Friday, June 2, 2017

मैं कलंकी हूँ : गौ हत्या


# मूलचन्द गौतम
बचपन में गाँव में  एक आदमी गले में गाय की पूंछ बांधे चिल्ला रहा था –मैं कलंकी हूँ –मैंने गाय को मारा है या गाय मेरे हाथों से मर गयी है .लोगबाग अपने अपने घरों से रोटी ,अनाज सामर्थ्य भर ला लाकर उसे दे रहे थे .मैंने माँ से पूछा तो बताया कि यह आदमी गौ हत्या की सजा भुगत रहा है .कम से कम सात गाँवों में चिल्ला चिल्लाकर खुद को कलंकी बताने और भीख मांगने से ही इसकी कलंक मुक्ति होगी . इसके बाद ही यह अपने घर लौटेगा .यह कोई कहानी नहीं वास्तविकता है .
औसत हिन्दुओं के घर में पहली रोटी गाय की होती थी जिसे ताजा ताजा खिलाने का जिम्मा घर के बच्चों का होता था .रोटी खिलाने के बहाने बच्चे गाय के दोस्त हो जाते थे .गाय को अपनी गर्दन के गलगल को उनसे  घंटों सहलवाने में बड़ा मजा आता था .बड़ी से बड़ी लतकनी गाय इसे सहलाने से तुरंत काबू में आ जाती थी .
हमारे घर में पहले गाय पलती थी .वह माँ के अलावा किसी से दुहाती ही नहीं थी जिससे उन्हें कहीं आने जाने का बड़ा बंधन रहता था .फिर उस शर्मीली लजीली को रोज किसी न किसी की नजर लग जाती थी तो दूध का नागा अलग . अतिरिक्त साफ़ सफाई अलग से .गंदगी उसे पसंद नहीं . बरसात में उसका बुरा हाल .दुहाने के लिए एक जना मक्खी उड़ाने के लिए अलग चाहिए .बुढ़ाने पर उसे जंगल में छुडवाने का झंझट अलग जो बेटी की विदाई से कम दर्दनाक हादसा नहीं होता था . कसाई को देना वर्जित . गाय को खूंटे की इतनी पहचान कि मालूम हुआ तीसरे दिन फिर खूंटे पर .रंभा रंभाकर रोने को मजबूर कर दे ऐसा दारुण रुदन –बाबुल मेरे काहे को ब्याही विदेश वाला . बछड़ी दे तो लडकी की तरह झेलने की मजबूरी . ज्यादा हो जाएँ तो बहन बेटियों को दान में दे दी जातीं क्योंकि दान की बछिया के दांत नहीं देखे जाते और कोई न मिले तो मरी बछिया बाम्हन के सिर .बछड़ा दे तो खुशी –चलो हल में साथ देने वाला एक मजबूत  कमाऊ बेटा  मिला .
यह कहानी कृषि प्रधान देश भारत के घर घर की कहानी है .जहाँ गाय और सुंदर मजबूत बैलों की जोड़ी घर की समृद्धि की मोटी पहचान थी .प्रेमचंद और कांग्रेस की दो बैलों की इस कथा ने लम्बे समय तक देश पर राज किया .बच्चे गली गली नारे लगाते थे –दुनिया वालो तुम मत जाना किसी की होडा होडी पे ,देख भाल के मोहर लगाना दो बैलों की जोड़ी पे –इसके आगे कोई पार्टी और उसका निशान टिक नहीं पाता था .  अब कहीं नहीं होती बैलों की दौड़ जब जीतने पर उनकी खातिर दामाद से ज्यादा होती थी .बारात में रथ में जुतने वाले बैल वीआईपी होते थे ,उन्हें एक सेर देसी घी अलग से दिया जाता था .गोदान यों ही  रामायण -महाभारत के बाद का हिंदी का महान महाकाव्यात्मक उपन्यास नहीं है . चतुर सुजान द्रौपदी के अपमान को महाभारत का बीज मानते हैं उन्हें द्रोणाचार्य की गाय नहीं दिखती .जबसे देश में  हीरा मोती की जगह इंजन –ट्रैक्टर ने ली तभी से गाय बैल दुर्गति को प्राप्त हुए .गाय की जगह भैंस ने ले ली और बैलों को कसाई खा गये .अब फिल्मों में भी नहीं दिखती आँखों को जुड़ाने वाली दो बैलों की जोड़ी .कांग्रेस ने भी  जनता को आपात्काल का पंजा दिखाकर जैसे किसानी छवि से मुक्ति पा ली.जबकि भारत में राजनीति की वैतरणी भी बिना गाय के पार नहीं की जा सकती .इसलिए अब हमने  भारतीय संस्कृति और समाज की  केन्द्रीय धुरी गाय - गंगा  और गीता को थाम लिया है क्योंकि इनमें बड़े से बड़े पापी और पाप को समूल नष्ट कर देने की शक्ति है .इसलिए जो इनसे टकराएगा चूर चूर हो जायेगा .हम इनके साथ चाहे जो बुरे से बुरा सलूक करें लेकिन किसी विधर्मी को करने की अनुमति नहीं देंगे .जान ले लेंगे .यह नई आक्रामकता हमें हिमाद्रि तुंग श्रृंग की ओर ले जायेगी .क्या यह तथाकथित विकास की प्रतिगामी दिशा है या बहुसंख्यक वोट तंत्र को साधने की रणनीति ?
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