शुरू से ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थकों के
हाथों में हिंदी, हिन्दू और हिंदुस्तान का मजबूत नारा रहा है .तथाकथित
धर्मनिरपेक्षता की तमाम दुहाईयों के बावजूद यह कभी मुकाबले में हिंदी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा से नहीं
पिटा .अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में दिया गया भाषण
बेहद क्रन्तिकारी कदम माना गया गोया कि जैसे इस एक भाषण से ही हिंदी विश्वभाषा हो
गयी हो .
राजनीति के अपने टोटके हैं जो गाहे बगाहे सफल –असफल
होते रहते हैं .हाल ही में गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग द्वारा हिंदी को वरीयता देने के निर्देश से तमिलनाडु
में जो तूफान आया है यह कोई नई बात नहीं है .अलबत्ता हिंदी भाषी प्रदेशों के
नौजवानों में उत्साह जरुर दौड़ गया है कि
काश अब उनके अच्छे दिन आ ही गये मानो और वे सब जैसे अखिल भारतीय सेवाओं में
प्रविष्ट हो गये.लेकिन अहिन्दीभाषी राज्यों में उनके विरुद्ध होने वाली हिंसा और
घृणा इस अतिउत्साह पर पानी फेरने के लिए काफी है .यह केवल व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा
का परिणाम नहीं हो सकती .असम और महाराष्ट्र की घटनाएँ भाषायी साम्प्रदायिकता और
नफरत के ताजा उदाहरण हैं जो गांधीजी के समय नहीं थे .
गाँधी और नेहरु को एक साथ बेनकाब करने वाले यह
भूल जाते हैं कि जहाँ गाँधी जी ने खुलेआम घोषणा की थी कि-दुनिया से कह दो गाँधी
अंग्रेजी भूल गया वहीं उनके घोषित राजनीतिक उत्तराधिकारी नेहरूजी संविधान सभा की
भाषा सम्बन्धी बहसों में जोर देकर कह रहे थे कि-आप इस बात को प्रस्ताव में लिखें
चाहे न लिखें ,अंग्रेजी लाजिमी तौर से बहुत महत्वपूर्ण भाषा बनकर रहेगी ,जिसे बहुत
लोग सीखेंगे और शायद उन्हें उसे जबरन सीखना होगा .यह मैकाले की सफलता और गाँधी की
हार और अप्रासंगिकता नहीं भारत का भविष्य था जिसे उन्होंने जानबूझकर एक खासे
अंग्रेजीदां के हाथों में सौंप दिया था .शायद यही उनकी हिमालय जैसी भूल थी जिसे
सुधरने का कोई मौका उनके पास नहीं रह गया था .
आज मी नाथूराम गोडसे बोलतोय की चर्चा की इसीलिए
जरूरत है क्योंकि हत्या एक आधा –अधूरा समाधान था .हो सकता है कि गांधीजी थोड़े और
दिन जिन्दा रहते तो शायद आत्महत्या का चुनाव तो नहीं ही करते .उन्हें अपने
उत्तराधिकारियों के साथ एक नये संघर्ष में उतरना पड़ता और यह शायद सबसे पहले
हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा घोषित करने को लेकर होता .हा –हा हिंदी दुर्दशा न
देखि जाई को लेकर तब शायद दक्षिण में खासकर तमिलनाडु में राजनेताओं को हिंदी
साम्राज्यवाद का भय इस कदर न सताता .
हिन्द स्वराज को ही प्रमाण मानें तो गांधीजी
अंग्रेजी शिक्षा के ही पक्षधर नहीं थे
.उन्हें परायी भाषा में स्वराज की बात करने वाले जनता के दुश्मन नजर आते थे
.उन्होंने साफ कहा था कि-अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में ,उसे
परेशान करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है .इसका यह कतई यह मतलब न लिया जाये कि
गांधीजी प्रांतीय भाषाओँ पर जबरिया हिंदी लादने के समर्थक थे .१९४७ में हरिजन में
उन्होंने आजादी को लेकर लिखा था कि सूबों की जनता को हर तरह से अब यह अनुभव होना
चाहिए कि अब उनका जमाना है लेकिन किसी भी क्षेत्र में वह कुछ न हो सका जो गांधीजी
चाहते थे .जनता तथाकथित आजादी के नाम पर साम्प्रदायिक बंटवारे में ठगी गयी .विभाजन
की वह गांठ नासूर की तरह सब कहीं फूट पड़ती है और हम उसे निरीह ,निरुपाय बने देखते
रहने के अलावा कुछ नहीं कर सकते ?यहाँ पांच साल में भावुक और मूर्ख जनता सिर्फ और
सिर्फ वोट देती है –राजकाज में हिस्सा नहीं लेती .
डॉ,रामविलास शर्मा जिन्दगी भर हिंदी जाति को लेकर
जूझते रहे लेकिन उन्हें कोई चन्द्रगुप्त नहीं मिल पाया .वामपंथियों के अंग्रेजी
प्रेम को यह अंग्रेजी का अध्यापक पानी पी-पीकर कोसता रहा लेकिन उनके कानों पर जूँ
तक नहीं रेंगी ?और अब जनविमुखता का यह फल मिला है कि बस दो चार नामलेवा भर बचे हैं
.रामचन्द्र गुहा ने पता नहीं कौन सी पाटी पढ़ी है कि अंग्रेजी के अंधसमर्थक होकर भी गांधीवाद की बातें कर सकते
हैं .फिर से हिन्द स्वराज में हिंदी के बारे में
गाँधीजी की इस लगभग अंतिम घोषणा को याद करने का लोभ संवरण नहीं होता कि-यदि
स्वराज अंग्रेजी पढ़े भारत वासियों का है और केवल उनके लिए है तो संपर्क भाषा अवश्य
अंग्रेजी होगी .यदि वह करोड़ों भूखे लोगों ,करोड़ों निरक्षर लोगों ,निरक्षर
स्त्रियों ,सताए हुए अछूतों के लिए है तो संपर्क भाषा केवल हिंदी हो सकती है ..यहाँ
उनका आशय राष्ट्रभाषा से ही है .
हिंदी को बोलियों से अलगाव को लेकर भी राजनीति
करने वाले अंग्रेजी के समर्थकों से कम घातक नहीं हैं लेकिन यदि भाषावार राज्यों को
ही राज्य निर्माण का मानक मानें तो भी हिंदी को बांटो और राज करो की अनीति को ही
झेलना पडा है .काश इसी अन्याय में न्याय के कुछ सूत्र मिल जाएँ और यह बालू की
दीवारअंग्रेजी के बजाय प्रांतीय भाषाओँ के देसी सीमेंट से मजबूत बन जाये .
हिंदी पट्टी को गोबर पट्टी कहने वाले
इसीलिए अंग्रेजी को देश को जोड़े रखने वाला एकमात्र सीमेंट और हिंदी को बालू की दीवार बताते रहते
हैं ताकि उनके धंधे पर आंच न आये और वे आजीवन स्याह को सफेद करते –बताते रहें
.और ताउम्र उन्हें जाति धर्म के नाम पर
बरगलाते रहें .
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