सत्ता की यथास्थिति और परिवर्तन के बीच मीडिया मैनेजमेंट का उत्तर सत्य
@ मूलचन्द्र गौतम
देश की तथाकथित आजादी को विभाजक रेखा माना जाय तो भारतीय पत्रकारिता
और साहित्य का बहुलांश आजादी के आन्दोलन का पूरक था और उसकी भूमिका राजनीतिकों से
कमतर नहीं थी .यही वजह थी कि इस दौर में आज की तरह साहित्य और पत्रकारिता में
संलग्न लोग अलग अलग नहीं थे . मैथिलीशरण गुप्त और गणेश शंकर विद्यार्थी महात्मा
गाँधी के कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते थे . तोप के मुकाबले के लिए तोप के बजाय अख़बार
भारी था, यानी तलवार पर अहिंसक कलम भारी
थी .इसीलिए पत्रकारिता और साहित्य सृजन रोजी रोटी कमाने के व्यवसाय के बजाय मिशन
थे ,जिसमें लोग घर फूंक तमाशा देखने के हर तरह के जोखिम उठाने की तैयारी के साथ आते थे और ज्यादातर ने ख़ुशी
ख़ुशी उठाये भी – जमानत से जेल जाने तक .अभिव्यक्ति की आजादी का मजा तभी लिया जा
सकता है जब उस पर कोई गलत पाबंदी लगाई जाये और उसका डटकर विरोध हो और पाबंदी आयद
करने वाली ताकत मैदान से भाग खड़ी हो ,भले समझौते में विखंडित आजादी मिले जो नासूर
बन जाये .
देश 1962 तक नेहरूजी के आभामंडल की छाया तले आराम से चलता रहा .संसद
में कुछेक कुजात गांधीवादियों के अलावा कोई बहसतलब नहीं था .चीन युद्ध ने जैसे देश
को मोहनिद्रा से जगा दिया और पाकिस्तान से युद्ध के झटके लगते रहे जो आतंकवाद की
शक्ल में अब भी जारी हैं.
पत्रकारिता के सामने सबसे बड़ी चुनौती आपात्काल में उभरी .सत्ता के
पीछे पीछे चलने वाली पत्रकारिता अचानक उसके दबाव तले कराहने लगी .उसके कर्ता
धर्ताओं से घुटनों के बल चलने को कहा गया तो वो रेंगने लगे .यह सत्ता की निरंकुश
ताकत के सामने पत्रकारिता का विवश समर्पण था . लगभग समूचा विपक्ष जेल में था
.कुछेक ने थोड़ा सा प्रतीकात्मक विरोध भी
किया लेकिन अंत तक रामनाथ गोयनका ही डटे रहे जिसकी उन्हें भारी कीमत भी चुकानी पड़ी
. इस तरह आपात्काल पत्रकारिता के लिए भी सरकारी अनुशासन पर्व बन गया . संजय गाँधी
की चौकड़ी ने पूरे देश को कब्जे में ले लिया .सरकारी विज्ञापनों पर आधारित क्या
आश्रित पत्रकारिता की रीढ़ वैसे भी कमजोर होती है ,फिर पूंजीपति घरानों के हाथ में
रहने वाली पत्रकारिता के हित सत्ता के विरोध में रहने पर नहीं सधते .इस नाते यह
पत्रकारिता रागदरबारी ही गाती बजाती रहती है और सरकार के विश्वसनीय सूचना और
जनसंपर्क विभाग की तरह सरकार विरोधी खबरों को सेंसर करती रहती है .कोई भी
सत्ताधारी दल या व्यक्ति जब आलोचना और असहमतियों को बर्दाश्त नहीं कर पाता तो
असहिष्णुता का खुलकर प्रदर्शन करने लगता है .यह असहिष्णुता भाषा ,कार्य ,व्यवहार
और प्रतिक्रियाओं में उभरने लगती है .प्रभुता पाहि काहि मद नाहीं का मद विपक्षियों
के प्रति घृणित कटाक्षों ,व्यंग्योक्तियों में साफ़ दिखता है .पिछले दिनों
विपक्षियों और एक खास चैनल के प्रति सत्तासीन वर्ग की यह घृणा दिखाई दी जो किसी तरह भी लोकतान्त्रिक नहीं कही
जा सकती .पद्मावती फिल्म के कलाकारों के प्रति प्रदर्शित यह घृणा कोई शुभ संकेत
नहीं है . इतिहास के बदले वर्तमान में चुकाने के भयंकर दुष्परिणाम हो सकते हैं
.जिनके निराकरण के लिए देश को चीन और पाकिस्तान बनने को बाध्य होना पड़ेगा .वोट के लिए ध्रुवीकरण के ये हथकंडे एक
उदार लोकतंत्र के लिए आपात्काल से कम नहीं घातक नहीं हैं .इसीलिए बौद्धिक तबका
विदेशी सूचना संचार स्रोतों पर ज्यादा भरोसा करता है .
आपात्काल के भयंकर शिकंजे के बाद जनविस्फोट होना ही था .चुनाव से
शांतिपूर्ण सत्तापरिवर्तन हो गया .इसमें पत्रकारिता की भी मामूली ही सही भूमिका
रही और वैकल्पिक मीडिया की जरूरत पर चर्चाएँ भी हुईं .कैदी कविराय और त्रिकाल
संध्या के साथ बाबा नागार्जुन ,फणीश्वर नाथ रेणु की कविता और साहित्य के साथ अनेक
जेल डायरियों से आपात्काल का दारुण सत्य सामने आया .लेकिन यह तथाकथित दूसरी आजादी
बिना किसी ठोस वैचारिक दिशा और संगठन के आपसी सिर फुटौव्वल में बदलकर बिखर गयी .इस
खिचड़ी विप्लव से जनता का जल्दी मोहभंग हो गया .पत्रकारिता का चौथा खम्भा फिर
यथास्थिति को प्राप्त हुआ .
इंदिरा गाँधी की दुखद हत्या से उपजे व्यापक जनसमर्थन से अपार बहुमत से
बनी सरकार को बोफोर्स का भूत निगल गया .कम्प्यूटर और संचार क्रांति ने भूमंडलीकरण
की मजबूत आधारशिला स्थापित कर दी .इसी प्रस्थानबिन्दु से देश में विदेशी हथियार
विक्रेता बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ उनके समर्थक मीडिया और 1992 के बाबरी
विध्वंस के बाद तो देश में विभाजन की
मानसिकता तैयार हो गयी .वो तो भला हो धर्मनिरपेक्ष जनता का जिसने इस नियोजित –प्रायोजित
घृणा को नकार दिया लेकिन आखिर कब तक ?
इस दौर में पत्रकारिता का जो शुद्ध व्यावसायीकरण हुआ है उसने संपादक की जगह एक नये मीडिया मैनेजमेंट को जन्म
दिया है जिसने उसे पूँजी के महामायाजाल का जूनियर पार्टनर बना दिया है . देसी
विदेशी पूँजी का निवेश अक्सर अपने अनुकूल राजनीति चाहता है ,इसी का नाम आर्थिक
सुधार है जिसे सभी क्षेत्रों में एकसार लागू किया जाना जरूरी है .पत्रकारिता भी
अपवाद नहीं . इससे पहले ज्यादातर
प्रतिष्ठित साहित्यकार ही अख़बारों ,साप्ताहिकों में सम्पादक थे लेकिन बाद में साहित्यकारों को
पत्रकारिता से जैसे निष्काषित कर दिया गया .एक प्रोफेशनल किस्म के मैनेजर को
सम्पादक की कार्यकारी जिम्मेदारी सौंप दी गयी जो पीर बाबर्ची भिश्ती खर हो चुका है
. अख़बार के संसाधन जुटाने से लेकर हर दायित्व उसका है और उसके सिर पर खुद मालिक के
रूप में प्रबंध सम्पादक बैठा है जिसके हर
इशारे पर उसे नाचकर दिखाना है.ऊपरी राजनीति से ब्लेकमेल के स्तर तक लाभ उठाने में
उसे कोई हिचक नहीं .मीडिया उसकी टेढ़ी ऊँगली है जो घी निकालने के काम आती है .इसीलिए आज सत्ता का यह चौथा
खम्भा पहला दर्जा रखता है .पीआर के नाम पर उसे हर कोई साधकर रखना चाहता है .आज इलेक्ट्रोनिक
मीडिया की मायावी दुनिया पलक झपकते सब कुछ बदलने में समर्थ हो चुकी है .वह किंग और
किंगमेकर दोनों भूमिकाओं को बखूबी निभा रही है और मजे से सत्ता और विपक्ष के बीच
की तनी रस्सी पर सरपट दौड़ रही है .लखू भाई पाठक के एक करोड़ अब लाखों करोड़ में
तब्दील हो चुके हैं .करोडपति अब गरीबी रेखा के नीचे है . रघुवीर सहाय,प्रभाष जोशी
और पी साईंनाथ भारत में पुरानी टाइप पत्रकारिता के जैसे अंतिम चौकीदार थे .पत्रकारिता
के इस विश्वव्यापी स्मार्ट परिदृश्य में आप ग्लोबल विलेज के मामूली बाशिंदे हैं
जिन्हें सिर्फ आदेशों का पालन करना है .आर्थिक सुधारों की पटरी पर आँख बंद करके
दौड़ना है .यदि आपने इस प्रक्रिया में कोई भ्रष्टाचार या गडबडी की तो तत्काल आपका
विकल्प तैयार है .फिर आप सिर्फ हाथ मलते रह जायेंगे . विकिलीक्स और पनामा पेपर्स
और गलत सलत बयान और ईमेल आपका बना बनाया खेल नेनो सेकेंड्स में बिगाड़ सकते हैं .ओबामा
से ट्रम्प और यूपीए से एनडीए और टाटा
,इनफ़ोसिस के सीईओ के विश्वव्यापी बदलाव
इसकी बानगी हैं .अब या तो परिणाम दीजिये वरना निकलिए .इस कारपोरेट कल्चर के रथ के
भारी पहियों के नीचे कुचलकर आपकी जान जाये तो जाये . हल्ला गुल्ला करने पर आपको
उचित मुआवजा दे दिया जायेगा .
इसी दौर में संस्कृति के
संचार की क्रांति और शक्ति का श्रीगणेश हुआ है .विकसित देशों के थिंक टैंक हर देश के नीति निर्धारक बन गये हैं और देश के
प्रखर सम्पादक और बुद्धिजीवी उनके उच्छिष्ट का उल्टा सीधा उल्था करके विद्वत्ता
बघारने लगे हैं .अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष
और विश्वबैंक के कर्जों के इशारों पर हर देश का राजनीतिक नेतृत्व और विपक्ष नर्तन करने
लगा है .अर्थ और राजनीति की गरमागरम
बहस और मुबाहिसों के बीच देश के युवा
जनमानस में आ रहे क्रान्तिकारी बदलाव की ओर जैसे कोई ध्यान ही नहीं दे रहा .मीडिया
मुगल रुपर्ट मर्डोक की विशाल टीम ने न केवल हमारे सोच में बल्कि खान पान की
संस्कृति में एकदम बदलाव ला दिया . चैनलों की धकापेल में इतिहास और विचारधारा सबका
अंत हो चुका है .सिर्फ दो मिनट की फ़ास्ट संस्कृति देश के किसान मजदूरों ,गरीबों
,आदिवासियों ,अल्पसंख्यकों के दुःख दर्द से अनजान बनी फोर जी और बुलेट की गति से
दौड़ रही है और हमारे पास कोई नोम चोमस्की नहीं है जो इस खतरे से बचा भले न सके,
आगाह ही कर सके ? अमेरिका खुद चोमस्की की
विपरीत दिशा में भाग रहा है और आतंकवाद को फैला कर खुद उसका शिकार हो रहा है .अमेरिकी
समाज की मजबूरी है उस दिशा में जाना ,भले वह गर्त में ले जाती हो .
अब आप पैसे से सब कुछ खरीद सकते हैं ,यानी सब कुछ बिकाऊ है .जो नहीं
बिकेगा उसे बाजार से बाहर कचरे के ढेर पर फेंक दिया जायेगा या वो बेमौत मारा
जायेगा –शंकर गुहा नियोगी की तरह . पत्रकारिता भी इसका अपवाद नहीं .पेड़ न्यूज और
जैकेट के चार चार पेजी विज्ञापनों के बल पर आप मजे से सस्ते में चुनाव जीत सकते
हैं , जियो की तरह व्यापार और बाजार को हथिया सकते हैं .रातोंरात अरब-खरबपति बन
सकते हैं . भले इसके लिए हमें प्रेस्टीटयूट पुकारा जाय .इसी अनुपात में नेताओं के
बीच गरिमा और मर्यादा की जगह एक नीच किस्म के युद्ध ने ले ली है जिसमें सब कुछ
जायज है –षड्यंत्र ,चीरहरण से लेकर हत्या तक .इसीलिए राजनेताओं की तरह पत्रकारिता
की भाषा का भी पतन हुआ है .पत्रकारिता का मतलब अब सनसनी की टीआरपी है जिसे हासिल
करने के लिए कोई भी जोखिम उठाया जा सकता है .
इस बीच पारम्परिक मीडिया को पीछे छोड़ते हुए सोशल मीडिया ने इन्टरनेट
पर अपनी बढत कायम की है जिसका प्रभाव कहीं ज्यादा साबित हुआ है .फेसबुक ,ट्विटर और
अन्य माध्यमों से जनरुचि को जो विस्तार मिला है वह निर्णायक साबित हुआ है .मोबाइल
की पंहुच ने आम आदमी के हाथ में जो हथियार सौंपा है उसने माहौल को एकदम बदल दिया
है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती . अब ट्वीट युद्ध से ही सारे मसले हल हो रहे हैं
.बाल की खाल निकाली जा रही है .विपक्षियों के काले और भ्रष्ट कारनामों पर कानूनी
कार्यवाहियां हो रही हैं .यानी एक दूसरे को हर तरह से घेरने की पूरी तैयारी है
ताकि सत्ता पर एकाधिकार कायम रहे . ट्विटर
हैंडल नई से नई तरकीबें सुझा रहे हैं .सलाहकारों की पूरी फ़ौज सुनियोजित तरीके से
चुनाव प्रचार और छवि निर्माण की बागडोर संभाल रही है .पीके जैसे मंहगे प्रोफेशनल्स
की सेवाएँ ली जा रही हैं .इस मंहगे चुनावी
महाभारत में भूखे नंगे नागरिक की भूमिका बस इतनी भर छोड़ी गयी है कि वह अपनी
पसंद का उत्पाद चुन ले .सूचना के अधिकार ने सत्ता की नैतिकता के क्षेत्र में जो
हस्तक्षेप किया है वह मामूली नहीं .इन माध्यमों ने जनरुचि के निर्माण में क्रान्तिकारी
भूमिका अदा की है जो लोकतंत्र की गुणवत्ता को बढ़ाने वाली है या घटाने वाली है इसका
निर्णय होना बाकी है .साथ ही तमाम
क्षेत्रों में आम लोगों की पंहुच को आसान बनाया है जो सत्ताधारी वर्ग को चिंतित
करता है .इन माध्यमों ने पेड़ न्यूज और प्रेस्टीटयूट को एक नई व्यावसायिक गतिविधि
में बदल दिया है जो कतई विश्वसनीय नहीं है
. आपका पिल्ला ही आपके नाम से ट्वीट पेल रहा है और आप बैठे बैठे नजारे का मजा ले
रहे हैं .पैसे के बल पर आपको फालोवर उपलब्ध कराये जा रहे हैं .फिल्मों की तरह फैशन
डिजायनर आपकी सज्जा कर रहे हैं .यानी गाँधी की लाठी और धोती की अब कोई जरूरत नहीं
है .बस हवा में जुमले हैं ,फरेब है और झांसे हैं .यही आज सत्ता के जुए के पांसे हैं .इन्टरनेट के मायावी
संजाल की पंहुच अफवाहों से संसार को विचलित कर सकती है क्योंकि ऐसे में सत्य और
असत्य के बीच फर्क करना मुश्किल काम है . चूंकि आम आदमी प्राय : सोच विचार के बजाय
प्रवाह के साथ बह जाता है जिसके भावनात्मक दुष्परिणाम घातक हो सकते हैं .उत्तेजना
की तीव्रता का अनुमान दक्षिणी महासागर और
अमेरिका तथा उत्तर कोरिया के बीच चलने वाले काल्पनिक परमाणु युद्ध से समझे
जा सकते हैं .विस्तारवाद और साम्राज्यवाद का प्रतिस्पर्धी यह नया रूप किसी भी समय
मानवता के लिए संकट खड़ा कर सकता है .कोई विदेशी थिंक टैंक इसे रोकने के उपाय नहीं
सुझाता . मनुष्य में आई इस आक्रामकता और हिंसा के पीछे कहीं जलवायु परिवर्तन का तो
हाथ नहीं ?
इसीलिए अब हमें विश्वभर में जनकल्याण के लिए
समर्पित ईमानदार और परम नैतिक राष्ट्रपति
और प्रधानमन्त्री नहीं हुनरमंद सीईओ चाहिए जो हमें पलक झपकते अंधाधुंध चमचमाती
टेक्नोलोजी से विकास की चकाचौंध से चौंधिया सकें . भले इससे हम अंधे हो जाएँ .कहने
की जरूरत नहीं कि हमें अब ऐसी ही पत्रकारिता भी चाहिए .ठस और पिछड़ी ,उबाऊ दुनिया
अब हमें रास नहीं आती .हो सकता है जल्द ई -पत्रकारिता के चलते छपने वाले अख़बार और
पत्रिकाएँ गुजरे जमाने की चीज हो जाएँ और केवल संग्रहालयों की शोभा बढाएं.सचमुच
सोने से ज्यादा कीमती कागज की बहुत बचत होगी .
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