Thursday, January 5, 2017

गाँधी मानस निर्मिति के बीज बिंदु



# मूलचन्द गौतम                                                    

क्या महान होना हमेशा गलत समझा जाना है और यथार्थ की कठोर खुरदुरी जमीन पर असफलता ही उसकी अनिवार्य नियति है .तर्कबुद्धि ही परमसत्य है अंतर्प्रवृत्ति कुछ नहीं ?
अपनी अंतरात्मा खोकर संसार जीतने की अंधी दौड़ और होड़ में लगे लोगों को सचमुच यकीन दिलाना मुश्किल है कि भारत में कभी कोई मोहनदास करमचन्द गांधी नामक जीता जागता आदमी भी हुआ करता था, जिसने अन्याय और शोषण के सतत प्रतिरोध का कोई मौलिक मार्ग और दर्शन ईजाद ही नहीं किया था उस पर चलकर आधी अधूरी सी –मामूली सी सफलता भी हासिल की थी .
मजे की बात यह है देश की तथाकथित आजादी के सत्तर सालों के बाद भी उसके नायकों –खलनायकों पर किसी न किसी बहाने चर्चा जारी ही नहीं उसकी कीमत भी बदस्तूर बरकरार है जो इसके पक्ष –प्रतिपक्ष में खड़े होने वालों को कभी तत्काल तो कभी देर से  किसी न किसी रूप में चुकानी पडती है . इस तरह की विवादास्पद राजनीतिक सनसनी और विचारोत्तेजक अमर्षों- विमर्शों से नफा नुकसान हासिल करने वालों से अलग देश में कुछ गम्भीर बौद्धिक प्रयास और प्रयत्न भी होते रहते हैं जो किसी टीआरपी में दर्ज नहीं होते ,न कोई ब्रेकिंग न्यूज बनते हैं .
 आडवाणी, जसवन्तसिंह और अनपढ़ छुटभैये स्वघोषित सांस्कृतिक संगठनों से अलग हिंदी में मुक्तिबोध की सभ्यता समीक्षा की परम्परा में वीरेन्द्र कुमार बरनवाल ने गाँधी और जिन्ना पर जो गम्भीर विमर्श प्रस्तुत किया है ,उसकी कोई चर्चा मीडिया में नहीं हुई .बरनवाल के निधन के बाद भी दोस्तों ने इसका कोई विधिवत प्रयत्न नहीं किया भले ही उन्होंने जीते जी उनका भरपूर दोहन किया .
 आज भी गाँधी के सम्पूर्ण सोच और कर्म का आधार स्तम्भ उनकी एक छोटी सी पुस्तिका हिन्द स्वराज है जो किलडोनन कैसल नामक जहाज पर लन्दन से दक्षिण अफ्रीका की यात्रा के दौरान 13 से 22 नवम्बर 1909 की अवधि में गुजराती में हाथ से लिखी गयी थी . इसके सौ साल होने पर पक्ष विपक्ष में अनेक प्रकार की चर्चाएँ हुईं .इसी क्रम में बरनवाल ने विश्व व्यापी परिप्रेक्ष्य में  सिर्फ पुस्तक के आकार प्रकार को बढ़ाने के लिए इसके मूल और हिंदी में अनूदित पाठ के साथ एक नव सभ्यता विमर्श प्रस्तुत किया ,जिससे गाँधी की मानस निर्मिति के बीज बिन्दुओं सहित हिन्द स्वराज के अनंत   विस्तार का पता चलता है ,जिसे गाँधी के राजनीतिक गुरू गोखले और उत्तराधिकारी तक ने यथार्थ से परे निरी खामखयाली मानकर ख़ारिज कर दिया था .यही गाँधी की विडम्बना थी जो उन्हें अपने ही देश काल में जीते जी चाहे अनचाहे झेलनी पड़ी,हत्या तक . काश वे सत्ता की राजनीति में अपनी कोई कैसी भी उपस्थिति रखते तो शायद अलग स्थिति होती .नेल्सन मंडेला ने इस मायने में सत्ता की चाभी अपने हाथ में रखकर अपने आदर्शों के अनुरूप देश को चलाया .मार्क्स और माओ भी इस मायने में भाग्यशाली रहे ,भले ही उन्हें वर्तमान में मात्र पुस्तकालयों तक सीमित  हो जाना पड़ा .
डॉ .प्राण जीवन मेहता के साथ हुई बातचीत की यह जस की तस प्रस्तुति सभ्यता का मुक्तिकामी विमर्श है ,जिसका उत्तर आधुनिक नव्य बोध इसे अमानवीय आधुनिक भोगवादी सभ्यता की कठोर भर्त्सना बनाता है .यही इसका अनेकान्तवाद है जो इसे अपरिमित विस्तार देता है ,जिसके तहत मार्टिन लूथर किंग की अहिंसा से लेकर केन सारो वीवा की शहादत तक समेटी जा सकती है .
गाँधी की इस मानस निर्मिति में विश्व के अनेक देसी विदेशी लोगों और विचारों का हाथ रहा .गाँधी ने स्वविवेक से उन्हें  छोड़ा और ग्रहण किया और उनके अवदान को विनम्रता से खुलकर स्वीकार किया .सोच को आचरण से जोड़कर ही जनग्राह्य बनाया जा सकता है .इस मामले में गाँधी में जो चारित्रिक दृढता और नैतिक साहस था वही उन्हें बेजोड़ बनाता था .उसी के बल पर वे अकेले ही निर्भय होकर निकल पड़ने की हिम्मत रखते थे . क्या यही तत्व उन्हें रस्किन से ऊँचा उठाता है क्योंकि रस्किन अपने सिद्धांतों को जीवन में उतार नहीं सके और गाँधी ने आजादी के बाद देश को अपने सत्य की प्रयोगशाला बनाने का मौका गंवा दिया . काश ऐसा हो पाता तो गाँधी उतनी आसानी से वध्य भी नहीं होते .समाज के आखिरी आदमी तक गाँधी की दृष्टि रहती थी जो आजकल के जीडीपी मानकों के प्रतिकूल है .उन्हें मानव विकास सूचकांक की प्रगति ही सच्ची प्रगति लगती थी .यह भारत का दुर्भाग्य रहा कि गाँधी का देश गाँधी के जीते जी उलटे मार्ग पर चल पड़ा ,जिसके कारण गाँव और शहर के बीच समता और विकास का संतुलन गडबडा गया .आज भी जिस स्मार्ट सिटी का आदर्श अपनाया जा रहा है वह इस खाई को बढ़ाने का काम करेगा .बरनवाल ने इस विमर्श में कहीं भी अर्थशास्त्री  गुन्नार मिर्डल का जिक्र नहीं किया है जो इसका एक बेहद जरूरी हिस्सा है .कई बार वे गाँधी के विचारों को उत्तर आधुनिक सिद्ध करने की झोंक और जोश में होश तक खो बैठते हैं .मसलन चरखे पर सूत कातने और शौचालयों की सफाई को गीता की यज्ञ की अवधारणा को उत्तर आधुनिकता  में शामिल करना .
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और तथाकथित विकसित देशों की कुटिल दुरभिसंधियों को तोड़ने में गाँधी के प्रयोग आज भी कारगर सिद्ध हो सकते हैं .यह बात अलग है कि जनांदोलनों के नाम पर विदेशी इशारों और संसाधनों के बल पर पनपे स्वयंसेवी संगठन कितने स्वदेशी हो पाते हैं .भूमण्डलीकरण की आंधी में उड़ते देश कब धडाम से औंधे मुंह गिर पड़ेंगे कोई नहीं कह सकता .आज का दौर गाँधी से अलग और अधिक जटिल है .गाँधी के थिंक टैंक के भरोसे शुतुरमुर्ग की तरह हालात का सामना करना बेहद मुश्किल है . विभाजित भारत की आजादी गाँधी नहीं रोक पाये जो नासूर की तरह दंगों ,आतंकवाद और अनेक रूपों में रिसती है .चीन से नेहरू का मोहभंग केवल पंचशील की  नाकामी नहीं ,कहीं उनके भीतर के आदर्शवादी गाँधी की भी नाकामी थी .गाँधी चाहते थे कि उनके उत्तराधिकारी जवाहर की कांति डालर की चमक से धुंधली न पड़ जाये लेकिन आज तो देश ही डालरमय हो चुका है .गाँधी के उदार हिंदुत्व पर अलग तरह का खतरा मंडरा रहा है .क्या आज हिंदुत्व अन्य धर्मों के बरअक्स गाँधी का सतत विकाशशील धर्म रह गया है जिसकी परिभाषा सुप्रीमकोर्ट तय करता है .
जाहिर है कि आज केवल हिन्द स्वराज की आध्यात्मिक आभा के तले उत्तर आधुनिक विमर्श सम्भव नहीं है .इस स्यादवाद में हमें यशपाल और हंसराज रहबर के विखण्डनात्मक विमर्श को भी कहीं शामिल करना होगा अन्यथा यह एक निरी इकहरी कवायद ही सिद्ध होगी .बरनवाल बार बार यह कहते नहीं थकते कि गाँधी के इस विमर्श में गरमदल के किसी नेता का जिक्र नहीं . कांग्रेस के गरमदल के सभी नेता हिंसा और सशस्त्र क्रांति के समर्थक नहीं थे .भले हिन्द स्वराज में गाँधी स्वराज की इस अराजक समझ के अंत तक विरुद्ध रहे लेकिन  किसी उत्तर आधुनिक विमर्श में उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती .माना कि गाँधी पर स्वयं गाँधी ही सर्वश्रेष्ठ हैं और उन पर किसी पवित्र पाठ का आपका इरादा नहीं है लेकिन विखण्डन और पाठ के बिना उत्तर सत्य खुल नहीं सकता .
गाँधी ने हिन्द स्वराज में कहा कि राजनीतिक दल परिस्थितियों की उपज हैं ,सिद्धांतों की नहीं और कि पार्लियामेंट वेश्या है ,जिसे उन्होंने महिला मित्र की भावनाओं का सम्मान करते हुए हटा दिया .इसीलिए गाँधी  देश की विभाजित आजादी के बाद कांग्रेस को भंग कर देना चाहते थे जो हो न सका और लम्बे समय तक उनका दुरूपयोग होता रहा .गाँधी दर्शन और हत्या साथ साथ चलते रहे . कोई देश एक धुंधलके में कब तक रह सकता है .गाँधी आज भी किसी निश्चित सांचे और ढाँचे के लिए चुनौती हैं लेकिन विदेश में गाँधी को दिखाओ और देश में मारो-यह कब तक चलेगा ?