लिंगानुपात के गडबडझाले में
बिहार की दुल्हनें चर्चा और चुनाव के केंद्र में हैं . लोगों के मन में काफी कुछ रूढ
धारणाओं के रूप में जमा रहता है .पुराने जमाने में ही सुना करते थे कि बंगाल और
असम की औरतें ऐसा जादू जानतीं थी जिनसे
आदमी को वश में कर लिया जाता था और फिर वह कभी पीछे मुड़कर नहीं देखता था .इनमें
कभी आदमी को मक्खी ,कभी तोता बना लेने के किस्से भी शामिल रहते थे .छुक –छुक पैसा
चल कलकत्ता में मजदूरी के लिए निकले वाले गरीबों की बीवियों माओं का सबसे बड़ा भय अपने पतियों-पुत्रों को इन्हीं जादूगरनियों से बचाने के लिए किये
जाने वाले जप –तपों-व्रतों में व्यक्त
होता था .
अब मजबूरी में यही काम धंधे
के तौर पर पश्चिम के धनवान और पुरुष
प्रधान समाज में शुरू हो चूका है .सामाजिक –आर्थिक कारणों पर गम्भीर विचार और सर्वेक्षणों में यह साफ हो सकता है कि क्यों
किसी भी कारण से विवाह वंचित समुदाय की आर्थिक क्षमता बिहार और बंगाल से युवतियों
को खरीद कर घर बसाने की प्रवृत्ति में बदल रही है कि हरियाणा में एक चुनावी
प्रलोभन बन रही है .बंगाल का नाम लिया जाता तो शेरनी दीदी की प्रतिक्रिया लालू से
भी ज्यादा भयंकर होती ,भले वे उसे रोक नहीं पातीं .
आखिर क्यों कोई माता –पिता
उड़ीसा ,बिहार ,बंगाल या और भी कहीं अपनी संतानों को बेचने पर मजबूर होते हैं
?गरीबी के अलावा यह किसी शौक के तहत तो नहीं ही होता .एन सी आर में घरों और
बिल्डिगों में काम करने वाले समूह भी यही क्यों हैं ?इन बिहारिनों –बन्गालिनों को कोई रानी –महारानी
नहीं बना देता .यहाँ भी वे तन तोड़ मजदूरी करती
हैं और बदले में पिटती-कुटती हैं .अलबत्ता अपवादस्वरूप कोई भला आदमी मिल गया तो
बात अलग है कि कभी कभार उन्हें मनपसंद मछली –भात मिल जाय .
जरूरत इस मामले को राजनीतिक
शोशेबाजी के बजाय समाजशास्त्रीय दृष्टि से गम्भीरता से लेने की है कि ऐसा क्यों हो
रहा है और इसका निदान क्या है ? सामन्ती नजरिये से औरत आज भी पैर की जूती से
ज्यादा अहमियत नहीं रखती और पूंजीवादी नजरिये से इस जूती को सिर्फ सजा कर
लीप-पोतकर ड्राइंग रूम में रखा जा सकता है .स्त्रीवादी विमर्शकार और अधिकार समूहों
की चिंता में यह सब क्यों नहीं है .यह सोचने की बात है .
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