार और संस्कार की कोई चर्चा वहाँ नहीं मिलती .जबकि भारत में तन्मेमन:शिवसंकल्पमस्तु की प्रतिज्ञा के साथ योग द्वारा चित्तवृत्तियों के निरोध की वैज्ञानिक प्रक्रिया और भक्तकवियों के मन को दिए गये बार बार लगातार के ताने- तिश्ने, उलाहने उसे गलत मार्ग पर जाने से रोकते टोकते रहते हैं .इस तरह के सुभाषितों का एक पूरा महाकाव्य तैयार हो सकता है .मन का यह आत्मशोधन और परिष्कार ही मन की बात है –मनमानी और मनमर्जी नहीं .
भारतीय चिंतन में मन को लेकर जितना गहन विमर्श हुआ है ,उतना विश्व की किसी भी भाषा , सभ्यता ,संस्कृति और साहित्य में नहीं हुआ .मनोग्रन्थियों को खोलने की इतनी सूक्ष्म कोशिशें कहीं नहीं हुईं .रामायण ,महाभारत की परम्परा में रचित काव्यों –कवियों ने समाज और व्यक्ति के मन का शायद ही कोई कोना छोड़ा हो जहाँ तक उनकी पहुँच न हो .इस दृष्टि से कबीर ,तुलसी और सूर की मेधा अचूक है .समूचा भूगोल –खगोल इसकी जद में आता है .मन की कल्पना और ऋतम्भरा प्रज्ञा सृष्टि के मूलस्रोत के प्रारम्भ और प्रलय तक के ओर छोर नाप लेती है .मन का यही ऋषित्व इलहाम है अनलहक तक .
इस पृष्ठभूमि में देश के प्रधानमन्त्री के मन की बातों की श्रृंखला पर गौर से नजर डालें तो विचारणीय है क्या उनकी चिंताएं सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक विडम्बनाओं के प्रति जितनी सहानुभूतिपूर्ण हैं ,उतनी ही समाधानपरक और निर्णयात्मक भी हैं ? प्रश्न उठता है कि देश की आजादी के साथ भारतीय समाज को जो संविधान और विसंगतियों भरी समस्याएं मिलीं क्या उनका कोई समाधान भी है ?जिन संक्रमणों की प्रक्रिया से हमारे  समाज ,शासन और प्रशासन की पूरी संरचना गुजरी है क्या अब उसमें किसी बुनियादी बदलाव की जरूरत है ?इस बदलाव में बिना किसी जल्दबाजी के केंद्र और राज्यों के सम्बन्ध और उनकी जटिल  स्वायत्ततापूर्ण सक्रियता को गम्भीरता से समझने की जरूरत है .यह मामला केवल कुछ राजनीतिक दलों के बीच सत्ता के बंटवारे और बारी बारी से बदलाव भर का नहीं है .
आजादी के सम्पूर्ण आन्दोलन की विभिन्न धाराओं के इतिहास को इस विमर्श के केंद्र में रखना इसलिए भी जरूरी है कि कहीं यह भटक न जाये .गांधीजी के सामने ही उनकी अनिच्छा के बावजूद हुए इस आधे अधूरे साम्प्रदायिक विभाजन के नासूर को देश आज भी लगातार किसी न किसी रूप में भुगत रहा है . हाशिये पर फेंके –छेंके गये लोगों को आज तक सामाजिक –आर्थिक न्याय और समानता उपलब्ध नहीं हो पाई है . कांग्रेस और गैर कांग्रेसवाद की सत्ता की राजनीति ज्यादातर कुजात और सुजात गांधीवादियों के बीच ही झूलती रही है .नेहरूजी का समाजवाद अब अप्रासंगिक हो चुका है .चुनाव में जीत के जातिगत समीकरणों ने राजनीति की गुणवत्ता को रसातल में पंहुचा दिया है कि जल्दी उससे मुक्ति के आसार नजर नहीं आते .उसका नया अवतार  भ्रष्टाचार और आतंकवाद के रूप में सामने है ,जिसका हल सिर्फ बेमतलब का खून खराबा है ,जो लगातार हो रहा है .अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक समीकरणों के हिसाब से दोनों देश स्वसुविधानुसार पाले बदलते रहते हैं .समस्या जस की तस रहती है बल्कि और ज्यादा उलझती जाती है .
चीन के आक्रमण के बाद नेहरूजी की मृत्यु ,इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की हत्याओं के दौर भारतीय राजनीति के असफलताओं की कहानियाँ हैं .इन अंतरालों में प्रयोग के तौर पर उभरा नेतृत्व प्राय: विफल और बिखराव का शिकार रहा है .दूसरी आजादी का यह खिचड़ी विप्लव इस मुख्यधारा में कुछ खास जोड़ नहीं पाया है .1991 के आर्थिक उदारीकरण का जो विस्तार संचार ,कम्प्यूटर क्रांति के रूप में सामने आया उसके पच्चीस साल का इतिहास उथल पुथल का रहा है .सोवियत संघ के विघटन ने विश्व की गुट निरपेक्ष को एक बड़ा झटका दिया है .अमेरिका की एकध्रुवीय व्यवस्था के अपने अंतर्विरोध हैं .इनके बीच संतुलन बिठाना कठिन काम है .2014 के चुनाव के बाद मजबूत दक्षिणपंथी सरकार ने जैसे देश को कुछ बड़ी चुनौतियों के सामने खड़ा कर दिया है .तथाकथित  पारम्परिक धर्मनिरपेक्षता की मध्यमार्गी नीतियों को पिछड़े ,दलित ,अल्पसंख्यक और आदिवासी धड़े की राजनीति के सामने टकराव के कुछ नये मोर्चे खुले हैं .समान नागरिक संहिता ,तीन तलाक जैसे मुद्दे जिस ध्रुवीकरण की ओर मुड़ रहे हैं ,वहां से राजनीति का एक नया प्रस्थान बिंदु साफ़ दिखाई देता है .राज्यों के सत्ता समीकरण इसे एक नया आयाम दे रहे हैं .
विश्व राजनीति में भारत के बढ़ते दायित्वों के साथ प्रधानमन्त्री के रूप में मोदीजी देश के आंतरिक और बाह्य अंतर्विरोधों के साथ जिस दिशा में देश को ले जाना चाहते हैं ,वह बहुत कठिन और अनेक मोर्चों पर एक साथ लड़ाई को खोलना है ,जिसके विकट और विराट खतरे हैं . व्यक्तिगत तौर पर मन की बातों से इन्हें आसानी से बहलाया-फुसलाया  नहीं जा सकता . देश के विराट जन मन की बातों को शामिल किये बगैर लिए गये निर्णय  देश के समग्र विकास का मजबूत आधार नहीं बना सकते . एक चुनाव से कांग्रेस मुक्त भारत से उन्हें हमेशा के लिए मुक्ति नहीं मिल गयी है .कांग्रेस की समस्त नीतियों को एक साथ उल्टा खड़ा कराना मुश्किल है .उपनिषदों के ब्रह्मवाक्यों की तर्ज पर स्टार्ट अप ,स्मार्ट अप ....आदि आदि की थोथी शब्दावली की लफ्फाजी कार्य रूप में परिणत किये बिना कोई अर्थ नहीं रखती .मन ,वचन और कर्म की एकता का सतयुग केवल संकीर्ण हिंदुत्व से नहीं लाया जा सकता .किसी दल ,धर्म और वर्ग के प्रति खुल्लमखुल्ला घृणा और वैर से यह राह नहीं मिल सकती .कहने को सबका साथ ,सबका विकास और हक़ीकत में कुछ का साथ और कुछ का विकास लम्बे समय तक जनता की सतर्क निगाहों से बचाया –छिपाया नहीं जा सकता .आमूलचूल परिवर्तन के लिए जिस निष्पक्षता ,इच्छाशक्ति और साहस की जरूरत है ,उसके लिए कई बार चुनाव के जातिगत ,साम्प्रदायिक समीकरणों को तिलांजलि देनी होगी .यह मधुमक्खियों के छत्ते को छेड़ने से कम नहीं .मसलन आरक्षण .
ऐसे में घर फूंक तमाशा देखने के शौक़ीन कबीर की याद आना स्वाभाविक है क्योंकि यह सुविधा भक्तिकाल के मर्यादित राम और कृष्ण कथा के महाकाव्यों के कवियों को सुलभ नहीं थी .हालाँकि उन्होंने भी संकल्प विकल्पों के बीच डांवाडोल मन की कम ऐसी तैसी नहीं की .उधौ मन माने की बात ....मो सम कौन कुटिल खल कामी कहने वालों से अलग कबीर ने मन को बनिया बताकर उसकी मूल मन:स्थिति के शाश्वत स्वभाव के भूमण्डलीकृत व्यापारी रूप को खोल दिया था ,जिसके लिए हर हाल में सिर्फ शुभ लाभ होता है ,हानि  झेलने के लिए वह कतई तैयार नहीं .अब चूंकि राजनीति भी जनकल्याणकारी मिशन न होकर व्यापार हो गयी है ,इसलिए मन की बात में कोई परमहंस ऋषि नहीं व्यापारी ही बोलता है .बाबा ने तो पहले ही भाख दिया था कि कलिकाल में तपसी धनवंत दरिद्र गृही .अब इसमें किसी एक का नाम लेने की जरूरत नहीं है .मल्टीनेशनल  जनम जनम का मारा बनिया अजहूँ पूर न तोले .उसके लेने देने के बाँट बटखरे अलग अलग हैं .यही व्यापार का मूलमंत्र है .फिर कुनबा इसका सकल हरामी तो  फिर उम्मीद भी क्या और कितनी करें ?कारपोरेट के रूप में यही बनिया विश्व की सकल सत्ताओं को नचाता है .इसलिए इसके प्रतिनिधियों की कोई भी बात पता नहीं क्यों कबीर को विश्वसनीय नहीं लगती .नहीं लगती तो नहीं लगती अब इसमें हम और आप क्या कर सकते हैं ? कबीर का बनिया मन तो दूसरों को ठगने के बजाय खुद ठगे जाने से ज्यादा खुश होता है ,यही उसके सुखी होने का रहस्य है और जब सारा संसार सुखिया है तब दुखिया दास कबीर है जागे और रोवै  ----------------------------------------------------------------------------------------------------
 # शक्तिनगर ,चन्दौसी ,संभल उ .प्र. 244412 मोबाइल-9412322067

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