Tuesday, April 14, 2015

फ़्रांस ,जर्मनी और भारत


दर्शन ,इतिहास और विचार की दुनिया से जुड़े भारतीय लोगों के लिए फ़्रांस और जर्मनी केवल योरोपीय देश नहीं हैं .इन दोनों देशों का नाम आते ही उनकी धमनियों में सार्त्र , कामू, काफ्का ,सीमोन ,ब्रेख्त,गुंटर ग्रास  इत्यादि तमाम नाम धडकने लगते हैं .फ़्रांस की राज्यक्रांति के बिना मार्क्स की क्रांति और समाजवाद की कल्पना और अवधारणा सम्भव ही नहीं थी .पेरिस केवल फ़्रांस की नहीं विश्व की सांस्कृतिक राजधानी है .उसी तरह जर्मनी के नाजी तानाशाह  हिटलर के बिना नस्लवादी घृणा और नरसंहारों का इतिहास लिखा ही नहीं जा सकता .
नेहरु जी के पेरिस प्रेम को कपड़ों की धुलाई तक सीमित कर देने वाले लोग निश्चित ही फ़्रांस के वैचारिक इतिहास और दर्शन के क्षेत्र के महान योगदान की कोई चर्चा नहीं करना चाहते .हिंदुत्व की विचारधारा के आधार पर भारत के लोकतंत्र की अगुआई करने वाले मोदी की तुलना हिटलर से यों ही नहीं की जाती ?केवल व्यापार की चिंता में कोई भारतीय नेता इन देशों में जाता है तो वह इन देशों की महान विरासत की उपेक्षा ही करता है जो इन्हें भारतीय मेधा के नजदीक लाती है . बात –बात में वेद और गीता की दुहाई देने वाले नेता को मैक्समूलर और वेद और संस्कृत साहित्य का सम्बन्ध बताने की जरूरत नहीं है  .अफवाहों की तरह वेदों से विमानों के निर्माण की तकनीक उड़ाने वाले जर्मनों से सिर्फ व्यापार के शुभ -लाभ की बात सोचने वाले व्यापारियों को दूरदृष्टि की जरूरत नहीं है.तात्कालिक लाभ के लालच में उन्हें दूरगामी नीतियों की भी कोई जरूरत महसूस नहीं होती .सांस्कृतिक पर्यटन तो उनके ध्यान में ही नहीं आता जबकि भारतीय योग विद्या का बड़ा नेटवर्क इन देशों में काफी पहले से मौजूद है .भारत में जर्मन और संस्कृत शिक्षण के विवाद के संदर्भ में इस यात्रा का कोई अलग से महत्व हो सकता है क्या ?भाषा और धर्म की संकीर्ण राजनीति विश्व पटल पर कोई कारगर भूमिका निभा सकती है क्या ?अंदर और बाहर के भेद का पर्दा कब तक काम आ सकता है ?

मोदी की फ़्रांस और जर्मनी की इस यात्रा का  ऐसा कोई दूरगामी लक्ष्य नजर नहीं आता .क्या आपको आता है ?

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