धर्मशाला में विपश्यना
# मूलचन्द्र गौतम
पहली बार मार्च 22 में लखनऊ में विपश्यना शिविर किया था ।तभी लगा कि एक और शिविर किये बिना धारणा साफ नहीं हो पायेगी।कोरी स्लेट से काम करना आसान होता है ।पुरानी अवधारणाओं और विधियों को एकदम खत्म करना कठिन होता है।बौद्ध धर्म और दर्शन के प्रति पूर्वग्रह मन में रहे हों तो यह और भी कठिन काम है।फिर भी विपस्सना को समझने की जिज्ञासावश जानने और समझने के बाद उसे गम्भीरता से ग्रहण करने की इच्छा से ही धर्मशाला में 1 अक्टूबर से शुरु होने वाले दूसरे शिविर का पंजीकरण करा लिया।
दिल्ली से वाया पठानकोट 1 अक्टूबर को मैक्लोडगंज शिविर स्थल पर पहुँच गया ।विंग कमांडर विश्वामित्र मुसाफिर के आचार्यत्व में रात आठ बजे से मौन का प्रारंभ।सुबह चार बजे से रात नौ बजे तक की गम्भीर साधना प्रक्रिया से गुजरना औसत आदमी के बस का काम नहीं।अनभ्यस्त बारह घण्टे लगातार ध्यान में बैठ नहीं सकते । पहले दिन बिना किसी औपचारिक कर्मकाण्ड के अष्टांगिक मार्ग -शील ,समाधि और प्रज्ञा की दीक्षा और बुद्ध ,धम्म और संघ हेतु समर्पण सम्पन्न होते हैं। अक्सर कई कच्चे लोग शुरू में ही मैदान छोड़कर भाग खड़े होते हैं बहाना कोई भी क्यों न हो ।फिर भी युवा वर्ग की बड़ी संख्या आश्वस्त करती है कि यह साधना निष्फल नहीं है।
धर्मशाला हिमाचल प्रदेश का एक खूबसूरत पर्यटन केंद्र है।इसका शांत और सुरम्य वातावरण ध्यान के लिये अत्यंत उपयुक्त है।मैक्लोडगंज में दलाई लामा के आवास के कारण यह अंतरराष्ट्रीय खबरों में भी रहता है।
बुद्ध की परंपरा में म्यामार के साधक सयाजी ऊ बा खिन द्वारा सिखाई गयी विपश्यना की क्रिया सत्यनारायण गोयनका जी ने शुध्द रूप में भारत और विश्वभर में प्रस्तुत और प्रचारित की है ।सभी केंद्रों पर विपश्यना की विधि समान है। लगभग साढ़े तीन दिन प्राण पर ध्यान केंद्रित करने की आनापानसति विधि के अभ्यास के बाद विपश्यना दी जाती है।प्राण के माध्यम से मन को वशीभूत करना होता है। इसमें किसी भी नामरूप को शामिल करने की अनुमति नहीं है। इसके बाद प्रतिदिन एक एक कर तीन घण्टे की अधिष्ठान साधना कठिन है। प्रज्ञा ,समता और अनित्यबोध के आधार पर खड़ा विपश्यना का भवन बेहद मजबूत है। उदय और व्यय तथा उच्छेद,निर्जरा और क्षय की अनवरत चलने वाली कारण कार्य की श्रृंखला की समझ सम्यक सम्बोधि का मार्ग प्रशस्त करती है। राग ,द्वेष और मोह से मुक्ति का यह मार्ग निर्विघ्न है।आत्म और जगत के प्रति दृष्टा और साक्षीभाव विकसित करना और सिर से लेकर पाँव तक और पाँव से लेकर सिर तक की विविध प्रकार की यात्रा प्रक्रियाओं के द्वारा धाराप्रवाह और भंग तक पहुंचना होता है।निर्वाण का अनुभव इसके बाद ही संभव है।
विधि की शुद्धता पर जोर देने और प्रशिक्षण के कतिपय अंगों के अतिविस्तार के कारण विपश्यना थोड़ी बोझिल हो जाती है।हिंदी और अंग्रेजी के मिश्रण के चलते दोहरी विपश्यना में अनावश्यक रूप से ज्यादा समय लगता है।विमर्श तो दोनों भाषाओं में अलग अलग होता है अन्यथा झेलना मुश्किल हो जाय ।इसी तरह गोयनका जी की दोहा शैली की घरघराहट में कई बार शब्द स्पष्ट रूप में सुनाई नहीं देते । उनकी प्रस्तुति बेहतर की जा सकती है।पाली के मूल रूप को भी हिंदी और अंग्रेजी के अनुवादों में होना चाहिए, तब ये ज्यादा सुगम हो सकते हैं क्योंकि यह भाषा हर एक को समझ नहीं आती ।आज विपश्यना को समय के अनुसार संक्षिप्त और सारगर्भित होने की जरूरत है प्रोफेशनल भी ।तभी इसे अनावश्यक विस्तार और बोझिल होने से बचाकर बहुसंख्यक वर्ग तक पहुंचाया जा सकता है।
यह शुभ लक्षण है कि गोयनका जी ने विपश्यना को किसी धर्म विशेष से न जोड़कर सामान्य जन के लिये उपलब्ध कराया है।समन्वित रूप में वे किसी धर्म और उनकी मान्यताओं के अंधविरोध से बचते हैं।शील के गुणों को सर्वत्र ग्रहण करने की उदारता ही उन्हें संकीर्णता से बचाती है।उनकी व्याख्याएं और कथाएँ इसे रोचक बनाती हैं।किसी भी तरह की व्यावसायिकता की यहां कोई गुंजाइश न रखकर उन्होंने इसे सहज और सुगम बनाया है। लगातार तनाव और दबाब भरी जीवन शैली के बीच अभ्यास की निरंतरता से ही इसके आध्यात्मिक लाभों को हासिल किया जा सकता है।
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