Wednesday, December 9, 2015

स्मरण :वीरेन डंगवाल



किरिचों पर सजा इन्द्रधनुष
# मूलचन्द गौतम
वीरेन से शुरूआती मुलाकात बरेली कालिज के हिंदी विभाग के शिक्षक और अमर उजाला के साहित्यिक परिशिष्ट के सम्पादक और कवि के रूप में हुई थी फिर धीरे धीरे गाहे बगाहे मिलते जुलते यह घनिष्ठता में बदलती चली गयी .घुच्ची आंखों पर मोटा चश्मा ,मझोला कद एकदम पहाड़ी कट।मुझे ध्यान नहीं आता जब वीरेन ने कवियोचित बीमारी की तरह कभी जबरिया अपनी कविताएँ सुनाई हों .हाँ कभी मूड हो और कुछ खास लिखा हो तो बात अलग है ।तब उसकी अदा और इतराहट समोसे बनाते हलवाई से कम नहीं होती थी ।
परिवेश के सम्पादन के दौर में भी कभी उसने बार बार आग्रह ,मनुहार ,निवेदन करने पर भी अपनी कविताओं के प्रकाशन के प्रति लोभ लालच नहीं दिखाया .यह बेपरवाही –हडबडी-फक्कड़ी अराजकता दिखावे के बजाय उसका व्यक्तित्व थी ,आत्मा थी-मौजी . तमाम बन्धनों से मुक्त फिर वे चाहे कविता के हों या जीवन के .विश्वविद्यालय ने जब परीक्षकों को मुख्यालय पर बरेली बुलाकर उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन की प्रणाली शुरू की तो वीरेन को और ज्यादा नजदीक से देखने का मौका मिला .मधुरेश को तेजी से कापी जांचते देखकर उसकी मजेदार टिप्पणियाँ बेहद याद आती हैं –भाईसाब आप ऐसे ही  बिना पढ़े समीक्षाएं कर लेते हैं –फिर हंसी ,मुस्कुराहटें .और वीरेन कभी आधा घंटा  भी टिकने में असमर्थ .कभी सिगरेट ,कभी कुछ तफरीह और दोपहर के बाद तो भाई लोकल होते हुए भी कभी लौटा ही नहीं . संयोजक जेटली ने एक बार कहा भी कि उनके लिए अलग से बैठने की व्यवस्था करा देंगे पर फिर उसने कभी इस बोझिल काम में हाथ नहीं डाला .
पढ़ाने के मामले में भी वीरेन समय का पाबन्द मुंशी नहीं था .भूले , हकबकाए  ,दौड़ते –भागते हुए जब तक क्लास में पहुंचे तब तक सब साफ़ या हाफ .निराला उसके प्रिय कवि कहे कि मौका मिले तो वह राम की शक्ति पूजा के बिम्बों को क्लास में साक्षात कर दे . शमशेर उसके आदर्श कवि .पता नहीं कालिज की स्वर्णजयंती पर निकलने वाली पत्रिका के विशेषांक को उसने कैसे ऐतिहासिक बना डाला . दरअसल सम्पादन में उसकी जान बसती थी .इसीलिए बरेली में अमर उजाला को उसने लोकप्रिय बनाने में बहुत मेहनत की .इसके कानपुर संस्करण की मजबूत नींव रखी . कॉलिज प्रशासन ने उसकी पूरी मदद की ।पीलीभीत से वरुण गाँधी के चुनाव के दौरान अख़बार के थोड़े से वैचारिक विचलन के दिनों के अलावा अंत तक वह इसके निदेशकों में बना रहा .
वीरेन के पिता श्री आर पी डंगवाल बरेली से एडिशनल कमिश्नर पद से रिटायर हुए थे .उनकी नौकरी के दौरान ही वीरेन बरेली कालिज में नियुक्त हो चुके थे .पिताजी को कचहरी के पास सिविल लाइंस में एक बड़ा बंगला एलाट हो चुका था . पिता खाली वक्त में कचहरी में प्रेक्टिस भी करने लगे थे .वीरेन उनके साथ ही रहते थे .यह बंगला स्टेशन के पास ही था –बस पांच मिनट के पैदल रास्ते पर .इसलिए कभी भी आते जाते उनसे मुलाकात हो जाती .हमेशा ललककर मिलने को तैयार . आने वाला हर आदमी खुद को घर का सदस्य समझता .उनके निधन के बाद वीरेन ने वहीं पास में ही जे बी मोटर्स के पास एक भव्य दो मंजिला मकान खरीद लिया था .उसकी कुतिया और उसका पुत्र घर के सम्मानित सदस्य . हर आने वाले का स्वागत पहले भौंक कर करते फिर वीरेन के समझाने पर सबके दोस्त हो जाते और साथ में नाश्ता उड़ाते . वीरेन  दोनों बेटों और पत्नी  को सबसे जरूर मिलाते .वीरेन रीताजी को सबका परिचय देने को उत्सुक जैसे कहता हो दुनिया की नजरों में वह भी काम का आदमी है .मौज में होता तो सबके सामने रीताजी को मम्मा कहने से भी नहीं हिचकता .उस समय रीताजी की मुखमुद्रा देखने लायक होती जैसे आँखों आँखों में पति की शरारतों को माफ़ कर रही हों .
यूजीसी की योजना के तहत वीरेन  ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से  राम स्वरूप चतुर्वेदी जी के निर्देशन में डीफिल कर ली थी वरना यह कवि  बिना किसी अफ़सोस के जिन्दगी भर कम्पाउंडर ही रहता .इलाहाबाद और नैनीताल में उसकी आत्मा बसती थी .इन दोनों जगहों पर उसकी जवानी और जिन्दगी रहती थी .जब मौका मिलता उड़कर पहुँच जाता .बरेली उसका मगहर था .
कभी घर पर रीताजी न होतीं तो वीरेन की मेहमाननवाजी का जोश चरम पर होता .खुद अपने हाथों बिना चीनी की चाय और ब्रेड आमलेट बनाता .खाता और खिलाता .पान मसाला या सुरती लगातार चलती .कभी कभार शाम रंगीन भी होती दोस्तों के साथ .एक दिन मुझे बरेली रुकना था-गर्मियों के दिन  .वीरेन ने चुपचाप फ्रिज से पानी की बोतल निकाल कर अंटी में लगाई और स्कूटर लेकर निकल पड़ा .दुकान पर जाकर एक क्वार्टर लिया और झील के किनारे बैठ गये . ऐसे में गोरख पांडे के जनगीत उसकी जुबान से उमड़ उमड़ पड़ते .समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई ......ऐसे में ही उसने मेरी मंटो की किताब मम्मी उड़ा दी थी जो  मुझे कभी नहीं  मिली और मैंने उससे रमेश कुंतल मेघ की किताब अथातो सौन्दर्य जिज्ञासा पढने को मांगी तो  न देने के तमाम बहाने तैयार .
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वीरेन रामपुर आकाशवाणी में एक बार कविताएँ रिकार्ड कराने आया तो कुमार सम्भव ने मौके का लाभ उठाया . बतरस के लिए ट्रेन से साथ ही बरेली चल पड़ा और फिर लौटकर अकेला आया . रामपुर में राजकुमार सचान होरी एडीएम होकर आये थे कुमार सम्भव ने उनके साथ काव्यपाठ का एक बड़ा आयोजन किया .उसमें होरीजी के कुछ मंचीय कवि शामिल हुए थे और हमारी ओर से वीरेन और बल्ली सिंह चीमा ,जहूर आलम आदि .बाद में पता चला यह होरीजी के जन्मदिन का आयोजन था .वीरेन ने तरन्नुम में ...मोटे मोटे चूहे वाली कविता का पाठ किया था .इस कार्यक्रम में हास्यकवि भोंपू भी थे .तमाम लोगों ने पता नहीं क्यों उन्हीं को मोटा चूहा  समझकर ठहाका लगाया ,माहौल गम्भीर हो गया .बाद में रस रंजन हुआ और गिफ्ट में रामपुरी रम की बोतलों के साथ सब विदा हुए .कुमार सम्भव के आत्मघात से वीरेन को बहुत आघात पहुंचा था जो कविता के रूप में फूट पडा था .उसकी बरसी पर रामपुर में आयोजित कार्यक्रम में वीरेन ने अमर उजाला की ओर से आर्थिक सहयोग भी दिलवाया था ।यह जैसे अमर उजाला में मेरे हृदयेश के साथ प्रकाशित साक्षात्कार का मेहनताना था जो मुझे नहीं वीरेन के सौजन्य से हृदयेश को भेज दिया गया था ।
# नीलाभ ने मित्रता के नाते वीरेन का पहला संग्रह प्रकाशित किया था .यह एक असम्भव कार्य था .मैंने परिवेश -12 में इसकी एक अत्यंत अनौपचारिक समीक्षा की .वीरेन की प्रतिक्रिया थी कि यह  किसी लंगोटिया यार की ही  हो सकती थी .पता नहीं क्यों फिर मैंने उसके दूसरे संग्रह पर कुछ नहीं लिखा क्योंकि अकादमी पुरस्कार को लेकर इतना बवाल पहले ही हो चुका था जो बेवजह था और उसे अनावश्यक घेरने का कुचक्र था . गिरिराज किशोर और उसके परम मित्र मंगलेश डबराल के नैतिक समर्थन के बिना वह भावुकता में क्या कर बैठता कहना मुश्किल है .मैंने कभी इस मुद्दे पर वीरेन से जान बूझकर बात नहीं की .पता नहीं उसे क्या बुरा लग जाए ?
वीरेन का कोई प्रिय पाठक और युवा कवि जब उसकी कविताएँ जुबानी उसके सामने ही सुनाने लगता तो कवि का सीना फूल जाता और मुद्रा ...इतने भले नहीं बन जाना साथी ....वीरेन की प्रतिबद्धता सरल कविता से थी जो जनता तक सीधे पहुंचे .इसीलिए उसकी कविता बेहद मामूली देहातियों ,कामगारों के स्वाभिमान की कविता थी जिन्हें घुटनों घुटनों भात और कमर कमर तक दाल से ज्यादा की चाहत नहीं थी . उसकी ये छोटी छोटी कविताएँ पाठकों –श्रोताओं की जुबान पर तुरंत चढ़ ही नहीं  जाती थीं  बल्कि सिर चढकर बोलने लगती थीं .बहुत दिनों में दीखे भाई ......एक मामूली रेल के इंजन से बातचीत सिर्फ वीरेन के बस का काम था .वीरेन नाजिम हिकमत पर जी जान से फिदा था ।उनकी कविताओं के अनुवाद भी उसने किये थे .वैदिक मंत्रों पर उसकी एक अलग सीरीज थी .
# बरेली में जन संस्कृति मंच के राज्य सम्मेलन का आयोजन करके वीरेन ने जैसे अपनी इसी संगठन क्षमता और प्रतिबद्धता का खुला इजहार किया था .वीरेन की यह दुनिया पूरे देश में फैली हुई थी .यार दोस्तों को पुकारने के उसके अलग अलग नाम थे प्यार से वह मुझे मूली बुलाता तो प्रियदर्शन मालवीय को पिद्दू ।यह उसका विशेष प्यार था जिसका इज़हार वह खुलकर करता था ।यदि आपको यह स्वीकार नहीं तो आप अपात्र कुपात्र विपात्र हैं ।
  वीरेन के इस इन्द्रधनुष के अनेक रंग हैं जो किरिच किरिच पर फैले हुए हैं .यह तस्वीरे यार यारों की अपनी फितरत पर है कि वे इसमें क्या देखते हैं ?एक कवि अपनी कविताओं में अमर होता है लेकिन वह अपने चाहने वालों की यादों में भी अमर रहता है . यह विचित्र है की वीरेन की कविताओं पर बात करने वाले तो बहुत मिल जायेंगे लेकिन उसके अद्भुत व्यक्तित्व की जानकारी सिर्फ निकट मित्रों को ही होगी .वीरेन को परम पवित्र देवता बनाने वालों की भी कमी नहीं जो उसे हाड़ मांस का जिंदा मानुस मानने को तैयार नहीं ।

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अरविन्द त्रिपाठी आकाशवाणी में निदेशक होकर आये तो अज्ञेय ,शमशेर और नागार्जुन  की जन्मशताब्दी पर कार्यक्रमों की अद्भुत श्रृंखला शुरू की .शमशेर जी वाले कार्यक्रम में मैं भी था .मेरे बोलने के बाद बोला अब मेरे लिये क्या बचा है .वहीं जिस भाव से वीरेन ने डूबकर शमशेर जी वाली अपनी कविता सुनाई वह अद्भुत दृश्य था परकाय प्रवेश वाला .
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बरेली में जब भी  हमारे किसी शोध छात्र की पीएचडी की कोई मौखिक परीक्षा होती तो हम तहेदिल से  मिलते ।हमारे कॉमन विद्यार्थी श्योराज सिंह बेचैन को वीरेन ने डॉ आंबेडकर की पत्रकारिता पर शोध कराया और अमर उजाला में लगातार छापकर उसकी लेखनी को खूब माँजा, सँवारा और चमकाया जो आज दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग का अध्यक्ष है ।वीरेन के निर्देशन में अशोककुमार शर्मा की मौखिक परीक्षा होने वाली थी जो उस समय बरेली के जनसंपर्क अधिकारी थे और परीक्षक काशीनाथ सिंह  .गेस्टहाउस में रुकने की व्यवस्था थी .संयोग से काशीनाथ सिंह के साले साहब मानवेन्द्र सिंह यहीं एडीएम के पद पर तैनात थे .काशीनाथ जी ने मुझे भी बुलवा लिया था .पूरी मौज रही .मानवेन्द्र जी के घर से लौटते में काशीनाथ जी अतिरिक्त माल मसाला ले आये थे तो बैठक फिर जमी ।
इसी तरह एक बार काशीनाथ सिंह बरेली एक मौखिक परीक्षा लेने आये हुए थे .गाँधी जयंती होने के कारण मुश्किल से रस रंजन की व्यवस्था हो पायी .वीरेन को कुछ ओवर हो गया .ऐसे समय में उसे साधना मुश्किल हो जाता था . वह सांड की तरह बिफर उठता .सामने वाला उसके लिए गाजर मूली हो जाता ,जिसे वह सलाद समझकर निर्ममता से काट डालता और फिर खा जाता . उस समय वीरेन की ऋतम्भरा प्रज्ञा उर्फ़ कुंडलिनी जाग्रत हो जाती जो मौलिक –कौलिक गालियों  में बदल जाती .उसकी जैसी गालियां विश्वभर में नहीं मिलेंगी।
 ये ऋषि मन्त्र अक्सर नहीं झड़ते थे .वैसे लोगों और चीजों को पहचानने का उसका मौलिक तरीका था –अलग शब्दकोश था .बेबाक होने की हद तक मुँहफट होना कई बार सम्बन्धों को खराब करता है।होटल वीरेन के घर के पास ही था .काशीनाथ जी से वीरेन ने कुछ ऊटपटांग कर दिया .उन्हें तरन्नुम में झाँसीनाथ तक बना डाला ,पता नहीं यह उसकी कौन सी ग्रन्थि थी जो एकदम खुल जाती थी ।तब मैं उसे घर छोड़कर आया .सुबह जाने के समय वीरेन ने स्टेशन पहुंचकर काशीनाथजी से खेद प्रकट किया .उस समय तक कविता की गाडी बरेली से  होकर नहीं गुजरती थी .
इसी क्रम में कमलाप्रसाद जी और गोपेश्वर सिंह भी बरेली  आये थे .कमलाप्रसाद जी के सम्मान में विश्वविद्यालय में एक विचार गोष्ठी भी हुई थी  जिसमें आस पास के अनेक लेखक आये थे और जिसकी अध्यक्षता वीरेन ने की थी .रात में प्रियदर्शन  मालवीय और त्रिपाठी जी के सान्निध्य में गम्भीर साहित्य चर्चाएँ हुई थीं . बरेली में गोपेश्वर जी का फेवरिट मिलिट्री होटल भी गुलजार हुआ था  .अब वीरेन की अस्वस्थता खुल चुकी थी .परहेज  में बियर की अनुमति थी .उस रात विश्व मोहन बडोला जी का सान्निध्य एक उपलब्धि थी .वीरेन ठेठ इलाहाबादी रंग में था .दादा बडोला जी  के किस्से अश्क जी से लेकर विष्णु खरे तक फैले हुए थे .काश वीरेन ने आत्मकथा लिखी होती ?
# विश्वविद्यालय की हिंदी की पाठ्यक्रम समिति ने पूरा पाठ्यक्रम बदल दिया था ।संयोजक बरेली कॉलिज की मंजरी त्रिपाठी थीं ,उनके पति विद्याधर त्रिपाठी भी कॉलिज में ही विभाग में थे , तो जाहिर है कि संयोजक पति होने  का लाभ वे लेते ही थे ।राजकमल प्रकाशन को पूरा कार्य दे दिया गया था जिससे चिढ़कर स्थानीय प्रकाशक पाठ्यक्रम को लेकर हाईकोर्ट चले गये थे ।वीरेन मंजरी जी को भाभीजी कहता था और मसखरी में मजे लेता था हालांकि पाठ्यक्रम में उसकी कविताएं भी रखी गयी थीं ।मैं भी समिति का सदस्य था तो आना जाना लगा रहता था ।वीरेन मुझे भी खूब छेड़ता था ।
#हरिचरन प्रकाश जिन दिनों राज्यपाल के ऑफिस में शिक्षा सचिव थे तो एक दिन उनका फोन आया कि विश्वविद्यालय में राज्यपाल के प्रतिनिधि के रूप में मधुरेश और वीरेन में कौन उपयुक्त रहेगा ।मैंने वरिष्ठता के नाते मधुरेश का नाम लिया जो फाइनल हो गया ।बाद में मुझे गलती का अहसास हुआ क्योंकि मधुरेश ने विश्वविद्यालय में कोई अकादमिक योगदान नहीं किया उल्टे जगह जगह लिफाफे लूटने की खबरों से शर्मिंदा किया।शायद वीरेन कुछ बेहतर साबित होता ?
# एक बार कैंसर के अजगर और दोबारा  मगरमच्छ से जूझते इस हीरो को देखना बेहद दुखद था लेकिन  इनसे दो दो हाथ करने की उसकी जिन्दादिली  मृत्यु के दुश्चक्र में फंसे सृष्टा से कम नहीं थी .उसे बचाने कोई भगवान आने वाला नहीं था .इसीलिए वह आखिरी वक्त में अपने मगहर बरेली में लौट आया था –जो काशी तन तजे कबीर रामहिं कौन निहोरा ....और बदले में यह मगहर अपने इस महबूब कवि को आजीवन दिल दिमाग में  याद रखेगा ।सुधीर विद्यार्थी के सहयोग से वीरेन के घर के पास पार्क में उसकी एक प्रतिमा शहर से कवि की निरंतर बातचीत और याद को बनाये रखेगी यह अच्छी बात है ।

मुझे तो आज तक रीता भाभी का सामना करने का साहस नहीं हुआ है हालांकि दो बार घर जाकर लौट आया हूँ।अभी तक विश्वास नहीं होता कि वीरेन अब इस दुनिया में नहीं है ।अपनी कविताओं के साथ वह हमेशा हमारे साथ है और रहेगा ।
# शक्तिनगर ,चन्दौसी ,संभल 244412 
9412322067

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